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________________ कोणिक राजा और रानियों का वापिस गमन चित्त में अधिक से अधिक आनन्द और संतोष प्राप्त किया। फिर अपने स्थान से उठा । उठकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा की। वैसा करके वंदना नमस्कार किया । वन्दना नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला कि - हे भगवन् ! आप द्वारा सुआख्यात - सुन्दर रूप से कहा गया। सुप्रज्ञप्त - सुन्दर रीति से समझाया गया सुभाषित। हृदय स्पर्शी भाषा में प्रतिपादित किया गया । निर्ग्रन्थ प्रवचन रूप धर्मोपदेश सर्वप्रधान और सर्वश्रेष्ठ है इससे श्रेष्ठ और प्रधान धर्म के उपदेश की तो बात ही कहां अर्थात् इससे बढ़कर प्रधान और श्रेष्ठ धर्म आप वीतराग के सिवाय दूसरा कोई कह ही नहीं सकता है। ऐसा कहकर कोणिक राजा जिधर से आया था उधर लौट गया अर्थात् अपने महलों की तरफ चला गया। १३५ ३७ - तए णं ताओ सुभद्दापमुहाओ देवीओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंति धम्मं सोच्चा- णिसम्म हट्ठतुट्ठ जाव हिययाओ.......उट्ठाए उट्ठित्ता - समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति । करित्ता नंदंति णमंसंति । वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी- सुयक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे जाव किमंग पुण इत्तो उत्तरतरं ? एवं वदित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूयाओ तामेव दिसिं पडिंगयाओ। समोसरणं सम्मत्तं । Jain Education International भावार्थ - इसके बाद वे सुभद्रा प्रमुख रानियाँ श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्म सुनकर एवं उसे हृदय में धारण कर बहुत ही अधिक प्रसन्न और संतुष्ट हुई। फिर अपने स्थान से उठ कर खड़ी हुई। खड़ी होकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण- प्रदक्षिणा कर वन्दना नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोली कि - 'हे भगवन् ! आपने इस निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश बहुत ही सुन्दर ढंग से दिया। अच्छी तरह से समझाया यावत् इससे बढ़ कर प्रधान और श्रेष्ठ धर्म का उपदेश आप वीतराग के सिवाय कौन दे सकता है, अर्थात् कोई नहीं दे सकता है। ऐसा कह कर सुभद्रा प्रमुख आदि रानियाँ जिधर से आई थी उधर चली गई अर्थात् अपने महलों की तरफ चली गई। यह औपपातिक सूत्र का समवसरण नामक पूर्वार्द्ध सम्पूर्ण हुआ । ॥ इति ॥ ॥ समवसरण वर्णन समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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