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________________ १८० उववाइय सुत्त प्रश्न - छद्यस्थ किसे कहते हैं? उत्तर - छानि अर्थात् घातिकर्मणि तिष्ठति इति छद्मस्थः। अर्थ - छद्म शब्द से यहाँ पर घाती कर्मों का ग्रहण किया हैं। आत्मा के गुणों का घात करने वाले कर्मों को घातीकर्म कहते हैं-वे चार हैं- यथा-ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय। ये चार घातीकर्म जिस जीव के क्षय नहीं हुए हैं, उसे छद्मस्थ कहते हैं। एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुव्वकम्मावसेसेणं कालमासे कालं किच्चा, उक्कोसेणं सव्वट्ठसिद्धे महाविमाणे देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई तेत्तीसं सागरोवमाई ठिई। आराहगा। सेसं तं चेव॥२१॥ भावार्थ - पुनः कोई एक अनगार भगवन्त भविष्य में एक ही मनुष्य देह को धारण करने वाले क्षीण होते हुए कर्मों में से शेष रहे हुए कर्मों के कारण, उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध महाविमान में देवरूप से उत्पन्न होते हैं। वहाँ उनकी तैतीस सागरोपम की स्थिति होती है। वे जिनेन्द्र भगवान् की आज्ञा के आराधक होते हैं। शेष पूर्ववत्। सर्वकामविरत का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु मणुया भवंति। तं जहा-सव्वकामविरया सव्वरागविरया सव्वसंगातीता सव्वसिणेहाइक्कंता अक्कोहा णिक्कोहा खीणक्कोहा जाव एवं माण माया लोहा, अणुपुव्वेणं अट्ठकम्म-पयडीओ खवित्ता उप्पिं लोयग्गपइट्ठाणा हवंति॥ २२॥ भावार्थ - ये जो ग्राम यावत् सन्निवेशों में मनुष्य होते हैं। जैसे-समस्त शब्दादि विषयों से निवृत्त या उनमें उत्सुकता से रहित, विषयाभिमुखता के कारण रूप समस्त आत्म-परिणाम विशेष से निवृत्त, सभी जगत्-सम्बन्धों से परे रहे हुए, सम्बन्धों के हेतु रूप समस्त स्नेह के त्यागी, क्रोध को विफल करने वाले क्रोध का उदय ही नहीं होने देने वाले, क्रोध को क्षीण कर देने वाले इसी प्रकार मान, माया, लोभ को भी क्षीण कर देने वाले क्रमशः आठ कर्म प्रकृतियों को क्षय करके ऊपर लोकाग्रह पर स्थित हो जाते हैं अर्थात् सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो कर मोक्ष में चले जाते हैं। - विवेचन - क्रोधोदय के निमित्त कारणों के मिलने पर क्रोध का उदय हो चुका है, किन्तु किन्हीं उपायों से उसे बाहर प्रकट होने से रोक दिया जाता है, वह अक्रोध है। निमित्त कारणों के मिलने पर, उनसे दूर हट कर या अन्यमनस्कता-प्रसन्नतादि के भाव या ऐसे ही किसी उपाय के द्वारा क्रोध का उदय ही नहीं होने देना-निष्क्रोध है। अनुप्रेक्षादि के समय, अन्तर-समरांगण में क्रोध निःशेष कर देना-क्रोध भय है। चारित्रमोहनीय कर्म के अन्य प्रकारों का भी इसी प्रकार क्षय होता है। ऐसा समझ लेना चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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