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धर्मसुधाकर, मेवाड़भूषण मुनिश्री प्रतापमलजी महाराज
बहुमानार्थ आयोजित
___ मुनि श्री प्रताप अ भि न न्द न ग्रन्थ
लेखक-सम्पादक श्री रमेश मुनि, सिद्धान्ताचार्य 'साहित्यरत्न'
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मुनिश्री प्रताप-अभिनन्दन ग्रन्थ
लेखक * श्री रमेशमुनि, 'सिद्धान्ताचार्य'
सम्पादक * मुनिश्री सुरेश कुमारजी, प्रियदर्शी' परामर्शक * श्री अजीत मुनिजी 'निर्मल'
सयोजक ६ श्री नरेन्द्रमुनि 'विशारद'
श्री अभयमुनि श्री विजयमुनि 'विशारद श्री प्रकाशमुनि 'विशारद
प्रकाशक * श्री केसर-कस्तूर स्वाध्याय समिति
गाधी कालोनी, जावरा (म प्र)
व्यवस्थापक * सजय साहित्य सगम,
विलोचपुरा, आगरा-२
मुद्रण
* रामनारायन मेडतवाल,
श्री विष्णु प्रिंटिंग प्रेस राजा की मण्डी, आगरा-२
प्रकाशन वर्प
- वि० स० २०३० मार्गशीर्ष वीर स० २४६६
ई स दिसम्बर १९७३,
मूल्य सात रुपये मात्र
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समर्पण
सोशU
Som
शांती चन्द्र सम द्य तौ रवि समः
क्षात्री धरित्रीसम । सत्ये धर्म सम श्रुती गुरुसम
धैर्ये हिमाद्रिसम । धर्माचार-विचार चारु निपुणः
शाश्वत स्वधर्म रत.। वन्देऽह सततं प्रतापगुरवे
कुर्वन्तु मे मगलम् ।
-रमेश मुनि
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मेरी कलम : मेरे विचार
प्रस्तुत 'मुनि श्री प्रताप अभिनंदन ग्रन्थ' पाठको के कमनीय करकमलो की शोभा बढा रहा है । इस ग्रन्थ के लेखक-सम्पादक मेरे श्रद्धा के केन्द्र सिद्धान्तआचार्य, 'साहित्यरत्न' मधुरवक्ता श्री रमेश मुनि जी मा सा, है जिनके सराहनीय परिश्रम ने इतस्तत बिखरी हुई जीवनोपयोगी सामग्री को सग्रहीत करके ग्रन्यरूप मे प्रतिभापूर्वक सजाने का श्लाघनीय प्रयास किया है।
ग्रन्थ की विशेषताप्रस्तुत ग्रन्थ में चार खण्ड हैं। प्रथम खण्ड मे गुरुप्रवर का समुज्ज्वल जीवनदर्शन है। द्वितीय खण्ड मे, संस्मरण, शुभकामनायें एवंवन्दनाजलियो का संकलन किया गया है। तृतीयखण्ड मे प्रवचन पखुडियो का चयन एव चतुर्थखण्ड मे धर्म, दर्शन एव संस्कृति से सम्बन्धित विद्वानो के लेख है ।
इस प्रकार यह ग्रन्थ चार खण्डो मे होते हुए भी वृहदाकार होने से बच गया है। साथ ही सारपूर्णता है ही। विशालकाय ग्रन्थ पुस्तकालयो के लिए दर्शनीय वस्तु बन जाती है। पाठकगण जैसा चाहिए वैसा उपयोग नही कर पाते हैं । अतः इस ग्रन्थ को आकार मे लघु रखकर भी सारपूर्ण बनाने का प्रयत्न किया है। जहां-तहाँ प्रतिपाद्य विषय-शैली का प्रवाह मन्थरगति से प्रवाहित होता हुआ अतीव सरल-सुगम एव धर्म-दर्शन तत्त्वो से गर्भित प्लावित है, जो पाठकवृन्द के लिए उत्तरोत्तर रूचिवर्षक बन पडा है ।
किसलिए? अभिनन्दन ग्रन्थ सुसाहित्य भण्डार की अनुपम शान है । अमुक-अमुक युग मे जो यशस्वी विभूतिया हुई है उनका आद्योपांत जीवन दर्शन लिखा रहता है । उस जीवन वृत्त से भूली-भटकी एव अध पतन के गर्भ मे गिरती मानवता को पुन संभलने का स्वर्णिम अवसर मिलता
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है । 'Light house' की तरह अभिनन्दन ग्रन्थ मार्गदर्शक एवं प्रेरणा का स्रोत माना है। यद्यपि साधनारत आत्मा नही चाहती कि -जनता द्वारा हमारा बहुमान हो, जीवनियाँ स्वर्णिम पृष्ठो पर लिखी जाय, भावी पीढी हमे याद करें। किंतु विवेकशील समाज स्वय उनका सम्मान करने के लिए हाथ आगे बढाता है । वह उनका वहुमान करके अपनी चिरपरपरा के विगद गौरव को अक्षण्ण रखकर एव निज कर्तव्य का पालन करता हुआ अपने आपको महानता की ओर ले जाने का सफल प्रयास भी करते हैं। __ लेखकप्रवर स्वतत्र विचारक, मननशील एव प्राजलभाषा के धनी सुलेखक है । अवकाशानुसार आपके कर-कमलो मे कलम साहित्योद्यान मे अठखेलियाँ किया ही करती है ।
यद्यपि पार्थिव देह से आप (लेखक प्रवर) अति कृग, अति कमजोर अवश्य जान पडते है किंतु सच्ची निष्ठा के पक्के अनुगामी है, हताश होना एव हिम्मत हारना आप जानते ही नही है। अध्ययन-अध्यापन क्षेत्र मे आपका मनोबल अत्युच्च एव उत्साह-उमग के युवक साधक भी है। आपके साधनामय जीवन को चमकाने-दमकाने का सर्व श्रेय हमारे चरित्रनायक श्री जी को है। जिनकी वलवती प्रेरणा चेतना सदैव लेखक महोदय के जीवन को आगे से आगे बढ़ने की स्फूर्ति भरती रही है।
वस्तुत' चन्द शब्दो के माध्यम से प्रात स्मरणीय गुरु भगवत श्री प्रतापमल जी म सा. के उदीयमान जीवन को कुछ अशो मे दर्शाने का जो अनुपम अनुकरणीय प्रयास किया है, उसके लिए हम सभी लेखक मुनिवर के प्रति आभारी है। ___ 'मुनि श्री प्रताप अभिनदन ग्रथ' का यह सफल परिश्रम प्रत्येक बुद्धिजीवी के लिए युग-युग तक प्रकाश-स्तभ सा कार्य करेगा। ऐसी मैं आशा रखता हूँ।
--मुनि सुरेश 'प्रियदर्शी
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लेखक की कलम से
गुरु प्रवर श्री प्रतापमल जी म. सा के साधना-काल को इस समय इकावन वर्ष सम्पन्न हो चुके है। उन्होने अपने इस महत्त्वपूर्ण समय का सर्वाग मुख्यरूपेण स्थानकवासी जैन समाज की प्रगतिविकास मे और जन-जन के कल्याण मे बिताया है।
गुरु भगवत के जीवन का अध्ययन करते रहने का सुअवसर गत वीस वर्षों से मुझे भी प्राप्त हुआ है । मेरा पठन-पाठन, मेरी साधना व मेरी प्रगति इनकी देख-रेख मे ही फली-फूली, उनके कमनीय करकमलो से सवर्धन पाई एवं उनकी शुभ दृष्टि के समक्ष ही पल्लवितपुष्पित हुई है।
यद्यपि मेरे लिए उनका वाल्य जीवन और पहिले का मुनि जीवन केवल श्रवण का ही विषय रहा है । तथापि उनके मुनि जीवन के कुछ वर्ष मेरे प्रत्यक्ष के विषय रहे है। मेरी नन्ही सी आँखो ने इन वीस वर्षों मे उनको काफी सन्निकटता से देखा है। दिल-दिमाग ने यथा शक्ति समझा है और मन ने अपनी मथरशीलता से उनके विषय मे नानाविध निष्कर्ष भी निकाले हैं। उन्ही निष्कर्षों को शब्दाकित करने का प्रयास इस लघु पुस्तिका मे किया गया है ।
व्यक्ति के पार्थिवदेह की आकृति को कागज पर उतारने मे जितनी कठिनाइयाँ होती हैं, उनसे कही अधिक व्यक्तित्व को श्वेत कागज पर लेखनी द्वारा उतारने मे होती है । आकृति साकार होती है। उसे किसी एक ही क्षेत्र और काल के आधार पर चित्राकित कर लेना पर्याप्त हो सकता है। परन्तु साधक का महामहिम व्यक्तित्व अनाकार-अरूप होता है। साथ ही साथ वह जन-जन के जीवन तक व्याप्त रहता है। अतएव उसे शब्दाकित करने मे अपेक्षाकृत अधिक दुरुहता है। चूंकि लिखी गई कही गई, बातो का आज की चतुर
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समाज अपनी तीक्ष्ण बुद्धि की तुला पर नापती है। अपने संकीर्ण दिलदिमाग से लेखक के व्यापक निष्कर्षों का मिलान करती है। उनमे
और इनमे कही समानता नही हई तो उसका भी उत्तर चाहती है। अतएव स्थान-स्थान पर प्राय अतिगयोक्तियो का वहिष्कार ही किया गया है। आदर्शवाद को न अपना कर जहाँ-तहाँ हमारे चरित्रनायक के जीवन का वास्तविकवाद के माध्यम से ही दिगदर्शन करवाया गया है।
सहयोगियो का सहयोग कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है । स्थविर पद विभूषित मालवरत्न, गुरु भगवत श्री कस्तूरचन्द जी म० स्थविर वर प० रत्न श्री रामनिवास जी म०, गुरुवर श्री प्रतापमलजी म,प्रवर्तक श्री हीरालालजी म आदि मुनियो के वरदहस्त मेरे माथे पर रहे है । प्रस्तुत कार्य मे सुहृदयी-स्नेही सफलवक्ता श्री अजीत मुनि जी एव श्री सुरेश मुनि जी म की तरफ से उत्साह वर्धक स्फुरणा मिलती रही। लघुमुनि श्री नरेन्द्रकुमार जी एवं श्री विजय मुनि जी का सहयोग विशेष उल्लेखनीय रहा। जिन्होने शुद्ध साफ प्रेस कापी करने मे श्लाघनीय सेवा प्रदान की। स्नेही श्रीचंद जी सुराना 'सरस' का सेवा कार्य भी स्मरणीय है । सचमुच ही जिन्होने ग्रथ को निखारा है। अन्य जिन मुनि महासती वृन्द ने अपने श्रद्धा-स्नेह भरे उद्गारो को भेजकर ग्रन्थ को सुन्दर बनाने मे सहयोग दिया है उन सभी विद्वद्वर्ग का हृदय से अभिनंदन करता हूँ।
किसी भी महापुरुष के जीवन का सर्वोश रूपसे दर्शन कर लेना सहज नही है। उनके ऊर्ध्वमुखी जीवन को देखने के लिए दृष्टि की भी उतनी ही व्यापकता अपेक्षित है। मुझे यह स्वीकार करने मे तनिक भी सकोच नही कि प्रस्तुत 'मुनि श्री प्रताप अभिनंदन ग्रन्थ' सम्पूर्ण नही है। इसकी पूर्णता मैं अपनी नन्ही बुद्धि से नही कर पाया हूँ। इसका मुझे तनिक भी खेद नहीं है । मैं जानता हूँ कि किसी भी साधक के जीवन का अध्याय 'इति' रहित है और उसमे केवल 'अथ' ही होता है।
-मुनि रमेश
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आभार-दर्शन
वादीमान-मर्दक स्व० गुरुदेव श्री नन्दलाल जी म सा के शिष्य रत्न मेवाडभूषण पं० रत्न श्री प्रतापमल जी म सा के साधना (दीक्षा) जीवन के ५१ वर्ष पूर्ण होने आये है। आपने इस सुदीर्घ साधना जीवन मे जैन समाज की अमूल्य सेवा करके धर्म-शासन की गौरवगरिमा-महिमा चमकाने का श्लाघनीय प्रयास किया और कृतसंकल्प है। जिनका मूल्याकन करना साधारण जन-मन के बस की बात नही है। ___ कभी भी जिनका मनोबल सफलता-विफलता की परिस्थितियो मे गडवड़ाया नही, लोमहर्षक-विघ्न वाधाओ मे भी जिनका जीवन लक्ष्य अचल रहा, जो हमेशा सरलता-समता-रसपान करके मुस्कराते रहै हैं, निरतर-प्रगति की मशाल लिए आगे बढना ही सीखा है। ऐसे महान व्यक्तित्व के धनी का 'मुनिश्री प्रताप अभिनदन ग्रथ' के रूप मे प्रकाशन करके हम अत्युल्लास का अनुभव कर रहे हैं ।
लेखक सयोजक, संपादक एवं मुनिमण्डल का यह प्रयास सर्वथा अनुकरणीय एवं अनुमोदनीय है। जिन्होने गुरुदेव के प्रति अनुपम श्रद्धा-भक्ति का परिचय दिया है।
जिन महानुभावो ने ग्रंथ प्रकाशन मे हमे बौद्धिक तथा आर्थिक सहयोग प्रदान किया है उनके लिए समिति आभारी है।
-अध्यक्ष एवं मंत्री शोभागमल कोचेटा, सुजानमल मेहता केशर-कस्तूर स्वाध्याय भवन
गाधी कालोनी
जावरा
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मेवाड़ भूषण गुरुवर्य श्री प्रतापमल जी महाराज
जीवन की लघु परिचय-रेखा
जन्मस्थान -- मेवाड, देवगढ (मदारिया) राजस्थान । पिता श्री - मान्यवरसेठ "मोडीराम जी" ओसवाल गाधी गोत्रीय । मातुश्री - अखण्ड सौभाग्यवती गुण गभीरा धीरा " दाखावाई' गाँधी | जाति और धर्म - ओसवाल तथा जैनधर्म |
जन्मसवत् - १६६५ आश्विन कृष्णा ७ सोमवार ।
जन्मनाम - "प्रतापचन्द्र" गाधी ।
गुरुप्रवर की ख्याति - प्रात स्मरणीय वालब्रह्मचारी, ओजस्वी यशस्वी 'वादीमान-मर्दक'
श्री 'नन्दलाल जी' महाराज |
परमतेजस्वी, गुरुप्रवर
दीक्षा स्थली -- ' मन्दसोर' मध्यप्रदेश |
दीक्षासवत् – स० १९७९ मार्गशीर्ष पूर्णिमा ।
अध्ययन व भाषा - विज्ञान - हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत, गुजराती व अंग्रेजीसाहित्य मे आपकी पहुँच व भाषा विज्ञान के विज्ञ है । हिन्दी - गुजराती सस्कृत, में आप सफल उपदेशक भी है ।
पदवी - वडी सादडी मे स० २०२६ मार्गशीर्ष पूर्णिमा की शुभ घडी मे स्थानीय सघ द्वारा 'मेवाड भूपण' पदवी से अलकृत । विहार स्थली - मेवाड, मारवाड, मालवा, पंजाब, बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात व बम्बई प्रदेश आदि ।
शिष्य-प्रशिष्य - तपस्वी व्या० "श्री वसतिलाल जी" म०, मधुर वक्ता श्री " राजेन्द्र मुनि जी" म०, "मुनि रमेश" " प्रियदर्शी" श्री सुरेश मुनिजी म०, श्री नरेन्द्र मुनिजी म०, तपस्वी सेवाभावी श्री अभयमुनि जी म०, श्री विजय मुनि जी म०, आत्मार्थी श्री मन्नामुनि जी म०, श्री वसत मुनिजी म०, प्रकाश मुनि जी म०, श्री सुदर्शनमुनि जी म०, श्री महेन्द्र मुनि जी म०, श्री कातिमुनि जी म० ।
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मेवाड़भूषण पं० रत्न श्री प्रतापमल जी महाराज
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ग्रन्थ-प्रकाशन में सहयोगी मण्डल
५०१)
३०१) ३०१)
१५०१) श्रीमान् चम्पालालजी सकलेचा जनसेवा ट्रस्ट द्वारा प्राप्त जालना १००१) , सुगनमलजी सा० भंडारी "जैन रत्न"
इन्दौर ५५१) , कवंरलाल जी गजराज जी वागरेचा
जोधपुर ५०१) , भीमराज जी लक्ष्मीचन्द जी सालेचा (वीतप के उपलक्ष्य मे)
मजल ५०१) घेवरचन्द जी शान्तिलाल जी सालेचा (वर्षीतप के उपलक्ष्य मे)
मजले ५०१) पुखराज जी भवरलाल जी कोठारी
मजल हस्तीमल जी सा० वाफना
(स्व० पिता श्री केशरीमल जी की स्मृति मे) । ढीढस ५०१)
गुप्त दान वस्तीमल जी मोहनलाल जी कोठारी
मजल मगनीरामजी हसमुखलाल जी बवकी
लसाणी २५१) भीखमचन्द जी पारसमल जी सालेचा
भजल २५१) , खीमराज जी केशरीमल जी सालेचा
मजल गेंदालाल जी सा० पोरवाल
इन्दौर २५१) मदनलाल जी सा० कीमती
इन्दौर २५१)
राजमल जी नन्दलाल जी मेहता
(चेरेटी ट्रस्ट द्वारा प्राप्त) २५१)
श्रीमती चम्पा बाई धर्मपत्नि लाला अमोलकचन्द जी के सुपुत्र सुभाषचन्द्र के विवाह उपलक्ष्य मे
इन्दौर २५१) श्री स्थानकवासी जैन सघ
मन्दसौर २५१) पुखराज जी मोहनलाल जी छाजेड
मालगढ २५१) ओटरमल जी घीसूलाल जी छाजेड
मालगढ २५१) भीमराज जी कपूरचन्द जी सकलेचा
रामा २५१) फरसराम जी धन्नाजी सकलेचा
रामा २०१) मगनीराम जी पारसमल जी सा०
राखी २०१) स्व० श्री उमरावसिंह जी कानूनगो २०१) हस्तीमल जी सा० कुमठ
पिपल्या मडी १,१) बाबूलाल जी इन्दरमल जी मारू
मल्हारगढ १५१) भवरलाल जी शान्तिलाल जी धाकड
इन्दौर
२५१)
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- १२
-
कु वारिया
इन्दौर
१५१)
१०१)
१५१) श्रीमान् नाथूलाल जी रोशनलाल जी कछारा १५१) , राजेन्द्रकुमार जी धाकड
(स्व० पिता श्री तेजमल जी सा० की स्मृति मे)
भगवतीलाल जी तातेड । १५१) धन्नालाल जी मन्नालाल जी ठाकुरिया, १०१) अमरसिंह जी सा० चौधरी
चाँदमल जी सा० पामेचा १०१) वाबूलाल जी ओस्तवाल १०१) सज्जनसिंह जी सा० मेहता १०१) प्यारचन्द जी सा० राँका १०१) भवरलाल जी मदनलाल जी चोपडा १०१) सुजानमल जी सोभागमल जी देशलहरा १०१) लाला अभयकुमार जी जैन १०१) भेरूलाल जी सा० सोनी
भेरूलाल जी जैन १०१) वनारसीदास जी सतीशचन्द जी जैन १०१) शिवलाल जी रामचन्द्र जी कर्नावट १०१)
गुप्त दान १०१) हुक्मीचन्द जी भटेवरा १०१) शान्तीलाल जी महेन्द्रकुमार जी वोरा १०१) __ माणकलाल जी सुभापचन्द जी गुदेचा
डूगला इन्दौर मन्दसौर मन्दसौर
जावरा मन्दसौर सैलाना जावद इन्दौर
इन्दौर
उज्जैन वडागाव दिल्ली
गडई खाचरोद
इन्दौर जामखेडा राजौरी
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उदीयमान कवि, लेखक एवं वक्ता श्री रमेश मुनि 'सिद्धान्त आचार्य'
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अनुक्रमणिका
प्रथम खण्ड :
जीवन-दर्शन
पृष्ठ १ से ७४
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ससार एक माधना स्थली १ १४ दीक्षा साधना के पथ पर
मातृभूमि मेवाड ५ १५ शास्त्रीय अध्ययन
सतसेना ८ १६ गुरुवर्य की परिचर्या देवगढ़ मे दिव्यज्योति ११ १७ विहार और प्रचार शैशवकाल और मातृवियोग १४ १८ दिल्ली का दिव्य चातुर्मास दिवाकर का दिव्य प्रकाश १६ १६ कानपुर की ओर कदम
महामारी का आतक १८ २० पावन चरणो से वग-विहार प्रात - वैराग्य का उद्भव २० २१ कलकत्ते मे नव जागरण गुरुनन्द का साक्षात्कार २२ २२ झरिया मे दीक्षोत्सव पारिवारिक-परीक्षा २४ २३ इन्दौर चातुर्मास • एक विहगावलोकन प्रतिज्ञा-प्रतिष्ठापक २६ २४ मजलगांव मे महान् उपकार
एक प्रेरक-प्रसग २७ २५ शिष्य-प्रशिष्य परिचय । जैन दीक्षा माहात्म्य २८ २६ गुरुदेव के अद्यप्रभृति चातुर्मास
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५६
६५
७४
द्वितीय खण्ड : संस्मरण : शुभकामना : वन्दनाञ्जलियाँ
पृष्ठ ७५ से १३०
वाणी का प्रभाव ७५ ६ हम न चोर न लुटेरे हैं
जोडने की कला ७५ ७ पैसा पास है क्या? गुरुदेव के उत्तर ने ७६ ८ मैं क्या मैंट करूं?
सवल-प्ररक ७८ 8 सरलता भरा उत्तर - क्या तुम्हें डर नही ? ७६ १० जैसे को तैसा उत्तर
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भूले पथिक को राह ८४ १६ विरोधी को प्रिय बोध विरोध भी विनोद ८५ १७ भविष्यवाणी सिद्ध हुई
भ्राति-निवारण ८६ १८ आक्षेप-निवारण
समय सूचकता ८८ १६ आग मे बाग जादू भरा उपदेश ५६ २० विरोधी आप की तारीफ क्यो करते हैं ? ९३
अभिनन्दन : शुभकामनाए
अभिनन्दन पत्र १ ९५ १४ प्रताप की प्रतिभा -वकानी श्री सघ
-श्री लाभचन्द जी म० अभिनन्दन पत्र २ ६६ १५ मेरे आराध्य देव -ओसवाल जैन मित्र मडल, कानपुर,
.. श्री वसतीलाल जी म० आशीप-वचन ६६ १६ विनम्र पुष्पाजलि -गुरुदेव श्री कस्तूरचन्द जी म०
~मुनि हस्तीमल जी म० मेरी शुभ कामना ६८ १७ प्रतापी-व्यक्तित्व -स्थविर मुनि रामनिवास जी म०
-मुनि प्रदीप कुमार जी अभिनन्दनीय यह क्षण ६८ १८ गौरव-गाथा -प्रवर्तक मुनिश्री हीरालाल जी
-श्री वीरेन्द्रमुनि जी सरल और सुलझे हुए संत ६६ १६ ऐक्यना के प्रतीक -प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी म०
-निर्मल कुमार लोढा मेरी मगल कामनाए ६ २० हार्दिक अभिनन्दन - बहुश्रुत श्री मधुकर मुनि
मदन मुनि हादिक मगल कामना ६६ २१ एक अपराजेय व्यक्तित्व -उपप्रवर्तक श्री मोहनमुनि जी म०
-श्री मूलचन्द जी म० श्रद्धेय श्री प्रतापमल जी म. १०० २२ सार्वभौमिक सत -भगवती मुनि 'निर्मल'
-श्री अजीत मुनि 'निर्मल' प्रतिभामम्पन व्यक्तित्व १०१ २३ प्रताप-गुणाष्टक - मुनि श्री रमेश
-श्री उदयचन्द जी म. ___अभिनन्दन पत्र १०५ । २४ श्री प्रताप-प्रतिभा -श्री चैन सघ, सैथिया
- मरधरकेसरी प्रवर्तक मिश्रीमलजी म० आदरणीय गुरु प्रवर १०७ २५ प्रताप के प्रति -~-महानती विजयाकुमारी
-कविरत्न श्री चन्दनमुनि __ सत-जोवन १०८ २६ अभिनन्दन पचकम् माध्वी कमलावती
-गुनि श्री महेन्द्रकुमार 'कमल'
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- १५ -
११४
श्रद्धा के कुछ फूल ११६ ३६ यशोगान -~-मुनिश्री कीर्तिचन्द जी
-श्री राजेन्द्र मुनि श्रद्धा के सुमन १२० ३७ वन्दनाजलि-पचक -मगन मुनि 'रसिक'
-श्री सुरेशमुनि 'प्रियदर्शी ___ पाच-सुमन १२० ३८ मेरी वदना स्वीकार हो । १२६ -~-वसन्तकुमार वाफना
__ --विजय मुनि 'विशारद' गुरुगुण-पुष्प १२१ ३९ ३६ गुरु-गुण माला
१२७ ---श्री अभयमुनि जी
___ - -नरेन्द्र मुनि 'विशारद' गुरु-भक्ति गीत १२१
१२८ -~-महासती प्रभावती जी
___ ~श्री काति मुनि -~-महासती सुशीलाकवर जी
४१ महिमा अपार है प्रताप-गुण इक्कीसी १२२
-मुनि श्री मन्नालालजी __-मुनि रमेश ४२ गुरु-महिमा वंदना हो स्वीकार । १२३
-श्री प्रकाश मुनि -~-रग मुनिजी ४३ श्रद्धा से नत है गुरु-गुण गरिमा १२३
-श्रीचन्द सुराना 'सरस' -अभय मुनिजी
वदनशत-शतवार १२४ --महासती विजयकुंवर जी
१२८
१३०
तृतीय खण्ड:
प्रवचन-पंखुड़ियाँ
पृष्ठ १३१ से १९६
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जीने की कला १३१ ६ मृत्यु जय कसे वर्ने ?
सहयोग धर्म १३८ ७ समदर्शन-माहात्म्य सयममय जीवन १४३ ८ वैराग्य विशुद्धता की जननी
सच्चे मित्र की परख १४८ ६ पचनिधि माहात्म्य भगवान महावीर के चार सिद्धान्त १५३ १० कर्म-प्रधान विश्वकरि राखा
११ आचार और विचार-पक्ष १८८
१५८ १६४ १६६ १७५ १८१
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चनु बण्ड : धर्म-दर्शन और संस्कृति
पृष्ठ १६७ से २५२ : --:---!! Emi:
. हमारी मानाय परारा २२१ torrrrry १
.~ RAINE जी महाराज .
