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उववाइय सुत्त
घोर तपस्या करने से 'श्रमण' नाम से प्रसिद्ध थे। समस्त ऐश्वर्य से युक्त होने के कारण 'भगवान्' कहे जाते थे। देव आदि के द्वारा उपद्रव किये जाने पर भी अपने मार्ग पर वीरता से डटे रहे. अतः देव उन्हें 'महावीर' नाम से प्रतिष्ठित किये थे। केवल ज्ञान होने पर पहले पहल श्रुतधर्म के करने वाले होने से वे आदिकर्ता थे और साधु साध्वी श्रावक और श्राविका रूप चतुर्विध संघ रूप तीर्थ के स्थापक होने के कारण तीर्थकर थे। स्वयमेव-किसी की सहायता या निमित्त के बिना ही-उन्होंने बोध प्राप्त किया था। वे पुरुषों में उत्तम थे, क्योंकि उनमें सिंह के समान शौर्य का उत्कृष्ट विकास हआ था, पुरुषों में रहते हुए भी श्रेष्ठ सफेद कमल के समान सभी प्रकार की अशुभताएं-मलिनताएं, उनसे दूर रहती थी
और श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान, किसी क्षेत्र में उनके प्रविष्ट होते ही सामान्य हाथियों के समान परचक्र, दुर्भिक्ष, महामारी आदि दुरितों का विनाश हो जाता था। वे प्राणों को हरण करने में रसिक और उपद्रवों के करने वालों को भी भयभीत नहीं करते थे अथवा सभी प्राणियों के भय को हरण करने वाली दया के धारक थे-निर्भयता के दाता थे। चक्षु के समान श्रुतज्ञान के देने वाले थे। सम्यग्-दर्शन आदि मोक्षमार्ग के प्रदाता थे। उपद्रव से रहित स्थान के दायक थे और जीवन= अमरता रूप.भाव प्राण के दानी थे। वे दीपक के समान समस्त वस्तुओं के प्रकाशक अथवा द्वीप के समान संसार सागर में नाना प्रकार के दु:खों की लहरों के थपेड़ों से पीड़ित व्यक्तियों के लिए आश्वासन-धैर्य के कारण द्वीप रूप, अनर्थों के नाशक होने से त्राणरूप, उद्देश्य की प्राप्ति में कारण होने से शरणरूप, खराब अवस्था से उत्तम अवस्था में लाने वाली गति रूप और संसार रूपी खड्डे में गिरते हुए प्राणियों के लिये आधार रूप थे। चार अन्तों- तीन दिशाओं में समुद्र और उत्तर दिशा में हिमवान् पर्वत रूप किनारे वाली पृथ्वी के मालिक चक्रवर्ती के समान धर्म में श्रेष्ठ चक्रवर्ती रूप थे। क्योंकि वे अप्रतिहत-अचूक ज्ञान के और दर्शन के धारक थे, कारण-उनके ज्ञान आदि के आवरण-ज्ञानादि गुणों को दबाने वाले कर्म हट गये थे। अतः निश्चय ही राग और द्वेष को जीत लिया था। ज्ञायक भाव में रागादि के स्वरूप, उनके कारण और फल के ज्ञातृभाव में-स्थित थे। इसलिए मुक्त थे, मुक्त करने वाले थे। बोध को प्राप्त किये हुए थे और दूसरों को बोध कराने वाले थे। वे सर्वज्ञ-सर्वदर्शी उपद्रव से रहित, स्वाभाविक और प्रयोगजन्य चलन से रहित, नीरोग, अनन्त, सादि होते हुए भी नाश से रहित-अक्षय, बाधा-पीड़ा से रहित थे। अरहा-वे अर्हन्त थे अर्थात् वे अशोकादि अष्टमहाप्रातिहार्य रूप पूजा के योग्य थे तथा उनसे कोई बात छिपी हुई नहीं थी जिणे-'जयति राग द्वेषौ इति जिनः वे जिन थे अर्थात् राग द्वेष के विजेता थे। वे केवली थे। अर्थात् शुद्ध अनन्त ज्ञानादि के धारक थे, अतएव वे सर्वज्ञ थे और जहाँ से पुनः आगमन नहीं हो ऐसे "सिद्धिगति' नामवाले स्थान को पाने के लिए सहजभाव से विचरण कर रहे थे अर्थात् अभी ऐसे स्थान को प्राप्त नहीं हुए थे किन्तु उसे प्राप्त करने की प्रवृत्ति चालू थी।
भगवान् के शरीर का वर्णन सत्त-हत्थूस्सेहे, सम-चउरंस-संठाण-संठिए, वज-रिसह-णाराय-संघयणे,
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