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________________ १० उववाइय सुत्त (वांछित) उपायों को सत्य बनाने वाला, सेवा को निष्फल नहीं जाने देने वाला, दिव्य प्रातिहार्यअतिशय, अतीन्द्रिय कार्य से युक्त और हजारों प्रकार की पूजा को चाहने वाला था। बहुजन पूर्णभद्र चैत्य पर आ-आकर के अर्चना करते थे। विवेचन - 'पुण्णभदं चेइयं पुण्णभदं चेइयं। इति अत्र द्विर्वचनं भक्ति-सम्भ्रम-विवक्षयेति । अर्थात् .. 'पुण्णभदं चेइयं' इस पद की पुनरावृत्ति जनता की भक्ति के आवेश को दरसाती है। ___ इस सूत्र में चैत्य की स्थिति, उसका होने वाला उपयोग और उसके प्रति जनसमाज की भावना का वर्णन किया गया है। प्रायः उस व्यंतरायतन में, विविध कारणों से लोगों की बहुत ही आस्था थी। उनकी दृष्टि के अनुसार उनके लिये वह पूजनीय-अर्चनीय और सत्य आदि था। अत: यह सूत्र 'बहुजन' की दृष्टि की ओर संकेतमात्र कह रहा है-सूत्रकार की दृष्टि का इसके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। इस बात की पुष्टि 'बहुजणजाणवयस्स"बहुजणस्स आहुस्स' सूत्रांशों से भी होती है। .. शंका - सूत्रकार जब उस दृष्टि से सहमत नहीं है, तब फिर उसका इतना लम्बा; अलंकृत भाषा में आँखों के सामने वैसा ही दृश्य खड़ा करने की क्या आवश्यकता थी ? - 'जैसा हो वैसा' वर्णन करना, सूत्रकार को इष्ट हो सकता है। किन्तु ऐसे वर्णनों को किस ध्यान-किस भावना के अन्तर्गत गिनें ? क्योंकि वीतराग-मार्ग में वही स्वाध्याय-ध्यान उत्तम और कर्तव्य है, जो वीतरागता का पोषक हो। क्या यह विकथा-सन्मार्ग से विचलित करने वाला कथन-नहीं है? समाधान - पहली बात, इस स्थान का वर्णन इसलिए हुआ है कि भगवान् महावीर देव का वहाँ पदार्पण होगा। शासन-नायक के ध्यान रूप गुप्त पतले तागे में ये सूत्ररूप मणि पिरोये गये हैं। अतः वर्णन में तटस्थवृत्ति का निर्माण हो रहा है। रसमय वर्णन करते हुए भी सूत्रकार की उदासीन-मध्यस्थ दृष्टि अंकुश का कार्य करती हुई स्पष्ट झलक रही है। दूसरी बात, अलंकृत भाषा में हूबहू वर्णन करने का यह आशय स्पष्ट होता है कि भगवान् महावीर देव अपने निवास के लिये कैसे स्थान चुनते थे और उसमें कौन-सा ध्येय गर्भित होता था-यह स्पष्ट हो जाय। तीसरी बात, विषय-वर्णन मात्र से ध्यान और सद्भावना का सम्बन्ध नहीं है। किन्तु विषय-वर्णन के लक्ष्य, ढलाव और विचारक-ध्याता की वृत्ति से विशेष सम्बन्ध है। ध्यान और अनुप्रेक्षा के, नरक और स्वर्ग, श्रृंगार और वैराग्य, नृशंस और करुण, कठोर और कोमल, दूषण और भूषण, संसार और अपवर्ग-आदि सभी विषय और प्रसंग आधार हो सकते हैं-कायम रहना चाहिए, जिन आज्ञा का भान और उदासीन तटस्थ वृत्ति। ऐसा हो, तभी आत्मसमाधि आवेश-रहित दशा स्थिर रह सकती है और तभी वे विचार शान्तरस के स्थायी भाव बन सकते हैं। रसवृत्ति जागृत होते ही उदासीन वृत्ति-आत्मभान गायब हो जाता है और जिन-आज्ञा का विस्मरण। आकुलता बढ़ती है। अतः वे विचार उत्पन्न होने वाले विकारी भावों के अनुसार, शृंगारादि रसों का नाम धारण करते हैं और विकथा बन जाते हैं, आर्त्त-रौद्र ध्यान की गिनती में चले जाते हैं। इस सूत्र में लोगों की भूलभूलैया में फंसी भावना के प्रति सूत्रकार की करुणा का दर्शन हो रहा है और 'बहुजन के लिये' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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