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________________ भगवान् महावीर स्वामी की धर्म देशना १२५ महब्बले अपरिमियबलवीरियतेयमाहप्पकंतिजुत्ते सारयणवत्थणिय महुरगंभीरकोच णिग्योसदंदुभिस्सरे उरे वित्थडाए, कंठेऽवट्ठियाए, सिरे समाइण्णाए, अगरलाए अमम्मणाए फुडविसयमहुरगंभीरगाहियाए सव्वक्खरसण्णिवाइयाए पुण्णरत्ताए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सइए जोयणणीहारिणासरेणं अद्धमागहाए भासाए भासति अरिहा धम्म परिकहेइ। ___भावार्थ - तब ओघबली-सदा समान बलवाले, महाबली- प्रशस्त बलवाले, अपरिमित शारीरिक शक्ति-बल शारीरिक प्राण, वीर्य-आत्म जनित बल, तेज, माहात्म्य-महानुभावता और कान्ति से युक्त और शरद ऋतु के नव-मेघ की मधुर-गंभीर ध्वनि, क्रौंच पक्षी के निर्घोष और दुंदुभि-नाद के समान स्वर वाले उन श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने भंभसारपत्र कोणिक को, सुभद्रा आदि देवियों को, कई सौ कई सौ वृन्द और कई सौ वृन्द परिवार वाली उस अति विशाल परिषद् को, ऋषि-अतिशय ज्ञानी साधु परिषद् को, मुनि-मौनधारी साधु परिषद् को, यति-चरण में उद्यत साधु परिषद् और देव परिषद् को, हृदय में विस्तृत होती हुई, कण्ठ में ठहरती हुई, मस्तक में व्याप्त होती हुई, अलग-अलग निज स्थानीय उच्चारणवाले अक्षरों से युक्त, अस्पष्ट उच्चारण से रहित या हकलाहट से रहित, उत्तम स्पष्ट वर्ण-संयोगो योगों से युक्त, स्वरकला से संगीतमय और सभी भाषाओं में परिणत होनेवाली सरस्वती के द्वारा, एक योजन तक पहुँचने वाले स्वर से, अर्धमागधी भाषा में धर्म को पूर्णरूप से कहा। तेसिं सव्वेसिं आयरियमणारियाणं अगिलाए धम्ममाइक्खइ। साऽविय णं अद्धमागहा भासा, तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणामेणं परिणमड़। - भावार्थ - उन सभी आर्य-अनार्यों को अग्लानि से-तीर्थङ्कर नामकर्म के उदय से अनायास: बिना थकावट के धर्म कहा। वह अर्द्धमागधी भाषा भी, उन सभी आर्य-अनार्यों की अपनी-अपनी स्वभाषा में परिवर्तित हो जाती थी। तं जहा-अस्थि लोए।अस्थि अलोए। एवं जीवा अजीवा, बंधे मोक्खे, पुण्णे पावे, आसवे संवरे, वेयणा, णिजरा, अरिहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, णरगा, णेरइया, तिरिक्खजोणिया, तिरिक्खजोणिणीओ, माया, पिया, रिसओ, देवा, देवलोया, सिद्धी, सिद्धा, परिणिव्वाणं, परिणिव्वुया। भावार्थ - वह धर्मकथा इस प्रकार है - 'लोक हैं। अलोक है। इसी प्रकार जीव-अजीव, बन्ध-मोक्ष, पाप-पुण्य, आस्रव-संवर, वेदना-निर्जरा, अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव-वासुदेव, नरकनैरयिक, तिर्यञ्चयोनिक-तिर्यञ्चयोनिका, माता-पिता, ऋषि, देव-देवलोक, सिद्धि-सिद्ध और परिनिर्वाणपरिनिर्वृत हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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