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________________ अशोक वृक्ष सालो महुकरि भमर गण गुमगुमाइय णिलिंत उडिंत-सस्सिरीए णाणा सउण गण मिहुण सुमहुर कण्णसुह पलत्त सद्द महुरे ।' कठिन शब्दार्थ - वट्ट - वृत्त वर्तुल गोल, लट्ठ - लष्ट मनोज्ञ, सिलिट्ठ - श्लिष्ट सङ्गत, घण - निबिड़ - सघन, मसिण - अपरुष- मुलायम, णिद्ध - स्निग्ध-चिकणा, निरुवह - निरुपहत-विकार रहित, उव्विद्ध - उद्विध - अत्यन्त ऊंड़ा, अगेज्झो अग्राह्य, पलतसद्द प्रलप्तशब्द उच्चारण किया हुआ शब्द । अर्थ - उस अशोक वृक्ष का स्कन्ध दूर तक फैला हुआ था । जडें बहुत ऊंड़ी गई हुई थी। बहुत से मनुष्य हाथ पसारे तो भी उसका स्कन्ध ग्रहण नहीं होता था । भ्रमर और अनेक पक्षी उस पर मधुर शब्द कर रहे थे। सेणं असोगT-वर - पायवे - अण्णेहिं बहूहिं तिलएहिं लउएहिं छत्तोवेहिं सिरीसेहिं सत्तवण्णेहिं दहिवण्णेहिं लोद्धेहिं धवेहिं चंदणेहिं अज्जुणेहिं णीवेहिं कुडएहिं कलंबेहिं सव्वेहिं फणसेहिं दाडिमेहिं सालेहिं तालेहिं तमालेहिं पियएहिं पियंगूहिं पुरोवगेहिं रायरुक्खेहिं णंदिरुक्खेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । ते णं तिलया लवइया जाव • णंदीरुक्खा कुस - विकुस - विसुद्ध - रुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो एएसिं वण्णओ • भाणियव्वो जाव सिविय- पविमोयणा सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । १५ भावार्थ - वह अशोकवृक्ष तिलक, लकुच, छत्रोप, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण लोध्र, धव, चंदन, अर्जुन, नीप, कुटज, कदम्ब, सव्य, पनस, दाडिम, शाल, ताल, तमाल, प्रियक, प्रियंगु, पुरोपग, राजवृक्ष और नंदिवृक्ष- इन वृक्षों से चारों ओर से घिरा हुआ था। वे वृक्ष भी कुश - विकुश से रहित- विशुद्ध मूलवाले, स्वस्थ मूलवाले, कंदवाले ( इन वृक्षों का वर्णन 'सिविय पविमोयणा' तक कहना चाहिए ) सुरम्य, चित्त को प्रसन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप थे। ते णं तिलया जाव णंदिरुक्खा अण्णेहिं बहूहिं पउम लयाहिं णाग लयाहिं असोग लाहिं चंपग लयाहिं चूय लयाहिं वण लयाहिं वासंतिय लयाहिं अइमुत्तग लयाहिं कुंद लाहिं सामलयाहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता । ताओ णं पउमलयाओ णिच्चं कुसुमियाओ जाव वडिंसयधरीओ पासाईयाओ दरिस - णिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ । वार्थ- वे तिलक से लगाकर नंदी तक के वृक्ष अन्य बहुत-सी पद्म लताओं, नाग लताओं, अनेक लताओं-कली चम्पक लताओं, सहकार लताओं, वन लताओं- पीलुक वासंती लताओं, भूतिमुक्तक लताओं, कुंद लताओं और श्याम लताओं - प्रियंगु से चारों तरफ घिरे हुए । वे लताएँ फूलने वाली से लगा कर श्रेष्ठ अंकुरों के सेहरों तक की विशेषताओं से परिमंडित थी चित्तअसानकारक, दर्शनीय, अभिरूप थीं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004190
Book TitleUvavaiya Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2005
Total Pages222
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_aupapatik
File Size23 MB
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