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उववाइय सुत्त
विवेचन - वहाँ केवल दुःख की निवृत्ति मात्र ही है-ऐसी बात नहीं है। किन्तु वहाँ सुखानुभव भी है। यही इस गाथा में प्रतिपादित हुआ है।
सिद्धत्तिय, बुद्धत्तिय, पारगयत्ति य परंपरगयत्ति ।
उम्मुक्ककम्मकवया, अजरा अमरा असंगा य ॥२०॥
भावार्थ - वे सिद्ध-कृतकृत्य हैं। बुद्ध-केवलज्ञान से सम्पूर्ण विश्व को जानने वाले हैं। पारगतभव-सागर से पार पहुँचे हुए हैं। परम्परागत-क्रम से प्राप्त मुक्ति के उपायों के द्वारा पार पहुँचे हुए हैं। उन्मुक्त कर्म कवच- समस्त कर्मों से मुक्त हैं। अजर- बुढ़ापे से रहित हैं। अमर-मरण से रहित हैं और असंग सभी क्लेशों से रहित हैं।
णिच्छिण्ण- सव्व- दुक्खा, जाइजरामरणबंधणविमुक्का ।
अव्वाबाहं सुक्खं, अणुहोंति सासयं सिद्धा ॥ २१ ॥
भावार्थ सिद्ध, सभी दुःखों से रहित होकर, जन्म, जरा, मरण और बन्धन से अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं।
अतुलसुहसागरगया, अव्वाबाहं अणोवमं पत्ता ।
सव्वमणागयमद्धं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता ॥ २२ ॥
भावार्थ- बाधा - पीडा से रहित अनुपम अवस्था को प्राप्त होकर समस्त अनागत काल सम्बन्धी सुख को पाकर और अतुल सुखसागर में लीन बन कर वे सुखी आत्मा स्थित रहते हैं । अर्थात् विभाववेदन - बाधा का आत्यन्तिक अभाव हुआ, अतः स्व- द्रव्य के सिवाय अन्यत्र दुर्लभ है ऐसी अवस्थाअनुपम प्राप्त हुई। किन्तु विभाव-वेदन का अभाव होने पर, वेदनमात्र का अभाव नहीं होता हैस्वभाव-वेदन का अस्तित्त्व - सुही रहता है। वह स्वभाव-वेदन क्षणिक नहीं, किन्तु समस्त अनागत काल में स्थित रहता है। अतः वहाँ आत्मा आनन्द-घन हो जाता है।
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॥ इइ उववाइयसुत्तं समत्तं ॥ शुभं भूयात्
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