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________________ अभिवन्दना की तैयारी ११३ भावार्थ - वहाँ बहुत प्रकार से रक्षादि की सैकड़ों कौतुक विधियों के द्वारा श्रेष्ठ कल्याणक मजन को समाप्त करने के बाद रोएंदार, सुकोमल, सुगन्धित और काषायित-हरड़े, बहेड़ा आदि कसीली औषधियों से रञ्जित अथवा काषाय-लाल वस्त्र से अंग पोंछा। फिर सरस सुरभित गोरोचन और चंदन से गात्र को लिप्त किया। ___अहयसुमहग्घदूसरयणसुसंवुए सुइमालावण्णग-विलेवणेआविद्धमणिसुवण्णे कप्पियहारद्धहारतिस-रयपालंबपलंब माणकडिसुत्तसुकयसोभे। भावार्थ - मल-मूषिकादि से अदूषित-अहत और बहुमूल्य दूष्यरत्न-प्रधानवस्त्र को उत्तम ढंग से पहना। पवित्र पुष्पमाला धारण की। कुंकुंमादि के शोभनीय विलेपन किये। मणिजटित सुवर्णालङ्कार पहने। गठित हार, अर्द्धहार-नवलड़ी का हार, त्रिसरक- तीन लड़िया हार, लम्बी लटकती हुई फूलमाला और कटिसूत्र- कंदोरा से शोभा की सुन्दरता से वृद्धि की। पिणद्धगेविजगअंगुलिजगललियंगयललिय-कयाभरणेवरकडगतुडियर्थभियभुए। भावार्थ - कण्ठले बांधे। अंगुठियाँ पहनी। इस प्रकार सुन्दर शरीर पर सुन्दर आभूषणों को धारण किये अथवा 'ललितांग' नामक देव के समान कोणिक राजा के केश और आभरण ललित थे। श्रेष्ठ कङ्कणों और तोड़ों से भुजाएँ स्तंभित हो गई थी। अहियरूवसस्सिरीए महिया पिंगलंगुलिए कुंडलउज्जोवियाणणे मउडदित्तसिरए हारोत्थय-सुकयरइयवच्छे। भावार्थ - इस प्रकार वह बहुत अधिक शोभा से युक्त हो गया। कुण्डलों की प्रभा से मुख दमकने लगा। मुकुट की कान्ति से. शिर दीप्त हो रहा था। हार के आच्छादन से वक्षस्थल रुचिर बना हुआ था। पालंबपलंबमाणपडसुकयउत्तरिजे णाणा-मणि-कणग-रयण-विमल-महरिहणिउणोवियमिसिमिसंत-विरइय-सुसिलिट्ठ-विसिट्ठ-लट्ठ-आविद्ध-वीरवलए। . भावार्थ - लम्बे लटकते हुए या झुम्बमान वस्त्र के उत्तरीय- ऊपर का वस्त्र को सुन्दर ढंग से धारण किया। श्रेष्ठ शिल्पी के द्वारा निर्मल और बहुमूल्य विविध मणि, स्वर्ण और रत्नों से चतुराई से परिकर्मित-कलात्मक बनाये गये, सुश्लिष्ट-जहाँ मजबूत जोड़ चाहिए वहाँ मजबूत जोड़ वाले, विशिष्ट मनोहर और देदीप्यमान वीर वलय-वीरत्व सूचक कड़े पहने। विवेचन - 'यदि अन्य कोई भी सुभट वीर है, तो वह इन वलयों का मोचन करके मुझको हराये'-इस प्रकार स्पर्धा करते हुए जिन कडों को पहना जाता है उन्हें 'वीर वलय' कहते हैं। किं बहुणा ? कप्परुक्खए चेव अलंकियविभूसिए णरवई सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं चउचामरवाल-वीजियंगे मंगलजयसद्दकयालोए मजणघराओ पडिणिक्खमइ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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