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बाह्य तप
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और ३० दत्ति-पात्र में आहार क्षेपण-डालने की गिनती से आहार लेने वाले थे। यह भिक्षाचर्या का स्वरूप है।
विवेचन - ‘अन्नग्लायक' की व्याख्या - ‘स चाभिग्रह विशेषात् प्रातरेव दोषान्नभुगिति' की गई है। यहां पर जो 'दोषा' शब्द आया है उसका अर्थ 'रात्रि' होता है। अत: दोषान्न का अर्थ है - रातबासी रहा हुआ भोजन लेने की प्रतिज्ञा वाले साधु।
रात में बासी रही हुई रोटी आदि नहीं लेना चाहिए ऐसी प्ररूपणा करना आगम विरुद्ध है क्योंकि जब अभिग्रह धारी उत्कृष्ट आचारी मुनि भी रात बासी रोटी और कूर आदि धान्य का
ओदन लेते हैं तो सामान्य साधु ले इसमें किसी प्रकार की आगम बाधा नहीं आती है। बल्कि रसनेन्द्रिय के द्वारा स्वाद विजय होती है।
से किं तं रस-परिच्चाए? रस-परिच्चाए अणेगविहे पण्णत्ते। तं जहा-णिव्विगइए पणीय-रस-परिच्चाई आयंबिलए आयामसित्थभोई अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे पंताहारे लुहाहारे (तुच्छाहारे) से तं रसपरिच्चाए।
भावार्थ - रस-परित्याग किसे कहते हैं ? रसपरित्याग के अनेक भेद हैं। जैसे १. विकृति अर्थात् घी, तेल, दूध, दही, गुड़-शक्कर से रहित आहार करने वाले, २. जिसमें से घी दूध चासनी आदि के 'बिन्दु टपकते हों ऐसे आहार को छोड़ने वाले ३. आयंबिलक (आचामाम्ल)-मिर्च-मसाले से रहित
रोटी-भात आदि रूखा-सूखा अन्न या भुना हुआ अन्न, पानी में भिगोकर खाने वाले, ४. ओसामन और उसमें गिरे हुए कण आदि को लेने वाले ५ अरस - हिंग आदि से बिना छौंका हुआ आहार करने वाले ६. विरस - पुराना धान्य जो स्वभाव से ही स्वाद रहित हो गया हो-ऐसा आहार करने वाले ७. अन्त - हलकी जाति का वल्लादि अन्न का - आहार करने वाले ८. प्रान्त - खाने के बाद बचा हुआ वल्लादि अन्न का - आहार करने वाले और ९. रूक्ष - रूखा सूखा, जीभ को अप्रिय लगने वाला - आहार करने वाले अनगार भगवन्त थे। ये रसपरित्याग का स्वरूप है।
से किं तं कायकिलेसे ? कायकिलेसे अणेगविहे पण्णत्ते। तं जहा-ठाणट्ठिइए उक्कुडु-आसणिए पडिमट्ठाई वीरासणिए।
भावार्थ - कायक्लेश किसे कहते हैं ? कायक्लेश के अनेक भेद हैं। जैसे - स्थानस्थितिक - खड़े या बैठे हुए एक आसन से स्थिर रहने वाले २. उत्कुटुकासनिक - पुट्ठों को जमीन पर न टिकाते हुए, केवल पैरों पर ही बैठने की स्थिति से रहने वाले ३. मासिकी आदि बारह भिक्षु प्रतिमा को अंगीकार करने वाले ४. वीरासनिक - भूमि पर पैर रखकर, सिंहासन के समान बैठने की स्थिति से रहने वाले। जैसे - कोई पुरुष सिंहासन पर बैठा हुआ हो उसके नीचे से सिंहासन (कुरसी) निकाल लेने पर भी वह वैसी ही स्थिति में स्थिर रहे उस रूप में स्थित रहना। यह आसन बड़ा कठिन है।
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