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________________ अम्बड़ परिव्राजक के सात सौ शिष्य १५७ देवार्चन के लिए वृक्ष के पत्तों को खींचने का साधन, केशरिका-प्रमार्जन के लिए वस्त्रखण्ड, पवित्रकताम्बे की अंगूठी, गणेत्रिक-हस्ताभरण विशेष, छत्र, पादुकाएँ और गैरिकवस्त्र एकान्त में छोड़कर गंगा महानदी को पार करके या नदी में प्रवेश करके, बालुका का संस्तारक-बिछौना करके, संलेखना-देह और विचारों के विरोधक संस्कार को क्षीण करने की क्रिया का सेवन करते हुए, भात-पानी का त्याग करके, वृक्ष की कटी हुई डाली के समान पादपोपगमन संथारा करके मरण की इच्छा नहीं करते हुए शान्त चित्त से रहें। त्तिकट्ट अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढेपडिसुणंति।जाव पडिसुणित्ता, तिदंडए जाव एगंते एडेइ। एडित्ता गंगं महाणइं ओगाहेंति। ओगाहित्ता वालुयासंथारए संथरंति। . भावार्थ - इस प्रकार यह बात एक-दूसरे के कर्णोपकर्ण सुनी। सुनकर त्रिदण्ड आदि को एकान्त में छोड़े। गंगा महानदी में प्रवेश किया। रेत का संस्तारक-बिछौना बनाया। ___वालुयासंथारयं दुरुहिंति। दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहा संपलियंकणिसण्णा करयल जाव कट्ट एवं वयासी__ भावार्थ - रेत के संस्तारक पर बैठे। पूर्वाभिमुख पद्मासन से बैठ कर, हाथ जोड़ कर यावत् इस प्रकार बोले णमोत्थु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं। णमोत्थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स। णमोत्थु णं अम्मडस्स परिव्वायगस्स अम्हं धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स। . भावार्थ - अर्हन्त भगवान् को नमस्कार हो यावत् सिद्धि स्थान पर पहुँचे सिद्ध भगवन्तों को नमस्कार हो, नमस्कार हो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को जो निकट भविष्य में सिद्धिस्थान प्राप्त करने वाले हैं, हमारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक अम्बड परिव्राजक को नमस्कार हो' : पुचि णं अम्हे अम्मडस्स परिव्वायगस्स अंतिए थूलगपाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए। धूलग मुसावाए अदिण्णादाणे पच्चक्खाए जावजीवाए। सब्वे मेहुणे पच्चक्खाए जावज्जीवाए।थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए जावजीवाए। ... भावार्थ - पहले हमने 'अम्बड' परिव्राजक के पास जीवन भर के लिए स्थूल प्राणातिपात, स्थूल मृषावाद, अदत्तग्रहण, सर्व मैथुन तथा स्थूल परिग्रह का त्याग किया था। __ इयाणिं अम्हे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाइवायं पच्चक्खामो जावज्जीवाए। एवं जाव सव्वं परिग्गहं पच्चक्खामो जावज्जीवाए। सव्वं कोहं माणं 'मायं लोहं पेजं दोसं कलहं अब्भक्खाणं पेसुण्णं परपरिवायं अरइरई मायामोसं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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