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________________ बाह्य तप से किं तं भत्तपाण-दव्वोमोयरिया? भत्तपाण-दव्वोमोयरिया-अणेगविहा पण्णत्ता। तंजहा-अट्ठ-कुक्कुडि-अंडगप्पमाण-मेत्ते कवले आहारमाणे अप्पाहारे। भावार्थ - भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका किसे कहते हैं ? भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका के अनेक भेद हैं। जैसे १. मुख में आसानी से समा सके ऐसे आठ कवल प्रमाण मात्र आहार करना अल्पाहार है। दुवालस-कुक्कुडि-अंडग-प्ममाण-मेत्ते कवले आहारमाणे अवड्डोमोयरिया। भावार्थ - २ बारह कवल प्रमाण आहार करना अपार्द्ध आधी से अधिक अवमोदरिका है। सोलस-कुक्कुडि-अंडग-प्पमाण-मेत्ते कवले आहारमाणे दुभागपत्तो मोयरिया। भावार्थ - ३ सोलह कवल प्रमाण आहार करना द्विभाग-आधी अवमोदरिका है। चउव्वीस-कुक्कुडि-अंडग-प्पमाण-मेत्ते कवले आहारमाणे पत्तोमोयरिया। भावार्थ - ४ चौवीस कवल प्रमाण आहार करना प्राप्त-चौथाई अवमोदरिका है। एक्कतीस-कुक्कुडि-अंडग-प्पमाण-मेत्ते कवले आहारमाणे किंचूणोमोयरिया। भावार्थ - ५ इकत्तीस कवल प्रमाण आहार करना किञ्चिन्यून-कुछ कम अवमोदरिका है। बत्तीस-कुक्कुडि-अंडग-प्पमाण-मेत्ते कवले आहारमाणे पमाणपत्ता। एत्तो एगेण वि घासेण ऊणयं आहार-माहारेमाणे समणे णिग्गंथे णो पकाम-रस-भोईत्ति वत्तव्वं सिया।से तं भत्तपाण-दव्वोमोयरिया। से तं दव्वोमोयरिया। . भावार्थ - बत्तीस कवल प्रमाण आहार करने वाला प्रमाण प्राप्त-पूर्ण आहार करने वाला है। बत्तीस कवल से एक ग्रास भी कम खाने वाला श्रमण-निर्ग्रन्थ प्रकाम-रस-भोजी-बहुत अधिक खाने वाला कहे जाने योग्य नहीं है। यह ऐसी भक्तपान द्रव्य अवमोदरिका है। इस प्रकार यह द्रव्यअवमोदरिका का स्वरूप है। विवेचनं - आहार का प्रमाण बतलाने के लिए मूल पाठ में 'कुक्कुडि-अंडगप्पमाण-मेत्ते' शब्द दिया है। टीकाकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है-कुक्कुटी (मुर्गी) के अण्डे प्रमाण का एक कवल समझना चाहिये। किन्तु यहाँ कुक्कुटी का अर्थ मुर्गी करना प्रकरण संगत नहीं है, इसलिए इसका अर्थ इस प्रकार करना चाहिये-कुटी का अर्थ है झोंपड़ी, जीव रूप पक्षी के लिए आश्रय रूप होने से : यह शरीर उसके लिए झोंपड़ी रूप है। यह शरीर रूपी कुटी कभी सदा के लिए भरती ही नहीं है, क्योंकि सुबह खाया और शाम को खाली और शाम को खाया सुबह खाली। इसलिए इसको कुक्कुटी कहते हैं अथवा यह शरीर रूपी कुटी अशुचि से उत्पन्न हुई है और इसमें अशुचि भरी हुई है और सदा । अशुचि ही झरती रहती है, इसलिए भी इसको कुक्कुटी कहते हैं और 'अडंग' का अर्थ है मुख। जैसा कि भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशक १ की टीका में कहा है - कुटी इव कुटीरकमिव जीवस्याश्रयत्वात् कुटीशरीरं, कुत्सिताअशुचिप्रायत्वात्कुटी कुकुटी, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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