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सिद्ध्यमान् जीव के संहनन आदि
हे गौतम ! जैसे अग्नि से जले हुए बीजों की पुन: अंकुर रूप उत्पत्ति नहीं होती है। उसी प्रकार कर्म-बीजों के जल जाने पर सिद्धों की भी पुनः जन्म रूप उत्पत्ति नहीं होती है। इसलिए हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, कि- 'वे वहाँ सिद्ध होते हैं अनागत काल में शाश्वत रहते हैं।
विवेचन - जन्म-कर्मकृत प्रसूति। कर्म के निमित्त से होने वाली उत्पत्ति का अभाव बताने के लिये 'जम्मुप्पत्ती' शब्द कहा गया है। क्योंकि प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त ही सद्भाव होता है। अत: वहाँ परिणामान्तर रूप उत्पत्ति होती है।
सिद्धयमान् जीव के संहनन आदि जीवा णं भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिझंति?- गोयमा ! वइरोसभणारायसंघयणे सिझंति।
__ भावार्थ - हे भन्ते ! सिद्ध्यमान-सिद्ध होने वाला जीव कौन से संहनन-हड्डियों के बन्धन में सिद्ध होते हैं?
हे गौतम ! वज्रऋषभनाराच संहनन (कीलिका और पट्टी सहित मर्कट बन्धमय सन्धियों वाला हड्डियों का बन्धन) में सिद्ध होते हैं। -
जीवाणंभंते ! सिझमाणाकयामिसंठाणे सिझंति?-गोयमा! छण्हं संठाणाणं अण्णयरे संठाणे सिझंति। . भावार्थ - हे भन्ते ! सिद्ध्यमान जीव कौन-से संस्थान(आकार) में सिद्ध होते हैं ?
हे गौतम ! छह संस्थान (आकार) में से किसी भी संस्थान में सिद्ध होते हैं।
विवेचन - संहनन भी छह हैं और संस्थान भी छह हैं। वज्रऋषभ-नाराच, ऋषभ नाराच-मर्कट बन्ध और पट्टी से युक्त सन्धियों वाला, नाराच-मर्कट बन्ध युक्त सन्धियों वाला, अर्द्ध नाराच-एक तरफ मर्कट बन्ध और एक तरफ कीलिका युक्त सन्धियों वाला, कीलिका-कीलिका युक्त सन्धियों वाला
और सेवार्त-कमजोर सन्धियों वाला, ये छह संहनन हैं और समचतुरस्र-सुडोल, योग्य माप से युक्त, न्यग्रोधपरिमंडल-वटवृक्ष के समान नाभि के ऊपर के अवयव सुन्दराकार और नीचे के अवयव सामान्य, सादि-नीचे का अंग सुडौल और ऊपर का अंग सामान्य, वामन-ठिंगना कद, कुब्ज-कुबड़ा और हुंडकुत्सित-बेडौल-ये छह प्रकार के संस्थान हैं।
जीवाणं भंते ! सिझमाणा कयामि उच्चत्ते सिझंति? - गोयमा ! जहण्णेणं सत्त रयणीओ, उक्कोसेणं पंचधणुस्सए सिझंति।
भावार्थ - हे भन्ते ! सिद्ध्यमान जीव कितनी ऊँचाई में सिद्ध होते हैं ?
हे गौतम ! जघन्य सात हाथ और उत्कृष्ट पांच सौ धनुष की ऊँचाई में सिद्ध होते हैं। अर्थात् पांच सौ धनुष की ऊँचाई वाले सिद्ध होते हैं।
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