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उववाइय सुत्त
अकित्ता णं समुग्घायं, अणंता केवली जिणा। जरामरणविष्यमुक्का, सिद्धिं वरगइं गया॥१॥
भावार्थ - हे भन्ते ! क्या सभी केवली भगवान् केवली समुद्घात करते हैं ? हे गौतम ! यह अर्थ .. समर्थ नहीं है अर्थात् सभी केवली भगवान् केवली समुद्घात नहीं करते हैं। क्योंकि
बिना किये समुद्घात, अनन्ता केवली जिन। हो जन्म-मृत्यु से मुक्त, सिद्धि सुगति को गये।
केवली समुद्घात के बिना ही अनन्त केवली जन्म-मरण के दुःखों से रहित होकर सिद्धि गति को प्राप्त हुए हैं।
आवर्जीकरण का स्वरूप कइ समइए णं भंते ! आउजीकरणं पण्णत्ते ? - गोयमा ! असंखेजसमइए अंतोमुहत्तिए पण्णत्ते।
भावार्थ - हे भन्ते ! आवर्जीकरण कितने समय का होता है ? हे गौतम ! असंख्यात समय के अन्तर्मुहूर्त का होता है।
विवेचन - उदीरणावलिका में कर्म के प्रक्षेप की क्रिया को आवर्जीकरण कहते हैं। अर्थात् अपनी आत्मा को मोक्ष के सन्मुख करना आवर्जीकरण कहलाता है।
केवली समुग्घाए णं भंते ! कइ समइए पण्णले ? गोयमा ! अद्वसमइए पण्णत्ते।
भावार्थ - हे भन्ते ! केवलि-समुद्घात कितने समय की होती है ? हे गौतम ! आठ समय की होती है।
तं जहा-पढमे समए दंडं करे। बिइए समए कवाडं करेइ। तईए समए मंथं करेइ। चउत्थे समए लोयं पूरेइ। पंचमे समए लोयं पडिसाहरइ। छटे समए मंथं पडि-साहरइ। सत्तमेसमएकवाडंपडिसाहरइ।अट्ठमेसमएदंडंपडिसाहरइ।तओपच्छासरीरत्थे भवइ।
भावार्थ - पहले समय में ऊँचे और नीचे लोकान्त तक अपने जीवप्रदेशों को, ज्ञानाभोग-ज्ञान द्वारा होने वाली जानकारी से अपने शरीर जितने मोटे, दण्डाकार बनाते हैं। दूसरे समय में दण्डवत् बने हुए आत्मप्रदेशों को किवाड़ की तरह आजुबाजु पूर्वापर दिशा में फैलाते हैं। तीसरे समय में कपाटवत् बने हुए आत्म-प्रदेशों को दक्षिण-उत्तर दिशा में फैलाते हैं-जिससे मथानी जैसा आकार हो जाता है। चौथे समय में लोक-शिखर सहित मन्थान के आंतरों को पूरते हैं। पांचवें समय में मन्थान के आंतरों के पूरक लोक-आत्म-प्रदेशों को संहृत करते हैं। अर्थात् मन्थानवत् कर देते हैं। छठे समय में मन्थानवत्दक्षिणोत्तर दिशावर्ती आत्म- 'प्रदेशों को संडत करके. कपाटवत् कर देते हैं। सातवें समय में कपाटवत्
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