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________________ ११६ उववाइय सुत्त रक्खंता आलोयं च करेमाणा, जयजयसई पउंजमाणा, पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठिया। भावार्थ - फिर बहुत से दण्डी, मुण्डी-मुण्डे हुए शिरवाले, शिखण्डी-शिखाधारी, जटीजटाधारी, मयूरपिच्छ आदि के धारक, हास्यकर-विदूषक, डमरकर-हुल्लड़बाज चाटुकर-खुशामदिये या प्रियवादी, दवकर-मजाकिये, वादकर-विवादी, कन्दर्पकर-काम प्रधान क्रीड़ा करने वाले या शृंगारिक चेष्टाएँ करने वाले, कौत्कुचिक- भांड और कीर्तिकर-भाट बजाते हुए, गाते हुए, हँसते हुए, नाचते हुए, बोलते हुए, शिक्षा देते हुए, रक्षा करते हुए, राजादि का अवलोकन करते हुए और ध्वनि करते हुए क्रमशः आगे रवाना हुए। तयाऽणंतरं जच्चाणं तरमल्लिहायणाणं हरिमेला-मउल मल्लियच्छाणं चंचुच्चियललियपुलियचलचवल-चंचलगईणं लंघणवग्गणधावणधोरणतिवईजइणसिक्खियगईणं ललंत-लामगललायवरभूसणाणं मुहभंडग-ओचूलगथासगमिलाण चमरीगंडपरिमंडियकडीणं किंकर-वर-तरुण-परिग्गहियाणं थासग अहिलाणचामरगंड-परिमंडियकडीणं-अट्ठसयं वरतुरगाणंपुरओ अहाणुपुव्वीएसंपट्टियं। भावार्थ - इसके बाद वेगादिकारक वर्ष वाले–यौवन वयवाले, स्थासक-आभूषण विशेष, अहिलाण (मुख संयमन-लगाम) से युक्त और चामरदण्ड से सजी हुई कटिवाले एक सौ आठ श्रेष्ठ घोड़े क्रमशः आगे रवाना किये। हरिमेला-वनस्पति विशेष की नवकलिका और मल्लिका सरीखी उनकी आँखें थी-सफेद आँखें थी। उनकी चाल बांकी, विलास युक्त-ललित और कोतल-पुलितनृत्यमय थी, उनके अस्थिर शरीर की चपलता से चञ्चल थी और लांघने, कदने, दौडने, गति की चतुराई, त्रिपदी-चलते हुए भूमि पर तीन पैरों का ही टिकना, जय या वेग से युक्त और शिक्षित थी। उनके गले में हिलते हुए रम्य श्रेष्ठ भूषण पड़े हुए थे। विमुख-भण्डक- मुख का भूषण-मोरा आदि, अवचूल-लम्बे गुच्छक, स्थासक, पलाण से युक्त और चामर दण्ड से सजी हुई कटिवाले थे। उन्हें श्रेष्ठ तरुण किङ्करों ने पकड रखे थे। ___ तयाऽणंतरं च ण ईसीदंताणं ईसीमत्ताणं ईसीतुंगाणं ईसीउच्छंग-विसाल-धवलदंताणं कंचणकोसी-पविठ्ठ-दंताणं कंचण-मणिरयण-भूसियाणं वर-पुरिसा-रोहग सुसंपउत्ताणं अट्ठसयं गयाणं पुरओ अहाणुपुवीए संपट्ठियं। । भावार्थ - उनके बाद एक सौ आठ हाथी क्रमशः आगे रवाना किये गये। उन कुछ मत्त और ऊँचे हाथियों के दांत कुछ बाहर निकले हुए थे। वे दांत पिछले हिस्से में कुछ विशाल थे, सफेद थे और स्वर्ण आवरण से युक्त थे। वे हाथी स्वर्ण और मणि रत्नों से भूषित थे। तयाऽणंतरं सच्छत्ताणं सज्झयाणं सघंटाणं सपडागाणं सतोरणवराणं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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