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उववाइय सुत्त
हिंसादि में, धर्मबुद्धि से प्रवृत्ति करना ४. आमरणान्तदोष मरण पर्यत दोषों के प्रति अनुताप
नहीं होना ।
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विवेचन - आर्त्त और रौद्र ध्यान - अशुभ ध्यान है। यहाँ भगवान् के श्रमणों के विशेषणों के रूप में तप का वर्णन हो रहा है। अतः इन ध्यानों के वर्णन से यह आशय लेना चाहिए कि 'इन अशुभ ध्यानों को छोड़कर धर्म-शुक्ल रूप प्रशस्त ध्यान के ध्याता थे।' इसी प्रकार अशुभ विनय के विषय में यही समझना चाहिए। तपोवर्णन में अप्रशस्त का वर्णन इसीलिए है कि इनका स्वरूप समझ कर, प्रशस्त ध्यान को अप्रशस्त ध्यान होने से रोका जा सके। क्योंकि जरा--से लक्ष्य भेद से क्रिया-भेद उपस्थित हो जाता है। अतः अप्रशस्त को छोड़ना और प्रशस्त को स्वीकार करना, ये दोनों ही निर्जरा है ।
धम्मज्झाणे चव्विहे चउप्पडोयारे पण्णत्ते ।
भावार्थ - चार भेदों में समवतरित होने वाला धर्मध्यान चार प्रकार का कहा गया है। १, अवायविजए २, विवागविजए ३. संठाणविजए ४ ।
जहा - आणाविज भावार्थ - धर्मध्यान चार भेद हैं। जैसे - १. आज्ञाविचय- चिन्तन के द्वारा - सूत्रज्ञान के द्वारा तीर्थंकर भगवान् की सूत्रधर्म और चारित्रधर्म सम्बन्धी आज्ञा का विचार करना २. अपायविचयचिन्तनादि के द्वारा राग-द्वेषादि से होने वाले अनर्थों का विचार करना ३. विपाकविचय चिंतन आदि के द्वारा कर्मफल का विचार करना और ४. संस्थान विचय - लोक द्वीप आदि पदार्थों की आकृतियों, का चिन्तन करना ।
विवेचन - धर्मध्यान के चार भेद, चार लक्षण, चार लिंग और चार अवलम्बन हैं। इन चार भेटों में धर्मध्यान का समावेश होता है, इसलिए मूल में 'चउप्पडोयारे' (चतुष्प्रत्यवतार) कहा है। थोकड़े वाले तो ऐसा बोलते है कि 'धर्मध्यान के चार भेद और चार पाये।" मूल पाठ में आज्ञा विजय आदि शब्द दिये है। विजय शब्द का पर्याय वाची विचय शब्द भी है। इसलिए ठाणांग सूत्र के चौथे ठाणे में
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'आज्ञाविचय आदि शब्द दिए है।" संस्थान विचय में लोक के स्वरूप का चिंतन करते हुए लोक में जीव के परिभ्रमण करने का चिन्तन करना चाहिये जैसा कि बारह भावनाओं में कहा है। यथा
चौदह राजु उत्तंग नभ, लोक पुरुष संठान ।
तामे जीव अनादिते, भ्रमत है बिन ज्ञान ॥
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अर्थ - लोक चौदह राजु परिमाण ऊँचा हैं और कमर पर हाथ धर कर नाचते हुए भोपे रूप पुरुष के आकार वाला है, उसमें मिथ्यात्व रूपी अज्ञान के कारण जीव अनादि काल से परिभ्रमण कर रहा है। धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता । तंजहा - आणारुई १, णिसग्गरुई २, उवएसई ३, सुत्त - रुई ४ |
भावार्थ - धर्मध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं। जैसे- १. आज्ञारुचि - वीतराग की आज्ञा में
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