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________________ उववाइय सुत्त संघाएणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए इड्डिए, दिव्वाए जुत्तिए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाए, दिव्वाए अच्चिए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेसाए, दस दिसाओ उजोवेमाणा, पभासेमाणा, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं आगम्मागम्म, रत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेड। भावार्थ - वे देव दिव्य वर्ण, दिव्य गन्ध, दिव्य रूप, दिव्य स्पर्श, दिव्य संहनन-शारीरिक गठन, दिव्य संस्थान-आकार, दिव्य ऋद्धि, दिव्य द्युति, दिव्य प्रभा, दिव्य छाया-कान्ति, दिव्य अर्चि- शरीरस्थ रत्नादि की तेजोज्वाला, दिव्य तेज और दिव्य लेश्या- शारीरिक वर्ण से दशों दिशाएँ प्रकाशित करते हुए-शोभायमान करते हुए, भगवान् महावीर के समीप में बारम्बार आ-आ कर अनुराग सहित श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा करते थे। विवेचन - यहाँ देवों में "दिव्य संहनन' कहा है, उसका आशय यहाँ पर यह है-हड्डियों की रचना विशेष को संहनन कहते हैं। यह औदारिक शरीर की अपेक्षा समझना चाहिये। देवों का शरीर वैक्रिय होने से उसमें हड़ियाँ नहीं होती हैं। अतः यहाँ हड़ियों की रचना रूप संहनन नहीं समझना चाहिए, किन्तु उनकी शक्ति विशेष की अपेक्षा शरीर की दृढता होने से संहनन की तरह दिखाई देने से 'दिव्य संहनन' बतलाया है। टीकाकार ने 'वज्र ऋषभनाराच' अर्थ किया है. इसका यही अर्थ समझना चाहिए कि वज्रऋषभनाराच की तरह दृढ़। करेत्ता. वंदंति णमंसंति। वंदित्ता णमंसित्ता साइं साइं णाम गोयाइं साविंति णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा पज्जुवासंति। वन्दना नमस्कार करते थे और अपना-अपना नाम और गोत्र बतलाते थे। फिर न अधिक नजदीक न अधिक दूर स्थित रहकर भगवान् की ओर मुख रख कर, विनय सहित दोनों हाथ जोड़ कर पर्युपासना कर रहे थे। भवनपति देवों का वर्णन २३- तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे असुरिंदवजिया भवणवासी देवा अंतियं पाउब्भवित्था-णागपइणो सुवण्णा, विजू अग्गीया दीवा उदही दिसाकुमारा य पवणथणिया य भवणवासी। णागफडा- गरुल-वयर-पुण्णकलस-सीह हयवर, गयंक मयरंक वरमउड वद्धमाण-णिजुत्त विचित्त-चिंधगया सुरूवा महिड्डिया सेसं तं चेव जाव पज्जुवासंति। । भावार्थ - उस काल और उस समय में, श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समीप, असुरेन्द्र को छोड़कर, अन्य बहुत से नागकुमार, सुवर्णकुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, उदधिकुमार, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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