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________________ १४८ उववाइय सुत्त ++++++++++++++++ +++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++ भावार्थ - उन मनुष्यों के ये नव विकृतियाँ खाने का कल्प नहीं है। यथा-दूध, दही, मक्खन, घी, तैल, गुड-फाणित, मधु- शहद, मद्य-शराब और मांस। इन में से एक सरसों का तैल छोड़कर। वे मनुष्य अल्प इच्छा वाले यावत् शेष सब पूर्ववत्। केवल स्थिति चौरासी हजार वर्ष की है। _ विवेचन - 'तं चेव सव्वं' पद से 'अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणा बहुई वासाइं आऊयं पालंति। पालित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिं गई....' आदि वाक्यों का संक्षेपीकरण समझना चाहिए। अर्थ पूर्ववत् अर्थात् इन शब्दों का एवं इस पाठ का अर्थ पहले कर दिया गया है। वानप्रस्थ तापसों का उपपात से जे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवंति। तं जहा-होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जण्णई सड्डई थालई हुंबउट्ठा दंतुक्खलिया उम्मजगा संमजगा णिमज्जगा संपक्खालगा। ___ भावार्थ - वे तापस जो ये गंगा के किनारे रहने वाले वानप्रस्थ-वनवासी तापस होते हैं। जैसेहोत्रिक (अग्निहोत्र करने वाले) वस्त्रधारी, कौत्रिक-भूमिशायी (भूमि पर सोने वाले) यज्ञयाजी (याज्ञिक-यज्ञ करने वाले), श्रद्धा करने वाले, पात्र रखने वाले या खप्परधारी कुण्डिकाधारी, फलभोजी, एक बार पानी में डुबकी लगा कर स्नान करने वाले (उन्मज्जक), सन्मज्जक (उन्मज्जन के बार-बार करने से स्नान करने वाले), निमज्जक (पानी में कुछ देर तक डूब कर स्नान करने वाले) संप्रक्षालक (मिट्टी आदि के द्वारा रगड़ कर अंगों को धोने वाले)। . दक्खिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमगा कूलधमगा मियलुद्धया हत्थितावसा भावार्थ - गंगा के दक्षिण के किनारे पर ही रहने वाले, गंगा के उत्तरी किनारे पर ही रहने वाले, शंख बजाकर भोजन करने वाले, किनारे पर स्थित होकर शब्द करके भोजन करने वाले मृगलुब्धक, हस्तितापस (हाथी को मारकर उसके भोजन से बहत काल व्यतीत करने वाले)। उहंडगा दिसापोक्खिणो वक्कवासिणो अंबुवासिणो बिलवासिणो चेलवासिणो जलवासिणो रुक्खमूलिया। भावार्थ - डण्डे को ऊँचा रखकर फिरने वाले, दिशाओं की तरफ पानी छींट कर फूल-फलादि चुनने वाले, वल्कलधारी-वृक्ष की झाल के कपड़े पहनने वाले (अम्बुवासी ? बिलवासी), वस्त्रधारी, जल में ही रहने वाले, वृक्ष के मूल में रहने वाले। अंबुभक्खिणो वाउभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहाराकंदाहारा तयाहारा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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