. गजमातीशे भनिन-माहित्य २४. - गापि धोरगरनन्द नाहटा
१० नमागे नागे : - * Em६
-गमतामारी रेन -
मामाचीची .art .. My Fire
HTTETी महाराज
--मात अंग २. 1- yer In
गरि गुरप्रीत २५२ ~
गरी
२५. ।
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जीवन दर्शन
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संसार : एक साधना-स्थली
आधार और आधेय ___ इस अपार अवनि अचल में निवास करनेवाले प्रत्येक जीवधारियो की अभिरुचियां भिन्नभिन्न ही हुआ करती हैं। किसी को क्या पसन्द, तो किसी को क्या अभीष्ट लगता है। इसी तरह रग-रूप, रीति-रिवाज, रहन-सहन, धर्म-कर्म, एव मान्यता आदि मे भी अनेको प्रकार की विषमता पाई जाती है। कहा भी है-'भिन्नरुचिर्लोकः' ।
कतिपय मानवो की मान्यता के अनुसार यह विराट् विश्व केवल असारता एव बुराइयो का अखाडा है, तो दूसरी धारा ससार को भलाई का भाजन अभिव्यक्त करती हुई उपादेय मानती है और तीसरी धारा के हिमायती गण भलाई-बुराई उभयात्मकरूपेण ससार का चित्रण प्रस्तुत करते हैं । इस प्रकार विभिन्न मन्तव्यो का अजस्र प्रवाह चिरकाल से वहता चला आ रहा है।
कुछ भी हो, परन्तु इस अखिल वसन्धुरा प्रागण को माधनास्थली मान भी लिया जाय तो कोई अतिशयोक्ति नही होगी । अर्थात्-~~-जहाँ अनत-अनत साधक-समूह परिपक्व एव शुद्ध-विशुद्ध चिर साधना के तीक्ष्ण एव कठोर पथ पर अग्रसर होकर आधि-व्याधि-उपाधि त्रय तापो का अत कर सर्वोत्तम विदेह (मोक्ष) दशा को प्राप्त हुए हैं । जिसकी साक्षी मे चमकता एव दमकता अतीत का जीता जागता इतिहास पुकार रहा है।
जहाँ सर्वप्रथम भगवान् ऋपभदेव ने सम्यक् साधना के बल पर सर्वोपरि तत्वो को प्राप्त किया, जहा कपिल, पतजलि, कणाद एव गौतम ऋपि ने ज्ञान-साधना साधी, जहा जैमिनी ऋपि ने कर्म काण्ड की उपासना की, जहा व्यास ऋषि ने वेदान्तो का विस्तृत विश्लेषण-विवेचन प्रस्तुत किया, जहाँ पुरुषोत्तम राम न्याय, नीति एव सत्य-सेवा सुरक्षा हेतु घोरातिघोर मार्ग का अनुसरण कर जयवत हुए और जन-मन मे एक नई चेतना फूकी, जहा योगीश्वर कृष्ण ने विभिन्न प्रकार की योगाराधना अराधी, जहा भ० वर्धमान ने जप-तप एव रत्न-त्रय की समीचीन साधना साधी और शुद्ध निरजन-निराकार अवस्था को प्राप्त हुए और जहा गौतम बुद्ध ने मध्यम मार्ग एव क्षणवाद की साधना करके, वौद्ध धर्म की नीव खडी की थी। इस प्रकार अगणित निन्थ परम्परा के और इतर यति-ऋपि एव साधक समूह अपनी-अपनी मान्यता श्रद्धा-भक्ति शक्त्यनुसार साधना-रत्नाकर मे अवगाहित हुए और करणी कथनी के अनुसार यथेष्ट फल को प्राप्त हुए है।
__ वर्तमान युग मे भी लाखो करोडो नर-नारी तो क्या, पर यह विराट विश्व ही रात-दिन एक लम्वी साधना के पथ पर द्रुतगति मे प्रयाण कर रहा है। हा, कोई देश समाज एव सघ-सेवा माधना मे तन्मय है, तो कोई इन्द्रिय-सुख-सुविधा साधना मे, कोई योगाभ्यास मे तल्लीन है तो कोई अर्थ उपासना मे तो कोई जमीन जायदाद की साधना मे दत्तचित्त है। परन्तु किसी न किसी रूप में माधना साध रहे हैं। एक चोर लुटेरा-लफगा है, वह भी पहले कुछ न कुछ कला (माधना) का प्रशिक्षण ग्रहण करता है । तद
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२ | मुनि श्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
न्तर कही किसी श्रीमत के यहा अपनी कला का परीक्षण भी करता है । परन्तु यह गाधना, कुसाधना, ऐसी उपासना कुउपासना, ऐसी कला कुकला एव ऐमा लिग कुलिंग माना गया है । वाद्य दिखावटी साधना से भले कुछ समय के लिए स्व-पर का मनोरजन हो जाय, किन्तु देव दुर्लभ यह देह अघ पतन के गहरे गर्न मे अवश्य जा गिरता है । क्यो कि तत् (माधना) जनित कटु कठोर फल विपाक उग राही को भव भवा तर की भूल-भुलया मे डाले विना नही चूकते हैं । अतएव आर्थिक-गौतिक एव दिखावटी माधना की अपेक्षा आत्मचिंतन, स्व-पर भेद विज्ञान सर्वोदय एव रत्नप्रय को साधना-अन्येपणा गर्वोत्तम-श्रेष्ठतम मर्योपरि एव पवित्र प्रशस्त मानी गई है । यथा --
तिविहेण वियाण माहणे, आयहिते अणियाणा सवले । एव सिद्धा अणतसो, सपइ जे अणागया बरे ॥
-भगवान महावीर हे साधक | जो आत्महित के लिए एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय पर्यन्त प्राणी मात्र की मनसा-वाचाकर्मणा हिंसा नही करते हैं और अपनी इन्द्रियो को विषय वासना की ओर घूमने नहीं देते हैं, बस इसी व्रत के पालन करते रहने से भूतकाल मे अनत जीव मोक्ष पहुंचे और वर्तमान मे जा रहे है इसी तरह भी जावेंगे।
इस प्रकार सर्व सुखाय-हिताय एव सर्वोदय माधना को चार विभागो मे विभक्त किया गया है
विणए सुए य तवे, आयारे निच्च पडिया। अभिरामयति अप्पाण, जे भवति जिइन्दिया ।।
-दशवकालिक जो जितेन्द्रिय साधक है, वे विनय,, श्रुत, तप और आचार रूप साधना महोदधि मे अपनी आत्मा को सदा लगाए रहते हैं। वे ही सच्चे साधक हैं ।
साधना का विस्तृत क्षेत्र इस प्रकार साधनास्थली का क्षेत्र महामनीपियो ने पंतालीसलाख योजन जितना विराट विस्तृत व्यक्त किया है। किसी एक स्थान पर ही अर्थात् अमुक मदिर मस्जिद-मठ मे वा अमुक गुरु के पास ही साधना परिपक्व दशा को प्राप्त होती हो, ऐसा नही। साधना की आराधना, शून्यागार, श्मशान झाड-पहाड एव निर्जन वन-वाटिका आदि कही भी निर्दोप शात स्थान पर माधली जाती है । अर्थात पैतालीस लाख योजन के विशाल भू-भाग पर साधक साधना मे सफलता पा सकता है । भगवान् वर्द्धमान ने भी ऐसा ही अनुकूल क्षेत्र चुना था-जैसा कि
कभी जगल उद्यान, कभी शून्य श्मशान, शात एकान्त जगह मे ध्यान धर रहे। मन अमल-विमल, तन मेरु सा अचल नहीं परवाह करे दुख पीर को यह कहानी है श्रमण महावीर की ।
- कविवर केवल मुनि
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प्रथम खण्ड ससार एक साधना-स्थलो | ३
साधक के लिए सावधानी परन्तु शतं यह है कि साधक की इन्द्रिया और मन अपने स्थान पर हो, यदि त्रय योग स्व-धर्म से दूर है, तो वह साधक भले सगमरमर के मनोज्ञ मदिर मे तो क्या परन्तु तीर्थकर प्रभु के अभिमुख बैठकर साधना कर रहा हो तो भी उसको इच्छित-अभीष्ट फल (साव्य) की उपलब्धि नही हो सकेगी। अतएव डग-डग और पग-पग पर साधक को विवेक, सावधानी और दीर्घ दृष्टि रखना जरूरी है । अन्यथा "लाभमिच्छतो मूलक्षतिरायाता" अर्थात् लाभ की आशा मे मूल भी जाता रहेगा । ऐसी स्थिति यदाकदा साधको की भी बन जाती है ।
जहा ससार की चप्पा-चप्पा भूमि साधनास्थली है, वहाँ अगणित विगाडू डुबोने वाले एव साधना मार्ग से रखलित करने वाले नैमित्तिक तत्त्व भी विद्यमान है । जो उपादान (साधक) द्वारा की गई शत-सहस्र वर्षों की घोरातिघोर साधना को एक क्षण, एक पल मे भस्मीभूत कर देते हैं । एक दार्शनिक की भापा मे-"मानव । तेरे द्वारा की गई सौ वर्षों की साधना सेवा पर एक मिनिट की बुराई-बदनामी, किया कराया गुड का गोवर कर देती है अतएव सदैव साधक को अपनी साधना सुरक्षा हेतु सजग सचेत रहना चाहिए। कहा भी है -
मुह मुहूं मोह गुणो जयत, अणेगरूवा समण चरतं । फासा फुसती असमजस च, ण तेसु भिक्खु मणसा पउस्से ।।
-भगवान महावीर निरतर मोह गुणो को जीतते हुए सयम मे विचरण करने वाले साधको को अनेक प्रकार के प्रतिकूल विपय स्पर्श करते हैं । किन्तु साधक उन दुःखदायक विषयो की न कामना करें और उन पर राग-द्वेप भी न करें।
साधना का आराधक कौन ? जो डरपोक और बुजदिलवाले मानव हैं वे प्रथम तो साधना के मैदान मे उतरते ही नही, यदि भूल-चूक के देखा-देखी कभी उतर भी गये, तो पुन थोडी सी कठिनता आने पर मैदान छोड भाग निकलेते हैं । क्योकि उनका मन मस्तिष्क हमेशा सशकित कमजोर एव कायरता का किंकर बना रहता है । वे भीरु साधक सोचते हैं कि क्या पता | साधना सफल होगी या नही | क्या पता, फल मिलेगा या नही । क्या पता, स्वर्ग अपवर्ग है या नही ? और क्या पता भविष्य मे पुन भोग-परिभोग मिलेगा कि नही ? इस प्रकार शका के वशवर्ती वनकर शुभ शुद्ध प्रक्रिया प्रारम्भ ही नही कर पाते हैं । परन्तु जो धीर-वीर गभीर एव मजबूत मन वाले होते हैं वे साधक हिमाचल की तरह अडोल एव श्रद्धा विश्वास मे सुमेरु की भांति अविचल वनकर फलाभिलापा मे विरक्त-विमुक्त रहते हुए और विध्नधनो को चीरते-फाडते हुए कर्म (साधना) कूप मे कूद पडते हैं । केवल सम्यक् परिश्रम पुरुपार्य एव उद्यम करना ही उनका एक मात्र चरम परम लक्ष्य रहता है।
अत सचमुच ही सच्चे एव निष्कामी वरिष्ठ आत्मयोगी साधको के लिए यह ससार एक साधना-स्थली अवश्य है । यदि ज्ञानी और गुणी नही होंगे तो ज्ञान और गुणो का निवास कैसे और कहा रहेगा ? इसी तरह आधार (ससार स्थली) का सद्भाव रहेगा तो ही आधे य-साधक वृन्द भी कुछ काम अवश्य कर पायेंगे इमलिए साधनास्थली का भी काफी महत्त्व है। साधक वर्ग को चाहिए कि वे अपनी
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४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य साधना मे दत्तचित्त रहे । ऐसा करने से अवश्यमेव यह आत्मा उम अनन्त ज्योति को प्राप्त कर गलेगी। कहा भी है -
जाए सखाए निसंतो, परियायट्ठाणमुत्तमं । तमेव अण पालिज्जा, गुणे आयरियसम्मए ।।
-भगवान महावीर हे जितेन्द्रिय | जो साधक जिस श्रद्धा मे प्रधान प्रव्रज्या स्थान प्राप्त करने को माया मय काम रूप ससार से पृथक हुआ है, उमी शुद्ध भावना मे जीवन पर्यन्त उस माधक को तीर्थकर प्रापित गुणों मे रमण एव गुणो की वृद्धि करनी चाहिए।
यह जग मुसाफिर साना है,
तन कुटिया न्यारी न्यारी है। सभी हिलमिल कर धर्म फमाओ,
जाना समी को अनिवारी है ।
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मातृ-भूमि मेवाड़
मेवाड... .। प्रकृति के सुरम्य वातावरण मे पलने वाला मेवाड ।
जिसका जीवन सदा मृत्यु की मदमत्त जवानी पर मचलता रहा ! जिसका स्वाभिमान सदा तलवार व त्याग की तीक्ष्ण धार पर ही खिलवाड करता रहा ! जिसका वचहृदय, जो
विकराल काल से टकरा कर टूट गया, पर झुफ न सफा !
किसी भी देश, राष्ट्र एम समाज का आदर्श उसके अतीत के इतिहास, विद्यमान सभ्यता, सस्कृति एव धार्मिक-सामाजिक रीति-रिवाजो के माध्यम से जाना जाता है ।
मेवाह का भौगोलिक दर्शन नि सदेह प्राकृतिक विपुल-वैभव से भरा-पूरा इस विशाल प्रात का अग-प्रत्यग अपने अद्वितीय सौन्दर्य का एक अनूठा ही आदर्श बता रहा है । जिसे देखकर प्रत्येक जीवधारी का मन वागवाग हो जाना स्वाभाविक है। विभिन्न प्रकार के वृक्षों की हरीतिमा से परिवेष्ठित पुण्यभूमि पर जल प्रपात की धवल धाराएं किल्लोल करती हुई, उसके कण-कण मे अपना सौंदर्य विखेर देती है। रविरश्मियां उस प्रवाहित जल राशि के आवरण मे छिपी हुई, धवल धरा का स्पर्श कर निहाल हो जाती है । आस-पास की भीमकाय पर्वत मालाएं भी अपने गर्वोन्नत मस्तक उठाए उसकी सुरक्षा के लिए दुर्भेद्यदुर्जय दीवार सी बनी हुई अपने कर्तव्य पालन मे पूर्णत-सतर्क है।
उसी सुरम्य-सुभव्य वातावरण मे पला हुआ मेवाड । जिसे प्रकृति के पावन-पटल पर प्राकृतिक वैभव का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। वहीं मेवाड समय २ पर विदेशी दस्युओ से अपने मानसम्मान और धर्म की रक्षा के लिये निरतर बलिदान देने मे भी ससार के समक्ष अग्रणीय सिद्ध हुआ है।
मेवाडी वीर, जिन्होंने सदैव मृत्यु मे भी अपने को मुस्कराते देखा है। जिनका वोर हृदय मृत्यु की भयकर हुकार से भी डोलित-कपित नही हो सका । जिनका जीवन सदैव तलवार वी धार पर ही अठखेलियां करता रहा । उसी मेवाड की धर्मपरायण वीरागनाए भी रणचडी की तरह समर भूमि मे उतर कर अनार्यों का दलन करती हुई हँसते २ अपनी मातृभूमि व शील की रक्षा के लिए मर्दो से पीछे नहीं रही हैं । जलती हुई जौहर की ज्वाला के बीच सपूर्ण शृगार करके अपने प्रियतम के पवित्र पद चिन्हो पर हसते २ जलकर भस्मीभूत हो जाती हैं ।
इस प्रकार वीरभूमि मेवाड का अखण्ड गौरव यद्यपि अनेक विकट परिस्थितियो की सकीर्ण गली मे से अवश्य गुजरा है । तथापि स्वाभिमानता वीरता का मार्तण्ड तिरोहित न होकर अधिक चमका और दमका है।
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६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
मेरुवाड का मेवाड़ मेवाड भूमि का वास्तविक नाम 'मेरुवाड' था। मेरुवाड अर्थात् पर्वत ही जिमकी अभेद्य दीवार है । उसे मेरुवाड कहा जाता है । अपभ्र श बनकर 'मेवाड' रूढ बना है। दरअसल मेवाड प्रात का अधिक भू भाग उवड-खाबड एव छोटी-मोटी पर्वतावलियो से घिरा हुआ होने से जहाँ-तहाँ जल-स्थल की काफी विषमता-विचित्रता पाई जाती है।
___ नक्शे का प्रतिनिधि-एक पापड प्राचीन एक दत कथानुसार एक समय एक अग्रेज-अधिकारी ने मेवाड राणा से अपने (मेवाड) प्रात का णीघ्र नक्शा मगवाया । तब मेधावी राणा महत्त्वाकाक्षी उम अग्रेज अधिकारी की भावना को भाप गये और नक्शे के बदले एक मक्का धान्य का बना हुआ पापड सिकवाकर भिजवा दिया। पापड को देखकर आग्लाधिकारी एकदम आग बबूला हो कर बोल उठा—'Vhat is this ?" अरे । यह क्या ?" मैंने पापड नही, नक्शा मगवाया था—देखने के लिए।"
तव आगतुक मेवाडी वीर ने उसे समझाया कि-साहेव | जिस प्रकार यह पापड कही ऊंचा कही नीचा तो कही कुछ-कुछ सम जान पड रहा है, उसी प्रकार मेवाड देश भी जहां-तहां उतार-चढाव की विकट-वकट घाटियो से भरा है । वस, नरेश द्वारा पापड भेजने का यही मतलव है और नक्शा समझाने का सार भी यही है । नवीन रहस्य श्रवण कर आग्ल-अधिकारी खूब मुस्कराया और आगतुक महाशय की पीठ थपथपाई । वस्तुत यह बात समझते उसे देर भी नहीं लगी कि इस प्रात को सही सलामत हजम करना एक टेडी खीर है। चूंकि-वीर धीर एव कठोर परिश्रमियो के खून से इस प्रदेश का सिंचन हुआ और हो रहा है । अतएव मेवाड-प्रात एक दृढ मजबूत और अभेद्य अजेय दुर्गवत् है।।
धरा अचल मे विशाल परिवार जहां-तहाँ कही-कही समतल मैदान पाया जाता है, वहां ओसवाल, पोरवाल, अग्रवाल, वीरवाल, राजपूत, मुस्लिम एव मीणा-आदिवासी आदि नानाविध जातियाँ, हजारो-लाखो मेवाड माता के सपूत अपने-अपने उद्योग धन्धो एव खेती की सुविधा-सुगमतानुसार वास किये हुए हैं । कृषि-कर्म-व्यापार एव पशु-पालन आदि-आदि मुख्य व्यवसाय हैं । पर्वतावलियो मे अभी-अभी कही-कही चादी-अभ्रक-लोहाशीशा, ताम्बा एव कोयले आदि धातु उपलब्ध होने लगी है।
पर्वतो की कठिनाइयो के कारण एव विश्व-विख्यात राजपूती शौर्य की धाक के कारण वाहरी शत्रु मदेव पग रखने मे डरते रहे हैं । किन्तु गृह-क्लेश, गृह-युद्ध एव पारस्परिक विद्वे प-ईर्ष्या फूट-लूटकूट की वजह से बाहर से मुस्लिम-सत्ता अवश्य आई । लेकिन ज्यादा टिक न सकी।
फर्मवीर-धर्मवीर को जन्मदातृ-मेवाड जहाँ इस भूमि ने राणा प्रताप, महाराणा सागा, वापा रावल, जैसे अनेकानेक प्रणवीरकर्मवीर नरवीरों को जन्म दिया है, तो दूसरी ओर इस पवित्र माता ने स्व० चरित्र चूडामणि पू० श्री खूबचन्द जी म० पू० श्री सहश्रमलजी म० पू० श्री गणेशलाल जी म० पू० श्री एकलिंगदास जी म० पू० श्री मानमलजी स्वामीजी म० प० प्र० श्री देवीलालजी म० तपस्वी माणक चन्दजी म० एव हमारे चिरायु चरित्रनायक 'गुरु प्रताप' आदि ऐसे शत-सहस्रो आध्यामिक सत-सती महा मनस्वियो को, भामाशाह जैसे कर्मठ श्रावक और मीरा एव पन्नाधाई जैसी निर्भीक उपासिकाओ को जन्म दिया है । जिन्होंने
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प्रथम खण्ड मातृ-भूमि मेवाड | ७
मातृ-भूमि, धर्म-सस्कृति-सभ्यता एव पवित्र परम्परा की सुरक्षा के लिए पूरा-पूरा योगदान प्रदान किया और जननी के धवल-दुग्ध गौरव को शुद्ध-विशुद्ध रखा है । अतएव इस भूमि का कण-कण स्वदेश प्रेम-त्याग और वलिदान की अमर-अमिट यशोगान-गाथा से परिपूर्ण है। जिसके अन्तर-कक्ष मे वीरागनाओ के जोहर की अमर कहानियां लिखी हुई है। जो मेवाड-मा की बोलती हुई आत्मा है । जिसको भाग्य ने न जाने किस धातु का फौलादी कलेजा दिया है, जो टूट जाने पर भी दस्यु-परम्परा के समक्ष झुकता नही है। उसका स्वाभिमान, उसका सम्मान, त्याग और धर्मप्रेम विश्व के हर इतिहास में अपना अनोखा ही महत्त्व रखता आया है । ऐसी समुज्ज्वल आत्माओ की जीती-जागती गुण गाथाएँ गा-गा कर आज हम भी गर्व से अपना सीना ऊंचा उठाते हैं।
आर्यसस्कृति का अनुगामी मेवाड शुद्ध भारतीय सस्कृति के दर्शन हमे मेवाडवासी नर-नारी के जीवन मे मिलते हैं। प्रकृति के पवित्र पुजारी उन भद्र निवासियो मे वही भावुकता-वही श्रद्धा-सादगी एव वही सरलता-शिष्टता-मिष्टता
आदि गुण प्रसन्नचित्त होकर प्रकृति मैया ने उनमे उण्डेल दिये हैं। अतएव वहाँ कृत्रिम जीवन एव दिखावटी दृश्यो का अभाव-सा है।
___ जहाँ आज का शहरी मानव विलासिता एव फैशन की चका-चौंध मे अपने से तथा अपनी शुद्ध-सस्कृति से दूर भागा जा रहा है। वहाँ मेवाड माता के लाडले अधिक रूपेण इस वीमारी से सर्वथा विमुक्त रहे हैं। उनके लिए तो वही सादी वेश-भूपा, वही सामान्य सादा खान-पान एव वही सादासीधा सस्ता रहन-सहन उपलब्ध है। जिसमे मेवाड के निवासी असीम आनन्द-अनुभूति के प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं । ऐसी वास्तविक अनुभूति शहरी जीवन के नसीब मे कहाँ ?
