SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३० उववाइय सुत्त भावार्थ - आकाशवर्ती धर्मचक्र, आकाशवर्ती तीन छत्र, आकाशवर्ती या ऊपर उठते हुए सफेद चामर, विशिष्ट सफेद चामर पादपीठ-पैर रखने की चौकी-सहित, आकाश के समान स्वच्छ, स्फटिकमय सिंहासन और आगे-आगे चलते हुए धर्मध्वज (चौदह हजार साधु और छत्तीस हजार आर्यिकाएं) के साथ घिरे हुए तीर्थंकर भगवान् की परम्परा के अनुसार विचरते हुए क्रमश: एक ग्राम से दूसरे ग्राम को पावन करते हुए और शारीरिक खेद से रहित-संयम में आने वाली बाधा-पीड़ा से रहित विहार करते हुए, चम्पानगरी के बाहर के उपनगर-समीप के गांव में पधारे और वहाँ से चम्पानगरी के पूर्णभद्र चैत्य में, पधारने वाले थे। विवेचन - यहाँ पर भगवान् महावीर स्वामी के साथ १४००० सन्त एवं ३६००० आर्याओं का कथन आया है। इसका आशय इस प्रकार समझना चाहिये कि जिस प्रकार चक्रवर्ती का राज्य छह खण्ड में होता है। उन छहों खण्डों में रहने वाली सेना सब चक्रवर्ती के अधीन होती है। वह चक्रवर्ती के . ' साथ ही गिनी जाती है। किन्तु सभी सेना चक्रवर्ती के पास राजधानी में ही नहीं रहती है। इस प्रकार तीर्थंकर भगवान् की आज्ञा में विचरने वाले जितने भी साधु-साध्वी हैं वे सब तीर्थंकर भगवान् के साथ ही गिने जाते हैं। इसलिये श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के श्रमणों की उत्कृष्ट सम्पदा १४००० और . : आर्याओं की सम्पदा ३६००० थी। वे सब भगवान् के साथ ही गिने जाते हैं। किन्तु इतने साधु-साध्वी भगवान् के एक साथ चंपा नगरी में पधारे ऐसा नहीं समझना चाहिए। दूसरी बात यह है कि - साधुसाध्वी का एक साथ विहार होता ही नहीं है। साथ विहार करने से तीर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा का उल्लंघन होता है और प्रायश्चित्त का कारण बनता है। विहार के लिये मूलपाठ में तीन शब्द दिये हैं। जिनका अर्थ है - साधु साध्वी का विहार तीर्थङ्कर भगवान् की आज्ञा के अनुसार होना चाहिये तथा पैदल विहार होना चाहिये ताकि ग्रामानुग्राम की भूमि साधु-साध्वी के पग-तल से स्पर्शित होती जाय किन्तु डोली, व्हीलचेअर, ठेला, कार, मोटर तथा हवाई जहाज आदि से नहीं होनी चाहिये। तीसरा शब्द दिया है 'सुहं सुहेणं' जिसका अर्थ है - बहुत उतावला उतावला विहार नहीं होना चाहिये। जिससे कि ईर्या समिति का पालन न होने से संयम दूषित बने तथा इतना लम्बा विहार भी नहीं होना चाहिये जिससे शरीर खेदित हो जाय, अकड़ जाय, दूसरे दिन चलने की शक्ति न रह जाय, शरीर में किसी प्रकार की व्याधि उत्पन्न हो जाय। तात्पर्य यह है कि - संयम और शरीर खेदित न हों इस तरह का विहार होना चाहिये। धर्म सन्देशवाहक ११- तए णं से पवित्तिवाउए इसीसे कहाए लढे समाणे हट्टतुट्ठ-चित्तमाणदिएपीइमणेपरम-सोमणस्सिएहरिस-वस-विसप्पमाण-हियएण्हाएकयबलिकम्मे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy