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वहाँ स्थित सिद्ध का स्वरूप
अर्थ - जिस जगह से जीव सिद्ध होता है वहीं से ऋजु गति के द्वारा सीधा मोक्ष में चला जाता है। वह एक समय की ऋजु गति है इसलिए बीच के आकाश प्रदेशों को स्पर्श नहीं करता है, क्योंकि आयुष्य आदि चार कर्मों का क्षय का समय और निर्वाण का समय एक है। इसलिए बीच में समय का अभाव होने से अन्तराल के आकाश प्रदेशों का स्पर्श भी नहीं होता है।
इसके आगे टीकाकार ने लिख दिया है कि - 'सूक्ष्मश्चायमर्थ केवलिगम्यो भावत् इति।' यह विषय अति सूक्ष्म है इसलिए इसका रहस्य तो केवली भगवान् ही जानते हैं।
- वहाँ स्थित सिद्ध का स्वरूप ते णं तत्थ सिद्धा हवंति-सादीया अपज्जवसिया असरीरा जीवघणा दसणणाणोवउत्ता णिट्ठियट्ठा णिरेयणा णीरया णिम्मला वितिमिरा विसुद्धा सासयमणागयद्धं कालं चिटुंति।
भावार्थ - वहाँ लोकाग्रपर वे सिद्ध होते हैं। आदि सहित, अन्त रहित, शरीर रहित, जीवघन, ज्ञान और दर्शन रूप साकार और अनाकार उपयोग से युक्त सब प्रयोजनों से निवृत्त, कम्पन से रहित निश्चल, बद्ध्यमान-रजरूप आते हुए कर्मों से रहित, पूर्वबद्ध कर्मों से मुक्त, अज्ञान से रहित और विशुद्ध-अमिश्रित शुद्ध जीव स्वरूप वाले होकर, अनागत अद्धाकाल भविष्य काल में शाश्वतअविनश्वर रहते हैं।
विवेचन - कई अन्य मतावलम्बियों की सिद्ध स्थान विषयक मान्यता इस प्रकार है -
'रागादि वासना से मुक्त सिद्धों की स्थिति का कोई नियत स्थान नहीं है। या 'मुक्त व्योमवत् . सर्वत्र स्थित रहते हैं। यथा
‘रांगादि वासना मुक्त, चित्तमेव निरामयम्। सदानियत देशस्थं, सिद्ध इत्यभिधीयते॥ अथवा - गुणसत्त्वान्तरज्ञानानिवृत्त प्रकृति क्रियाः। . मुक्ता:सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्योमवत्तापवर्जिताः॥
सिद्धि-स्थान विषयक इन मान्यताओं का निराकरण करने के लिये 'तत्थ'-तत्र-लोकाग्र पर शब्द का प्रयोग हुआ है।
कई शरीरधारियों को भी सिद्ध मानते हैं। यथा
अणिमाघष्टविधं प्राप्यैश्वर्य कृतिनःसदा। . मोदन्ते निवृतात्मानस्तीर्णाः परम दुस्तरम्
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