ऊँची धोती ऊँची अंगरखी, सीधो सादो भेष । रहबाने भगवान हमेशा, दीजो मेवाड देश ॥"
मेवाडमाता सुधार चाहती है - यद्यपि गुण अधिक पाये जाते हैं। तथापि जहाँ-तहाँ दुर्गुण एव निरर्थक रूढियो का साम्राज्य व्याप्त है। विद्या का काफी अभाव, अन्धा-अनुकरण, रूढिवादिता का अधिक रूप से आचरण, मृत्यू भोज, कन्या विक्रय एव लकीर के फकीर उपरोक्त चन्द वातो का समूल अन्त हो जाने पर मेवाड माता अवश्यमेव स्वर्ग सदृश्य ऋद्धि-सिद्धि एव समृद्धि से लहलहा उठेगी और प्रगति के पथ पर अग्रसर होगी। कुछ भी हो, फिर भी मातृ भूमि का महत्त्व अकथनीय-अवर्णनीय ही माना गया है । जैसा कि
"जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसो" । ___ जननी और जन्मभूमि का महत्त्व स्वर्ग से भी गुरु है। पयसा कमल, कमलेन पय. पयसा कमलेन विभाति सर-जैसे पानी से पकज, पकज से पानी और पानी-पकज द्वारा सुहावने सरोवर की सुपमा मे चार चाद लग जाते हैं । उसी प्रकार वह सपूत धन्य है, जिसको भाग्यशालिनी माता की पवित्र गोद मे आने का सौभाग्य मिला है, वह जननी भी धन्य हैं कि ऐसे पुत्र रत्नो को जन्म देकर सती माता कहलाती है। और वह मातृभूमि भी अधिकाधिक गौरवशालिनी व भाग्यशालिनी है कि-ऐसी जननी एव ऐसे धर्मवीर पुत्र रत्नो को यदा-कदा धारण किया करती है।
न तत् स्वर्गेऽपि सौख्य स्याद् दिव्य स्पर्शन शोभने ।
कुस्थानेऽपि भवेत् पुंसा जन्मनो यत्र सभवः ।। -पचतत्र अर्थात् साधारण एव रद्दी से रद्दी जन्म स्थली मे जीवधारी को एव पशु-पक्षी को जो सुखानुभूति होती है वह सुखानुभूति उन भमकेदार-भडकीले स्वर्गीय वैभव मे एव सुहाने स्पर्श मे कहाँ रही हुई है।
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सन्त-सेना
सेना के दो प्रकार सेना के दो प्रकार माने गये है-एक सेना वह है जो अहर्निश ग्राम-नगर-शहर एव देश की सीमा पर तैनात रहती है। समय-समय पर वाहरी शत्रु ओ के अयाचारो-आक्रमणो से देशीय-प्रान्तीय जनता को सावधान एव सचेत किया करती है। स्वयमेव सर्दी-गर्मी-क्ष घा-पिपासा आदि नानाविध कठि - नाइयो को झेल कर भी देश के जन-धन एव गौरव की रक्षा करती है । फलस्वरूप देशवासी मानव सुगमता-निर्भयता पूर्वक अपने अपने रीतिरिवाज, धर्म-कर्म एव आचार व्यवहार का पालन-पोषण करने मे सफल होते हैं।
वाहरी दुश्मन स्वदेश मे न घुस आए, इम भावना-कामना को आगे रखकर आज हजारो लाखो भारतीय सैनिक देश मीमा के इस छोर मे उस छोर तक निडर प्रहरी के रूप मे खडे है। चरअचर सम्पत्ति की रक्षा करना, देश, समाज, सस्कृति एवं प्रत्येक देशवासी नागरिक के प्रति वफादारईमानदार रहना ही इम सेना के मौलिक कर्तव्य माने गये हैं सिद्धान्त मे कथित-"हयाणीय, गयाणीय, रहाणीय, पायत्ताणीय' इन चार प्रकार की सेना का समावेश भी उपरोक्त सेना मे हो हो जाता है।
सत वनाम सैनिक दूसरे प्रकार के सैनिक वे है जो सम्यक् साधना के पवित्र पथ पर पर्यटन करते हुए भीतरी शत्रु ओ मे लोहा लेते हैं एव प्रत्येक नर नारी को आन्तरिक रिपुओ से सजग रहने का सकेत भी करते हैं। क्योकि भीतरी शत्रु भयकर अति भयकर माने गये हैं। एक वक्त स्व० नेहरू ने भी अपने मुख से कहा था कि-"हमें बाहरी शत्रु ओं से उतना भय नहीं, जितना कि भीतरी दुश्मनो से है ' बात विल्कुल ठीक है । वाहरी शत्रु, तो केवल धन-धरती-धाम अथवा जान पर धावा बोलते है, परन्तु भीतरी अरि तो रत्न त्रय धन के माथ-साथ अनेक भवो तक दुख कूप दुर्गति के मेहमान भी वना जाते हैं । वे शत्रु हैं-क्रोध मान-माया-लोभ-राग और द्वेप । इनको पडरिपु भी कहते है । मानव समाज जागरूक किंवा सुप्तावस्था मे हो, किन्तु ये पडरिपु इतने निष्ठुर है कि-एक क्षण का भी प्रमाद किये बिना अनवरतगत्या मानव के उन अतुलित अनुपम निधि का सत्यानाश किया करते हैं। अतएव इस प्रकार के अनिष्टकारी आक्रमणो की रोक थाम के लिये सत सेना एक अनोखा आदर्श भरा कार्य करती हुई, इस हानि से जनता को बचाने का पूर्णत प्रयत्न करती है यथा
कोहो पोइ पणासेइ, माणो विणय नासणो ।
माया मित्ताणि नासेई, लोभो सन्व विणासणो । मुमुक्ष । "क्रोध प्रीति का, मान विनय का, माया मित्रता का और लोभ सर्व सद्गणो का नाशक एव घातक माना गया है।"
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प्रथम खण्ड सन्त सेना |
सन्त : ज्योतिस्वरूप
सन्त सेना का महा महत्त्व इस प्रकार सर्व दर्शनो मे खूब दर्शाया गया एव मुक्त कठ से गाया भी गया है । क्योकि सत का जीवन अहिंसा, सयम एव तप की त्रिपुटी मे प्रस्फुटित पल्लवित पुष्पित एव फल्लवित होकर सर्वोच्चमुखी विकास का यह क्रम समाज, राष्ट्र एव जन-जन के हृदय मन्दिर को छूता हुआ सिद्धस्थान पर्यन्त पहुचा है । उनका उपदेश सुमेरु की तरह अटल, हिमाचल की तरह विराट, भास्कर की तरह तेजस्वी - यशस्वी तिमिरहर्ता शशिवत् पीयूप वर्ष णकर्त्ता, सुरुतरु-सदृश सकल सकल्पो का पूरक, विद्युत की तरह ज्योतिर्मान, सलिल की तरह सदैव गतिमान एव आकाश की तरह अनादि अनन्त रहा है । इसलिए कहा है।
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" सन्त हैं कलयुग के भगवान"
जव से मानव ने होश सभाला
तभी से उसने यदि किसी पर विश्वास किया है, तो केवल अपने माता-पिता या फिर सत प्रवर पर ही । सारा ससार कदाच धोखा दे सकता है, गिरगिट जानवर की तरह क्षण-क्षण मे रंग बदल सकता है, किन्तु सत नही । क्योकि सत तारक है मारक नही, सत रक्षक है भक्षक नही, सत अमृत थैली है न कि विप वेली । इसलिए अनन्त अनन्त मुमुक्ष, सत वाणी के वल बूते पर गृहत्यागी, राजत्यागी वनें और अन्ततोगत्वा परमानन्द को प्राप्त हुए हैं । यत्किचित् शब्दो मे कहू तो धर्म जहाज के नाविक सन्त वरिष्ठ है और भव्यात्माओ को ससार पार पहुचाने के निमित्त भूत भी है। जैसे भगवान महावीर ने गौतम को और सुधर्मा स्वामी ने जम्बू को उतारा । अतएव मानव समाज के श्रद्धा के केन्द्र सन माने गये हैं ।
सत एक सीमा रक्षक ( बाड़) हैं खेत मे स्थित हरी-भरी एव फली फूली उस धान्य राशि की सुरक्षा हेतु जैसे उस खेत के चारो तरफ वाड रहती है, उसी प्रकार धर्म की रक्षा हेतु सत सेना भी एक प्रबल सवल वाड है, सीमा रक्षक है । क्योकि जहा जहा सत मण्डली का शुभागमन बना रहता है, वहा वहा प्राय दुर्भिक्ष- दुर्जनदुर्ग्रह एव दुर्गुणो का प्रभाव फैलाव मद-सा, किंवा नगण्य ही रहता है । भगवती सूत्र मे एक ऐसा प्रसग आया है कि एक समय गणधर इन्द्रभूति ने भगवान से पूछा कि – “भन्ते । लवण समुद्र मे विपुल अयाह जल राशि विद्यमान है, फिर क्या कारण कि अघ स्थित इस जम्बू द्वीप को डुवो नही पाता एव अपने जल की उत्ताल लहरो को क्यो नही वाहर फेंकता है ।" भगवान ने कहा - " गौतम | ऐसा प्रयोग कभी हुआ नही, न होने वाला ही है ।"
"क्यो नही भन्ते ? – गौतम बोले ।”
भगवान—“इन्द्रभूति | इस विशाल खण्ड जम्बूद्वीप मे अरिहत, केवली, गणधर, लब्धिधारक, बहुश्रुत अनेकानेक त्यागी-तपस्वी, यशस्वी, सत-सती, श्रावक एव श्राविकाए निवास करते हैं । उनके अद्वितीय अनुपम जप-तप तेज प्रभाव से लवणोदधि अपनी मर्यादा का भग नही करता और न कभी करेगें ही ।" यह है सत वोरडर ( वाड) का प्रवल एव अकाट्य प्रमाण । जो अन्यत्र दुर्लभ है । सत गले का भार नहीं हार
इस प्रगति के प्रकाश मे कतिपय मानवो को विपरीत भाम होने लगा है। वे कहते हैं -- "ये सत-फत मुफ्त का माल खाकर बेकार पटे रहते हैं, उद्देश्य विहीन इतस्ततः घुमा-फिरा करते है और
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१० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ स्वर्ग अपवर्ग की लम्बी लम्बी गप्पें-सप्पें लगाते रहते हैं। अतएव इन लोगो से कडा परिश्रम करवाना चाहिए । अन्यथा यह साधु-सस्था देश समाज एव परिवार पर भारभूत और वोझ स्वरुप हैं।"
__नि मन्देह ऐसी भ्रात मान्यतावाले मानव विपलता से भी ज्यादा खतरनाक हैं । चूकि मिथ्या मान्यता के किंकर वे नर-नारी अपने हाथो से ही अपनी उज्ज्वल सस्कृति, धर्म एव प्राचीन शुद्ध परम्परा को पगु-लुली-लगडी एव अन्धी बनाना चाहते हैं। अफसोस । जो वस्तु, जो तत्त्व डुबोने वाले, व उभय लोक के लिए अनिष्टकारी एव हानिकारक है, उनसे तो अत्यधिक मोहब्बत-प्रेम और जो तत्त्व जीवनोत्थान के लिए एकदम ठीक दिशा-दर्शन देते हैं, उनसे नफरत । घृणा और अवहेलना भरी दृष्टि | इसी को तो कहते हैं मिथ्या ज्ञान का भास होना ।।
श्रमण शब्द श्रम का द्योतक सत का पर्यायवाची शब्द "श्रमण" भी है। यह श्रमण शब्द परिश्रम का द्योतक है । अर्थात जो निरन्तर श्रम, महनत, उद्यम करता है, उन्हें भले श्रमण कहो, भले साधु-सन्त कहो फिर ये फालतूवेकार और आलसी से ? मालूम होता है कि-मानव अभी तक "श्रम" के सही सत्य अर्थ की तह तक नही पहुचा है । अतएव सत धर्मवृक्ष के वीज स्वरूप, एव आर्य सस्कृति को शुभालकृत करने वाले चमकते दमकते हार हैं।
जहाँ तक सत सेना की मदाकिनी मथर गति से मद-मद बहती रहेगी, वहाँ तक देश समाज मे सत्य-सयम शील की उपासना चलती रहेगी। आस्तिकवाद एव शुद्ध परम्परा के नगाड़े गू जते रहेगे । और करुणा की कोमल कमनीय धारा फूटती रहेगी।
अतएव सत जीवन का व्यक्तित्व बहुमुखी रहा है । तुच्छ एव महान के लिये सर्वथा अनुकरणीय एव स्तुत्य है । मानव रल अय के चेतन्य स्वरूप सत सरोवर मे डुबकी लगाकर सुकृत्य की विमल विशद एव वरिप्ट-वीथिका के शिखर पर पहुचकर जीवोत्थान की प्रेरणा सीखता है।
है बडी शक्ति वडा वल,
सत वचन सत्सग मे । रगने वाला हो तो रग ,
___सव को एक ही रग मे ॥
MAN
KAS
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देवगढ़ में दिव्य ज्योति
अरावली के अचल मे छोटे-मोटे सैकडो गाव-नगर-शहर वसे हुए हैं। जिनमे लाखो नरनारियो का एक विराट् मानव-परिवार फलता-फूलता रहा है । "देवगढ" भी मेवाड (मदारिया) प्रान्त का एक नन्हा सा नगर माना गया है। जिसमे हजारो जनो की आवादी एव सैकडो जैन परिवार भी सम्मिलित है। यह नगर किसी समय प्रसिद्धि प्रगति के शिखर पर चढा हुआ था। जिसकी गवाह वहां का जीर्ण-शीर्ण राज्य-महल; वहां की प्राचीन संस्कृति एव वहाँ के टूटे-फूटे खण्डहर मूक भाषा मे वता रहे हैं।
देवगढ को व्युत्पत्ति "देवगढ" इस नाम मे एक विशेषता, एक पवित्र परम्परा एव हृदयस्पर्शी प्रेरणा का स्रोत निहित है। तभी तो यहां के निवासीगण आर्य सम्यता-अनुगामी, उपासक एव उच्च आचार-विचार व्यवहार की त्रिवेणी से ओत-प्रोत रहे और हैं ।
_ 'देवगढ' की व्युत्पत्ति इस प्रकार की जाती है-"देवानाम् गढ-इति-देवगढ" । अर्थात् जहाँ अधिक रूपेण देवता ही रहते हो। उसे देवगढ के नाम से पुकारा जाता है । क्या वहां देवता रहते हैं ? अवश्यमेव । शास्त्रों में पाच प्रकार के देव माने गये हैं। जिनमे "भवी द्रव्यदेव" ऐसा एक नाम भी आया है । जिसका अर्थ यह है कि-जो आत्माएँ अभी हाल मानव किंवा तिर्यग् योनि मे बैठी हुई है । किन्तु शुभ करणी कर भविष्य मे देवलोक मे उत्पन्न होने वाली है।
जैसे देववृन्द आयु प्रभाव, सुख, क्रान्ति एव लेश्या-विशुद्धि के विषय मे ऊपर-ऊपर के देव । अधिक और गति-शरीर-परिग्रह व अभिमान के विषयो मे उत्तरोत्तर देव हीन माने गये हैं । उसी प्रकार
भोली-भद्र सयमनिष्ठ एव प्रतिभा सम्पन्न जिन्दी जीत्ती सैकडो विभूतियां उस नगर मे थी और आज भी हैं । सचमुच ही जो जिनशासन के रक्षक एव निडर प्रहरी के रूप मे रहे हैं । अतएव देवताओ से भी कई गुणित अधिक सौभाग्यशाली" उन्हे समझना चाहिए। क्योकि-जिनको पुण्य की महत्ती कृपा से आर्यक्षेत्र-उत्तमकुल, और निर्मल निर्ग्रन्थ परम्परा का सुयोग प्राप्त हुआ है । जो सुर-असुर समूह के लिए सचमुच ही दुष्प्राप्य माना गया है ।
देवगढ के ठग प्राचीनकाल से 'देवगढ के ठग' यह कहावत प्रचलित है। वास्तविक-दृष्टि की तुला पर ठीक जचती है। जैसे क्रोध मान माया-लोभ आदि कपाय, मुमुक्ष के महान मूल्यवान रत्न त्रय को लूटा करते हैं। इस कारण उपरोक्त भाव शत्र ओ को भी धार्मिक दृष्टि से ठग (तरस्कर) ही माने गये हैं और तप-जप-दान-दया-दमन एव शुद्ध क्रियाओ द्वारा इन छयो को परास्त से करने वाले अर्थात्-"ठग ठगो के पाहुने" ही माने जाते हैं। अतएव देवगढ के नागरिक जनको अगर ठंग की उपाधि से उपमित किया जाता है, तो अति प्रसन्नता की ही बात है ।
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१२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
गांधी गोत्र को उत्पत्ति भाटो की विरदावली से पता चलता है कि जालोर शहर मारवाड के चीहान वशीय राजा लाखण सी से भण्डरी और गाधी-मेहता वशो की उत्पत्ति हुई है। लाखणसी जी के ११ वी पीढी वाद पोपसी जी हुए। वे अपने समय के आयुर्वेद के विख्यात ज्ञाता थे । कहा जाता है कि उन्होने सवत् १३३८ मे जालोर के रावल सावतसिंह जी को एक अमाध्य व्याधि से मुक्त किया । उक्त रावलजी ने प्रसन्न होकर उन्हे "गाघी" की महान् उपाधि से विभूपित किया।"
__ (ओसवाल जाति का इतिहास मे से उद्धृत)
___ सच्ची गृहिणी घर का शृगार - इसी नगर मे श्रीमान् 'मोडीराम जी' गाधी तथा आपकी धर्म पत्नी श्रीमती 'दाखावाई सुख पूर्वक दाम्पत्य जीवन यापन कर रहे थे। उनका यह समार पति धर्म, पत्नी धर्म एव पारिवारिक धर्म को लेकर वास्तविक मर्यादा का पालन तथा धर्म-स्नेह, सौजन्यता एव चैतन्य का जिन्दा-जागतागूजता सुभव्य मन्दिर था। जैसा कि- "जहाँ सुमति तहाँ सम्पति नाना" भले इस दाम्पत्य जीवन मे पार्थिव धन राशि विपुल मात्रा मे न रही हो। परन्तु भावात्मक सम्पत्ति का इस घर मे साम्राज्य छाया हुआ था--जैसा कि
जहां पति पत्नी दोनो, मिलके रहते हैं।
वहां शरने सदा ससार मे, खुशी के बहते हैं ।। सच्ची गृहिणी वही है जो सन्तोप, क्षमा एव सरलता-समता गुण की अनुगामिनी हो । पति द्वारा उपाजित अल्प धन-धान्य मे ही समता पूर्वक घरेलू कारोवार को चलाती हो, शिष्ट-मिष्ट भापिनी एव आजू-बाजू के वायुमडल को सदा-सर्वदा सुखद शान्त सरम-सुन्दर बनाए रखती हो। फैशन शृगार-मौज-शौक की कठपुतली न हो । समय-समय पर पति परमेश्वर को नेक सलाह देती हो व धार्मिक आदि शुभ प्रवृत्ति मे सदैव पति की सहयोगिनी वनकर रहती हो। इस प्रकार अनेकानेक गुणरत्नो से युक्त गृहिणी को ही घर की "लक्ष्मी" यह सुन्दर सज्ञा दी गई है। सौभाग्यवती दाखावाई भी संचमुच ही सौभाग्यशालिनी थी। जिनका जीवन धन निम्न गुण-गरिमा-महिमा से दमक चमक रहा था
कार्येषु मन्त्री करणषु दासी, भोज्येषु माता शयनेषु रभा। धर्मानुफूला क्षमया धरोत्री, षड्गुणवती भार्याश्च दुर्लभा ।"
पुण्यात्मा के शुभ चिन्हकुछ कालान्तर के वाद माता दाखावाई के मन मधुवन मे उत्तमोत्तम भावना के कोमलकमनीय किसलय खिलने लगे-धर्म-ध्यान-दान-दया सामायिक-प्रतिक्रमण अभयदान एव मुनि महासती का दर्शन कर जीवन को धन्य बनाऊँ आदि उपरोक्त ये सब चिन्ह मानो उत्तम भाग्यशाली आत्मा स्वर्गात उदर मे आई हो, इस बात की शुभ सूचना दे रहे थे। कहा भी है
'पुन्यवान गर्भ मे आवे, माता ने लड्ड़ जलेबी खिलावे । साधु-सतियो की सेवा चावे, नित उठने धर्म कमावे ।।'
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प्रथम खण्ड . देवगढ मे दिव्य ज्योति | १३
और भी-"Coming events Cast their Shadowj before"
अर्थात-भावी घटनाओ की प्रतिच्छाया पहिले से ही दृष्टिगोचर हो जाती है। क्योकि जैसी आत्मा पेट मे आती है, वैसे विचार माता की मन रूपी प्रयोगशाला मे उभरते-उठते रहते हैं। तभी तो कहा है-"पूत के पग पालने मे क्या पेट मे ही दीख पडते हैं ।" येन-केन प्रकारेण भावना सम्पन्न हुई
और वह शुभ दिन भी सन्निकट आ खडा हुआ। अर्थात् सुहावनी शरद की आश्विन कृष्णा सप्तमी सवत् १९६५ की रात्रि में महापुण्यशाली प्रतापी एक पुत्र रत्न का शुभागमन हुआ । जिसका नाम "प्रताप चन्द्र" रखा गया।
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शैशवकाल और मातृवियोग
बाला फिटा य मदा य वला पन्ना य हायणी । पवच्चा पभारा य, मुम्मुही सायणी तहा ।।
-भगवान महावीर जिज्ञासुवृन्द । मानव-शरीर को दस अवस्थाएँ है—प्रथम वालावस्था, दूसरी क्रीडावस्था, तीसरी मन्दावस्था, चौथी वलावस्था, पाचवी प्रज्ञावस्था, छठी हायनी (हीन) अवस्था, मातवी प्रवचावस्था, आठवी प्राग्भारा, नौवी मुखमुखी एव दशवी अवस्था शायनी मानी गई है।
वचपन का आनन्द - इस प्रकार प्रथम वाल्यावस्था वह अवस्था मानी गई है, जिसमे न कमाने की, न लेन-देन एव न उद्योग-धधे की चिन्ता सताती है। आकुलता-व्याकुलता एव शोक का बोझ भी सिर पर नही रहता है। जीवन में सुख शान्ति आनन्द-उल्लास हर्प का पूर्णत साम्राज्य छाया रहता है। छलप्रपच माया आदि छद्मो का नितान्त अभाव सा रहता है । ऐसा भी माना जाता है कि-योगी का जीवन और वालक का ज्योतिर्मय जीवन एक समान माना गया है। मानव जिस समय योगावस्था मे प्रवेश करता है, उस समय शुद्ध निर्मल-निष्पाप बालक सा प्रतीत होता है । उसमे कृत्रिमता एव वनावटीपन नहीं रहता है । सव दृष्टि से सरल, शुद्ध एव प्रशस्त पवित्र जीवन रहता है। ऐसे महान् सुलझे हुए जीवन पर आत्मोत्थान की सुभव्य-सुदृढ इमारत खडी की जाती है।
वसत और पत्तसरइस प्रकार वालक प्रताप का जीवन पुष्प भी गुण-सौरभ से महक रहा था । अति लघुअवस्था मे अनेक गुणो को अपना लेना, समझदारी भरी बातें करना, अन्य को समझाना एव हिताहित का कुछ अशो मे भान हो जाना, सचमुच ही महानता की निशानी थी। इसलिए कहा है-"होनहार विरवान के होत चीकने पात"
हा तो वीर प्रताप के जीवन-उद्यान मे वाल्यकाल की हरी-भरी सुहावनो मन्द-मन्द मधु ऋतु मुस्वराई अवश्य । किन्तु कुछ ही वर्षों मे दुख वियोग-रोग का पतझर आ खडा हुमा। अर्थात् छ वर्ष की अति लघुवय मे ही ममता मय माता दाखा के स्नेह स्रोत से वचित होना पड़ा।
छुटपन मे माता का लाड-प्यार एव स्नेह मय वरद हस्त उठ जाना कितना कष्टप्रद है। यह तो मुक्त भोगी ही जान सकता एव बता सकता है। एक दार्शनिक की भाषा मे परिस्थितिया मानव जीवन के निर्माण में सहायक बनती है और भावी जीवन की परिस्थितियां भी वैसी ही बन पडती है। अतएव मातृ-वियोग का प्रसग ही वीर प्रताप के हृदयागन मे वैराग्य के अकुर पैदा करने मे निमित्त भूत वना । मानो ऐमा लगता था कि-प्रवल ममता पाश से छुटकारा दिलाने के लिए, स्वय विधि (भाग्य) ने ही वालक के लिए वैराग्य की प्रशस्त पृष्ठ भूमि तैयार की हो।
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प्रथम खण्ड शैशवकाल और मातृवियोग | १५ माता के देहावसान से बालक प्रताप को भारी धक्का लगा। नित्य प्रति खोया-खोया सा रहने लगा। मानो कालक्रूर ने सर्वस्व लूट लिया हो । “मुझे छोड के वाई (माता) कहाँ गई ? कब आएगी?" इस प्रकार वाई को ढूढने के लिए विह्वल बना वालक प्रताप यदा-कदा कमरे मे, तो कभी ऊपर तो कभी वाडे मे, तो कभी कुएँ-तालाब पर जाता, तो यदा-कदा पोला-पडशाल और कभी शयन खाट की शैय्या को उलट-पुलट करता, फिर निराश बनकर पिताजी को कोसता,-"वाई को जल्दी वुला दो, कठे हैं, मुझे मिलादो।"
पिता जी का समझाना पुत्र को.तव अत्यधिक परेशान होकर सेठजी यही कहते थे कि-"वेटा | बहुत दिन हो गये है। तेरी अम्मा अभी तक भगवान के घर से आई नही, अव पत्र देकर जल्दी बुला लेंगे। तुम चुप हो जाओ, रोवो मत और आराम से रोटी खाओ और खेलो।"
भद्र शिशु की कोरुणिक दशा एव भोली-भाली भावना को सामने देखकर पिता का पत्थर हृदय भी वियोग वेदना से आर्द्र हो उठा। बालक को मा की छाया मिले, लाड-प्यार मिले और घरेलू कारोबार को भी सभालकर रख सकें क्योकि कहा भी है कि-"घर किसका ?" उत्तर मिला-''घर वाली का ।" गृहिणी विना वह घर, घर नही, एक प्रकार श्मशान सा भयावना-डरावना प्रतिभासित होता है । अतएव कहा भी है कि-"यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमते तत्र देवता. ।' अर्थात्-नारी जीवन की प्रतिष्ठा-पूजा को सुनकर देवता भी खुशी के मारे बाग-बाग हो जाते हैं। इस दृष्टिकोण से श्रेष्ठी मोडीरामजी गाधी ने दुवारा विवाह करने का विल्कुल पक्का निश्चय कर लिया।
