SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ उववाइय सुत्त •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••• प्रसन्न रहते हैं। ज्ञानादि के लिये सेवाभक्ति करने पर, गुरुजनों को और स्वयं को चित्त-प्रसाद होता : है। जिससे ज्ञानादि की प्राप्ति सुगम बनती है। दुःखी साधु पुरुषों से सुख-दुःख, की बात पूछने पर, उन्हें असहयपन की अनुभूति नहीं होती है और स्वयं को भी, उनके दुःख में हिस्सा बंटाने से, मधुर शान्ति का अनुभव होता है। देश-कालज्ञता और सर्वार्थ में अप्रतिलोमता से स्व-पर का कल्याण सहज में साधा जा सकता है। से किं तं वेयावच्चे ? - वेयावच्चे दसविहे पण्णत्ते। . भावार्थ - वैयावृत्य-भात-पानी आदि से सेवा करना किसे कहते हैं ? - वैयावत्य के दस भेद कहे गये हैं। तं जहा-आयरियवेयावच्चे १, उवज्झायवेयावच्चे २, सेहवेयावच्चे ३, गिलाणवेयावच्चे ४, तवस्सिवेयावच्चे ५, थेरवेयावच्चे ६, साहम्मियवेयावच्चे ७, कुलवेयावच्चे ८, गणवेयावच्चे ९, संघवेयावच्चे १०, से तं वेयावच्चे। भावार्थ - जैसे-१. आचार्य की वैयावृत्य २. उपाध्याय की ३ शैक्ष - नवदीक्षित की ४. ग्लान - पीडित की ५. तपस्वी - अष्टम आदि करने वाले की ६ स्थविर - वय आदि से वृद्ध की ७ साधर्मिक साधु या साध्वी की ८ कुल - गच्छों के समुदाय की ९. गण - कुलों के समुदाय की और १०. संघ - गणों के समुदाय की वैयावृत्य - सेवा। यह वैयावृत्य का स्वरूप है। विवेचन - भगवती सूत्र आदि में बतलाया गया है कि एक आचार्य के या एक गुरु के शिष्यों को कुल कहते हैं और कुलों के समुदाय को गण और गणों के समुदाय को संघ कहते हैं। से किं तं सज्झाए ? सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते। तं जहा-वायणा १, पडिपुच्छणा २, परियट्टणा ३, अणुप्पेहा ४, धम्मकहा ५। से तं सज्झाए। भावार्थ - स्वाध्याय किसे कहते हैं ? स्वाध्याय के पांच भेद कहे गये हैं। जैसे-१. वाचना - सूत्रों का पढ़ना-पढ़ाना २. प्रतिपृच्छना - शंका-समाधान ३. परिवर्तना - सीखे हुए ज्ञान की पुनरावृत्ति करना ४. अनुप्रेक्षा - सूत्र के अवलम्बन से युक्त चिन्तन-मनन करना और ५. धर्मकथा करना अर्थात् धर्मोपदेश देना। यह स्वाध्याय का स्वरूप है। से किं तं झाणे ? झाणे चउबिहे पण्णत्ते। तं जहा-अट्टझाणे १, रुहल्झाणे २, धम्मज्झाणे ३, सुक्क-ज्झाणे ४। भावार्थ - ध्यान - एकाग्रचिन्तन किसे कहते हैं ? ध्यान चार तरह का कहा गया है। जैसे-१. आर्त - रागादि भावना से युक्त ध्यान २. रौद्र - हिंसा आदि भावना से युक्त ध्यान ३. धर्म-धर्मभावना से युक्त ध्यान और ४. शुक्ल - निरञ्जन-शुद्ध ध्यान। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy