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निर्ग्रन्थों की ऋद्धि .........................................................
- कई खेलौषधि-खेंकार से ही सभी रोगादि मिटाने की शक्ति को पाये हुए थे। एवं जल्लोसहिपत्ता विप्योसहिपत्ता आमोसहिपत्ता सव्वोसहिपत्ता।
- इसी प्रकार जल्लौषधि-शरीर के मैल से रोग आदि अनर्थ उपशान्त करने की शक्ति, विगुडौषधि-मूत्रादि की बूंदों रूप औषधि अथवा वि का अर्थ विष्ठा और प्र का अर्थ प्रश्रवण-मूत्र है, ये दोनों औषधिरूप, आमर्ष-हस्तादि स्पर्श औषधि, सर्वौषधि- केश, नख, रोम, मल आदि सभी का औषधि रूप बन जाना-लब्धि को प्राप्त थे। __ अप्पेगइया कोट्ठबुद्धी एवं बीयबुद्धी पडबुद्धी।
- कई कोष्ठबुद्धि वाले-कोठार में भरे हुए सुरक्षित धान्य की तरह प्राप्त हुए सूत्रार्थ को धारण करने में समर्थ मति वाले थे। इसी प्रकार बीजबुद्धि वाले-बीज के समान विस्तृत और विविध अर्थ के महावृक्ष को उपजाने वाली बुद्धि के धारक और पटबुद्धि वाले-वस्त्र में संगृहीत पुष्प-फल के समान, विशिष्ट वक्ताओं द्वारा कथित प्रभुत सूत्रार्थ का संग्रह करने में समर्थ बुद्धि वाले थे।
अप्पेगइया पयाणुसारी। अप्पेगइया संभिण्णसोआ।
- कई पदानुसारी-सूत्र के एक ही पद के ज्ञात होने पर, उस सूत्र के अनुकूल सैकड़ों पदों का स्मरण कर लेने की-जान लेने की शक्ति के स्वामी थे। कई संभिन्न श्रोता-बहुत-से भिन्न-भिन्न जाति के ' शब्दों को, अलग-अलग रूप से, एक साथ श्रवण करने की शक्ति वाले या सभी इन्द्रियों के द्वारा
शब्दादि पांचों विषयों को ग्रहण करने की शक्ति वाले अर्थात् किसी भी एक इन्द्रिय से पांचों विषयों को ग्रहण करने की शक्ति वाले थे।
अप्पेगइया खीरासवा। अप्पेगइया महुआसवा। अप्पेगइया सप्पिआसवा। अप्पेगइया अक्खीण-महाणसिया।
- कई क्षीरास्रव-श्रोताओं के लिये दूध के समान मधुर, कान और मन को सुखकर वचन शक्ति वाले थे। कई मधु-आस्रव-मधु के समान सभी दोषों को मिटाने में निमित्त रूप और प्रसन्नकारक वाचिक शक्ति वाले थे। कई सर्पिराश्रव-घी के समान अपने विषय में श्रोताओं का स्नेह सम्पादित करने की वाचिक शक्ति वाले थे। कई अक्षीणमहानसिक-प्राप्त अन्न को जहाँ तक स्वयं न खा ले, वहाँ तक सैकड़ों-हजारों को देने पर भी वह अन्न समाप्त न हो, ऐसी लब्धि के धारक थे।
एवं उज्जुमई। अप्पेगइया विउलमई।
- इसी प्रकार ऋजुमति-मात्र सामान्य रूप से मन की ग्राहिका शक्तिवाले थे। कई विपुलमतिविशेषता सहित चिन्तित द्रव्य को जानने की शक्ति वाले थे।
विवेचन - ये दोनों मनःपर्यायज्ञानी के भेद हैं। ऋजुमति ढ़ाई अंगुल कम मनुष्य क्षेत्र में स्थित संज्ञी जीवों के मन को सामान्य रूप से जानते हैं और विपुलमति सम्पूर्ण मनुष्य क्षेत्र में स्थित संज्ञी
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