________________
१५०
उववाइय सुत्त
यावत् उस स्थान की (अतिचार-दोष सेवन की) आलोचना प्रतिक्रमण (उनको दोष रूप से मानकर पश्चाताप) किये बिना ही, काल के समय में कालकर के, उत्कृष्ट सौधर्मकल्प (पहले देवलोक) में कान्दर्पिक देवों में उत्पन्न होते हैं यावत् एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम की स्थिति होती है।
परिव्राजकों का उपपात से जे इमे गामागर जाव सण्णिवेसेसु परिव्वायगा भवंति। तं जहा-संखा जोई कविला भिउच्चा।
भावार्थ - ये जो ग्राम आकर यावत् सन्निवेशों में परिव्राजक होते हैं। यथा-सांख्य (बुद्धिअहङ्कारादि तत्त्वों को मानने वाले और प्रकृति और पुरुष दोनों को जगत् का कारण मानने वाले) योगी । (अध्यात्म शास्त्र के अनुष्ठायी) कापिल (निरीश्वर सांख्य), भार्गव।
विवेचन - सांख्य और योगियों का तत्त्वज्ञान समान है। अन्तर केवल इतना ही है कि सांख्य तत्त्वज्ञान पर अधिक जोर देते हैं और योगी अनुष्ठान पर। सांख्य को कुछ लोग निरीश्वरवादी मानते हैं तो कुछ लोग ईश्वरवादी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उनमें दोनों प्रकार के मतवादी थे। जों निरीश्वरवादी थे वे कापिल कहलाते थे।
' जो सृष्टि के कारण रूप से अनादि से निर्लिप्त पुरुष विशेष को मानते हैं, वे ईश्वरवादी और सृष्टिकर्ता रूप से ईश्वर को मानने से इन्कार करते हैं, वे निरीश्वरवादी कहलाते हैं।
भृगुऋषि के शिष्य भार्गव कहलाते हैं। हंसा परमहंसा बहुउदया कुडिव्वया कण्हपरिव्वायगा।
भावार्थ - चार प्रकार के परिव्राजक यति हंस-पर्वत की गुफा, आश्रम, देवकुल आदि में रहने वाले और भिक्षार्थ ग्राम में प्रवेश करने वाले परिव्राजक, परमहंस-वे परिव्राजक यति जो नदी के पुलिनों-किनारों पर या समागम प्रदेशों में रहते हों और चीर, कौपीन और कुश का त्याग करके प्राण छोड़ते हों, बहूदक-गांव में एक रात्रि और नगर में पांच रात तक वास करते हुए, अपने योग्य प्राप्त सामग्री का उपयोग करते हुए विचरण करने वाले परिव्राजक यति, कुटीचर-वे जो घर में रहते हुए क्रोध, लोभ और मोह से दूर रहकर अहङ्कार का त्याग करते हैं और कृष्ण परिव्राजक- नारायण भक्त परिव्राजक विशेष।
तत्थ खलु इमे अट्ठ माहणपरिव्वायगा भवंति। तं जहाकण्हे य करकंडे य, अंबडे य परासरे। कण्हे दीवायणे चेव, देवगुत्ते य णारए॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org