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________________ १२६ उववाइय सुत्त विवेचन - शून्यवाद के निरसन के लिए लोक और अलोक के अस्तित्त्व का प्रतिपादन है। जीव के अस्तित्त्व के प्रतिपादन से लोकायत नास्तिक चार्वाक मत का खण्डन होता है अर्थात् जड़-अद्वैतवाद का खण्डन होता है और अजीव के अस्तित्त्व की मान्यता से आत्मा-अद्वैतादि वाद का खण्डन होता है। बंध और मोक्ष के प्रतिपादन से इस मत का निषेध हो जाता है कि - 'नाना आश्रया प्रकृति ही बद्ध और मुक्त होती है, न कि आत्मा।' 'पाप की ही हानि-वृद्धि सुख-दुःख में कारण है या पुण्य की वृद्धिहानि। अतः पाप ही है या पुण्य ही है' - इस एकान्त मान्यता पर, पाप-पुण्य का प्रतिपादन खण्डन करता है और इस मान्यता का भी कि- 'जगत-वैचित्र्य का कारण एक मात्र स्वभाव ही है। आस्रव और संवर के अस्तित्व से बन्ध-मोक्ष की निष्कारणता का प्रतिषेध होता है या वीर्य की प्रधानता का उद्घोष। वेदना (कर्म का अनुभव या पीड़ा) और निर्जरा (देशतः कर्मक्षय) के अस्तित्त्व से 'बिना भोगे कर्म क्षीण नहीं होते हैं' - इस बात का प्रतिपादन होता है। अरिहन्त, चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेव इन चार की सत्ता का कथन, उनके अतिशायित्त्व (जगत् श्रेष्ठत्व) को अविश्वास की दृष्टि से देखने वालों में, उस विषय में श्रद्धा उत्पन्न कराने के लिए है। 'प्रमाण ग्राह्य नहीं होने से नरकादि नहीं है' इस मत का निषेध, नरक-नैरयिक के अस्तित्त्व से होता है। तिर्यंच आदि के प्रतिपादन से यह मत खण्डित हो जाता है कि 'प्रत्यक्ष प्रमाण की भ्रान्ति के कारण, यह कुवासनादि जन्य तिर्यगादि-प्रतिभास है। वस्तुत: उनकी सत्ता नहीं है।' माता-पिता के अस्तित्व के कथन से उनकी उपकारिता का निर्देश होता है और इस मत का खण्डन होता है कि - 'माता-पिता जनकता की अपेक्षा से कहे जाते हैं। तो फिर जूं, कृमि, गण्डोलक आदि को आश्रय करके भी यह व्यवहार होना चाहिए। क्योंकि वे भी अंगज है। किन्तु ऐसा होता नहीं है। इसलिए यह माता-पितृ रूप व्यवहार वास्तविक नहीं है।' 'ऋषि' की सत्ता से-'पुरुषों के , रागादि वाले होने के कारण कोई भी अतीन्द्रिय पदार्थों का दृष्टा नहीं हो सकता है' इस मत का खण्डन होता है। 'देव नहीं है-प्रत्यक्ष नहीं होने से'-इस मत का खण्डन देव-सत्ता के कथन से होता है। इसी प्रकार के मतों की भ्रान्ति हटाने के लिए सिद्धि-सिद्धालय एवं मोक्ष-सिद्ध और परिनिर्वाण-परम शान्ति-परिनिर्वृत्त अर्थात् परिनिर्वाण-मोक्ष को प्राप्त हुए सिद्ध जीव का कथन है। अस्थि पाणाइवाए मुसावाए अदिण्णादाणे मेहुणे परिग्गहे। अत्थि कोहे माणे माया लोभे....जाव मिच्छा-दसणसल्ले। भावार्थ - प्राणातिपात-प्राणघात, हिंसा, मृषावाद-असत्य, अदत्तादान-चोरी, मैथुन और परिग्रह है। क्रोध, मान, माया, लोभ यावत् मिथ्यादर्शन शल्य है। विवेचन - १. 'प्राणातिपात आदि कर्म बन्ध के हेतु नहीं है। क्योंकि बन्धनीय-बन्धने योग्य जीव का अभाव है'-इस मत का खण्डन प्राणातिपात आदि की सत्ता के कथन से होता है। २. 'जाव' शब्द से इन पदों का संग्रह होता है - 'पेजे दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुण्णे परपरिवाए अरइरई मायामोसे।' प्रेम-अप्रकट माया और लोभ से व्यक्त होने वाला रोचकभाव, द्वेषअप्रकट मान और क्रोध से व्यक्त होने वाला अरोचक भाव, कलह-राटि, राड़, अभ्याख्यान-असत्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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