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उववाइय सुत्त
सचावसर पहरणावरणभरियजुद्धसजं सच्छत्तं सज्झयं सघंटे सपडागं पंचामेलअपरिमंडियाभिरामं।
भावार्थ - अस्त्र, कवच आदि युद्धसज्जा से युक्त किया। छत्र, ध्वज और घण्टा को यथास्थान योजित किये। फिर उसे पांच कलंगियों-आमेलक-चूडा से विभूषित करके, रम्य बनाया। .
ओसारियजमलजुयलघंट, विजुपणद्धं व काल-मेह, उप्पाइयपव्वयं व चंकमंतं, मत्तं गुलगुलंतं महा-मेहंमिव मणपवणजइणवेगं, भीमं संगामिया योग्गं, आभिसेक्कं हत्थिरयणं पडिकप्पइ।
भावार्थ - उसके दोनों तरफ समरूप से दो घण्टाएँ लटकाई। शस्त्र, अस्त्रादि की उज्ज्वल दीप्ति से युक्त होने से वह बिजली सहित काले मेघ के समान दिखाई दे रहा था। उसका देह इतना विशाल था कि मानो वह अपने स्थान से ऊँचा उठा हुआ कोई चलता-फिरता हुआ पर्वत हो। इस प्रकार मन और पवन की गति को भी मात करने वाले वेग से युक्त, मत्त और गुलगुल शब्द करते हुए उस प्रधान हस्तिरत्न को, संग्राम की सभी सामग्रियों से युक्त बनाकर तैयार किया।
पडिकण्येत्ता हयगयरहपवरजोहकलियं चाउरंगिणिं सेणं सण्णाहेइ। सण्णाहित्ता जेणेव बलवाउए तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणइ।
भावार्थ - महावत ने हस्तिरत्न को तैयार करके, अश्व, गज, रथ और श्रेष्ठ योद्धाओं वाली चतुरंगिनी सेना को सजाई। फिर वह 'हत्थिवाउय' - महावत 'बलवाउय'-सेना नायक के पास गया
और आज्ञा-पालन की सूचना दी। ___ तए णं से बलवाउए जाणसालियं सह्यवेइ। सहावित्ता एवं वयासी - 'खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सुभापमुहाणं देवीणं बाहिरियाए उवट्ठाणसालाए पाडिएक्कपाडिएक्काइंजत्ताभिमुहाइं जुत्ताइंजाणाइंउवट्ठवेह।उवट्ठवित्ताएयमाणत्तियंपच्चप्पिणाहि'।
भावार्थ - तब सेना नायक ने यानशालिक-रथादि यान और वाहनों का संरक्षक-को बुलाया और उससे इस प्रकार कहा- 'हे देवानुप्रिय ! जल्दी ही सुभद्रा आदि देवियों के लिये प्रत्येक के अलगअलग गमन करने को उद्यत-जुते हुए यानों को बाहरी सभाभवन में उपस्थित करो और आज्ञा पालन की सचना दो।'
विवेचन - इस वर्णन-क्रम से ऐसा प्रतीत होता है कि-हस्तिरत्न और सेना की सजावट की सूचना मिलने के बाद यानशालिक को आज्ञा दी गई। किन्तु इसे वर्णनशैलीगत भास मात्र ही मानना चाहिए। क्योंकि एक-एक कार्य के पूरा होने के बाद यदि आज्ञा प्रदान होता रहे तो समय बहुत ही अधिक बीत जाता है। अतः यहाँ 'तएणं' पद से 'कोणिक राजा के आज्ञा देने के बाद' - यह आशय लेना चाहिए।
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