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________________ आवर्जीकरण का स्वरूप १८५ पूर्व-पश्चिमवर्ती-आत्म-प्रदेशों को संहृत करके, दण्डस्थ करते हैं और आठवें समय में दण्डवत्ऊपर-नीचे-वर्ती आत्म-प्रदेशों को संहत करते हैं। इसके बाद शरीरस्थ हो जाते हैं अर्थात् समुद्घात करने से पहले जैसा मौलिक शरीर था वैसा हो जाते हैं। से णं भंते ! तहा समुग्घायं गए किं मणजोगं जुंजइ? वयजोगं जुंजइ? कायजोगं जुंजइ? गोयमा ! णो मणजोगं जुंजइ। णो वयजोगं जुंजइ। कायजोगं जुंजइ। भावार्थ - हे भन्ते ! समुद्घात को प्राप्त केवली क्या मानसिक क्रिया करते हैं ? या वाचिक क्रिया करते हैं ? या कायिक क्रिया करते हैं? हे गौतम ! मानसिक क्रिया नहीं करते हैं। किन्तु कायिक क्रिया करते हैं अर्थात् मन योग और वचन योग को नहीं रोकते हैं परन्तु काय योग को रोकते हैं। कायजोगं जुंजमाणे किं ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ? आरोलियमिस्स सरीरकायजोगं जुजइ? वेउव्विय सरीरकायजोगं झुंजइ? वेठब्वियमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ? आहारग-सरीरकायजोगं जुंजइ आहारगमिस्स-सरीरकायजोगं जुंजइ? कम्मग सरीरकायजोगं जुंजइ? भावार्थ - हे भगवन् ! कायिक क्रिया करते हुए अर्थात् काय योग को करते हुए क्या औदारिक शरीर-शेष पुद्गलों की अपेक्षा स्थूल पुद्गलों से बने हुए शरीर-से कायिक क्रिया करते हैं? या औदारिक मिश्र शरीर-कार्मण और औदारिक दोनों शरीरों से एक साथ-से या वैक्रिय शरीर-विशिष्ट कार्य करने में सक्षम सूक्ष्म पुद्गलों से बने हुए शरीर से या वैक्रियमिश्र-कार्मण या औदारिक से मिश्रित वैक्रिय-शरीर से या आहारक-विशिष्ट तर पुद्गलों से निष्पन्न शरीर से या आहारकमिश्र-औदारिक से मिश्रित आहारक शरीर से या कार्मण-शरीर से कायिक क्रिया करते हैं ? अर्थात् काययोग का प्रयोग करते हैं। गोयमा ! ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ। ओरालियमिस्स-सरीरकायजोगंपि जुंजइ। णो वेउब्वियसरीरकायजोगं जुंजइ। णो वेउव्वियमिस्स-सरीरकायजोगं जुंजइ। णो आहारगसरीर कायजोगं-जुंजइ। णो आहारगमिस्ससरीरकायजोगं जुंजइ। कम्मगसरीरकायजोगं पि जुंजइ। ___भावार्थ - हे गौतम ! औदारिक शरीर से कायिक क्रिया करते हैं और औदारिक मिश्र शरीर से भी कायिक क्रिया करते हैं। वैक्रिय शरीर से, वैक्रिय मिश्र शरीर से, आहारक शरीर से और आहारकमिश्र शरीर से कायिक क्रिया नहीं करते हैं। कार्मण शरीर से भी कायिक क्रिया करते हैं। पढमट्ठमेसु समएसु ओरालियसरीरकायजोगं जुंजइ। बिइयछट्ठसत्तमेसु समएसु ओरालियमिस्ससरीरकाय जोगं जुंजइ।तईयचुत्थपंचमेहिं कम्मगसरीरकायजोगं जुंजइ। भावार्थ - पहले और आठवें समय में औदारिक शरीर से कायिक क्रिया करते हैं। दूसरे, छठे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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