SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ उववाइय सुत्त प्राप्ति हुई है या लाचारी से अर्थ प्राप्ति करनी पड़ती है, उनमें प्रीति या द्वेष के भाव नहीं करने को ही 'इन्द्रियनिग्रह' कहते हैं। जब 'विकार' का विष निकल जाता है, तब विषय 'अर्थ' मात्र रह जाते हैं। इन्द्रियप्रतिसंलीनता का आशय यही है कि अपने-अपने विषयों में दौड़ती हुई इन्द्रियों को खींच लेना' अर्थात् उनकी तल्लीनता के वेग को मोड़कर आत्मस्थ कर देना। अत: इसके मुख्यतः दो भेद हैं-१. विषयों के प्रति अनुत्सुकता और २. प्राप्त अर्थों में उदासीनता। पांच इन्द्रियों के शब्दादि २३ विषय हैं। यथा श्रोत्रेन्द्रिय के ३ विषय-जीव शब्द, अजीव शब्द, मिश्र शब्द ये ३ शुभ और ३ अशुभ इन छह पर , राग और छह पर द्वेष इस प्रकार १२ विकार। ___ चक्षुरिन्द्रिय के पांच विषय-काला, नीला, लाल, पीला और सफेद। ये ५ सचित्त, ५ अचित्त, ५ मिश्र ये १५ शुभ और १५ अशुभ इन ३० पर राग और ३० पर द्वेष। इस प्रकार ६० विकार। घ्राणेन्द्रिय के दो विषय - सुरभिगन्ध और दुरभिगन्ध। ये २ सचित्त, २ अचित्त, २ मिश्र इन ६ पर राग और ६ पर द्वेष। इस प्रकार १२ विकार। रसनेन्द्रिय के पांच विषय-तीखा, कड़वा, कषैला, खट्टा और मीठा। ये ५ सचित्त, ५ अचित्त, ५ मिश्र ये १५ शुभ और १५ अशुभ। इन ३० पर राग और ३० पर द्वेष। इस प्रकार ६० विकार। . स्पर्शनेन्द्रिय के आठ विषय-कर्कश (खुरदरा), मृदु (कोमल), लघु (हलका) गुरू (भारी), शीत (ठण्डा), उष्ण (गर्म), रूक्ष (लूखा) और स्निग्ध (चिकना)। ये ८ सचित्त, ८ अचित्त, ८ मिश्र ये २४ शुभ और २४ अशुभ इन ४८ पर राग और ४८ पर द्वेष। इस प्रकार ९६ विकार। प्रश्न - विषय किसे कहते हैं ? उत्तर - इन्द्रियाँ जिसको ग्रहण करती है, उसे विषय कहते हैं। । प्रश्न - शरीर में खुरदरा आदि क्या है ? उत्तर - शरीर में खुरदरा-पैर की एडी, कोमल-गले का तालु, हलका-केश, भारी-हड्डियाँ, ठंडाकान की लोल, गर्म-कलेजा, रूक्ष (लूखा)-जीभ, स्निग्ध (चिकनी)-आंख की कीकी। प्रश्न - विकार किसे कहते हैं ? उत्तर - विषयों पर राग द्वेष की भावना को विकार कहते हैं। प्रश्न- इन्द्रियों के विषय से कर्म बन्ध होता है या विकार से ? उत्तर - इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण करें, यह उनका स्वभाव है, उससे कर्मबन्ध नहीं होता है।किन्तु उनमें राग-द्वेष करने रूप विकार से कर्मबन्धहोता है, उस विषय में आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध के पन्द्रहवें अध्ययन में कहा है कि - ण सक्का ण सोउं सहा, सोयविसयमागया। राग दोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू पडिवजए॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy