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________________ २६ उववाइय सुत्त णिरुवहय-देह-धारी अट्ठ-सहस्स-पडिपुण्ण-वर-पुरिस-लक्खण-धरे, सण्णयपासे, संगयपासे, सुंदरपासे, सुजायपासे, मिय-माइय-पीण-रइय-पासे। भावार्थ - भगवान् का वक्ष-छाती, सीना सुवर्ण शिलातल के समान उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल, मांसल, विशाल और चौड़ा था। उस पर 'श्रीवत्स' स्वस्तिक का चिह्न था। मांसलता के कारण पांसलियों की हड्डियाँ दिखाई नहीं देती थी। स्वर्ण-कांति-सा सुनहरा निर्मल, मनोहर और रोग के पराभव से-आघात से रहित भगवान् का देह था। जिसमें पूरे एक हजार आठ श्रेष्ठ पुरुषों के लक्षण थे। उनके पार्श्व-बगल नीचे की ओर क्रमशः कम घेरे वाले हो गये थे, देह के प्रमाण के अनुकूल थे, सुन्दर थे, उत्तम बने हुए थे और मितमात्रित-न कम न ज्यादा, उचित रूप से मांस से भरे हुए पुष्ट-रम्य थे। उज्जुय-सम-संहिय-जच्च-तणु-कसिण-णिद्ध-आइज्ज-लडह-रमणिज-रोम राई . झस विहग सुजाय-पीण-कुच्छी (झसोदर-पउम-वियड णाभि) झसोदरे सुइकरणे, पउमवियडणाभे, गंगावत्तक पयाहिणावत्त तरंग-भंगुर-रवि-किरण-तरुण-बोहियअकोसायंत-पउम-गंभीर-वियडणाहे (भे), साहय-सोणंद-मुसल-दप्पण-णिकरियवर-कणगच्छरु-सरिस-वर-वर-वलिय-मझे (सीह अइरेग वट्टिय) पमुइयं वरतुरग सीह वर-वट्टिय-कडी। भावार्थ - भगवान् के वृक्ष और उदर पर सीधे और समरूप से एक-दूसरे से मिले हुए, प्रधान पतले, काले स्निग्ध, मन को भाने वाले, सलावण्य-सलौने और रमणीय रोमों की पंक्ति थी। मत्स्य (मछली) और पक्षी की-सी उत्तम और दृढ़ मांसपेशियों से युक्त कुक्षि थी। मत्स्य का-सा उदर था। पावन इन्द्रिय थी या पेट के करण-अंत्रजाल पावन थे। गंगा के भंवर के समान, दाहिनी ओर घूमती हुई तरंगों से भंगुर अर्थात् चञ्चल, सूर्य की तेज किरणों से विकसित कमल के मध्य भाग के समान गंभीर और गहन नाभि थी। त्रिदंड, मूशल, साण पर चढ़ाये हुए श्रेष्ठ स्वर्ण दर्पणक- दर्पण-दंड और खड्गमुष्टि-मूठ के समान श्रेष्ठ, वज्रवत् क्षीण देह का मध्य भाग था। रोग-शोकादि से रहित= प्रमुदित श्रेष्ठ अश्व और सिंह की कटि के समान श्रेष्ठ घेरे वाली कटि (कमर) थी। पसत्थ वर-तुरग-सुजाय-सुगुज्झ-देसे आइ-ण्णहउव्व णिरुवलेवे, वर-वारणतुल्ल-विक्कम- विलसिय-गई, गय-ससण-सुजाय-सणिभोरु समुग्ग-णिमग्ग-गूढजाणू-एणी-कुरुविंदावत्त-वट्टाणुपुब्व-जंघे संठिय-सुसिलिट्ठ-गूढ-गुप्फे सुप्पइट्ठियकुम्म-चारु-चलणे (अणुपुव्व सुसाहय पीवरंगुलीए) अणुपुव्व-सुसंहयंगुलीए, उण्णय-तणु-तंब-णिद्ध-णक्खे, रत्तुप्पल-पत्त-मय-सुकुमाल-कोमल-तले, अट्ठसहस्स-वर-पुरिस-लक्खण-धरे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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