जननी विन इस जगत मे, नहीं कोई आधार । जननी है जीवन रक्षणी, रखे वाल की सार ।
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दिवाकर का दिव्य प्रकाश
तम फा प्रतिद्वन्द्वी "दिवा" यह अव्यय है । और दिवा शब्द के आगे 'कर' शब्द जोड देने पर "दिवाकर" शब्द बना है । फलस्वरूप ससार के विस्तृत अचल मे व्याप्त अधकार को इति श्री कर, जो यत्र-तत्र सर्वत्र प्रकाश से परिपूर्ण सहस्र रश्मियो को छोडता है उसे दिवाकर नाम से पुकारा जाता है। वस्तुत मानव समाज उन्मार्ग का अनुसरण त्याग कर सही दिशा की अनुगमिनी बनती है।
चमत्कार को नमस्कार.__ दिवाकर की तरह अनेक शिष्य नक्षत्रो से सुभासित सुशोभित एक मत-शिरोमणि भी उस समय मालवा, मेवाड, मारवाड मे पर्यटन कर रहे थे। जिनकी पीयूप भरी वाणी मे जादू, बोली मे अमृत, चमकते चेहरे पर मधुर-मुस्कान, विशाल अक्षिकाएँ लम्बी लटकती हुई सुलक्षणीय भुजाएँ, गौर वर्ण एव मन मोहक गज-गति चाल । जिनकी ज्ञान-ध्यान साधना के समक्ष अन्य सत-पथ-मत जुगुनुवत् फीके एव प्रभावहीन | जिनके अहिंसामय उपदेशो का प्रभाव राज-प्रासादो से लेकर एक टूटी-फूटी कुटिया तक एव राजा से रक पर्यत और साहूकार से चोर पर्यन्त व्याप्त था। जिन्होने सैकडो मानवो को सच्ची मानवता का पाठ पढाया, यथार्थ अहिंसा-सत्य-स्याद्वाद का सवक सिखाया, भूले-भटके राहगीरो को सही दिशा-दर्शन दिया, जन-जीवन मे जिन धर्म का स्वर वुलद किया, छिद्ध-भिद्ध डोलित सामाजिक वातावरण मे स्नेह-सगठन का सुमधुर उद्घोष फू का और जैन जगत मे नई स्फूति, नई चेतना जागृत की । जिनके द्वारा स्थानकवासी जैन समाज को ही नहीं, अपितु अखिल जैन समाज को ज्ञान-प्रकाश, नूतन साहित्य, प्रेम एव मंत्री भावना की अपूर्व, प्रवल-प्रेरणा प्राप्त हुई थी। वे थे एकता के सस्थापक जैन जगत के वल्लभ स्व० दिवाकर गुरु प्रवर श्री "चौथमलजी महाराज।"
ऐसे सच्चे साधक दिवाकर श्री चौथमलजी म० मिथ्यान्धकार को चीरते-फाडते योगानुयोग मेवाडी नर-नारी को रत्नत्रय से आलोकित करते हुए, भूखे-प्यासे पिपासुओ को आत्मिक पक्वान परोसते हुए, प्रेमामृत पिलाते हुए, अहिंसा सत्य का सचोट उपदेश सुनाते हुए, साप्रदायिक परतो से विमुक्त करते हुए एव स्नेह एकता का नारा बुलन्द करते हुए देवगढ़ पधारे।।
दिवाकर-देशना का प्रभावजैन-अजैन सैकडो जन समूह "चौथमलजी महाराज पधार रहे हैं" यह शुभ सूचना सुनते ही-"घाये घाम काम सब त्यागे, मनहु रक निधि लूटन लागे" की तरह यो के त्यो स्वागतार्थ भाग खडे हुए । मध्य बाजार के विशाल मैदान मे व्यास्यान होने लगे । जन-मेदिनी उत्तरोत्तर बढ ही रही थी। जन-मानस को झकझोरने वाली वाणी के प्रभाव से आशातीत त्याग-प्रत्याख्यान हुए एव शासन की प्रभावना भी काफी हुई । येन-केन-प्रकारेण पुन विवाह करने की मान्यवर गाधी जी के विचारो की गघ गुरुदेव के कर्ण-कुह
गई। तब दिवाकर जी म. ने सेठ मोडीराम जी को
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प्रथम खण्ड दिवाकर का दिव्य प्रकाश | १७
दूसरा लग्न करने से रोका और फरमाया कि "आप सभी पिता-पुत्र अर्थात् बालक प्रताप और अन्य दो भाई आहती दीक्षा लेकर जैनधर्म की सेवा करते हुए आत्मकल्याण का प्रशस्त मार्ग स्वीकार करें।"
धर्म परायण आज्ञाकारी विनीत गृहस्थ गाधीजी ने गुरु प्रवर के अचरजकारी आदेश का यथावत् पालन करने का उपस्थित जनसमूह को आश्वासन दिया और एकदम विचारो मे परिवर्तन लाते ही वही के वहो चतुर्थव्रत धारण करते हुए बोले कि "मेरे लघु पुत्र प्रताप के समझदार हो जाने पर हम सभी यानि चारो सदस्य आप देवानुप्रिय के समीप दीक्षित हो जायेंगे।"
दुनियां के लिए आश्चर्य का विषय उपस्थित जन समुदाय भी उनकी इस आकस्मिक उद्घोपणा को श्रवणगतकर चकित-विस्मित एव आश्चर्यान्वित सा रह गया । धन्यवाद की मधुर शब्दावली से सारा व्याख्यान मडप गूज उठा । जो व्यक्ति एक दिन के पहिले मोड वाधकर विवाह करने का सुमधुर स्वप्न देख रहा था। वही मानव दूसरे ही दिन जैनेन्द्री दीक्षा ग्रहण करने की घोषणा कर दें । सचमुच ही प्रत्यक्ष यह चमत्कार त्यागी, तपस्वी श्रमण परम्परा का रहा है । जिनके उपदेशो मे सचमुच ही जादू भरा है ।
गगा पाप शशि ताप, दन्य कल्पतरुस्तथा । पाप-ताप दैन्य च, सद्य साधुसमागमः ।।
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महामारी का आतंक
चहुँ ओर में मौत का धावा :एक अग्रेज विद्वान की भाषा मे--
'A man Proposes God disposes" अर्थात् मानव अपने मन-मम्निप्का में कुछ और सोचता है और वनता कुछ और ही है । विधि को 'दीक्षा प्रतिज्ञा' ना मजूर थी । अनएव विक्रम मवत् १६७४ के वर्ष मे मीपण भयकर प्लेग वीमारी ने मेवाड प्रात की चप्पा चप्पा भूमि पर आतक से भग आक्रमण खडा कर दिया । घर-घर, गाव-गांव और गली-गली में प्लेग का पजा फैन चुका था। जघा पर गाठ उठी और जल वुवुद् की तरह तीन दिवस के अन्दर ही ड्रमतर । मानो वे जन्मे ही नहीं थे। इस प्रकार छोटे-मोटे सैकडो-हजारो नर-नारी मौत के मुह मे जा सोए । जहाँ-नहाँ लाशो के टेर लग गये। गाँव-नगर मानो श्मशान से प्रतिभासित होने लगे। घर-घर मे रोना, पीटना, विलाप चिल्लाहट, चित्कार एव आर्तनाद के सिवाय, कहाँ वह मगलध्वनि ? कहाँ कर्ण प्रिय गीत स्वर ? मवके मव भय के मारे मानो कही छिप चुके थे।
स्वछन्दं सुख विहरति, हरिरिय मृत्युमूंगफुलेषु जिन प्रकार मृगयूथ मे सिंह मार-काट मत्राता है, उनी प्रकार र काल भी स्वच्छन्दता पूर्वक मनचाही करने लगा। फलस्वम्प किमी का सुहाग-निदूर लुट गया तो किसी के पिता-भ्राता, तो किसी की माता, किमी की वहन-बहु-बेटी और किसी-किसी के तो मारी वण-परम्परा का साफ सफाया ही हो चुका था। इस प्रकार वीरवीरागनाओ की भूमि हाहाकार की करुण पुकार से चीख उठी। मानो बहुत काल का भूखा-प्यासा काल कुटिल ने भयावनी इस घटना के बहाने अपना स्वार्थ पूरा किया हो।
मेवाह माता अपने लाडलो की दयनीय-शोचनीय दशा को देख-देख कर सौ-मौ आसू बहाने लगी। परन्तु भवितव्यता के सामने मभी हार मान चुके थे । खतरे से पूर्ण इस विकट वेला में कौन उपचार इलाज करे ? कौन सेवा-शुभ्रपा एव कौन नुख माता पूछे ? क्योकि जहां-तहाँ भगदड मची हुई थी।
रक्षति पुण्यानि पुरा कृतानिअवाछनीय इस ज्वाला की लपेट-झपेट मे वालक प्रताप भी आया, किन्तु पुण्य पिता की सुकृपा से बच निकला । लेकिन नी वीय प्यारे बालक प्रताप को नि सहाय एव अकेला-अनाथ छोडकर श्रीमान् मोडीराम जी एव दोनो भ्रातागण भी चलते बने । मातेश्वरी की वियोग-व्यथा की कथा अभी तक भूले ही नही थे कि वालक प्रताप के जीवन पर भयकर विपत्तियो मे भरा दूसरा पहाड आ गिरा । परिणामस्वरूप जीवन की भावी रूपरेखा ही बदल गई ।
संघर्ष और जीवन :कहा है-"होती परीक्षा ताप मे ही, स्वर्ण के सम शुर को" वीर साहसी प्रताप वीमारी से पूर्णत विजयवत हुआ, लेकिन मामने मात-तान-भ्रात का विछुडना और शिक्षा-दीक्षा एव आजीविका का ज्वलत
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प्रथम खण्ड महामारी का आतक | १६ प्रश्न मुहफाडे खडा था । यद्यपि बुद्धि तीक्ष्ण थी, तत्त्व समझने की कला-कुशलता थी, और पढ़ने-लिखने की अभिरुचि भी प्रशसनीय अनुकरणीय थी। किन्तु पिता श्री के अवसान से पढाई लिखाई का क्रम वही का वही ठप्प हो गया । वस्तुत अध्ययन कार्य को गौण कर वालक प्रताप को व्यवसाय मे जुटना पड़ा।
नौ वर्ष का भद्रिक वालक एक परचनी दुकान चला ले, सचमुच ही आश्चर्य भरा विषय था । अन्य पारिवारिक लोगो पर आधारित न रह कर स्वाभिमान-मर्यादा पूर्वक जीवनयापन के लिए इस प्रकार का सुप्रयत्न एक धीर-वीरवृत्ति का द्योतक था । इस वीरवृत्ति ने प्रताप को ऊंचा उठाया, चमकाया, दमकाया और पूजनीय वनाया । प्रताप अपने लघु व्यवसाय मे मफल, सवल हुआ और सुख-शान्ति-मतोपपूर्वक आजीविका का काम चलाने लगा । कहा भी है
खाक मे मिला तो क्या फूल फिर भी फूल है। गम से हार मानना आदमी को भूल है ।
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वैराग्य का उद्भव
प्रथम संकल्प के चरण परमाता-पिता के निधन से बालक प्रताप के मृदु मन को भारी चोट पहुची। अव वालक के दिल-दिमाग मे विचारो की तरगें एक के बाद एक उभरने लगी -
रे मन | क्या अव तात-मात-भ्रात पुन अपने को नहीं मिलेंगे ? क्या मेरी सार-सभाल भी यहां आकर नही करेंगे? वे गये तो कहाँ गये ? न कोई समाचार-सूचना और न कोई पता-पत्र ही । लोग कहते हैं कि-"मर गये। मर गये" दरअसल मरना क्या-वला है ? क्या वीमारी हैं ? मरना किस चिडिया का नाम है ? देहधारी प्राणी क्यो मरते हैं ? नही मरने की भी तो कोई दवाई-औपधि किंवा जडी बूटी सजीवनी देने वाले डाक्टर-वैद्य इस वसु घरा पर होंगे तो सही न? जिसको खा-पीकर अमर तथा मृत्यु जय बना जा सकें।
द्वितीय सकल्प के चरण पररे मन | क्या तुझे भी इसी तरह मरना पडेगा? काल-कवलित एव बीमारी-बुढापे का शिकार भी बनना पडेगा ? "ना ना भीपण-भयकर ऐसा दुख-दर्द सहन नही होगा।" मन सहसा काप उठा । अतएव वेहतर तो यह है कि-पानी के पहले ही पाल वाध लेना बुद्धिमत्ता एव भावी जीवन के लिए श्रेयस्कर होगा । अन्यथा वही दशा अपनी होगी जो इधर तो आग लगी और उधर कूप खुदवाना यह कहावत चरितार्थ होगी । अत समय रहते ही चेत जाना चाहिए । और मृत्यु जय जडी-बूटी की तलाश भी कर लेना चाहिए। ताकि-अपना भावी जीवन सदा-सदा के लिए आनन्द का नन्दन वन-सदन वन जाएं।
मृत्यु जय को तलाश के पथ परइस प्रकार मन-महोदधि मे उठी-उभरी वास्तविक कल्पनाओ-लहरो के समाधान के लिए विरागी प्रताप ने मोचा कि जिस प्रकार डाक्टर एव वकील वनने का इच्छुक अन्य अनुभवी डाक्टर वकील के पास रहकर प्रशिक्षण-मार्गदर्शन एव विचार विमर्श ग्रहण करता है। उसी प्रकार लोभीलालची वैद्य-एव गुरु के माया जालो मे न भटकता हुआ, मुझे भी अव सत् प्रयत्न करना ही चाहिए। ताकि मेरी आत्मा महान्, विद्वान एव भगवान वन सके और महान् मनोरथ भी पूर्ण हो जाय । एतदर्थ सत्तगनि रामवाण सोपधि है। ऐमा विचार कर धर्मस्थानक मे विराजित मुनियो के सम्पर्क मे आने लगा।
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प्रथम खण्ड वैराग्य का उद्भव | २१
वस्तुत सुनिमित्त को पाकर उपादान रूप पात्र वैराग्य भावना से भर उठा । आज उसकी वाणी के प्रवाह मे विराग था, खान-पान-रहन-सहन मे सवेग तो सौम्य मुखाकृति पर ससार नश्वरता की झलक-छलक रही थी एव अग-प्रत्यग मे से मानो पक्के विराग की मधु महक प्रस्फुटित हो रही थी । इस प्रकार 'पुनरपि जनन पुनरपि मरणं' के निविड बन्धन से उन्मुक्त होने के लिए मन पुन पुन उतावला हो उठा । परन्तु उतावले पन से आम थोडे ही पकते हैं । समयानुसार ही तो भावना-याचना फलदायी सिद्ध होती है।
'दिन अस्त होने के पहिले,
जो मंजिल तक पहुंच जाता है। उस मुसाफिर को हर हालत मे, चतुर ही कहा जाता है।
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गुरु नन्द का साक्षात्कार
जिसे जो लगता है प्यारा, उसी फा उससे नाता है ।
खुशबू फूल को लेने, भौरा फोसो से आता है ।। दादा गुरुदेव श्री नन्दलाल जी म० भी अपने गुरु भ्राता मुनि प्रवर श्री जवाहरलालजी म. एव कविरत्न श्री हीरालाल जी म० की तरह सर्व गुण सम्पन्न थे । ज्ञानाभ्यास एव सत-सघ सेवा में आप भी अग्रसर ही थे । तत्त्वज्ञान, आगम, जैन दर्शन, न्याय, पिंगल, छन्द, कोप-काव्य-व्याकरण, सस्कृतप्राकृत, पड्दर्शन आदि विपयो मे निष्णात थे। आप की प्रतिभा बहुमुखी एव कुशाग्र बुद्धि विलक्षण थी। शास्त्रार्थ करने मे एव प्रतिवादी को अपनी बात मनवाने मे आप अत्यन्त पटु थे । वस्तुत जैन आगमो मे जहां-तहां आए हुए जितने भी चर्चास्पद स्थल हैं, उन सभी को आपने हस्तगत कर लिए थे। इसी वलबूते पर आप विवाद-कर्ताओ के बीच खडे रहकर जैनधर्म की ध्वजा फहराने मे तथा सद्धर्म की सागोपाग पुष्टि करने मे अद्वितीय माने जाते थे।
जहाँ-कही मालवा एव मेवाड प्रान्त मे स्थानकवासी परम्परा की पुष्टि का प्रसग आता तो स्व० पूज्य प्रवर श्री उदय सागरजी म० व चतुर्थ पट्टाधीश आपकी ही नियुक्ति पसन्द करते थे। गुरुआशीर्वाद से आप भी यत्र-तत्र विजय वरमाला लेकर ही लौटते थे। इसलिए जनता आपको "वादीमानमर्दक" के पद से सम्बोधित करती थी।
एकदा गुरुप्रवर अपने शिप्य परिवार के साथ सम्यक्त्व आलोक से जगतीतल को आलोकित करते हुए अर्थात्-पूर्व लिखित घटना क्रम के ठीक चार वर्ष के पश्चात् देवगढ नगर मे पधारे।
___जन समूह के साथ-साथ जिज्ञासु प्रताप भी गुरुदेव की पवित्र सेवा म आ पहुंचा । प्रसगानुसार स्वर्गीय श्री गाधीजी से सम्बन्धित वातें चल पडी । तव समीपस्थ किसी भाई ने कहा कि-"गुरुमहाराज | स्व० श्रीमान गाधी का सुपुत्र प्रताप अकेला वचा है, जो हुजूर की सेवा मे ही हाजिर है ।" वालक प्रताप को देखते ही पडितवर्य श्री कस्तूरचन्दजी म, एव प० रत्न श्री सुखलाल जी म० वोल उठे "अरे ! तुम सेठ मोडीराम जी गाधी के सुपुत्र हो। तुम्हारा तो सकल परिवार ही दीक्षित होने वाला था। किन्तु काल-कुटिल ने ऐसा नहीं होने दिया। अस्तु, वे तो अब ससार मे नही रहे, परन्तु तुम तो मौजूद हो | तुम चाहो तो अपने पिता-भ्राताओ की शुभ कामना-भावना को पूरी कर सकते हो और धर्म के नाम को उज्ज्वल भी।"
वैराग्य रग से ओत-प्रोत वीर प्रताप का हृदय पहले से हिलोरें मार ही रहा था। अव सुगुरु के दर्शन तथा सुयोग पाकर और अधिक श्रद्धा भक्ति से भर उठा । गुरुदेव के स्नेह मय मधुर वचनो का उस पर गहरा प्रभाव पड़ा। तत्क्षण श्रद्धापूर्वक अपना मस्तक गुरुपाद-पकज मे झुका दिया। गुरु का महान् हृदय भी सुशिष्य प्राप्ति की आशा मे प्रसन्नता से भर उठा। "शुभस्य शीघ्रम्" अथवा "समयं गोयम मा पमायए" के अनुसार सामायिक-प्रतिक्रमण आदि धार्मिक अभ्यास-अध्ययन भी प्रारम्भ कर दिया गया।।
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प्रथम खण्ड . गुरु नन्द का साक्षात्कार | २३
महा मनस्वियो का दीर्घ जीवन तथा दीर्घ सपर्क समाज, राष्ट्र परिवार एव सघ के लिए मगल स्वरूप माना गया है । क्योकि समय-समय पर उनके द्वारा विचार-सवल, मार्गदर्शन एव ज्ञान-प्रकाश की प्राप्ति होती रहती है । शारीरिक व्याधि के कारण गुरु भगवत श्री नदलाल जी म० को भी लगभग डेढमास तक देवगढ मे ही विराजना पड़ा। इतने लम्वे काल तक वहां विराजने से वैराग्य भावना आशातीत प्रवल-पुष्ट एव प्रौढ वनी। यहाँ तक कि-वैरागी प्रताप समस्त आरम्भ-परिग्रह से निवृत्ति ग्रहण कर ज्ञान-साधना मे सुष्ठुरीत्या जुट गया । व्याधि का मत होते ही गुरुदेव का रतलाम की ओर प्रस्थान हुआ । तव विरागी प्रताप भी पूरी तैयारी के साथ, गुरुदेव के साथ जाने के लिए तत्पर हुआ । लेकिन'सुकार्येषु बहु विना' शुभकार्य मे अनेक विघ्न-बाधाए आते हैं " |
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पारिवारिक-परीक्षा
विघ्न के बादल - मोह मायावी जीवो का स्वभाव ऐसा ही होता है कि जब कोई भी भव्यात्मा सत्पथ पर आसीन होने जाती है तव न जाने कितने ही काका, मामा, भाई, भत्तीजे, मासा, फूफा आदि ढेरो सगेसम्बन्धी दवी-चुपी-गली कूचों से निकल-निकल कर साम दाम-दण्ड एव भेद नीति से उस पवित्र आत्मा को डाट-फटकार कर रोकने के लिए विघ्नरूप विकराल चट्टाने वनकर आ खडे होते हैं । पश्चात् भले वह मुमुक्षु घर मे आकर कुमार्गी बन जाय, अथवा मरण को प्राप्त हो जाय परन्तु सुकार्य पीठिका पर आरूढ उस साधक को वे न्याती-गोती अपनी फूटी आखो से देखना पसन्द नही करते हैं । कहा भी हैस्मरति पर द्रव्याणि मोहात् मूढा प्रतिक्षाणम् । अर्थात् मायावी जीवो की मानस स्थली सदैव विपयविकारयुक्त उस विभाव दशा से व पर-परिणति मे सरावोर रहती है। पर द्रव्यो मे रमण करना, उनका धर्म-पथ-कर्तव्य होता है । आस-पास वालो को भी उसी विपैले माया जाल की जजीरो मे जकडना भी चाहते हैं । वस्तुत प्रणवीर प्रताप को भी ऐसे ही नाट्य दृश्य को देखना पडा व भारी कठिनता का सामना भी करना पड़ा।
चार तमाचे वूआजी की ओर से - जब प्रताप मृत्यु जय जडी-बूटी को प्राप्त करने के लिए गुरु भगवत के साथ-साथ घर (देवगढ) से रवाना हुआ और कुछ ही कोसो गया होगा कि पीछे से दो-चार सगे-सम्बन्धी चढ आए। वल पूर्वक प्रताप को पकड कर दो-चार गालियो के साथ-साथ दो-चार मुह पर तमाचे जमाए और। जबर्दस्ती प्रताप को पुन घर पर ले आए । घर पर बुआजी (पिताजी की वहन) इन्तजार कर ही रही थी। घर पहुचते ही अब बुआजी की तरफ से नरमा नरम और गरमा गरम भेंट चढने लगो-"थने या काई सूझी? म्हारे पीहर ने उजाडे काई ? कमाई ने नही खाई सके वापडो, अणी वास्ते माग खावणियो साघुडो-वणवाने जाई रह्यो है।" इस प्रकार गालियो की मीठी-मीठी बौछारें हुई और गाल पर दो-चार तमाचे अव भुगाजी की और से ओर पडे ।
वैराग्य को उतारने का तरीका - अव अग-अग में व्याप्त उस कीरमिजी वैराग्य को समूल उतारने के लिए उन सगे-सम्बन्धियो ने नीमवृक्ष के पत्तो से उवले हुए जल से वैरागी प्रताप को नहलाया-धुलाया, पुरानी पोशाक फिकवाई गई, नई धारण करवाई और भी जो करने के थे-जादू-टोणे-टोटकें वे सब ससारियो द्वारा कियेगये। लेकिन-"न्यायात् पथ प्रविचलति पद न धीरा." अर्थात् धीर पुरुप धार्मिक नीति-नियमो का सुख तथा दुखावस्था मे कदापि त्याग नही करते हैं। चन्दन को काटे तो भी महक, घीसे तो भी खुशबू और पास मे खडे रहे तो भी सरस-सुगन्ध । इसी प्रकार प्रताप का वैराग्य उतरने की अपेक्षा और ज्यादा घर-घर गली-गली मे महक उठा, निखर उठा। मानो रगरेज ने कोरमिजी रग से रग दिया हो । वीर
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प्रथम खण्ड पारिवारिक परीक्षा २५
प्रताप देवगढ़ तो अवश्य आया, परन्तु मन नहीं लगा। अतएव घर पर ही साधु की तरह त्यागमय जीवन विताने लगा। पारिवारिक सदस्यगण अपनी मनोकामना पूरी न होती देखकर निराश एव परेशान थे।
और चेतावनी मिलीउभय काल जब धर्मप्रवृत्ति को करते देखा तव बुआजी झु झला कर वोली कि-"यदि अव विना पूछे घर से कही भी भाग गया तो, तुझे ताले मे बन्द कर दिया जायगा। अभी तो न बोलना, पढना-लिखना एव न कपडा पहनना ही आता है और दीक्षा लेने को उतावला हो रहा है ? दीक्षा किसे कहत हैं ? कैसे पाली जाती हैं ? कुछ पता भी है ?" इस प्रकार गरम-नरम अनेको प्रकार की डाटफटकार दी और काही पुन भाग न जाय, इस कारण मुआजी स्वय पूरी-पूरी देख-रेख करने लगी। साथ ही साथ पारिवारिक सदस्यो ने गुप्त रूप से ऐसा विचार-विमर्श भी किया कि-"प्रताप के मजुलमय जीवन मे समय रहते विवाह-स्नेह का दीप प्रज्ज्वलित करवा दिया जाय, ताकि-स्नेह सम्बन्ध मे स्वत इमका पग बन्धन हो जायगा । वस्तुत फिर कही जाने का नाम तक नही लेगा।" मेवाड प्रान्त मे ही क्यो भनेको प्रान्तो मे लघु-अवस्था मे भी विवाह कर लिया करते है। यह रिवाज पहिले भी था और आज भी किसी न किसी रूप मे जीवित है। इमलिए भुआजी आदि सम्बन्धियो की दृष्टि मे विवाह का तरीका समयोचित ही था।
जीवन की मजबूती"अभोगी नोवलिप्पइ" अर्थात् वैरागी वीद उस लुभावने मन-मोहक स्नेह रागभाव मे वन्धने वाला कहाँ था ? चूँकि-गुरु-प्रसाद से प्रताप को चिप-अमृत एव सत्य-असत्य का भली-भाति भान हो चुका था। तथा यह भी ज्ञात हो चुका था कि जब यह शरीर ही मेरा नहीं है तो भला ! ये स्वार्थी वन्धु-वाघव मेरे कव होंगे? यह तो चन्द दिनो का ही लाड-प्यार स्वप्न सा दृश्य रहता है। फिर वही ताडना-तर्जना की रफ्तार-इस कारण सचेत रहना और इस मकडी जाल मे मुझे कदापि मोहित नही होना चाहिए।
"क्षमा वीरस्य भूषणम्” तथा “मौनिनः कलहो नास्ति' गुरुदेव द्वारा दी गई उपरोक्त अमूल्य शिक्षाओ को वार-बार स्मरण करता हुआ वीर प्रताप उन कडवी कठोर सारी घूटो को अपने परीक्षा का समय जानकर तथा अमृत मानकर पीता गया। किन्तु महान् मना प्रत्युत्तर में केवल चुप और प्रसन्न चित्त | यह है महापुरुप बनने की अद्वितीय निशानी । कहा भी है
धर्म वही है जो सकट की, घडियो में भग न हो। सुख की मस्ती मे तो कहो, फिसको धर्म का रगनहो ?
