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________________ १२४ उववाइय सुत्त भावार्थ - बहुत-सी कुब्जाओं से यावत् घिरी हुई, जहां श्रमण भगवान् महावीर स्वामी थे, वहाँ आयीं और पांच अभिगम सहित उनके सन्मुख गई। यथा - १. सचित्त द्रव्यों को छोड़ना, २. अचित्त द्रव्यों को नहीं छोड़ना, ३. विनय से देह को झुकाना, ४. चक्षुःस्पर्श होने पर हाथ जोड़ना और ५. मन को एकाग्र करना। समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति। वंदंति। णमंसंति। वंदित्ता णमंसित्ता कोणियरायं पुरओ कट्ट ठिइयाओ चेव सपरिवाराओ अभिमुहाओ विणएणं पंजलिउडाओ पज्जुवासंति।। भावार्थ - फिर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी की तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा की। वन्दना की। नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके कोणिकराजा को आगे रखकर, परिवार सहित स्थित होकर, भगवान् की ओर मुख रख कर, विनय से करबद्ध होकर पर्युपासना करने लगीं। विवेचन - 'ठिइयाओ' का टीकाकार ने 'ऊर्ध्वस्थिता' अर्थात् 'खड़ी हुई' अर्थ किया है। तो उन रानियों ने ऐसा भक्तिभाव से किया था? या समवसरण में स्त्रियों को बैठने का अधिकार नहीं था?-और ऐसा था तो क्यों?-न इसका रहस्य समझ में आया और न कहीं इसका स्पष्टीकरण ही देखने में आया। - विचार करने पर यह अर्थ उचित नहीं लगता है। मूल पाठ में भी ऐसे अर्थ का भास नहीं होता है और सभा-विसर्जन के समय का पाठ तो इस अर्थ से बिलकुल विपरीत अर्थ को बतला रहा है। वहां सुभद्रा प्रमुख देवियों के लिए, 'उठाए उद्वित्ता' शब्दों के प्रयोग की कुछ भी आवश्यकता नहीं थी। अतः यह अर्थ ठीक लगता है कि - कोणिकराजा को आगे करके...वहीं पर ठहरी अर्थात् कोणिकराजा आगे और वे पीछे ठहरीं। _ 'उहाए-उद्वित्ता' शब्द का अर्थ पहले बैठी हुई थी सो फिर खड़ी हुई। यदि रानियाँ पहले से ही खड़ी रहीं हुई होती तो उठने की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि वो पहले ही खड़ी थी। दूसरी बात यह है कि, तीर्थंकर भगवान् के समवसरण में तिर्यंच और तिर्यंचणियाँ भी आती है। यदि स्त्रियों को बैठने का अधिकार न होकर खड़ी रहने का ही नियम हो तो उरपरिसर्पिनी और भुजपरिसर्पिनी कैसे खड़ी रह सकती है ? अर्थात् खड़ी नहीं रह सकती है। अतः स्त्रियाँ खड़ी रहकर ही व्याख्यान सुन सकती है ऐसा कहना आगम सम्मत नहीं है। भगवान् महावीर स्वामी की धर्म देशना ३४-तएणंसमणेभगवंमहावीरेकूणियस्सरण्णोभंभसारपुत्तस्स, सुभद्दाप्पमुहाणं देवीणं तीसे य महइ महालियाए परिसाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए अणेगसयाए अणेगसयवंदए अणेगसयवंदपरियालाए ओहबले अइबले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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