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________________ २८ उववाइय सुत्त विवेचन - तीर्थंकर भगवन्तों के चौतीस अतिशय (अतिशेष) होते हैं वे समवायांग सूत्र के ३४ वें समवाय में 'बुद्धाइशेष' शीर्षक से ३४ अतिशय दिये हैं वे इस प्रकार हैं - १. भगवान् के मस्तक के केश दाढ़ी-मूंछ, रोम और नख अवस्थित रहते हैं अर्थात् दीक्षा लेने के बाद वृद्धि को प्राप्त नहीं होते हैं, परिमाणोपेत रहते हैं, २. नीरोग और लेप-रहित देह, ३. गोक्षीर के समान सफेद रक्त-मांस ४. कमल और नीलकमल या पद्म और कुष्ठ नामक गंधद्रव्य के समान सुगंधित श्वास-उच्छ्वास ५. चर्मचक्षु से अदृश्य-प्रच्छन्न आहार-नीहार ६. आकाशगत चक्र, ७. आकाश गत (तीन) छत्र ८. आकाशगत श्रेष्ठ सफेद चामर ९. आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक का पादपीठ सहित सिंहासन १०. छोटी-छोटी हजारों झण्डियों से परिमण्डित इन्द्रध्वज का आगे-आगे चलना ११. जहां-जहां भगवान् ठहरते या बैठते हों वहाँ वहाँ उसी समय छत्र, ध्वज, घण्टा और पताका सहित पुत्र-पुष्प से लदे हुए हरेभरे अशोकवृक्ष का होना १२. शिरोभाग के कुछ पीछे अंधकार में भी प्रकाश.करते हुए तेजोमण्डल भामण्डल का होना १३. विचरण भूमि का सम और रमणीय हो जाना १४. कांटों का उलटे मुख हो जाना १५. विपरीत ऋतु का भी सुखमय स्पर्शवाली हो जाना १६. शीतल, सुखद और सुरभित हवा से एक योजन के भूमि मण्डल का पूर्णत: चारों ओर से प्रमार्जित होना १७: उचित मेघ-फुहार से रजकण का नीचे बैठ जाना १८. जल-स्थल में उत्पन्न हुए फूलों के उनके डीट नीचे रहें इस प्रकार घुटने परिमाण ढेर होना १९. अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का मिटना २० मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध का प्रकट होना २१. मनोहर एक योजनगामी स्वर २२. अर्धमागधी भाषा २३. उस भाषा का आर्य-अनार्य पशु-पक्षी सभी की अपनी-अपनी हितकारी, कल्याणकारी और सुखकारी भाषा में बदल जाना २४. पूर्वबद्ध वैर और अनादिकालीन जातीय वैर को भूलकर देव मनुष्य और तिर्यञ्च का तीर्थंकर भगवान् के चरणों में बैठकर, प्रसन्नचित्त से धर्मोपदेश सुनना २५. अन्य दर्शन में स्थित व्यक्तियों का भी समीप में आने पर विनयशील बन जाना २६. तीर्थंकर भगवन्तों के चरणों की छाया में आने पर वादी का निरभिमानी हो जाना २७. जहाँ-जहां तीर्थंकर भगवान् का विचरण होता है, वहाँ-वहाँ पर २५ योजन तक ईति-क्षुद्र जन्तुओं का भय अर्थात् कृषि को हानि पहुंचाने वाले उपद्रवों का न होना २८. संक्रामक रोगों का या मनुष्यों को काल के गाल में ले जाने वाले मारी, प्लेग, हैजा आदि रोगों का नहीं होना २९. निज राज्य के सैन्य आदि का उपद्रव नहीं होना ३०. पर राज्य के सैन्यादि का उपद्रव न होना ३१. अतिवृष्टि नहीं होना ३२. अनावृष्टि नहीं होना ३३. दुर्भिक्ष (दुष्काल) और ३४. अनिष्ट सूचक चिह्नों और उनके द्वारा होने वाले उपद्रवों और व्याधियों का नहीं होना यदि पहले हुई हो तो उनका शमन होना। - इनमें से दूसरे से पांचवें तक चार अतिशय तीर्थंकरों के जन्म से होते हैं, इक्कीसवें से चौंतीसवें तक और बारहवाँ भामण्डल कुल पंद्रह अतिशय घाती कर्म के क्षय से होते हैं और शेष पन्द्रह अतिशय देवकृत होते हैं। इससे भिन्न रूप में कहीं-कहीं उल्लेख दिखाई देता है, वह मतान्तर समझना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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