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प्रतिज्ञा-प्रतिष्ठापक
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हाथ का जख्म और प्रतिज्ञा प्रण है प्राण समान जो कि मुझको प्यारा ।
पालू गा मन-वच-काय जो कि मैंने धारा ॥ एकदा वैराग्यानन्दी प्रताप राणकपुर के सुप्रसिद्ध जैन मन्दिर की यात्रा के लिए निकला। देवगढ से राणकपुर पर्वतीय मार्ग से अत्यधिक सन्निकट माना गया है । अतएव जल्दी पहुँचने की भावना से घोडे पर सवार होकर जा रहा था कि सहसा मार्ग मे घोडा विगड गया और धडाम से नीचे उसे दे पटका । पत्थरीली-क्करीली जमीन के कारण गिरते ही इतस्तत शरीर मे काफी चोटें आई और एक हाथ तो टूट सा गया। मार्गवर्ती मुसाफिरो ने घायल प्रताप को येन केन प्रकारेण घर पहुंचाया । हाथ का उपचार करने में काफी जन जुट गये । लेकिन कोई भी इलाज लाभदायक सिद्ध नहीं हुआ। व्यथा से -प्रताप पीडित था । अकस्मात् एक दिन मनो ही मन जिस प्रकार (नमिकुमार ने आखो की पीडा को शमन करने के लिए ध्र व प्रतिज्ञा की थी, उसी प्रकार विज्ञ प्रताप ने भी तत्काल अभीष्ट . फलदायक निम्न अभिग्रह (प्रतिज्ञा) धारण कर ली कि--"यदि सात दिन की अवधि मे मेरा हाथ पूर्णत जुड जायगा तो निश्चयमेव मे किसी की एक न सुनता-हुआ न मानता हुआ सीधे गुरु भगवत के चारु-चरण कमलो मे पहुँच कर दीक्षा ले लूंगा।" उपरोक्त प्रतिज्ञा घर वालो को भी कह सुनाई।
चिकित्सक और उपचार :अभिग्रह करने मे देर ही नहीं हुई कि-उधर, सयोगवशात् टूटी हड्डियो को जोडने मे कुशल-कोविद एक चिकित्सक आ निकला । मानो मानव परिवेश मे कही से कोई देव आगया हो । वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा--"पेट की दवाई, मात्थे का इलाज, टूटी हड्डियो का सागोपाग इलाज, आदि २।" उधर वेदना से कराहते हुए वालक प्रताप को भी देखकर बोल पडा कि-'मैं देखते-देखते इस वालक का हाय ठीक करा देता हूँ।" सचमुच ही पाच-छ दिन के उचित उपचार से हाथ काफी अच्छा हो गया और दर्द भी दिनो दिन कम होता गया। लम्बे समय से उपचार करवाने पर भी जो बीमारी पिड नही छोड रही थी, वह देव-गुरु धर्म प्रसाद से शीघ्र ही दूर होती चली गई। यह अभिग्रह के चमत्कार का ही परिणाम था ।
पारिवारिक वन्धुजनो ने भी पुन प्रताप को वहुत समझाया। परन्तु वेग वाहिनी नदी धार की तन्ह मनस्वी प्रताप को कोई नही लौटा सके और न कोई शक्ति ही रोक सकी । अन्ततोगत्वा सगे मम्बन्धियो ने मो अव विशेप आग्रह न कर मौन स्वीकृतिलक्षणम्" मान लिया।
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प्रथम खण्ड एक प्रेरक प्रसव | २७
एक प्रेरक प्रसंग
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जव दीक्षा की शुभसूचना देवगढ के कौन-कौन मे प्रसारित हुई, तव किसी ने हितकारीकल्याणकारी माना तो किसी ने उदास चित्त होकर अनिष्टकारी भी माना । क्योकि-सवके विचारविभिन्न तरह के होते हैं- "भिन्ना वाणी मुखे मुखे" अथवा "Many men many minds" अर्थात्जितने मुंह उतनी वातें होने लगी।
गिरती-गिरती यह सूचना एक स्वपच (भगी) कुल तक भी जा पहुची । स्वपच गृहिणी मासपास वालो से दीक्षा सम्बन्धित प्रताप की खवर सुनकर हक्की-वक्की सी रह गई । तेज गति से पैर उठाती हुई वैरागी प्रताप के द्वार पर आई और विना किसी को चेताए वह गला फाड-फाड कर जोर-जोर से रोने लगी । द्वार पर होने वाले कोलाहल को सुनकर उसने वाहर आकर देखा कि-अपने गृह द्वार की सफाई करने वाली भगन मा अकारण रो रही है।
"मा । तुम क्यो रो रही हो ? क्या कही से अणुभ समाचार मिले हैं ?" सहजभाव से प्रताप ने पूछा।
स्वपच गृहिणी मधुर भाषा मे बोली-"अन्नदाता | कई पीढियो से हमारा सकल परिवार आपके घर की सेवा करता आया है । फलस्वरूप जन्म-मरण-परण के समय-समय पर वस्त्र-थाली-लोटे एव रुपये आदि का लाभ भी हमें खूब मिलता रहा है। परन्तु दुख है कि आज पडोसियो के मुह से मैंने सुना कि-अव आप सदा-सदा के लिए घर और गांव छोडकर ढूंढिया महाराज बनरिया हो । इसलिए बहुत वडा दुख है कि-अव- हमारा सारा घर ही उठ रहा है। अन्नदाता । दुख अव इस बात का है कि-वे वर्तन, रुपयें अब कहाँ से मिलेंगे ? किम घर से आयेंगे और कौन देगा? आप घर पर विराजते तो जन्म-मरण-परण (विवाह) सव काम-काज होते ही और हमारी आवक भी यो की त्यो कायम रहती।"
जब उस भगन मा की स्वार्थ भरी पुकार को सुनी व आखो के सामने देखी तो, तत्काल मेघावी प्रताप ने उसी की माग के अनुसार आशातीत ईनाम देकर विदा दी और कहा कि- 'अव तो वहुत मा " "अरे । गरीव निवाज | आप को सुदृष्टि चाहिये।" ऐसा कहकर मुस्कराती हुई वह भगन मा अपने घर की ओर चलती बनी।
अव वीर प्रताप चिन्तन की दुनिया में सोचने लगा कि-अहो ससार कितना स्वार्थी तत्त्वो से परिपूर्ण है । एक मामूली महिला भी अपने तुच्छ अधिकार को छोडना पसन्द नही करती है । अन्तत लेकर ही गई तो सब रोणा-धोना वन्द हो गया और तन-मन में कितनी खुशहाली छा गई । अतएव ज्ञानियो ने ठीक ही कहा है कि सभी अपने-अपने मतलव को ही रोते रहते हैं। न कि परमार्थ को, इसलिए शुभ कार्य के लिए अब मुझे विलम्ब नही करना चाहिए ।
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जैन दीक्षा माहात्म्य
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साध्य को सफल करने का तरीका - "आत्मा सो ही परमात्मा” नन्ही सी यह युक्ति जन-जन की जिह्वा पर काफी प्रचलित एव काफी अशो मे सत्य ही नही बल्कि शतप्रतिशत सत्य है। क्योवि-मोक्ष का अधिकारी आत्मा को ही माना गया है।
___ "मोक्ष किसके लिए?" उत्तर मे सर्व धर्म ग्रन्थो का एक ही उद्घोप घोपित होगा किदेही के लिए, चैतन्य के लिए, जीवधारी के लिए न कि जड वस्तु के लिए। अतएव जगत् के अधिकाश मानव समूह को प्रकट एव प्रच्छन्न रूप से यह शुभाकाक्षा अवश्य रही है-"हम परम चरमोत्कर्ष दशा, को प्राप्त करें।" परन्तु शुद्धावस्था पाने के लिए पर्याप्त सम्यक् परिश्रम, अन्तरग शुद्धि, आत्म-नियन्त्रण इन्द्रिय व मनोनिग्रह एव समूल कपाय-इति श्री के साथ-साथ महानता के प्रतीक नाना विध गुण रूपी गुल दस्तो से आत्मा की वास्तविक सजावट परमावश्यक मानी गई है। तदनतर ही साध्य (मोक्ष) सिद्धि की असीम-अनन्त-निधि-समृद्धि हाथो मे ही नहीं अपितु हृदय के प्रागण मे चमकने लगती है एव जीवन मे दमकने लगती है।
हा, तो साध्य की अक्ष ण्ण-अखड सफलता के लिए रत्नत्रय (सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र) की आराधना प्रत्येक भव्य के लिए उतनी ही जरूरी है, जितनी रोगी के लिए औषधि और रक के लिए धन निधि । चूंकि-भव्यात्मा ज्ञान-विज्ञान की एक बहुत बडी प्रयोगशाला है। मोक्ष-साध्य के प्रयोग हेतु भव्य-मानम स्थली को सुरक्षित केन्द्र माना गया है। वही पर उपरोक्त प्रयोग-परीक्षण पुप्पितपल्लवित एव फलित होता है। आत्मसाधना का पथ यद्यपि कटकाकीर्ण है, अनेकानेक कठिनाई एव तूफानो से घिरा हुआ है। जैसा कि
हदि धम्मत्य कामाण, निग्गथाण सुणेह मे।। आयारगोयरं भीम, सयल दरहिछिय ॥
-दशवकालिक सूत्र अ० ६ गा० ४ हे देवानुप्रिय । श्रुत चारित्र रूप धर्म और मोक्ष के अभिलापी निर्ग्रन्थ मुनियो का समस्त आचार-विचार, जो कर्मरूपी शत्रु ओ के लिए भयकर है तथा जिसको धारण करने मे कायर पुरुप घवराते हैं।
तथापि ऐसे दुरुह तथा कठोरातिकठोर साधना सुमेरु पर भी भारत के इक्के-दुक्के नहीं, किन्तु अनन्त-अनन्त वीर-धीर-त्यागी वैरागी योहागण सफल-मिद्ध हुए और हो रहे हैं।
साधना के दो मार्ग जैनधर्म में साधना के दो मार्ग वताये गये हैं-"देश सर्वतोऽणु महतो"
-तत्वार्थसूत्र
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प्रथम खण्ड : जैन दीक्षा माहात्म्य | २६
अर्थात् अल्प अशो मे विरति को अणुव्रत और सर्वाशो मे विरति को महाव्रत कहा जाता है।
जैन भुगोल के आधार पर साधना का क्षेत्र पैतालीस लाख योजन विस्तार वाला माना गया है । मुमुक्ष साधना को भले अणु रूप से स्वीकार करें किंवा अखण्ड रूप से अगीकार करे । साधना का मतलव है-आत्मा को यौगिक वनाना। योग का अर्थ है—जोडना । जो अपनी वृत्तियो को नियमोपनियम मे नियोजित एव रत्नत्रय की त्रिवेणी मे प्रवाहित करता है - बस, वही साधक और वही योगी है । इसका नाम जीवन-मुक्त दशा की खोज और मरते हुए भी अमरता की सच्ची अन्वेपणा है । इसका अर्थ यह होगा कि वह यद्यपि सासारिक प्रवृत्तियो मे भाग ले रहा है । तथापि वह अनासक्त है । वह खाता-पीता है, किन्तु केवल जीवन निर्वाह के लिये। जैसा कि-"Eat to live and do't live to eat" अर्थात्-जीने के लिये खाओ, खाने के लिये मत जीओ।
अनासक्ति भाव आत्मीय सात्विक वृत्ति है। जो भव्य को अजरता-अमरता की ओर प्रेरित करती है। जव कि—आसक्ति भाव निविड मासारिक बन्धन है। जो प्रकाश से अन्धकार की ओर एव मानवता से दानवता की ओर घसीटती है। मानव यह अच्छी तरह जानता है कि-हिरण्य-सुवर्ण-द्विपद-चतुष्पद, चराचर सम्पत्ति मुझ से भिन्न वस्तु है । तथापि वह उनमे गृद्ध और गृद्ध भी उतना कि उसके मन-मदिर मे तुष्टि-पुष्टि का दुष्काल सा ही रहता है। यह है आसक्त मानव की दयनीय दशा । जव कि-अनासक्त साधक वाहरी वैभव रूपी झुरमुट को केवल जीवन निर्वाह का साधन मानता हुआ, मौका आने पर तृणवत् त्याग कर, वैराग्य युक्त होकर हर्षोल्लमित होता हुआ अकिंचनावस्था मे आ खडा होता है ।
यहाँ से त्याग मार्ग की प्रशस्त दो सुवीथिकाएँ प्रारम्भ होती हैं। गृहस्थ साधक (अणुव्रती) और पूर्ण रूपेण सयमी साधक (महाव्रती) । दोनो प्रकार के साधको का लक्ष्य-उद्देश्य भिन्न नही, अभिन्न है, अनेक नहीं एक है-सिद्धालय तक पहुचना, कर्मों से मुक्ति पाना एव सत्य-स्वतन्त्र दशा को प्राप्त करना । अतएव महापुरुपो ने दोनो मार्गों को प्रशसनीय एव जीवन के लिये अनुकरणीय आदरणीय वताए हैं।
जन (आर्हती) दीक्षादीक्षा वही है, जो पूर्ण सयम की साधना का व्रत हो। वैराग्य सुधा मे ओतप्रोत बना हुआ मुमुक्ष सयमी प्रक्रिया को कैसे सम्पन्न करता है ? यह बतलाने के लिये मे जैन-दीक्षा की कतिपय वरिप्ठविशेषताएँ यहाँ दर्शाऊंगा। क्योकि विभिन्न धर्मों की दीक्षा प्रणालियां विभिन्न हैं । अत. आवश्यक होता है कि मैं आगतुक जैन-जैनेतर दर्शको को जैनधर्म की दीक्षा पद्धति से परिचित कराऊँ। जैनदीक्षा का अर्थ है-"सर्व सावध योगो से निवृत्त होना।" अर्थात्---शुद्धावस्था के वाधक एव घातक सर्व क्रिया-काण्डो का परित्याग करना। इन्हें पाच विभागो मे बाटे गये हैं
(१) हिंसा-परितापना, प्राणो से रहित करना, अपने स्वार्थ के लिए अन्य का सर्वस्व विनाश ।
(२) असत्य--असत् भापा का प्रयोग, मिथ्या आग्रह, भाव-कुटिलता और करनी कथनी मे अन्तर।
(३) चोरी-परवस्तु उठाना, अधिकार छीनना एव ठगना। (४) अब्रह्मचय-मन-वाणी-काय शक्ति का असयम मे प्रयोग । (५) परिग्रह-ममत्वभाव एव मूर्छा भाव मे रमण । दीक्षा का उम्मीदवार भाई तथा वाई अपने गुरु एव सैकडो हजागे मानवो की साक्षी से
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३० मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन अन्य जीवन पर्यन्त उपरोक्त दुप्प्रवृत्तियो को त्यागने की भीष्म प्रतिज्ञा ग्रहण करता है और निम्नोक्त पाच महाव्रतो को स्वीकार करता हैं---कहा भी है
अहिंस सच्चं च अतेणगं च, तत्तोय वर्म अपरिग्गह च । पडिवज्जिया पंच महन्वयाणि, धरिज्ज धम्म जिण देसिय विऊ ।।
-उत्तगध्ययन २१ (१) अहिंसा-मैं आज से आजीवन मनसा-वाचा कर्मणा हिमा न करेगा, न काऊँगा और करते हुए प्राणी को अच्छा भी न ममगा।
(२) सत्य-~-मैं आज से जीवनपर्यत के लिए मनसा-वाचा-कर्मणा झूठ न बोलूगा न वोलवाऊंगा और वोलते हुए प्राणी को अच्छा भी न समझूगा ।
(३) अचौर्य में आज से जीवनपर्यंत के लिए मनसा वाचा-कर्मणा चोरी न कत्गा , न कराऊँगा और करते हुए प्राणी को अच्छा भी न समझूगा ।
(४) ब्रह्मचर्य-मैं आज मे जीवनपर्यत के लिए मनसा वाचा-कर्मणा अब्रह्मचर्य (कुणील) का सेवन नहीं करूंगा, न कराऊँगा और सेवन करते हुए प्राणी को अच्छा भी न समझगा।
(५) अपरिग्रह-मैं आज से आजीवन मनसा-वाचा-कर्मणा परिग्रह न रखू गा न रखाऊँगा और रखते हुए प्राणी को अच्छा भी न समझूगा।
(६) रात्रि भोजन-~मैं आजीवन मनमा-वाचा-कर्मणा रात्रि भोजन न करूंगा न करवाऊँगा और करते हुए प्राणी को अच्छा भी न समझंगा।
सुख शान्ति का शास्वत मार्गउपर्युक्त कठोरातिकठोर पाच महाव्रतो को स्वीकार करने मे एव पालने मे जैन माधु-माध्वी वर्ग पूर्ण रूपेण उत्तीर्ण हुए और हो रहे हैं। अतएव दीक्षा जीवन का महान आदर्श है । चिर सचितअजित विपुल सम्कारो के विना इस ओर किसी का ध्यान ही नही जाता है। आज के भौतिक-वातावरण मे जहां चारों ओर वास नापूर्ति की होड लग रही है वहाँ कामना को ठुकराने वाले की मनोवृत्ति क्या महान महत्त्व नहीं रखती है ? जरा ध्यान से सुनिए, पढिए एव जीवन में उतारिए । इच्छा और आवश्यकताओ को ज्यो त्यो पूरा करना ही मानव अपना लक्ष्य मान बैठा है। ऐसी परिस्थिति में उन सव को कुचल कर सुख शान्ति से जीवन व्यतीत करने वाला सयमी क्या समष्टि एव व्यष्टि के लिये आदरणीय-सम्मानीय नहीं बनता ? अवश्य बनता है। क्योकि सुख शान्ति का इच्छुक वह मानव ठीक मार्गानुमारी वन सम्यक् परिश्रम करने मे दत्तचित्त है । जैसाकि
कुप्पवयण पासठी सव्वे उम्मग्गपढ़िा ।
सम्मग तु जिणक्खाय, एस मग्गे हि उत्तरी । -भ० महावीर हे मुमुक्ष । हिंसामय दूपित वचन बोलने वाले, वे सभी उन्मार्गानुसारी है। राग-द्वेप रहित और आप्त पुरुपो का बताया हुमा मार्ग ही एक मात्र सन्मार्ग है । वही मार्ग सर्वोत्तम-कल्याण को देने वाला है।
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दीसा-साधना के पथ पर
सफलता का सूर्योदय -- पारिवारिक सदस्यो द्वारा सहर्प मौन स्वीकृति मिल जाने पर वैरागी प्रताप अविलम्ब देवगढ से लसाणीगाव मे चल आया। जहाँ श्री हर्पचन्द्रजी महाराज आदि सतद्वय अपना वर्षावास बिता रहे थे। काफी दिनो तक उनकी सेवा मे रहने का सौभाग्य मिला। फलत ज्ञान-ध्यान श्रमणोचित आचारविचारव वैराग्यभाव, प्रत्याख्यान आदि को आशातीत वल भी मिला । सकल्प पर मेरु की तरह मजबूत रहने की मुनि श्री द्वारा सत्प्रेरणा भरी सुसीख भी मिलती रही। इस प्रकार प्रण-पालक प्रताप अहर्निश उस पवित्र वेला की प्रतीक्षा में रहता था कि "वह शुभ-घडी पल कब आएगी? जिस दिन मैं निर्ग्रन्थ के पद चिन्हो का अनुगामी बनकर सघ, समाज, गुरु एव गुरु भ्राताओ की महान् सेवा शुश्र पा कर अपने जीवन को समृद्धिशाली बनाऊंगा
जेही के जेही पर सत्य सनेह । सो तेही मिला न कक सदेहु ।
"यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी' शुभ भावना के अनुसार सिद्धि प्रसिद्धि तो साधक के चरणो का चुम्बन किया करती है। वस, ठीक वीर प्रताप विजय-दशमी के शुभ दिन दिग विजय के शुभ सकल्प को मन मजूपा मे विराजित कर लसाणी ग्राम से मदसौर के लिए चला आया। जहाँ महामहिम शासन प्रभाकर वादी मान-मर्दक गुरु प्रवर श्री नन्दलालजी म० शिष्य परिवार सहित सवत् १९७६ का चातुर्मास सम्पन्न कर रहे थे। विना पत्र-समाचार अकस्मात् प्रताप को आते देखकर मुनिमण्डल विस्मित हुए और वस्तुस्थिति ज्ञात होने पर प्रसन्न चित्त भी हुए। नर-रत्नो के पारखी, गुरुरूपी जौहरी ने सच्चे हीरे को पहिले से ही खूब टटोल एव देख-भाल कर रखा था। किन्तु सघ-समाज ने अभी तक कसोटी पर कसा नहीं था। ऐरे-गैरे ढोगी-धूर्त -नर-नारी विमल वैराग्य अवस्था को निज स्वार्थ के पीछे कलुपित कलकित किया करते हैं। एव वैराग्य का चोगा लटकाकर गरु एव संघ की आखो मे धूल झोक जाते हैं । अतएव सघ की तरफ से कसौटी पर आना अत्यावश्यक ही था।
कसौटी के तस्ते पर प्रतापअब कसौटी करने के लिए स्थानीय सघ के सदस्यो ने वैरागी प्रताप को सन्निकट एकान्त मे बुलाकर कुछ-प्रश्न पूछे-"दीक्षा किस लिए लेते हो? क्या साधु वनने मे ही मजा एव मोक्ष है ? गृहस्थावस्था मे भी तो जीवनोत्थान-कल्याण बहुतो ने किया हैं ? अतएव हमारा तो नम्र निवेदन यही है कि अभी हाल रुको, अथवा हमारे यहा पर ही नौकरी करो और सुख से कमाओ-खाओ।" प्रश्नो का मेधावी वालक ने साहस पूर्वक समयोचित उत्तर दिया। पच्छको का मन-कोष-तोष से भर उठा। इसी प्रकार घरों में भी खाद्य-पेय पदार्थों द्वारा दुवारा कसौटी और हुई। परन्तु शान्त मूर्ति प्रताप के मुख से एक शब्द तक नहीं निकला कि-यह कडुमा है, वह शीत है, यह उष्ण है, यह तीखा और वह कसला है।" वल्कि समय पर जैसा 'असन-पान खाद्य-स्वाद्य थाली मे आया, वैसा खा-पीकर सतुष्ट रहे ।
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३२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
जन-जन की आंखो में-- सर्व परीक्षाओ मे उत्तीर्ण हो जाने के पश्चात् ही ससारी जन उस साधक की कीमत आकता है । ऐसा कौन होगा-जो सच्चे वैरागी आत्मा को लखकर उसका मन-मयूर नाच न उठता हो । वस, अविलम्ब मन्दसौर के इधर-उधर भागो मे विरक्त प्रताप के गुणो की भूरि-भूरि प्रशसा होने लगी। समाज के कार्यकर्ताओ को भी पक्का विश्वाम हो गया कि ऐसे पवित्र हृदयी जन ही स्वपर काउत्थान कर सकते हैं। सघ के कमनीय-रमणीय प्रागण मे भारी आनन्द हर्प उमड पडा । घर-घर में आनन्दोल्लास, मगलगान के फुव्वारे फूटने लगे । वंरागी वीद क्या आया, मानो हर्प-प्रमोद एव सुख शान्ति का जादूगर आया हो । सर्वत्र सुखमय वातावरण का निर्माण हो चला।
और साथियो का मधुर मिलन"अधिकस्य अधिक फलम्" अर्थात् अत्यधिक उत्साह उमग बढने मे दूसरा कारण यह भी था कि-मन्दसौर निवासी श्री हीरालाल जी दूगड (प्र० श्री० हीरालाल जी म०) एव आप श्री के पूज्य पिता श्री लक्ष्मीचन्द जी दूगड (स्व० श्री लक्ष्मीचन्द जी महाराज) आप दोनो भी गुरु भगवन्त श्री नन्दलाल जी म० के पवित्र पाद पद्मो मे वैराग्यावस्था की साधना मे लवलीन थे। इस प्रकार वाप-बेटा और वैरागी प्रताप इन रत्नत्रय के आलोक से सघ-सुमेरु दिन-दुगुना और रात चौगुना आलोकित हो उठा और सघ के मधुर एव स्नेह भरे वातावरण से तीनो भाव साधक भी चमक-दमक उठे। ठीक ही कहा है कि
चार मिले चौसठ खिले, बीस रहे कर जोड़।
सज्जन से सज्जन मिले, हुलसे सातू फोट ॥ तत्पश्चात् मघ एव गुरुदेव ने सुयोग्य पात्र समझकर ६५ दिन के पूर्वाभ्यास के बाद ही अर्यात्-मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा सवत् १९७६ की शुभ वेला मे अत्यन्त समारोह-शान्त वातावरण के क्षणो में केवल वैरागी प्रताप को जैनेन्द्रीय दीक्षा प्रदान की।
जाए सध्दाए निक्खतो, परियायठाणमुत्तम । तमेव अणु पालिज्जा, गुणे मायरिय सम्मए ।
-भ. महावीर हे जिज्ञासु । जो गृहस्थ जिस श्रद्धा से प्रधान दीक्षा स्थान प्राप्त करने को मायामय काम रूप ससार से पृयक् हुआ, उमी भावना से जीवन पर्यंत उसको तीर्थंकर प्ररूपित गुणो मे वृद्धि करते रहना चाहिए ।
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शास्त्रीय-अध्ययन
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जीवन निर्माण में शास्त्रःतवो गुण पहाणस्स. उज्जुमइ खत्ति सजमरयस्स। परिसहे जिणतस्स, सुलहा सोग्गई तारिसग्गस्स ॥
-दशवकालिक सूत्र मुमुक्षु । तपरूपी गुण से प्रधान, सरल बुद्धि वाले, क्षमा और सयम मे तल्लीन, परीषहो को जीतनेवाले साधु को सुगति अर्थात्-मोक्ष मिलना सुलभ है।
शास्त्र वह है-जिसमे जीवन की प्रत्येक गतिविधि का सम्पूर्ण चित्र मिले और जिसमे वैराग्य तथा सयम का मार्गदर्शन हो । शास्त्र का लाभ यही है कि-उससे मानव अपने विचारो को गति देता है। अपने को समाज के अनुकूल बनाता है और अपना समर्पण समाज और धर्म के प्रति करके अपने को पूर्णत लघुभूत बनाता है । अतएव मानव जीवन के नव-निर्माण मे शास्त्र-सिद्धान्त एक मौलिक निमित्त माने गये हैं। वस्तुत शास्त्र उभय जीवन सुधारने की कु जी व तत्त्व रत्नाकर है। "जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पेठ' की युक्ति के अनुसार साधक ज्यो ज्यो सिद्धान्तो की गहराई तक पहुंचता है, त्यों-त्यो उम अन्वेपक साधक को महा मूल्यवान द्रव्यानुयोग, कथानुयोग, गणितानुयोग व चरियानुयोग आदि नानाविध इष्ट अभीष्ट तत्त्व-रनो की प्राप्ति होती है। फलस्वरूप शास्त्ररूपी लोचन प्राप्त हो जाने पर वह मुमुक्ष इतस्तत मिथ्या अटवी मे न भटकता हुआ, निज जीवन मे सम्यक् ज्योति को प्रदीप्त करता है। साथ ही साथ राष्ट्र एव समाज जीवन को भी उसी प्रखर ज्योति मे तिरोहित करने का सुप्रयत्न करता है।
जैसे खाद्य एव पेय पदार्थ इस पार्थिव शरीर के लिए अनिवार्य है उसो तरह कर्म-कीट को दूर करने के लिए शास्त्र-स्वाध्याय एव पठन-पाठन प्रत्येक भव्यात्माओ के लिए जरूरी भी है । फलत विभाव परिणति की इति होकर भूल-भूलया मे भ्रमित आत्मा पुन स्वधर्म-सुखानन्द मे स्थिर होकर परिपुष्ट, परिपक्व शुद्ध-साधना की ओर अग्रसर होती है। कहा भी है
ससारविषवृक्षस्य, द्वे फले अमृतोपमे ।
____ काव्याऽमृतरसास्वाद सगम सज्जन सह ॥ अर्थात्---ससाररूपी विपवृक्ष के दो ही सारभूत फल माने गये है--एक तो स्वाध्यायामृत का रसास्वाद और दूसरा अमृत फल है---गुणी जना की सगति ।
मिथ्या श्रुत-एक अधेराश्रुत (शास्त्र) के दो विकल्प माने गये हैं--मिथ्याश्रुत और सम्यक्श्रुत । मिथ्याश्रुत एकान्तवादी असर्वज्ञ पुरुप प्रणीत माना गया है। सभव है-जिसमे कही त्रुटियां तो, कही राग द्वेप एव तेरे-मेरे की झलक स्पष्टत झलकती है। एक स्थान पर मडन तो कही अन्य स्थान पर उसी विपय का
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३४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ उसी लेखक द्वारा खण्डन लिखा मिलता है। इस कारण उसे अनाप्त श्रुत या मित्र्याश्रुत की मना दी गई है । मिथ्या श्रत स्व-पर जीवनोत्थान मे सहायक न बनकर वाधक एव रोधक है, तारक नहीं मारक है, ज्योति नही ज्वाला है और ज्यादा कहे तो मिथ्या श्रुत मृत्यु है, विप है, अणान्ति है, एव दुख का अथाह सागर है। अतएव शास्त्र में कहा है "सव्वे उम्मग्ग पछिया" अर्यात् एकान्तवादी जन मभी उन्मार्ग में चलने वाले होते हैं। अत "दूरओ परिवज्जए" अर्थात् उनका सहवाम-उनकी मान्यता-मत पथ को विषवत् समझकर त्याग देना चाहिए।
सम्यक् श्रुत का कार्य क्षेत्रअत्थ भासइ अरहा, सुत्त गथति गणहरा निउण ।
सासणस्स हियठाए, तओ सुत्त पवत्त इ ।। अर्थात्--शासन के हितार्थ सूत्रो की प्ररूपणा हुई है-मूल अर्थों के प्ररूपक मर्वज्ञानी अरिहन्त हैं और सूत्रो के रूप मे गु फित करने वाले निपुण ज्ञान निधान गणघर माने गये हैं।
__सूत्र का मूल प्राकृत शब्द क्या है ? सूत्र को प्राकृत भाषा मे "सुत्त" कहते हैं । जिसका एक अर्थ होता है--सूत्र (सूत) यानी धागा । अभिप्राय है जो उलझी हुई, विखरी हुई चीज को एक जगह एक क्रम से जोड देता है । क्रमानुसार से रखी हुई वस्तुओ को पाना आसान होता है-उसमे काफी हद तक स्पष्टता रहती है । सूत्र का दूसरा अर्थ है-सूचना-'सूचनात् सूत्रम्' पाठक वृन्द को पूर्व सन्दर्भ एव अर्थों की ओर इशारा करता है। 'सुत्त' का अर्थ सोया हुआ भी किया गया है। राजस्थानी भाषा मे आज भी 'सुता' कहते हैं । अर्थात् शब्दो मे उसका आत्मा अर्थ एव भाव मोये हुए है । अतएव विस्तृत भाव व्यजना की अपेक्षा रहती है। "आप्तवचनादाविर्भूतमर्यसवेदनमागम"
--प्रमाणनय तत्त्वालोक आप्त (सर्वज्ञ) के वचनो से होने वाले पदार्थों के ज्ञान को सम्यक् श्रुत कहा गया है। सर्वथा राग द्वेष के विजेता एव कही जाने वाली वस्तु स्वभावो को अच्छी तरह से सम्पूर्ण पर्यायो को जानता हो और जैसा जानता हो, वैसा ही कथन करता हो अर्थात् भूत-भविष्य व वर्तमानकाल के सर्वथा ज्ञाता हो उन्हे आप्त पुरुप माना गया है। "तस्य हि वचनमविसंवादि भवति ।" अर्थात्-उस यथार्थ ज्ञाता और यथार्थवक्ता का प्रकथन ही विसवाद रहित होता है।
यह निर्विवाद सत्य है कि-आप्त वाणी मे न कोई त्रुटि एव न पूर्वापर विरोध रहता है। क्योकि उनकी शैली नय-निक्षेप प्रमाण आदि तत्त्व गभित एव अनवरत गति से बहने वाली समन्वय एव स्याद्वाद सुधा की स्रोतस्विनी रही है। जो समष्टि के कोने-कोने को आद्रं करती हुई आगे बढती है। स्व-धर्म, एव पर धर्म का सागोपाग यथोचित स्थानो पर विश्लेपण किया मिलता है । हिंसा को हिंसा, पाप को पाप और मिथ्यात्व को मिथ्यात्व ही माना गया है। भले वे कृत-क्रिया कर्म, धर्म अथवा ससार के नाम पर हुए हो । परन्तु "हिंसा नाम भवेत् धर्मो न भूतो न भविष्यति' अर्थात्-हिंसा हिंसा ही रहेगी। यह है आगम की गारटी। इस प्रकार सम्यकश्रु त की दृष्टि मे मानव मात्र को समानाधिकार है । जाति-कुल-परिवार को बढावा न देकर गुणो को मुख्यता दी है। भले उस पार्थिव शरीर पर किसी जाति कुल का सिक्का या मार्का क्यो न लगा हुआ हो । "यत् सत्य तत् मम" जीवन विकास के हेतुभूत जो मार तत्त्व हैं वे मेरे हैं और समस्त समष्टि की वपौती है। यह सम्यक् श्रुत का अमर
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प्रथम खण्ड शास्त्रीय-अध्ययन | ३५
उद्घोप और यह है निर्ग्रन्थ प्रवचन की विशेषता-सरलता एव निष्पक्षता । इसलिए—आचार्य समन्त भद्र की भापा मे-'सर्वापदामंतकर निरन्त सर्वोदयं तीर्थमिद तवैव" अर्थात्-हे प्रभु | आप के प्रवचन पावन तीर्थ मे आधि-व्याधियो का समूल अत हो जाता है । इसलिए सर्वोदय तीर्थ से उपमित किया गया।
आप्त वाणी को दुर्लभता - आप्त कथित आगम वाणी की प्राप्ति अतिदुष्कर मानी गई हैं चू कि-मिथ्या सिद्धान्त का फैलाव-पसार जल्दी जन-जीवन मे फैल जाता है। दूसरी बात यह भी है कि-नकली एव सस्ती वस्तु को मानव सत्वर स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाता है और स्वीकार करने के पश्चात् पुन उसे त्यागना
और मुश्किल की चीज है । मिथ्यात्व एक ऐसी वीमारी है, एक ऐसा भयकर कर्दम है जिसके दल-दल मे मानव मक्ती की तरह उलझ जाता है कदाच कोई धीर-वीर समझू जिज्ञासु ही उस मिथ्या श्रुत कर्दम मे से विमुक्त हो पाता है । इसलिए कहा है
माणुस्स विग्गह लद्ध, सुई धम्मस्स दुल्लहा । ज सोचा पडिवज्जति, तव खति महिंसय ।।
-उत्तराध्ययन सूत्र ३ गा०८ हे जिज्ञासु । मानव जन्म पा जाने पर भी उस सम्यक् श्रुत धर्म का सुनना दुर्लभ है । जिन वाक्यो को श्रवणगत करके तप क्षमा और अहिंसा धर्म अगीकार करने की अभिरुचि पैदा होती है । अतएव जन्म-जरा मरण की शृखला को विच्छिन्न एव नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए निश्चयमेव आगम वाणी अचूक औपधि है जीवन है, अमृत है, अनन्त शान्ति-सुधा पूरित है, शुद्ध ज्योति है, जीवन को चमकाने वाला ओज है तेज है, अजेय शक्ति (Power) का श्रोत है, अनन्त वल है, ज्ञान-विज्ञान आदि सर्वस्व आनन्द की कु जी है एव सिद्ध गति का शाश्वत सोपान है।
___गुरु एव शिष्य का सुमेलसम्यकश्र त एव वादीमानमर्दक गुरुप्रवर श्री नन्दलाल जी महाराज श्री का सुयोग मिलने पर तीव्र गति से आप (प्रताप गुरु) का विकास होने लगा। साधु का वाना धारण कर लेने मात्र से ही नव दीक्षित मुनि सन्तुष्ट होकर बैठे नही रहे क्योकि भली-भाति ऐसा आपको ज्ञात था कि"यस्मात् क्रिया प्रति फलति न भाव शून्या" अर्थात्-भावात्मक साधना विना आचरित क्रिया काण्ड के केवल संसारवर्धक माने गये हैं। अतएव वेश-भूषा, रजोहरण-मु हपत्ति व पात्र आदि उपकरण तो मेरी आत्मा ने पहिले भी निमित्त पाकर अनेको वार अगीकार कर लिया है किन्तु इष्ट मनोरथ की पूर्ति हुई नही । वस्तुत अमूत्य इन क्षणो मे अब मुझे ज्ञान एव क्रिया का अभ्यास इस तरह करना है, ताकि'पुनरपि जनन पुनरपि मरण" का चिरकालीन चला आ रहा सिलसिला अवरुद्ध सा हो जावे । ऐसा प्रशस्त चिन्तन-मनन कर आप प्रमाद किये बिना ही ज्ञानाभिवृद्धि मे इस तरह जुट गये, मानो कही प्राप्त हुआ काल यो ही वीत न जाय । जैसे किसी को खजाना बटोरने को कह दिया हो। उसी प्रकार विनय-विवेक-एव भक्तिपूर्वक गुरुप्रदत्त ज्ञाननिधि वटोरने मे नव-दीक्षित मुनि जी सलग्न हुए।
गुरु भगवन्त भी ऐसे-वैसे शिप्य रूपी पात्रो मे ज्ञानामृत नही उडेला करते हैं । निम्न गुणो से ओत-प्रोत पात्र को ही ज्ञानामृत का सुस्वादन-पान करवाते हैं --
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३६ | मुनश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
अह अहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चई । अहस्सिरे सया दते, न य मम्ममुदाहरे ।। नासोले न विसीले, न सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीलेत्ति वच्चई ॥
-म० महावीर-उत्त० अ० ११ । गा० ४-५ "जो अधिक नही हमनेवाला, इन्द्रियो का सदैव दमन करने वाला, मर्म भरी वाणी का उपयोग न करने वाला, शुद्धाचारी, विशेष लोलुपता रहित, मन्द कपायी, और सत्यानुरागी-शिक्षा शील सम्पन्न हो ।" उपर्युक्त सर्व गुण हमारे चरित्र नायक के जीवन मे ज्यो के त्यो हरी खेती की तरह लहलहा रहे हैं।
गुरुदेव सचमुच ही ऐसे विनयशील-विवेकी अन्तेवासी के लिए अपना विराट् विमल-विपुल हृदय निधान विना सकोच किये उघाडकर उस शिप्य के सामने रख देते हैं । गुरु प्रवर का सचित-अर्जित अखण्ड ज्ञान-विज्ञान भण्डार ऐसे ही अन्तेवासी पात्रो के लिए सर्वदा सुरक्षित रहता है--"सपत्ति विणीयस्स।"
साहित्य में प्रवेश - गुरुदेव की महती कृपा से दीक्षोपरान्त आपने जैनागम तथा जैन-दर्शन साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ किया । त्वरिता गति से दशवकालिक, उत्तराध्ययन, सूत्रकृताग एव आचाराग सूत्र आदि-आदि कई शास्त्र कठस्थ कर लिए गये और समयानुसार हिन्दी साहित्य मे भी साहित्य रत्न पदवी तक की उच्चतरीय योग्यता अतिशीघ्र प्राप्त कर ली। तत्पश्चात् सस्कृत साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ किया। जिसमे श्रीयुत् स्व० मान्यवर श्री कन्हैयालाल जी भण्डारी इन्दौर वालो का पूरा पूरा सहयोग रहा। अनुदिन भण्डारी सा० की ओर से उत्साहवर्धक पवित्र प्रेरणा मिलती रही-"आप पढते हुए आगे वढते रहे। आप की व्याख्यान शैली और विद्वत्ता अधिकाधिक निखर उठेगी।" फलस्वरूप सस्कृत व्याकरण, कोप, काव्य-न्यायदर्शन एवं अन्य सहायक साहित्य का चित्त लगाकर अवलोकन किया। देखते ही देखते आप एक अच्छे व्याख्याता मनीपी के रूप मे समाज के सम्मुख आ खडे हुए।
करे सेवा पावे मेवास्व० पू० श्री मन्नालाल जी म० त्याग शिरोमणि स्व० पू० श्री खूबचन्द जी म०, स्व० दि० श्री चौथमल जी म० स्व० पू० श्री सहनमलजी म० स्व० उपाध्याय श्री प्यारचन्द जी म०, एव दीर्घ जीवी गुरु प्रवर श्री कस्तूरचन्द जी म० आदि अनेकानेक वरिष्ठ मुनिवरो के ससर्ग से आप कुछ ही वर्षों मे एक सफल वक्ता एव विश्लेपण कर्ता के रूप मे बनकर अद्यप्रभृति समाज मे एक अनूठा-अनुपम कार्य कर रहे हैं। जो प्रत्येक श्रमण साधक के लिए अनुकरणीय एव जैन समाज के लिए अति गौरव का विपय है। इस प्रकार हमारे चरित्र नायक के भाग्योदय का सर्वस्व श्रेय वादी मान-मर्दक गुरु नन्दलाल जी म० को है । जिनकी महती कृपा से प्रताप एक धर्मगुरु प्रताप बन गया।
समय की मांग__ आज के इस तर्कवादी शुग मे सम्यक्-श्रुत स्वाध्याय की महती आवश्यकता है। शास्त्रीयज्ञान के अभाव मे आज-समाज, परिवार एव राष्ट्र के वीच अशान्ति की चिनगारियां फूटती है । गृह
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प्रथम खण्ड शास्त्रीय-अध्ययन | ३७ क्लेश छिडते हैं, दानवता मानव के मस्तिष्क पर छा जाती है और उन्मार्गी भी वनने मे देर नही लगती है । वस्तुत वह साधक एव वह समाज अपने अभीष्ट मार्ग तक न पहुंच पाते हैं और न वास्तविक तत्त्वो का उपचयन भी कर पाते हैं। चूंकि-सम्यक्ज्ञान के अभाव मे मानव सूझता हुआ भी अघा, पगु एव लुला-लगडा माना गया है। अधा-अज्ञानी नर-नारी पग-पग और डग-डग पर ठोकरें खाता हुआ यदा-कदा खुना-खूनी भी हो जाता है। इसलिए भ० महावीर के उद्घोप की ओर ध्यान देना प्रत्येक के लिए जरूरी है
तम्हा सुयमहिट्ठिज्जा, उत्तमट्ठगवेसए । जेणप्पाण परं चेव, सिद्धि सपाउणेज्जासि ॥
' -भ० महावीर-उत्तराध्ययन अ० ११ । गा० ३२ अतएव मोक्षाभिलापी मुमुक्षुओ को चाहिए कि-उस श्रु तज्ञान को सम्यक् प्रकार से समझे और पढ़ें--जो निश्चयमेव अपनी और दूसरो की आत्मा को अपवर्ग (मोक्ष) मे पहुंचाने वाला है ।
MORE
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गुरुवर्य की परिचर्या
गुरु नन्द का स्थिरवास - "विहार चरिया इसिण पसत्या" यद्यपि विहारचर्या मुनिजन को अति अभीष्ट है और तदनुसार श्रमण-श्रमणी विहार करते हुए गाव-नगर-पुर-पाटनावासियो मे धार्मिक चेतना-जागृत करते हैं। इम महान् उद्देश्य को लेकर उनका पर्यटन-परिभ्रमण हुआ करता है। शास्त्रविधान का स्पप्टत उद्घोप यही बताता है कि---"मुने । तू पानी के स्रोत की तरह विशुद्धाचारी वनकर आस-पास के जनमानस को ज्ञान पय से प्लावित करता हुआ आगे से आगे बढना। तेरी सयम यात्रा का पवित्र प्रवाह निरन्तर प्रवाहमान रहे । चूकि~-तेरे जीवनाश्रित जन-जन का हित निहित है।" तथापि श्रमण, जीवन पर्यंत के लिए विशेष शारीरिक कारण वशात् किसी एक सुयोग्य स्थान पर रुक भी साता एव रह भी मकता है। कारण यह है कि-साधन (शरीर) जीर्ण-शीर्ण अवस्था को पहुंच चुका है । अतएव एक स्थान पर रुके रहना, यह भी शास्त्रीय मर्यादा और सर्वज्ञ-आदेश की परिपालना ही है ।
इसी नियमानुसार गुरु भगवन्त श्री नन्दलाल जी म० भी शारीरिक अस्वस्थता के कारण काफी अर्से तक रतनपुरी (रतलाम) नीमचौक जैन स्थानक मे विराजते रहे। लघु शिष्य के नाते श्री प्रतापमुनि जी को भी गुरु-परिचर्या एव अधिकाधिक ठोस शास्त्रीय अध्ययन करने का सुअवसर महज मे ही हाथ लगा।
गुरु का वात्सल्य
शिष्य के लिए गुरु का वासल्य जीवनदायिनी शक्ति के समान होता है। उनके विना शिष्यत्व न पनपता है और न विकास-प्रकाश पाकर फलदायी ही बन सकता है। शिप्य की योग्यता गुरु के स्नेह को पाकर धन्य-धन्य हो जाती है। और गुरु का वात्सल्य शिष्य की योग्यता पाकर कृत कृत्य होता है । गुरु के प्रति शिप्य आकृष्ट हो, यह कोई विशेष वात नही है। किन्तु जव शिप्य के प्रति गुरु प्रवर आकृष्ट होते हैं, तब वह विशेष बात बन जाती है। गुरुदेव श्री नन्दलाल जी म० के पास दीक्षित होकर तथा उनका सान्निध्य पाकर आपको जो प्रमन्नता प्राप्त हुई थी, वह कोई आश्चर्य जनक बात नही थी। परन्तु आपको शिष्य रूप में प्राप्त कर स्वय गुरुदेव को जो प्रसन्नता हुई थी, वह अवश्य ही आश्चर्यजनक थी। आप ने गुरु प्रवर का जो वात्सल्य पाया था, वह नि सन्देह अमाधारण था । एक ओर जहाँ वात्सल्य की असाधारणता थी, वहाँ दूसरी ओर नियन्त्रण तथा अनुशासन भी कम नही था। कोरा वात्सल्य उच्च खलता की ओर घसीटता है, तो कोरा नियन्त्रण वैमनस्य की ओर ले जाता है, पर जव जीवन मे वात्सल्य, नियन्त्रण एव ज्ञान तीनो के सुन्दरतम समन्वय की त्रिवेणी हिलोरें मारने लगती हैं तथा जीवन मे प्रत्येकवस्तु-विज्ञान का नाप-तोल एव मन्तुलन सुयोग्य रहता है तब वह सन्तुलन ही जीवन के हर क्षेत्र मे साधक को, णिप्य को और सन्तान को उन्नति के शिखर पर पहुंचाता है।
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प्रथम खण्ड . गुरुवर्य की परिचर्या | ३६
सिद्धान्त की तह मे - सिद्धान्त में विनीत अन्तेवासी उसी को अभिव्यक्त किया है-"जो अधिक से अधिक ज्ञान निधि पाकर विनम्र रहता है, ससार में वह यशस्वी होता है । जिस प्रकार पृथ्वी पर असख्य प्राणी आश्रय पा लेते हैं उसी प्रकार नम्र व्यक्ति के हृदय में सद्गुण आश्रित होते हैं।"
-उत्तराध्ययन १४ "जो गुरुजनो की सेवा और विनय करता है, उसको शिक्षा मधुर जल से सींचे गए वृक्ष की तरह अच्छी तरह फलती फूलती है ।"
- दशवकालिक ६।१२ "जिन गुरुजनों के चरणो में बैठकर ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उनका सदा आदर और सम्मान-सत्कार करना चाहिए, वाणी से भी और व्यवहार से भी।"
-दशवै० ६।१२ प्रसन्न चित्त होकर प्रकृति देवी ने स्वभावत ही विनय गुण हमारे चरित्र नायक के जीवन मे इस तरह कूट-कूट कर भर दिये हैं। मानो विनय गुण को साक्षात् मुस्कराती प्रतिमा ही हो । आप जव अपने गुरुदेव अयवा वडे-बुजर्ग मुनिवरो की वैयावृत्य करने मे तन्मय हो जाते हैं, तब आप को अतुलित आनन्द, अपार शान्ति-प्रसन्नता की अनुभूति होती है । मेरा समय, मेरा जीवन सफल हुआ, ऐसा मानते हुए वार-बार अपने भाग्य को सराहते रहते है-अरे प्रताप । “सेवाधर्म परमगहनो योगिनामप्य गम्य" अर्थात् सेवा धर्म परम गहन है, योगी जन भी जिमका किनारा पाने मे यदा-कदा हार जाते हैं वह शुभावसर तुम्हे मिला है। जो साक्षात् आनन्द का नन्दनवन, कल्पतरुवत् सर्व मनोरथ पूरक, सर्व चिन्ताओ को शमन करने मे चिन्तामणि रत्न से भी ज्यादा है, सर्व गुण रत्नाकर और सन्तोष का अक्षय कोप है । अतएव गुरु परिचर्या-सेवा सरिता में डुबकी लगाकर जीवन-चद्दर को क्यो न धो लिया जाय " मचमुच ही महा मनस्वियो का मिलाप पूर्व पुण्य का प्रतीक माना गया है । उसी प्रकार शान्तस्वभावी गुरु और विनीत अन्तेवासी का मेल भी एक महान कार्य का द्योतक है। "रमए पडिए सासं, हय मद्द व वाहए" जिस प्रकार उत्तम घोडे का शिक्षक प्रसन्न होता है, वैसे ही विनीत शिष्य को ज्ञान देने में गुरु भी प्रसन्नचित्त होते हैं।
गुरु प्रवर का शुभाशीर्वाद - योग्य विनीत-वैयावृत्त्यसम्पन्न विद्वद् व्याख्याता शिष्य की गुरु को सदैव चाहना रही है। हमारे चरित्रनायक द्वारा की जाने वाली सेवा भक्ति मे आकृष्ट होकर गुरु भगवन्त श्री नन्दलाल जी म० सदैव प्रभावित-प्रफुल्लित रहते थे और "प्रताप" नाम से न पुकार कर "कूका-कूका ।" इस प्रकार सीधी मादी मीठी मृदु भाषा मे ही पुकारा करते थे। इससे स्वत मालूम हो जाता है कि गुरुदेव की अनन्य-अद्वितीय कमनीय कृपा आप (प्रताप गुरु) पर रहती थी। फलस्वरुप किसी खास कारण के अतिरिक्त सदैव आप को अपनी सेवा मे ही रखते थे। ऐसे महामहिम निर्ग्रन्थ गुरु के सान्निध्य मे रहने से तथा अनेकानेक मनस्वी. मुनि वरिष्ठो के शुभाशीर्वाद से दिन दुगुनी और रात चौगुनी आप की प्रगति अविराम होती रही।
'आणाए धम्मो आणाए तवो" शास्त्रीय नियमानुसार गुरु एव तत्कालीन शासन शिरोमणि आचार्य प्रवर के अनुशासन में रहना, उनके वताए हुए आदर्श-आदेशो को मनसा-वाचा-कर्मणा कार्यान्वित करना, सच्ची सेवा, वास्तविक धर्म की सज्ञा एव शासन के प्रति बफादारी का सबल सबूत
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विहार और प्रचार
बहता पानी निर्मला बहता पानी निर्मला, पडा गदीला होय ।
साधु तो रमता भला, दोष न लागे कोय । बहता हुआ पानी का प्रवाह निर्मल होता है, बहती हुई वायु उपयोगी मानी है, कलितचलित झरने मानव मन को आकृष्ट करते हैं, एव गतिमान नदी-नाले मानव और पशु-पक्षियो के कलरवो से सदैव गुजित व सुहावने-सुरम्य प्रतीत होते हैं। उसी प्रकार मूर्य-शशि भी चलते-फिरते शोभा पाते हैं। अर्थात्-विश्व-वाटिका के अचल मे उदयमान तत्त्व जितने भी विद्यमान हैं, वे सब के मव जहाँ तक उपकार एव सेवा के विराट् क्षेत्र मे रमते रहते है वहाँ तक दुनिया के सिर मोड के रूप मे सर्वत्र आद्रित एव सम्मानित होते हैं ।
उमी प्रकार साधु-सस्था भी जहाँ तक सामाजिक, धार्मिक, आत्मिक कार्यों मे जुडी हुई रहती है एव उनका गमनागम इधर-उधर चालू रहता है, वहाँ तक मानव-समाज मे साधु-जीवन के प्रति मानसम्मान-प्रतिष्ठा-प्रभाव ज्यो का त्यो रहता है। साधक-जीवन मे शिथिलता न आकर सयम मे सुदृढता रहती है। वस्तुत उपेक्षा के बदले जन-जन मे सदैव अपेक्षा (चाहना) वनी रहती है । दीर्घ उत्ताल तरग मालायें, सतप्त वालुकामय मरु-प्रदेश, कटकाकीर्ण विजन पथ, ऊँचे नीचे गिरि-गहवर उनके पाद विहार को नही रोक सके । जनहित तथा आत्म-कल्याण की भावना ने उनको विश्व के सुदूर कोने-कोने तक पहुचाया। उनका यह अभिमान स्वर्ण खानो की खोज के लिये अथवा तल कूपो की शोध के लिये या कही उपनिवेश स्थापित करने के लिये नही हुआ था। परन्तु हुआ था अशान्त विश्व को शान्ति का अमर सन्देश देने के लिये, द्वेप-दावानल मे झुलसते ससार को भ्रातृत्व के एक सूत्र मे बाधने के लिये और अज्ञानान्धकार में भटकती जनता को सत्पथ प्रदर्शित करने के लिये। अद्यावधि वही विहार क्रम गतिमान है। आधुनिक यातायात के ढेरो साधन सुगमतापूर्वक उपलब्ध होने पर भी जैन साधु पाद विहार करते हुए देश के एक कोने से दूसरे कोने मे पहुच जाते है। उनकी इस निस्पृह सेवा की भावना समूचे जगत के लिए आदर्श है ।
हां तो, सवत् १६६३ के रतलाम चातुर्मास के वीच गुरुदेव श्री नन्दलाल जी म० का म्वर्गवास होने के पश्चात् आपने भी अपना वर्षावास पूर्ण किया और साथ ही साथ अन्यत्र क्षेत्रो की ओर विहार प्रचार करने का निश्चय भी किया। क्योकि जो श्रमण-श्रमणी वर्ग भ्रमण करने मे सर्वथासमर्थ एव सब दृष्टि मे योग्य होते हुए भी धर्म-प्रचार एव मानवीय सेवा करने मे आलस्य का महारा लेते हैं, आंखें चुगते एव न्याती-गोती-पारिवारिक सदस्यो के व्यामोह के जाल मे उलझे रहते हैं, वे साधक अवश्यमेव दुप्प्राप्य नयमी-जीवन मे प्रगट किंवा प्रच्छन्न रूप से दोप लगाते हए यदा-कदा सयम सुमे से इतो भ्रष्ट सर्वे भी हो जाते हैं...
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प्रथम खण्ड विहार और प्रचार | ४३
प्रचार का प्रथम चरणनिश्चयानुसार आप अपने सहपाठी-सह विहारी मस्तयोगी मुनि श्री मनोहरलाल जी म० को साथ लेकर मालवे के अनेकानेक सर सन्ज क्षेत्रो को पुन जिनवाणी से प्लावित करते हुए जन-मानस मे शुद्ध श्रद्धा के भाव प्रस्फुटित करते हुए एव जहां-तहां सुप्त-ससारियो को उद्बोधन देते हुए खानदेशस्थली मे प्रविष्ट हुए।
भगवद्वाणी से भूखी-प्यासी खानदेशीय जनता आप मुनिद्वय की मधुर वाणी का सश्रद्धा पान करने लगी एव स्थान-स्थान पर व्याख्यानो का सुन्दर आयोजन जनता द्वारा होने लगे । वस्तुत घर-घर में चर्चा ने वल पकडा--"ये दोनो मुनि क्या आए है, मानो रवि-शशि के मानिन्द चमक-दमक रहे हैं और वाणी का प्रवाह भी इतना लुभावना एव जन-मानस को खीचने मे जादू सा प्रतीत हो रहा है। मानो शशि प्रताप मुनि जी है, तो मार्तण्ड मनोहर मुनि जी म० की किरण-ललकार है।" इस प्रकार मुनिद्वय के जहां-तहां गुण-गौरव गान गूंजने लगे और मुनियो की निर्लोभता, ऋजुता एव नि स्पृहता को देखकर इतर जन समूह भी श्रमण जीवन की भूरि-भूरि प्रशसा करने लगा।
निस्पृहता की महक:वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो निस्पृहता-निस्वार्थता पूर्वक जैन भिक्षु जितना विश्व का भला कर सकता है, उतना अन्य साधु-सन्यासी-यति आदि कोई नही कर पाते है । कारण कि-अन्य के पीछे सासारिक राग-वन्धन वधे रहते है, कई प्रकार की समस्याएं', एव उलझने-उपाधियाँ मुह फाडे खडी रहती हैं । जो केवल धन सम्पत्ति से ही पूर्ण हो सकती है। "माया को निवारी फिर माया दिल धारी है" इस कवितानुसार वे साधक जिस कार्य में हाथ डालते है, तो उनके पीछे लोभ-लालच का प्रावल्य छाया रहता है। तत्कार्य की पूर्ति के लिये धन की चाहना ज्यो की त्यो सदैव बनी रहती है। फिर उन्हीं कार्यों की पूर्ति के लिये जनता की खुशामद, गुलामी, एव दानवीर पुण्यवान्-भाग्यवान आदि विना मूल्य के न जाने कितने ही विशेपणो को लगाकर उस विशेष्य को सजाना पडता है।
उपर्युक्त वीमारी से जैन श्रमण निलिप्त रहा है । अतएव जैन श्रमण के तपोमय जीवन की सौरभ सर्वत्र संसार में प्रसारित है। मुझे अच्छी तरह स्मरण है-अनेको वार स्व० १० नेहरू एव आचार्य विनोबा भावे ने भी कहा था कि-"पाद-विहार द्वारा जितना जन कल्याण एव पथ-दर्शन जनमुनि कर सकते हैं। उतना अन्य साधक कदापि नही कर पाते हैं।" यही मौलिक कारण है कि-जैन श्रमण के प्रभाव से भावुक-भद्र जनता शीघ्र ही आकृष्ट-आनन्दित एवं धर्म के सम्मुख होती है। .
__ आचार्य प्रवर के दर्शन - इसी समुज्ज्वल वृत्ति के अनुसार आपने अपनी सफल यात्रा तय करते हुए भुसावल नगर को पावन किया। जहां पर सशिप्य मडली स्व० श्री मज्जैनाचार्य पूज्य श्री सहनमलजी म० अपनी सहस्र ज्ञान किरणों से स्थानीय समाज को आलोकित कर रहे थे। आप दोनो मुनिगण भी आचार्य भगवन्त की पावन सेवा मे अ, पहुंचे। दर्शन एव आवश्यक विचार-विमर्श के पश्चात् स० १६६४ का चातुर्मास सर्व मुनि मडल ने आचार्य श्री जी की पावन सेवा मे ही जलगाव सघ के अत्याग्रह पर जलगाव मे ही यिताया । आचार्य प्रवर एव हमारे चरित्रनायक के प्रेरक प्रवचनो के प्रभाव से आशातीत चतुर्विध्र सय मे धर्म प्रभावना हुई। कई भव्यात्माओ ने समकित लाभ को प्राप्त किया । तदनुमार स० १६६५ का वर्षावास सारी मुनि मडली का हैदराबाद व्यतीत हुआ। वहाँ पर भी अपर्व धर्म जागृति हुई और कई प्रकार का साधिक समस्याए आचार्य प्रवर के कर कमलो से सुलझी। इस प्रकार आचार्य देव की अनुमति लेकर संकड़ो मील की पाद यात्रा तय करते हुए पुन आप दोनो मुनि रतलाम पधार गये। .
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४० मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन गन्थ माना गया है। वह पुत्र एव शिप्य किम काम के जो अपने पिता एव गुरु के रग-रूप स्वभाव, वाणी, एव विद्वत्ता की दिल-खोल कर मुक्तकठ से प्रशसा के पुल तो बान्धते है किन्तु उनके बताए हुए मार्ग एव सिद्धान्तो का तनिक भी न चिन्तन, न मनन एव न उन पर चलने की कोशिश करते है बल्कि खुलमखुला आदेशो की अवहेलना-उपेक्षा करते हैं । यद्यपि वह गुणो की तारीफ करता है, किन्तु आना की मम्यक् प्रकार से परिपालना न करने से वह शिष्य कुशिष्य, वह श्रमण पापी श्रमण एव वह पुत्र कुपुत्र माना गया है । "मुहरी निक्कसिज्जई' अर्थात् सर्वत्र अपमान का भाजन बनता है। हमारे चरित्र नायक सदैव अनुशासन के अनुगामी एव पक्के हिमायती रहे हैं ।
असिधारा-सेवा व्रतयद्यपि सेवा-धर्म के अनेकानेक विकल्प है-जैसे शारीरिक सेवा, आहार-विहार-निहार सेवा, अनुदिन चरण सेवा मे ही रहना, एव मन-वच-काय त्रिकोणात्मक शक्ति-मक्ति से अनुशासन की परिपालना आदि सेवा-धर्म के मुख्य अग हैं।
आपके जीवन में सेवा का गूजता स्वर है, एक तडपन है। एक लग्न है अतएव गुरुराज्ञा को आप सदैव शिरोधार्य करते आए हैं । आपके जीवन का कण-कण और अणु-अणु सेवा सुधारस से ओत-प्रोत है। गुरु भगवन्त की सेवा-शुश्रू पा के साथ-साथ आप मघ-समाज सेवा मे भी उसी प्रकार दत्त चित्त हैं जिम प्रकार लोभी द्रव्य कमाने में लगा रहता है। आपने अपना मूल मन्त्र सेवा मन्त्र वनाया है । मानो सेवा-भित्ति पर ही आपके पार्थिव देह का निर्माण हुआ हो । शास्त्र मे भी सेवा-धर्म का महान् महत्त्व दर्शाया है जैसा कि
"अनन्त सुख रूप मोक्ष को प्राप्त करने का पहला मार्ग है-गुरुजनो और वृद्ध पुरुषों को सेवा'-"तस्सेस मग्गो गुरु-विद्ध सेवा ।"
-उत्तराध्ययन ३२।३ जो विशुद्ध हृदय से दूसरो की सेवा करता है, वह महान् पुण्य करता है । सेवा को उत्कृष्ट भावना के कारण वह तीर्थंकर गोत्र भी बाध लेता है। "वेयावच्चेण तित्ययर नाम गोत कम्म निवन्धइ ।"
-उत्तराध्ययन २६ जिसका कोई नहीं है। उसका खुद बनकर उसे धैर्य दें, सभाले और उसको यथोचित सेवा की व्यवस्था करें । जैसा कि-"असगहिय परिजणस्स सगहिता भवइ ।'
-श्री स्थानाग और दशाश्रुत स्कन्ध वृद्ध और रुग्ण आदि के साथ मधुर वचन बोलना और उनकी इच्छा के अनुसार प्रवृत्ति करना, सेवा सहायता है ।" "सव्वत्येसु अपडिलोमया सत सहिल्लया।"
–दशाश्रुत स्कध ४
आज का तकाजाआज इस पवित्र मेवाधर्म से मानव आख चुराता है। उपहास करता है एव उपेक्षा भरी निगाह से निहारता है । कही शरीर थक न जाय । कही धन मे हरजाना न पड जाय एव कही विपरीत फल की प्राप्ति न हो जाय । इस प्रकार मानव एव साधक मौका आने पर भी सेवा कार्यों से आख चुराते हैं । वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो सेवा ही जीवन है, यह शरीर-प्राण इन्द्रियाँ एव यह विपुल धनसपदा जीवन नहीं, ये जीवन निर्वाह के साधन मात्र है। जीवन तो उपर्युक्त सर्व साधनो द्वारा सेवासौरभ प्राप्त करने का नाम है । दर्शित सर्व साधन प्राप्त होने पर भी जो नर-नारी एव जो साधक सेवाधर्म से खाली रहते हैं उनसे और क्या आशा रखी जाय?
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प्रथम खण्ड गुरुवर्य की परिचर्या | ४१
स्वाभाविक सुन्दरता (Natural Beauty) सेवा-धर्म की स्वाभाविक सुन्दरता (Natural Beauty) से हमारे चरित्रनायक जी म० का जीवन महक उठा है। इस कारण सेवा-धर्म से उनके जीवन को पृथक् करना एक असाध्य काम है। आपकी साधना का विशाल-विराट् दृष्टिकोण एक सेवाधर्म एव अध्ययन-अध्यापन पर ही टिका हुआ है। ऐसे महा-मनस्वियो का जीवन वसुन्धरा के लिए वरदान स्वरूप माना है ।
__ हा तो, गुरु प्रवर श्री नन्दलाल जी म० का सवत् १९६३ के वर्ष मे रतलाम नगर मे स्वर्गारोहण हुआ। उस समय आप (प्रताप गुरु) का वर्षावास जावरा नगर मे था । वस्तुत अन्तिम गुरु पादपरिचर्या करने का महामूल्यवान अवसर हाथ नही लगा। तथापि काफी समय आपका गुरु भगवन्त की सेवा-भक्ति मे ही बीता है ।
सेवा का पथ जगतीतल पे, बडा कठिन बतलाया है। सेवा प्रत असिधारा सा, रिषि मुनियो ने गाया है।
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दिल्ली का दिव्य चातुर्मास
"परोपकाराय सता विभूतय' तदनुसार मवत् १६६६ का वर्षावाम सघ के हितायं रतलाम मे ही सम्पन्न हुआ। तत्पश्चात् मन्दमोर निवासी श्रीमान् बमन्तीलाल जी टुगड (तपस्वी श्री वगतिलालजी म०) की भागवती दीक्षा आपके पावन चरणो मे सम्पन्न हुई। फिर क्रमश दिल्ली, साददी-मारवाड, व्यावर, जावरा, शिवपुरी, कानपुर मदनगज, इन्दौर, अमदावाद, पालनपुर, एव बकाणी आदि क्षेत्रो में । चिर स्मरणीय चातुर्मास पूरा करने के पश्चात् मकल सघ दिल्ली के श्रावक समाज के अत्याग्रह पर गुरु प्रवर श्री प्रतापमलजी म० तत्त्व महोदधि प्रवर्तक श्री हीगलालजी म० तरुण तपस्वी मुनि श्री लाभचन्द जी म० तपस्वी श्री दीपचन्द जी म० तपस्वी श्री बमतिलाल जी म० एव नवदीक्षित श्री राजेन्द्र मुनि जी म० आदि मुनिवरो ने महती कृपा कर सवत् २००८ के चातुर्मान की स्वीकृति चान्दनी चौक दिल्ली श्रावक ममाज को प्रदान की । यह चातुर्मास अनेक महत्त्वो को लेकर ही निश्चिन हुआ था।
सयोग वशात् उस वर्ष दिगम्वराचार्य स्व० श्री सूर्य सागर जी म० एव श्वेताम्बर तेरापथ के आचार्य तुलमी जी म० का चातुर्मास भी इस वर्ष दिल्ली में ही मजर हआ था। अतएव स्था० मघ ने आप मुनिवरो का यह वर्पावाम दिल्ली करवाना अति महत्त्वपूर्ण समझा। तदनुसार विनती स्वीकृति - की सूचना सकल समाज में फैलते ही जहां-तहाँ हर्प-खुशी का वातावरण छा गया । घर-घर मे अपूर्व चेतना अगडाई लेने लगी । मानो उमगोल्लम की त्रिवेणी-फूट पडी हो । स्थानकवासी-समाज में एक ही चर्चा चल पड़ी थी कि-आचार्य प्रवर श्री खूबचन्द जी म० के विद्वद्वर्य गुरु भ्राता श्री प्रतापमलजी म० एव ५० रत्न श्री हीरालाल जी म० अपनी मशिष्य मडली के माथ पधार रहे हैं। पूज्य प्रवर पहले अनेकों वो तक चान्दनी-चौक के भव्य-रम्य स्थानक मे शारीरिक कारण वशात् विराज चुके थे । वस्तुत उन के त्यागतपोमय जीवन की अखण्ड-अमिट छाप दिल्ली के प्रतिष्ठित श्रावको के मन-स्थली पर ही नहीं, अपितु अमवाल वृद्ध भक्त मण्डल के दिल-दिमागो पर ज्यो की त्यो उन दिनो मे थी और आज भी है । इसलिए सघ मे सन्तोष-शान्ति की मदाकिनी वहना स्वाभाविक ही था। इस प्रकार काफी जन समूह के साथ आप मुनिवृन्दो का नगर प्रवेश सम्पन्न हुआ।
चातुर्मास प्रारम्भ के पूर्व ही व्याख्यानो की धूम-सी मच गई। हृदयस्पर्शी उपदेशो के प्रभाव से चारो ओर से जनप्रवाह उमड धुमड कर आने लगा। कुछ दिनो बाद आ० सूर्य सागर जी म० से भेंट हुई। ये मुमुक्षु वे ही थे---जो पहले कोटा के विशाल प्रागण मे श्रद्धेय दिवाकर श्री जी महाराज और आप (आ० सूर्यसागर जी म०) का कई वार प्रेममय साधु मिलन व कई वार व्यारयान भी सय होचके थे। दिल्ली-सघ के इतिहास मे भी शायद यह प्रथम घटना ही थी कि-दिगम्बराचाय ५५ स्थानकवासी साधु इस प्रकार सस्नेह मिल-जुल कर सघ-समाज हिताय सुखाय वातचीत, विचारों का आदान-प्रदान करें व नवीनतम मामूहिक योजनाओ का श्री गणेश भी। वस, दोनो समाजो के वान मंत्री-प्रमोद भावनाओ का मूत्रपात हुआ । एक दूसरे, एक दूसरे के सन्निकट आये एव नाना प्रकार मिथ्या-भ्रातिया भी दूर हुई।
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भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरू को धर्मोपदेश करते हुए। मेवाडभूषण श्रीप्रतापमलजी महाराज एव प्रवर्तक श्री हीरालालजी महाराज
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प्रथम खण्ड दिल्ली का दिव्य चातुर्मास | ४५ तत्पश्चात् उभय सघो के भागीरथ सत्प्रयत्नो से गुरुप्रवर श्री प्रतापमल जी म० शास्त्रवारिधि पडितवर्य श्री हीरालाल जी म० एव आ० श्री सूर्य सागर जी म० के 'श्री हीरालाल हायर सेकेन्डरी स्कूल' मे हजारो जन मेदिनी के समक्ष सम्मिलित व्याख्यान हुए। जिससे जैन धर्म की महती प्रभावना हुई।
इस वर्ष तेरापथ सप्रदाय के आचार्य तुलसी का भी दिल्ली मे ही चातुर्मास था । जनता मे साम्प्रदायिक भेद-भावनाये जागृत हो उठी थी। गुरुप्रवर आदि मुनिवरो ने बहुत बुद्धिमानी तथा विवेक के साथ स्थिति को सभाला, जिससे कोई अनिष्ट घटना न हुई। शान्ति के साथ चातुर्मास सम्पूर्ण होना आप की सूझ पूर्ण तथा व्यावहारिक बुद्धि का ही परिणाम था ।
विविध कार्यक्रम इस वर्ष दशलक्षणी (पर्यु पण) पर्व वडे ही ठाट-बाट के साथ मनाया गया । वयोकि—दोनो (दिगम्बर और स्थानकवासी) मुनियो के छ स्थानो पर सम्मिलित भापण हुए। वस्तुत जनता तथा समाज पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा । तथा जैनमात्र एक है, ऐसा अनुभव कर सभी प्रसन्न हुए ।
विश्व-मंत्री दिवस दशलक्षणीपर्व के उपरान्त ही क्षमापना के दिन समस्त जैन समाजो की ओर से काका कालेलकर की अध्यक्षता में एक विश्व मैत्री दिवस मनाने का आयोजन किया गया। इस विशाल महत्त्वपूर्ण आयोजन मे गुरुप्रवर श्री प्रतापमल जी म०, प० श्री हीरालाल जी म० एव आचार्य श्री तुलसी भी सम्मिलित थे जिसमे हजारो जनता की उपस्थिति थी।
विश्व कल्याण-जपोत्सव सात अक्टूबर रविवार को बारहदरी मे एक विश्व-कल्याण जपोत्सव मनाया गया। उसका उद्घाटन ससद के डिप्टी स्पीकर श्री अनन्तशयन आयगर ने किया था। इस उत्सव मे आचार्य सय सागर जी म०, गुरुप्रवर श्री प्रतापमल जी म० प० रत्न श्री हीरालाल जी म०, प्रसिद्ध साहित्यिका जैनेन्द्र जी तथा अक्षयकुमार जी एव नगर के अन्य गण्य मान्य अनेकानेक सज्जन उपस्थित थे।
. इस प्रकार मुनित्रय के नाना विपयो पर पीयूपवी प्रवचन होते रहे । हजारो नर नारी इस प्रकार के अपूर्व उत्सवो को देख-भाल कर अपने को धन्य मानते थे। अन्य और भी वात्सत्यपूर्ण धर्म प्रचारार्थ किये गये आयोजनो से इस वर्ष का यह वर्षावास आशातीत सफल रहा । जिसका विन्तत विवरण एक स्वतन्त्र पुस्तिका के रूप मे अन्यत्र प्रकाशित हो चुका है। . सफल चातुर्मास पूर्ण होने के पश्चात् मुनिमण्डल का चादनी चौक से प्रस्थान हआ। श्रद्धेय श्री हीरालाल जी म० अपनी शिष्य मण्डली को लेकर पजाव की ओर ५६ारे और गुरु प्रवर श्री को कुछ दिनो तक दिल्ली के उप नगरो मे ही रुकना पडा । कारण कि आप के सान्निध्य में ६ दिसम्बर ५१ को टाऊन हाल मे श्री जैन दिवाकर प० रत्न श्री चीथमल जी महाराज के अवसान दिवस पर सर्द धर्म सम्मेलन का आयोजन किया गया था । जिसका सफल नेतृत्व हमारे चरित्रनायक जी ने ही किया। इस सम्मेलन मे समस्त धर्मों के समन्वय का सराहनीय प्रयत्न किया गया तथा विभिन्न धर्मानुयायी विद्वानो के सार गभित भापण हुए। भारतीय विद्वानो के साथ-साथ सम्मेलन मे कुछ विदेशी विद्वान भी सम्मिलित थे ।
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कानपुर की ओर कदम
इस प्रकार दिल्ली के पवित्र प्रागण में अनेकानेक प्रेरणादायी धार्मिक उत्सव सम्पन्न हुए और हो ही रहे थे कि-श्रद्धा-भक्ति का उपहार लेकर कानपुर सघ का एक प्रतिनिधि मडल गुरु भगवत की सेवा मे आ पहुचा । परोपकारी गुरुवर्य ने भी समयानुसार क्षेत्र स्पर्ग ने की मजूरी फरमाई और तत्काल उत्तर-प्रदेश की ओर प्रस्थान भी कर दिया।
___ उत्तर प्रदेश अनेक महामनस्वी तीर्थकरो की एव मुनिपु गवो की जन्म एव पावन विहार स्थली रही है । एतदर्थ उस भूमि का कण-कण पवित्र हो, उसमे आश्चर्य ही क्या उम प्रदेश में काफी लम्बे-चौडे समतल मैदान पाये जाते हैं। भारत-प्रसिद्ध गगा यमुना नदियां उस प्रदेश के ठीक बीचो-बीच उछलती-क्दती हुई बहती है। वस्तुत सरिताओ के इत और उत कुलो पर बडे-बडे नगर शहर वसे हुए हैं । जल को अधिकता के कारण जहां-तहां देश सर-सब्ज एव हरा-भरा है । आगतुक यानियो की दृष्टि को सहज ही आकृप्ट-आनन्दित करता है। जन-जीवन भी भारतीय-सस्कृति एव धामिक सस्कारो के अनुरूप दृष्टिगोचर होता है। 'अतिथि सत्कार' उस देशीय नर-नारी का मुख्य एव आदरणीय गुण है । विद्या-विनय-विवेक त्रिवेणी का सुन्दरतम सगम उत्तर प्रदेशीय जनता को सहज मे ही उपलब्ध हुआ है। अतएव जनता अधिकरुपेण सुशिक्षित-सुविचारी एव मधुरभापी है। उपर्युक्त गुणो का अनुभव करते हुए गुरुप्रवर, मुनि मडली सहित आगरा पधारे ।
यहाँ पर पूज्य श्री पृथ्वीचन्द्र जी म० एव ५० रत्न श्री प्रेमचन्द जी म० आदि मुनिवरो के दर्शन हुए । पारस्परिक सौहार्द स्नेह्ता पूर्वक विचारो का आदान-प्रदान हुआ। इतने में पजाव की ओर पधारे हुए प्र० श्री हीरालाल जी म० आदि सन्तो का शुभागमन भी यही हो गया। सर्व मुनि मण्डल का वह मधुर मिलन, समाज को सुसगठन की ओर प्रेरित कर रहा था। काफी दिनो तक आगरा विराजें । स्थानीय सघ मे कई शुभ प्रवृत्तिया हुई, तत्पश्चात् आए हुए छहो मुनियो ने कानपुर की ओर कदम बढाए।
___ कानपुर भारत के मुख्य नगरो मे से आठवां नगर और उत्तर प्रदेश का प्रथम वैभव सम्पन्न औद्योगिक नगर माना गया है। जहाँ लाखो जन आवादी की गडगडाहट, वाणिज्य-व्यापार की विस्तृत मडी एव छोटे-मोटे सैकडो कल कारखाने सचारित होकर नगर को घेरे हुए हैं । भारी परिश्रम पूर्वक स्व० श्रद्धेय गुरुदेव श्री चौथमल जा म० ने यहाँ चातुर्माम करके रत्नत्रय के पवित्र पय से इस क्षेत्र का पुन सिंचन किया था। उसी समय स्थानकवासी जैन सघ की जड़ें जमी, संघ मे नई स्फूर्ति अगडाई लेने लगी, नया सगठन हुआ एव अनेक मुमुक्षओ ने शुद्ध मान्यता के मर्म को समझकर समकित-प्रतिज्ञा स्वीकार की थी। इसीलिए स्थानकवासी जैनो के घर घर में श्रद्धेय दिवाकर जी म. के प्रति वहीं श्रद्धा-भक्ति आज भी ज्यों की त्यो विद्यमान है।
गुरु प्रवर श्री प्रतापमल जी म० का भी एक चातुर्मास पहिले यहाँ हो चुका था और कई प्रकार की उलझी हुई माधिक समस्याएं भीआप की वलवती प्रेरणा से हो हल हुई थी। अतएव जो
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प्रथम खण्ड कानपुर की ओर कदम | ४७ श्रद्धा जो भक्ति स्व० श्री दिवाकर जी म० के प्रति थी वही पूज्य भक्ति आपके प्रति भी थी और है। अतएव कानपुर स्था० सघ का आवाल वृद्ध गुरु प्रताप के मधुर व्यवहार से भली-भाति परिचित रहा है।
इस प्रकार कुछ ही दिनो मे मुनिमण्डल का कानपुर नगर में पर्दापण हुआ। सैकडो नरनारियो ने आप के स्वागत समारोह में भाग लिया। जहाँ-तहां आप के जाहिर भाषण हुए । अक्षय तृतीय समारोह भी आपके नेतृत्व मे शानदार ढग से सम्पन्न हुआ । इसी शुभावसर पर स्थानीय सघ के अत्याग्रह से आप छहो मनिवरो ने स० २००६ के चातुर्मास की स्वीकृति प्रदान की। सकल सघ के सदस्यो मे आनदोल्लास का वातावरण छा गया ।
___चातुर्माम लगने मे अभी काफी दिन शेप थे। इस कारण सन्तवन्द धर्म-प्रचार-विहार करता हमा लखनऊ आया । यहाँ पर दिगम्बर जैन धर्मशाला मे कई सफल जाहिर प्रवचन, केश लोचन एव सकल जैन समाज की ओर से मुनिवरो के सान्निध्य में 'अहिंसा दिवस' भी मनाया गया। वस्तुत स्थानीय सैकड़ो-हजारो जन-जनेतर नर-नारी लाभान्वित हुए। विशेष तौर पर उत्तर प्रदेश के विधान सभा के अध्यक्ष श्री ए० जी० खेर की उपस्थिति मे मुनिवरो के अहिंसा और जैन धर्म पर ओजस्वी भापण हुए। जिनकी उपस्थित मानव मेदिनी ने दिल खोल कर प्रशसा की एव दैनिक पत्रो मे भी । इस प्रकार सफल आयोजन की सौरभ को पत्र-पत्रिकाओ द्वारा सुनकर राज्यपाल ने भी श्रद्धा भरा एक आमन्त्रण स्वरूप पत्र मुनिवरो की सेवा मे भेजा, वह निम्न प्रकार था
Governer's Camp
Uttar Pradesh
January 8, 1933 Dear Sir,
With reference to your lether dated Janubary 7, 1953, I am desired to inform you that Shri Rajyapal will be glad to See Jain Muni Shri Pratapmaljı at II A M, on Saturday January 17, 1973 at Raj Bhawan, Lacknow Please inform bım accordingly and acknowledge receiht of this letter
Your's Faithfeelhy For Secrey to the Governer
Uttar Pradesh
To
Shri Pravin la! Pravin Lal & Company Lacknow
उपर्युक्त आमन्त्रणानुसार गुरुप्रवर आदि मुनि श्री उत्तर प्रदेश के राज्यपाल श्री कन्हैयालाल माणिकलाल मुन्शी जी के यहाँ राज्य भवन पधारे। 'अहिंसा' पर काफी गहरा विचार विमर्श हुआ।
इस प्रकार लखनऊ की सभ्य जनता ने धर्म-प्रचार मे आशातीत महयोग प्रदान किया कइयो ने नशीली वस्तुओ का परित्याग भी किया। चातुर्मास काल सनिकट आ चुका था। अतएव मन्त मडली
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४८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ को पुन कानपुर पधारना पडा। चातुर्मासिक दिनो मे अच्छी धर्मोन्नति-प्रगति हुई । और सानन्द यह वर्षावास भी व्यतीत हुआ।
चातुर्मासोपरान्त विचरण करते हुए मार्ग मे विभिन्न आचार-विचार वाली उस ग्राम्य जनता को एव स्व० प० नेहरू की जन्म भूमि इलाहवादीय जनता को उद्बोधन करते हुए 'काशी' (वाराणसी) पधारें । प्राप्त प्रमाणो के अनुमार यह निर्विवाद सत्य है कि-काशी नगर सदैव से जैनधर्म का केन्द्र रहा है। खास काशी के कमनीय प्रागण मे तेवीसवें तीर्थंकर प्रभु पार्श्व एव भदैनी घाट समीपस्थ सातवे तीर्थकर सुपार्श्वनाथ का जन्मकल्याण माना गया है। इसी प्रकार यहाँ से अटारह मील दूर चन्द्रपुरी मे आठवें तीर्य कर चन्द्रप्रभुजी का जन्म, ग्यारहवे श्री श्रेयास प्रभुजी का जन्म और भी अनेकानेक मुनिमनस्विया के पवित्र पादरजो से यह नगरी गौरवान्वित हो चुकी है । आप मुनिवरो का शुभागमन भी एक महत्त्व पूर्ण ही था।
अवकाशानुसार सारनाथ, पार्श्वनाथ विद्याश्रम एव विश्व विद्यालय आदि-आदि ऐतिहासिक स्यानो का अवलोकन किया गया। चारो सप्रदाय के जैन बन्धुओ ने आपकी अध्यक्षता मे महावीर जयन्ति का विशाल आयोजन सम्पन्न किया। इसी शुभावसर पर झरिया श्री सघ का एक प्रतिनिधि मडल मुनिवरो की सेवा मे वगाल विहार प्रातो को पावन करने हेतु उपस्थित हुआ । मार्गीय कठिनता के विपय मे पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् स्वीकृति फरमाई। तदनुसार विहार प्रान्त की ओर प्रस्थान भी हो गया।
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पावन चरणों से वंग-विहार प्रांत
इस प्रकार झरिया सघ का भक्तिभरा डेप्युटेशन (प्रतिनिधि मडल) एव विहार प्रान्त मे विराजित वयोवृद्ध तपस्वी श्री जगजीवन जी म०, ५० रत्न श्री जयतिलाल जी म० एव गिरीश मुनिजी म० को बलवन्ती प्रेरणा से छहो मुनिवरो ने वनारम नगर से विहार प्रान्त की ओर प्रस्थान किया । जैन परिवारो की अल्पना के कारण मार्गवर्ती कठिनाइयो का आना स्वाभाविक ही था। तथापि "मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दु ख न च सुखम्" तदनुसार परोपकारी मुनि वृन्द भी भावी उपकार की दीर्घ दृष्टि को आगे रखकर खान-पान सम्बन्धित आने वाली अनेक कठिनाइयो की कुछ भी परवाह न फरते हुए धीर-वीर एव भावी परिपहो के प्रति वज्रवत् वनकर मुगलसराय व कर्मनाशा स्टेशन तक पहुचे । यहाँ से उत्तर प्रदेश सीमा की समाप्ति और विहार प्रदेश की शुरुआत होती है।
