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________________ निह्नवों का उपपात १७३ भावार्थ - वे इस चर्या से विचरते हुए, बहुत वर्षों की श्रमण अवस्था को पालते हैं और पालन करके उन दोष-स्थानों की आलोचना-प्रतिक्रमण किये बिना ही, काल के समय में काल करके, उत्कृष्ट अच्युतकल्प में आभियोगिक-सेवक जाति देवों में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। उनकी बाईस सागरोपम की स्थिति होती है। वे परलोक के आराधक नहीं होते हैं। शेष पूर्ववत्। विवेचन - उन श्रमणों के देवत्व का कारण चारित्र है और सेवकता का कारण आत्मोत्कर्ष आदि है। निह्नवों का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु णिहगा भवंति। तं जहा-बहुरया, जीवपएसिया, अव्वत्तिया, सामुच्छेइया, दोकिरिया, तेरासिया, अबद्धिया। भावार्थ - ये जो ग्राम सन्निवेशों में निह्नव-जिनोक्त धर्म के अपलापक होते हैं। जैसे-१. बहुरतअनेक समयों के द्वारा ही कार्य की निष्पत्ति मानने वाले, २. जीवप्रादेशिक-एक प्रदेश भी न्यून हो वह जीव नहीं होता है, अत: जिस एक-प्रदेश की पूर्णता से जीव, जीव रूप से माना जाता है, वही एक-प्रदेश जीव है ऐसा मानने वाले ३. अव्यक्तिक-समस्त जगत् अव्यक्त है-ऐसा मत मानने वाले ४. सामुच्छेदिक-नरकादि भावों का प्रतिक्षण क्षय होता है-ऐसे मत को मानने वाले ५. द्वैक्रियाएक समय में दो क्रिया का अनुभव होना मानने वाले ६. त्रैराशिक-जीव, अजीव और नो जीव रूप तीन . राशियों के मानने वाले और ७ अबद्धिक-जीव कर्म से सर्पकंचुकिवत् स्पृष्ट है, क्षीर-नीरवत् बद्ध नहीं. ऐसे मत के मानने वाले। ... इच्चेते सत्त पवयणणिण्हगा केवलं-चरियालिंग-सामण्णा मिच्छदिट्ठी बहूहिं असब्भावुब्भावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहिं च अप्याणं च परं च तदुभयं च वुग्गामाणा वुप्पाएमाणा विहरित्ता, बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणंति। . भावार्थ - ये सात प्रवचन के अपलाप, चर्या और लिंग की अपेक्षा से साधु के तुल्य-किन्तु मिथ्यादृष्टि, बहुत-से असद्भाव के उत्पादन और मिथ्यात्व के अभिनिवेश के द्वारा स्वयं को, दूसरों को और स्व-पर को झूठे आग्रह में लगाते हुए-असत् आशय में दृढ़ बनाते हुए, बहुत वर्षों तक साधु अवस्था में रहते हैं। पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं उवरिमेसु गेवेजेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई जाव एक्कतीसं सागरोवमाई ठिई। परलोगस्स अणाराहगा। सेसं तं चेव। - भावार्थ - फिर काल के समय में काल करके, उत्कृष्ट ऊपरी ग्रैवेयक में देव रूप से उत्पन्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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