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________________ १३४ उववाइय सुत्त धम्मं णं आइक्खमाणा तुब्भं उवसमं आइक्खह। उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह। विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह। वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह। भावार्थ - हे भगवन् ! आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम-क्रोधादि के निरोध का व्याख्यान किया। उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक-बाह्य परिग्रह या बहिर्भाव के त्याग का स्वरूप कहा। विवेक की व्याख्या करते हुए विरमण-मन की निवृत्ति अथवा निज स्वरूप में लौटने की प्रक्रिया का कथन किया और विरमण की व्याख्या करते हुए पापकर्मों-अशुभ भाव आत्मा की मलिन अवस्था में गति को नहीं करने का कहा। विवेचन - पापों का अकरण, विरमण, विवेक और उपशम ये क्रियात्मक धर्म के प्रमुख अंग हैं। क्रियात्मक धर्म पापकर्मों के त्याग से प्रारम्भ होकर, उपशम में प्रतिष्ठित होता है। णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए। किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ! भावार्थ - आपके सिवाय अन्य कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं है। जो ऐसा धर्म कह सके। तो फिर इससे बढ़ कर धर्म का उपदेश कौन दे सकता है ? अर्थात् कोई नहीं। एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। भावार्थ - इस प्रकार कहकर, जिस दिशा से आये थे, उसी दिशा में वापिस गये। कोणिक राजा और रानियों का वापिस गमन .३६- तए णं कूणिए राया भंभसारपुत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा णिसम्म हट्टतुटु जाव हियए उठाए उडेइ। उट्टाए उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करित्ता वंदइ णमंसइ। वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-सुयक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे जाव किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं? एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। भावार्थ - इसके बाद भंभसार श्रेणिक के पुत्र उस कोणिक राजा ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास में धर्मोपदेश सुनकर एवं उसका अच्छी तरह पूर्वापर विचार कर एवं हृदय में धारण कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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