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भगवान् महावीर का वर्णन
विवेचन - वृत्ति का परिमाण इस प्रकार बतलाया गया है - 'अर्द्धत्रयोदश-रजत सहस्वाणि यदाहमंडलियाणं सहस्सा पीइदाणं सयसहस्सा' अर्थात् वृत्ति का परिमाण साढ़े बारह हजार रजतमुद्राएँ (चांदी के सिक्के) हैं। क्योंकि कहा है "माण्डलिकों की ओर से वृत्ति हजारों की संख्या में और प्रीतिदान सौ-हजारों लाखों की संख्या में दिया जाता है। ..
९-तेणं कालेणं तेणं समएणं कोणिए राया भंभ-सार-पुत्ते बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए अणेगगण-णायग-दंडणायग-राईसर-तलवर-माडंविय-कोडंवियमंति-महामंति-गणग-दोवारिय-अमच्च-चेड-पीढमह-णगर-णिगम-सेट्ठि-सेणा-वइसत्यवाह-दूयसंधि-वाल-सद्धिं संपरिवुडे विहरइ।
कठिन शब्दार्थ - उवट्ठाणसालाए - उपस्थान शाला अर्थात् सभा भवन।।
भावार्थ - उस काल और उस समय में भंभसार-श्रेणिक का पुत्र कोणिक राजा, बाहरी सभा भवन में अनेक गणनायकों, दण्डनायकों-तंत्र के रक्षकों (कोतवाल) राजाओं, युवराजाओं, तलवरों अर्थात् राजा के द्वारा सम्मान सहित दिये गये रत्नपट्टक के धारक धनिकों, माडम्बिकों-दूर-दूर पर फैली हुई और बीच की भूमि में आस-पास बस्ती से रहित बस्तियों के स्वामियों, कुटुम्बों के आगेवानों, मन्त्रियों, महामन्त्रियों (मंत्रीमण्डल का प्रधान) गणकों-ज्योतिषियों अथवा खजांची, दौवारिकोंप्रतिहारों या दरवानों, अमात्यों-राज्य के अधिष्ठायकों, चेटों-सेवकों, परिपार्श्वकों या जी हजूरियों, नागरिकों, कर्मचारियों या व्यापारियों, श्रेष्ठियों-शिर पर 'श्री' देवता के चिह्नाङ्कित स्वर्णपट्ट के धारक चिनिकों, सेनापतियों, सार्थवाहों, व्यापारियों के समूह को साथ में लेकर व्यापारार्थ देश-विदेश में भ्रमण करने वालों दूतों और सन्धिपालों-राज्य-सीमा के रक्षकों से घिरा हुआ बैठा था।
भगवान् महावीर का वर्णन १०- तेणं कालेणं तेणं स्मएणं समणे भगवं महावीरे, आइगरे तित्थगरे (तित्थयरे) सहसंबुद्धे, पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरिसवर-पुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थी, अभयदए, चक्खुदए मग्गदए सरणदए जीवदए, दीवो ताणं सरणं गइ पइट्ठा धम्मबर-चाउरंत-चक्कवट्टी अप्पहिडय-वर-णाण-दसण-धरे वियदृच्छउमे जिणे जाणए तिण्णे तारए मुत्ते मोयए बुद्धे बोहए, सव्वण्णू सव्वदरिसी सिव-मयल-मरुअमणंत-मक्खय-मव्वावाह-मपुणरावत्तिअं सिद्धिगइ-णामधेयं ठाणं संपाविउकामे (अरहा जिणे केवली)।
भावार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी चम्पा के समीप पधारे। वे
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