SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 89
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . उववाइय सुत्त भावार्थ - मनोविनय किसे कहते हैं ? मनोविनय के दो भेद कहे गये हैं। जैसे - १. प्रशस्त - अच्छा मनोविनय और २. अप्रशस्त - बुरा मनोविनय। से किं तं अपसत्थमणविणए ? अपसत्थमणविणए जे य मणे सावजे सकिरिए सकक्कसे कडुए गिट्ठरे फरुसे अण्हयकरे छेयकरे भेयकरे परितावणकरे उद्दवणकरे भूओवघाइए, तहप्पगारं मणो णो पहारेजा।से तं अपसत्थ मणोविणए। भावार्थ - अप्रशस्त मनोविनय किसे कहते हैं ? जो मन १. सावध - पापमय २. सक्रिय - कायिकी आदि क्रियायुक्त ३. सकर्कश ४. कटुक ५. निष्ठुर - कठोर ६. परुष - स्नेहरहित ७. आस्रवकारी - अशुभ कर्म को ग्रहण करने वाला ८. छेदकर- अंगादि को काटने के भाव करने वाला ९. भेदकर - अंगादि को बिंधने के भाव करने वाला, १०. परितापनकर - प्राणियों को संतापित करने के भाव वाला, ११. उद्रवणकर - मारणान्तिक वेदनाकारी या धन हरणादि उपद्रवकारी और १२. भूतोपघातिक- जीवों के घात की भावना वाला हो-ऐसे मन को धारण नहीं करना, अप्रशस्त मनोविनय है। यह अप्रशस्त मनोविनय है। से किं तं पसत्थमणोविणए ? पसत्थमणोविणए तं चेव पसत्थं णेयव्वं । एवं चेव वइविणओ वि एएहिं पएहिं चेव णेअव्वो। से तं वइविणए। भावार्थ - प्रशस्त मनोविनय किसे कहते हैं ? इसी प्रकार प्रशस्त मनोविनय का स्वरूप भी समझना चाहिए। इसी प्रकार वचन-विनय भी इन्हीं पदों के द्वारा समझ लेना चाहिए। यह वचन-विनय है। अर्थात् मन और वचन की शुभ प्रवृत्ति करना। विवेचन - प्रशस्त मनोविनय, अप्रशस्त से विपरीत स्वरूप वाला है। अर्थात् १. असावय २. निष्क्रिय ३. अकर्कश ४. अकटुक - मधुर ५. अनिष्ठुर - कोमल ६. अपरुष-करुणामय ७. अनास्रवकारी ८. अछेदकर ९. अभेदकर १०. अपरितापनकर ११. दया और १२ जीवों के प्रति साताकारी मन को धारण करना-प्रशस्त मनो-विनय है। मन-विनय की तरह वचन-विनय के भी भेद समझ लेना चाहिए अर्थात् सावदयादि वचन छोड़ना और असावदयादि वचन बोलना। से किं तं कायविणए ? कायविणए दुविहे पण्णत्ते। तंजहा-पसत्थकायविणए अपसत्थकायविणए। भावार्थ - कायविनय किसे कहते हैं ? कायविनय के दो भेद कहे गये हैं। जैसे-१. प्रशस्त कायविनय और २. अप्रशस्त कायविनय। से किं तं अपसत्थकायविणए ? अपसत्थकायविणए सत्तविहे पण्णत्ते। भावार्थ- अप्रशस्त कायविनय किसे कहते हैं ? अप्रशस्त कायविनय के सातभेद कहे गये हैं। तं जहा-अणाउत्तं गमणे, अणाउत्तं ठाणे, अणाउत्तं णिसीयणे, अणाउत्तं तुयट्टणे, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy