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________________ देवों का आगमन ३ भावार्थ - जिनवर-राग द्वेष से रहित व्यक्तियों में श्रेष्ठ-के वचनों से उपदिष्ट मार्ग के द्वारा, वे श्रेष्ठ श्रमण सार्थवाह सिद्धि रूप महापट्टण-बड़े बन्दरगाह की ओर मुख रखकर सीधी गति से संयम पोत के द्वारा जा रहे थे। सुसुइ-सुसंभास-सुपण्ह-सासा। . भावार्थ - वे सम्यक्श्रुत-सत्सिद्धान्त ग्रन्थ, सुसंभाषण, सुप्रश्न और शोभन आशावाले थे अथवा सम्यक्श्रुत, सुसंभाषण और सुप्रश्न के द्वारा शिक्षा के दाता थे। गामे गामे एगरायं, नगरे नगरे पंचरायं दूइजंता जिइंदिया णिब्धया गयभया, सचित्ताचित्त-मीसिएसु दव्वेसु विरागयं गया संजया (संचयाओ) विरया मुत्ता लहुया णिरवकंखा साहु णिहुया चरंति धम्म। भावार्थ - वे अनगार, गांवों में एक रात्रि और नगरों में पांच रात्रि तक निवास करते हुए, जितेन्द्रिय-इन्द्रियों को जीतने वाले, निर्भय-भय मोहनीय के उदय को रोकने वाले, गत भय-भय के उदय को निष्फल करने वाले होकर, सचित्त-जीव सहित, अचित्त- निर्जीव और मिश्र-सजीव और निर्जीव अंश वाले द्रव्यों में वैराग्यवान् संयत-सम्यक् यत्न वाले, विरत-हिंसादि से निवृत्त, मुक्त-ग्रन्थि रहित-अनासक्त, लघुक-हलके, अल्प उपधिवाले निरवकांक्ष-अप्राप्त पदार्थ की आकांक्षा से रहित साधु-मोक्ष के साधक और निभृत- प्रशान्त वत्तिवाले होकर धर्म का आचरण करते थे। विवेचन - इस सूत्र में संसार सागर का और उसे तैरने का सांगोपांग वर्णन किया गया है। पहले सूत्रों में जितेन्द्रियादि विशेषण आ चुके हैं। पुन: इस सूत्र में भी ये विशेषण आये हैं। किन्तु इसे पनरुक्ति दोष नहीं समझना चाहिए। क्योंकि यह अनगार के गुणों का कीर्तन है। गुणवर्णन या स्तुति आदि में पुन:पुनः गुणवर्णन दूषण नहीं माना जाता है। जैसा कि टीका में कहा है - - ... सज्झाय-झाण-तव-ओसहेसु, उवएसु थुइ-पयाणेसु। संत-गुण-कित्तणासु य, ण हुंति पुनरुत्त दोसा उ॥ - - दूसरी बात कहीं श्रमणत्व गुण के व्याख्यान में तो कहीं स्थविरों के लक्षणों के कथन में ये विशेषण आये हैं। अत: थोड़ा बहुत अर्थ में अन्तर अवश्य रहता है और भिन्न व्यक्तित्वों के विषय में कथन होने से भी पुनरुक्ति दोष नहीं माना जा सकता है। देवों का आगमन २२- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे असुरकुमारा देवा अंतियं पाउब्भवित्था। भावार्थ - उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप बहुत से असुरकुमार देव प्रकट हुए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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