मजदूर वर्ग और सतमडलीबिहार प्रान्त पिछडा हुआ हिस्सा होने के कारण आसपास के ये निवासीगण लूखे-सूखे, नीरस अल्पज्ञ एव रिक्त मक्ति मन वाले जान पड रहे थे। फिर भी मुनिमडली 'चरैवेति-चरैवेति" वेद के वाक्यानुसार खाद्य समस्या को गौण मानकर कदम आगे से आगे बढाते चले जा रहे थे । येनकेन प्रकारेण टालमिया नगर तक की मजिल तय हो ही गई। यहां कल-कारखानो की वजह से इधरउघर के आए हुए काफी दिगम्बर जैन परिवार बसे हुए है । उद्योग पति सेठ साहू शान्तिप्रसाद जी जैन ने गुरुदेव आदि मुनिवरो के पावन दर्शन किये। जैन-धर्म महात्म्य, अहिंसा एव मानव के कर्तव्य आदि विपयो पर अनेक जाहिर प्रवचन भी करवाए। वस्तुत जैन-जनेतर समाज काफी प्रभावित हुआ
और जिसमे मजदूर वर्ग ने तो काफी संख्या में उपस्थित होकर गुरु महाराज के समक्ष मद्यमास एव नशैली वस्तु सेवन न करने का नियम स्वीकार किया। इस प्रकार उद्योगपति एव मजदूर वर्ग की ओर से अत्यधिक विनती होने पर कुछ दिनो तक और विराजे फिर आगे कदम बढाए।
विहार-वासियो के लिये नवीनताविहारी जनता के लिए स्थानकवासी जैन मुनि नये-नये से जान पड रहे थे। जिस प्रकार, राम-लक्ष्मण वन में जाते समय जनता आखें फाड-फाड कर निहारती थी उसी प्रकार मार्ग मे जहाँतहाँ बस्तियां आती थी, वहां के निवासीगण कही दूर तो कही नजदीक इकट्ठे हो-होकर विस्फारित नेत्रो से देखा करते थे। "अरे । ये कौन हैं ? एक सी वेश-भूपा वाले, जिसके मुह पर कपड़ा लगा, हुआ है, कधे पर एक श्वेत गुच्छा, पैर नगे एव सौम्य आकृति जान पड रही है। क्या पता ये बोलते हैं कि-नही " इस प्रकार पारस्परिक वे जन वार्तालाप करते थे। कोई-कोई भावुक एव सुशिक्षित विहारी पास मे आकर करबद्ध होकर पूछ भी लेता था "आप कौन हैं ? आग की ख्याति, परिचय हम लोग जानना चाहते हैं । आगे आप की यह मडली किधर जा रही है।"
"हम प्रभु पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के शिष्य-श्रमण (भिक्षु) हैं । आगे हमारी यह
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५० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
मडली मम्मेद शिखर अर्थात् पार्श्वनाथ हिल्स होती हुई कलकत्ता तक जायगी।" मुनिवरो द्वारा तव यह मरल ममाधान पाते ही–वे पृच्छकगण वहुत ही प्रभावित होते । लम्बे के लम्बे मुनि चरणो मे ज्यो के त्यो नो जाते और उठकर यही वोलते कि-"आप तो हमारे देश के गुरु हैं । क्योकि भ० पार्श्वनाथ और भ० महावीर स्वामो तो हमारे देश मे ही हुए हैं। इसलिए आप हमारे गुरु और हम आपके शिष्य हैं । हमे शुभाशीर्वाद प्रदान करें और आज हमारे गाव मे रुक वर हमे सन्तवाणी एव भोजन मेवा का लाभ प्रदान करें।"
भक्ति का दिग्दर्शनहम बहुत दिनो से केवल इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठो पर लिखित अक्षरो को ही पढते व मुनते थे कि-जन भिक्षु रात्रि मे न खाते, न पीते हैं, न पैरो मे जूतियां व चलने-फिरने मे न किमी तरह की सवारो का उपयोग ही करते हैं । पूर्ण रूप से ब्रह्मचारी, सदाचारी, सुविचारी, क्षमा के धनी एव जीवदया हित सदैव मुखपर मुख-वस्त्रिका वाधे रहते हैं ।" किन्तु इन जीती जागती, चलती-फिरतीमधुर भापी सौम्य सुन्दर विभूतियो के दर्शन तो हमे गुरुजी | आज ही हुए हैं। इस प्रकार यत्र-तत्र जनता की भारी भीड विस्मृत सस्कृति का पुन -पुन स्मरण कर भक्ति भाव मे विभोर हो उठती थी। मानो काफी अर्से के परिचित हो, ऐसे जान पड़ रहे थे। सचमुच ही सच्ची मानवता के दर्शन इन विहार वामियो के जीवन से हो रहे थे। विना कहे कहलाये ही अपने आप समझदार जनता कही पाठशालाओ मे तो कही मन्दिर मठो मे व्यात्न्यानो का अनुपम आयोजन करती चली जा रही थी, इस प्रकार सैकडो विहार-निवासी मुनियो के सम्पर्क मे आए। अनेको ने हिंसा-मद्य-मास का उपयोग न करने की प्रतिज्ञा स्वीकार की एव अनेको ने विस्मृत जैनधर्म के मौलिक जीवनोपयोगी सिद्धान्तो को पुन स्वीकारा।
उपदेशों का असरकई दिनो के पश्चात् मुनिमडल ने मार्ग मे सड़क के किनारे पर उवलते हुए जल से भरा एक कुण्ड देखा उसका नाम सूर्यकु ड था। इसी सूर्यकुण्ड पर सयोगवश गहलोत राजपूतो की एक जातिमुधार मभा हो रही थी। इस समा मे अनेक सज्जनो के सुधार विपयक जोशीले भापण हो रहे थे। अचानक मुनिवृन्द भी वहां जा पहुचा । उपस्थित जन समूह के अत्याग्रह पर मुनियो ने भी अपने भाषण दिये सीने मग्ल हृदय-सी उपदेशो मे मुनि मडल ने कहा कि-समाज-सुधार तभी सभव है, जब आप सभी मद्य-मामादि मप्त व्यसनो का त्याग करदे । तभी आप के समाज की उन्नति हो सकती है और तभी आप का स्तर ऊंच, उठ सकता है केवल लच्छेदार-भापणो से नही । समय का ही प्रभाव था किउन तामनी प्रवत्ति वाले पुरुपो की भी बुद्धि पलट गई और वे एक स्वर से बोल उठे "हमे स्वीकार है। हमे स्वीकार है।
तवाल लगभग पाचनौ से अधिक उपस्थित मज्जनो ने मद्य-मासादि का त्याग कर दिया एव नम्मिलित रूप में एक लिखित प्रतिज्ञा पत्र मुनिवृन्द के चारु-चरणो मे समर्पित किया। वह निम्न पत्तियों में इन प्रकार है
प्रतिज्ञा-पत्रआज ता० ३०-४-५३ को हमारी गहलोत राजपूतो की जानि सुधार की विशाल सभा हुई ।।
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प्रथम खण्ड पावन चरणो से वंग-विहार प्रांत | ५१ जिसमे जैन मुनि श्री प्रतापमल जी महाराज और मुनिश्री हीरालाल जी महाराज के मद्य-मांस निषेध पर प्रभावशाली भापण हुए। जिसको सारी सभा ने मान लिया और महाराज-महात्मा जी को हमारी सभा कोटिश धन्यवाद अर्पण करती है
सहीमुकाम-सूर्यकुड
मास्टर बुधनसिह गहलोत पोस्ट-वरकट्ठा
प्रेमचन्द सिंह-अध्यक्ष थाना-वरही जिला-हजारी वाग
झरिया नगर की झांकीक्रमश मार्ग मजिल को पार करते हुए एक प्राचीन ऐतिहासिक जैन जगत सुविख्यात सम्मेदशिखर शैलावलोकन करते हुए सन्त प्रवर झरिया नगर के सन्निकट पधारे । झरिया शहर व्यापार और विद्या मे विकासोन्मुखी केन्द्र रहा है । अन्य नगरो की तरह यह भी प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है । भूमिगत यहाँ से लाखो टन कोयले प्रतिदिन देश के कोने कोने मे निर्यात होते हैं । इस कारण कोयलो का घर माना गया है। भौगोलिक दृष्टि से और मेरी पावन दीक्षा-स्थली होने के कारण धार्मिक दृष्टि से भी इस नन्हे नगर का बहुत महत्त्व है, इसमे आश्चर्य ही क्या ? सर्व प्रकार की सुविधासुगमता के कारण काफी गुजराती जैन परिवार वसे हुए हैं। जिनका सुवलिष्ठ सुगठित अपनी शानी का अनुपम श्री श्वेताम्बर स्थानकवामी जनसघ बना हुआ है और सघ-विकास की बागडोर कर्मठ एव श्रद्धालु कार्यकर्ताओ के कमनीय कर-कमलो मे प्रगतिशील हो रही है।
___मुनियो के शुभागमन की सूचना पाते ही जन-जन मे आनन्दोल्लास का स्रोत उमड पडा । चूकि मार्गीय कठिनाइयो की वजह से विहार प्रात मे स्थानकवासी मुनियो का पदार्पण दुर्लभ ही हुआ करता है। इसलिए मैकडो शताब्दियो से तिरोहित उस पवित्र परम्परा का प्रवाह पुन गतिमान हो उठा । सकडो भावक मडली ने आपके हार्दिक स्वागत समारोह में भाग लिया। मानो जैन धर्म की लुप्न-गुप्त शाखा की जगमगाती ज्योति पुन जाग उठी हो। इस प्रकार जय-विजय नारो से अनन्त आकाश गूंज उठा।
काफी दिनो तक मुनिप्रवर विराजे, पर्व सा ठाठ-बाट रहा । दिनो दिन जनता की अभिवृद्धि होती रही। संघ के विकास मे सघ के सदस्यो को नवीन मार्ग दर्शन मिला । कई जाहिर प्रवचनो से वहाँ के नागरिक काफी लाभान्वित भी हुए। इन्ही दिनो कलकत्ता का वृहद् संघ, जिसमे सयुत्त सघ के मुख्य. मुख्य श्रावक मडली मवत् २०१० के चातुर्मास की विनती पत्र लेकर झरिया उपस्थित हुए और इधर झरिया सघ का भी अत्याग्रह था। परन्तु परोपकारी मुनियो को अति विवश होकर कलकत्ता श्री सघ को ही वर्षावास की मज्री फरमानी पडी। वस, अविलम्ब रानीगज, आसनसोल मे रहे हुए जैन परिवारो को लाभान्विन करते हुए वर्धमान नगर को पावन किया।
भमहावीर की तपोभूमि वर्धमान'वर्धमान' इस शब्द मे एक प्राचीन परम्परा-इतिहास का समावेश है। आचाराग सूत्र मे भी स्पष्ट प्रमाण है कि-~-यह प्रदेश भ० महावीर की तपोभूमि एवं पवित्र बिहार स्थली रही है। जिन्होंने इस प्रदेश मे लगभग बारह वर्ष तक कठोराति कठोर तप तपा था । एतदर्थ सूत्र मे इस प्रदेश को "लाद"
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५२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य प्रदेश माना गया है और इतिहान भी इस प्रदेश को "लाढ" प्रदेश के नाम से स्वीकार करता है । भ० महावीर की यह नाघना-स्थली थी। इसलिए इस प्रदेश के साथ घनिष्ट सम्बन्ध हो इसमे आश्चर्य ही क्या ? जिसका सवल और स्पष्ट प्रमाण भ० वर्धमान के नाम पर जनता द्वारा रखा हुआ—"वर्धमान नगर" है । इतिहासकारो का अनुमान भी यह बताता है कि यह प्रदेश वर्धमान नाम से सुविख्यात इमलिए हुआ कि-यहां भ० वर्धमान म्दामी ने घोरातिघोर तपाराधना सम्पन्न की थी।
चीनी यात्री ह्वेनसाग का उल्लेखप्रसिद्ध चीनी यात्री 'हॅनमाग' ने भी अपनी भारत-यात्रा वर्णन मे ऐसा मकेत अवश्य किया है कि- "यह "लाट" देश तीर्थकर वर्धमान की तपोभूमि थी। जहाँ धन धान्य वैभव की विपुलता के कारण जन-जीवन सुखी था । जहाँ-तहाँ जैन धर्म का प्रभाव अधिक दृष्टि गोचर हो रहा था। इस कारण इम देग को भूमि अहिमा धर्म ने महक रही थी और हिंसामय प्रवृत्तियां वन्द सी जान पड रही थी।"
ULL
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कलकत्त में नव जागरण
शहरी जीवन का दिग्दर्शन--- कलकत्ता हुगली नदी के किनारे पर व समुद्री तट से जुड हुआ, बगाल प्रात का एक भारत के सर्व प्रमुख नगरो मे से प्रथम नगर के माथ-साथ विश्व का पाचवा नगर भी माना गया है। जहाँ सत्तर लाख से भी अधिक मानव ममूह निवास करता है।
गगनचुम्बी उन्नत इमारतो से सजा हुआ, सैकडो कल-कारखानो की गड गडाहट से सदैव शब्दायमान, विशाल-विराट राजमार्गों की एकसी कतारें, जो विपुल नर-नारियो की भीड-भगदड से भरी-पूरी, मोटरें, तागे, रिक्शे, साइकलें, एव ट्रामो की दौडा-दौड से जो सचमुच ही यदि नवागतुक नरनारी थोडी सी भी गफलत कर जाय, तो नि सन्देह जीवन से हाथ ही धोना पडे एव वह चमकीलीदमकीली उन्नतोन्मुखी हावडाब्रिज (Bridge), मानो मेधावी मानव के मन मस्तिष्क ने मृत्यु-लोक से स्वर्गापवर्ग पर्यन्त पहुचने के लिए एक अनोखी निस्सरणी नियुक्त की हो, ऐसा जान पडता है । इस प्रकार भौतिक वैभव-विभूति के साथ-साथ आत्मिक-धार्मिक वैभव से भी यह विराट नगर लदा हुआ जान पडता है । जहाँ मारवाड से आये हुए- अग्रवाल, पोरवाल एव महेश्वरी आदि हजारो लाखो राम और श्री कृष्ण के उपासक हैं, तो दूसरी ओर मारवाड, गुजरात, पजाव एव मेवाड राजस्थान से आये हुए व्यापारार्थ करीव-करीव पच्चीस हजार से ज्यादा सुसम्पन्न जैन नर-नारी भी वास करते है । अपनी आत्मानुसार धर्म-साधना-आराधना के लिये जिनके पृथक-पृथक भव्य-भवन खडे है । जहा वे मुमुक्षुगणं आत्मचिन्तन, मनन एव आत्मानन्द का आलिंगन करते हुए भाव लक्ष्मी की अर्चा-अभ्यर्थना करते हैं।
सराक जाति का परिचयवगाल देश मे जहा आज भी मद्य-मास मत्स्य आदि पाच मकारो का खूब प्रचार है, वहां जहाँ तहाँ काफी तादाद में एक ऐसी मानव जाति भी पाई जाती है । जो “सराक" के नाम से प्रसिद्ध है। “सराक" शब्द शायद "श्रावक" का ही रूपान्तर होना चाहिए। ये जन कृपि, दुकानदारी एव कपडा वुनना आदि निर्वद्य अर्थात अल्प पाप क्रिया वाले व्यवसाय करते हुए अपनी आजीविका चलाते हैं। तत्त्ववेत्ताओ का अटल अनुमान है कि-ये जन उन प्राचीन जैन श्रावको के वशज है, जो जन जाति के अवशेष रूप है । यह जाति आज प्राय हिन्दुधर्मानुगामी हो चुकी है । तथापि ये पक्के शाकाहारी हैं । यहां तक कि "काटना" "चीरना" "फाडना" आदि कठोर शब्दो का प्रयोग भी दैनिक व व्यावहारिक जीवन मे नहीं करते, ऐसा सुना जाता है। अद्यावधि कही-कही ये लोग अपने आप को जैन एव प्रभु पार्श्वनाथ के उपामक भी मानते हैं । इस जाति के विषय में अनेक पाश्चात्य एव पौर्वात्य विद्वान् लेखको ने भी पर्याप्त उल्लेख करते हुए- स्पष्टत सिद्ध किया है कि यह जाति पहले सम्पूर्ण रूपेण जैनधर्मावलवी थी। वग-विहार मे हम इस जाति के निकट सपर्क मे आये और उसे अपने वशानुगत प्राचीन सस्कारो की याद दिलाई।
प्रवेश समारोहहाँ तो, उस प्रकार गुरुवर्य आदि छहो मुनियो का अनेक भव्य भक्तो के साथ-साय रामपुरिया
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प्रथम खण्ड कलकत्ते मे नव जागरण | ५५
स्नेह-सम्मेलनजैन सभा द्वारा आयोजित पयुर्पण-पर्वव्याख्यानमाला के अन्तिम दिन मुनिवरो के दिगम्बर जंन भवन मे तप व क्षमा पर भाषण हुए, तत्पश्चात श्री सोहनलाल जी दुग्गड एव धर्मचन्द जी सरावगी के भी प्रभावशाली भापण हुए।
इमी दिन कलकत्त के इतिहास मे एक अभूत पूर्व कार्य हुआ। वह था एक प्रीतिभोज । इस प्रीतिभोज की विशेषता थी कि सभी स्थानकवासी सज्जन प्रान्तीयता एव जातियता का भेदभाव छोडकर इस प्रीतिभोज मे सम्मिलित हुए। प्राय धर्म ग्रन्थो मे सहमियो का प्रीतिभोज प्रेम का कारण बताया गया है। आज इस सत्य का भी अनुभव हुआ। विभिन्न प्रान्तो के निवासियो ने एक साथ भोजन कर एव एक स्थान पर मिलकर बडे ही आनन्द का अनुभव किया। वह वेला भी वडो सुहावनी थी।
क्षमतक्षमापना-सम्मेलनसमस्त जैन समाजो की ओर से ता० २७-६-५३ को एक सामूहिक क्षमतक्षमापना-दिवस मनाने का आयोजन किया गया। इसमे सभी दिगम्वर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी, तेरह पथी, मूर्तिपूजक आदि उपस्थित थे। इस अवसर पर मुनियो के क्षमा के महत्त्व पर भापण हुए। इस आयोजन मे मनिवर वल्लभ-विजय जी न्यायविजय जी, साध्वी श्री कचनश्री जी, शीलवती जी, मृगावती जी आदि भी उपस्थित थी, उन्होने भी सर्गाठत रहने की अपील की।
निर्वाणोत्सवता० ७-११-५३-आज भगवान् महावीर का निर्वाण दिवस था, इस उपलक्ष्य मे प्रात शास्त्र विशारद प० मुनिवर हीरालाल जी महाराज ने जन सभा में भगवान महावीर की अन्तिम-वाणी उत्तराध्ययन सूत्र का स्वाध्याय किया। इसी अवसर पर सघ मत्री श्री केशवलाल भाई ने प्रमुख साहब का मन्देश पढकर सुनाया -
"वीर सम्वत २४८० नु मंगल प्रभात" पूज्य महाराज जी श्री प्रतापमल जी महाराज, महाराज श्री हीरालाल जी महाराज तथा अन्य मुनि महाराजो उपस्थित वन्धुओ तथा वहिनो ।
आजे आपणा परम तीर्थकर श्री श्री महावीर प्रभुना निर्वाण वर्ष सम्वत २४८० ना मगल प्रभाते आपणे पूज्य महाराज श्री पासे श्री श्री महामगलकारी मागलिक श्रवण तथा नूतन वर्षाभिन्दन माटे माल्या छोये ।
आपना श्री सघना महाभाग्योदये ज्यारथी आपणु विशाल-उपाश्रय नुं निर्माण थ! छे त्यार थी आफ्ना श्री मघ ने विद्वान मुनि महाराजो ना चातुर्मामनो लाम मल्यो छ।
गत वर्ष तपस्वी श्री जगजीवन जी महाराज तथा वालब्रह्मचारी श्री जयन्ति लाल जी महाराज ना चातुर्मास दरम्यान घणो आनन्द मगल वर्षायो अने चालु वर्ष पण बहु सरल स्वभावी पूज्य महाराज, श्री प्रतापमल जी महागज, श्री हीरालाल जी महाराज आदि ठा० ६ मा चातुर्मास मा आपणा स्वधर्मी राजस्थानी वन्धुओ तथा पजावी वन्धुओ नो आपण ने सारो सहकार मल्यो छ ।
परम पिता श्री तीर्थकर देवनी आपना श्री सघनी उपर सतत आर्शीवाद रहो तेवी आपणी नम्र प्रार्थना छ।
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५६ | मुनि श्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
आजना मगलमय प्रभाते महाराज श्री ना मागलिक श्रवण वाद आपणे आस-पास नूतन वर्पाभिनन्दन करशु । आ न वर्ष आपणा श्री सघमा खूब आनन्द अने मगलकारी नीवडे अने श्री सघमा सगठन तथा परस्पर सद्भावना, एकता खूब फलो-फूलो तेवी आपणी परम कृपालु परमात्मा पासे आजना आ शुभ दिने प्रार्थना छ ।
हू → श्री सघनो सेवक
कान जी पानाचन्द प्रमुख-श्री कलकत्ता जै० श्वे० स्था० (गुजराती) सघ (भाइ वीज) ता० ८-११-५३ रविवार
श्री लक्ष्मीपत सिंह दुगड हाल, श्री जैन भवन कलाकार स्ट्रीट मे एक विशाल स्नेह-सम्मेलन हुआ, जिसमे उक्त मुनियो एव साध्वी श्री जी मृगावती जी म० आदि वक्ताओ के भाषण हुए। आज सभा के अध्ययक्ष सेठ सोहनलाल जी दुगड थे ।
इसी दिन मध्यान्ह मे राय साहब लाला टेकचन्द जी के सुपुत्र लाला अमृत लाल जी की अध्यक्षता मे पजावी भाइयो का एक स्नेह-सम्मेलन हुआ। उसमे उक्त मुनिवरो ने सगठन विपय पर प्रवचन किए । फलस्वरूप महावीर जैन सभा की स्थापना हुई।
लोकाशाह-जयन्ति महोत्सव - ता० १८ तथा १६ नवम्बर को पण्डित मुनिवर प्रतापमल जी महाराज व पण्डित मुनिवर हीगलाल जी महाराज के तत्त्वावधान मे "लोकाशाह जयन्ति" मनाने का आयोजन किया गया। सभापति पद पर क्रमश १८ व १६ को श्री सोहनलाल जी दुग्गड तथा पश्चिमी वगाल के स्वायत्त शासन मत्री श्री ईश्वरदास जी जालान ने ग्रहण किये। ता० १६ को १००८ सामायिको का आयोजन किया गया था। इस दिन विशाल जन-समूह के समक्ष मुनिवरो के ओजस्वी भापण हुए । तत्पश्चात श्री जालान ने अहिंसा पर अपने विचार प्रकट किये तथा जैन मुनियो के त्यागमय जीवन पर श्रद्धा व्यक्त करते हुए देश और समाज की उन्नति के लिये आवश्यकता प्रकट की। इस अवसर पर आपने अहिसा एव त्याग पर बहुत ही जोर दिया।
राज्यपाल भवन मे पादार्पणता० ५-१२-५३ को २॥ वजे पण्डित मुनिवर श्री प्रतापमल जी म० व पण्डित मुनिवर हीरा लाल जी म० आदि मुनिगण राज्यपाल श्री एच० सी० मुखर्जी के आमन्त्रण पर राज्यपाल भवन पधारे । मुनिवगे के आगमन से राज्यपाल महोदय अत्यन्त प्रसन्न हुए एव वहाँ उपस्थित अन्य सज्जन जैन मुनियो को चर्या को जानकर अत्यधिक प्रभावित हुए। वहा पर शान्ति पाठ किया गया जिसमे सभी उपस्थित मज्जनों ने भाग लिया। तदनन्तर मंगल सूत्र के बाद मुनिवर वापिस लौट आये। इस अवसर पर राज्यपाल को निर्ग्रन्थ-प्रवचन व जैन साधु आदि ग्रन्य भेंट किये गये।
दिवाकर-चरमोत्सवता० १३-१२-५३ को जस्टिस रमाप्रसाद मुखर्जी के सभापतित्व में प्रसिद्धवक्ता जैन दिवाकर श्री चौयमल जी महाराज को निधन तिथि मनाई गयी जिसमे मुनिवरो के मुनि-जीवन व लोक
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प्रथम खण्ड कलकत्त मे नव जागरण | ५७
कल्याण पर भाषण हुए। उपस्थिति सन्तोपजनक थी। इसी अवसर पर भारत सरकार के उप-अर्थ मन्त्री श्री मणिभाई चतुरभाई की धर्म पत्नी श्री सरस्वती देवी एव उनके सुपुत्र श्री शरत्कुमार जैन भी उपस्थित थे।
जैन-सस्कृति-सम्मेलन१० जनवरी ५४ को, २७ पोलोक स्ट्रीट जैन स्थानक मे पण्डित मुनि श्री प्रतापमल जी महाराज व पण्डित मुनि श्री हीरालाल जी महाराज के सानिध्य में एक जैन सस्कृति सम्मेलन मनाने का विशाल आयोजन किया गया। इसका सभापतित्व बगाल के माननीय राज्यपाल श्री एच० सी० मुखर्जी कर रहे थे । सम्मेलन मे अनेक इतिहासज्ञो एव पुरातत्त्वविदो ने जैनधर्म एव सस्कृति पर प्रभाव शाली भापण दिये जिससे जैन धर्म के अधकारमय इतिहास और प्राचीनता पर अच्छा प्रकाश पडा। सम्मेलन में उपस्थित जनता के अतिरिक्त नेपाल के प्रधानमन्त्री श्री मातृकाप्रसाद कोइराला, डा० कालिदास नाग तथा वौद्ध भिक्षु श्री जगदीश काश्यप का नाम विशेष उल्लेखनीय है। इस प्रकार के सम्मेलनो से जैन-धर्म और सस्कृति पर अच्छा प्रभाव पड़ता है तथा अन्य विद्वानो के इस विपय मे क्या मत हैं, उनका भी पता लगता है । जैन-धर्म व सस्कृति के उद्धार-कायं मे इस प्रकार के सम्मेलनो का बडा भारी हाथ है।
कान्फ्रेन्स की शाखा का उद्घाटन२५ जनवरी को मुनिवरो के तत्त्वावधान मे सेठ अचलसिंह एम पी आगरा द्वारा श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन कान्फ्रेन्स की शाखा का उद्घाटन किया गया । कलकत्ता जैसे विशाल नगर मे कान्झन्स के कार्यालय का अभाव बहुत ही खटकता था अत इसकी शाखा का उद्घाटन कर एक बडी भारी कमी की पूर्ति की गई।
वगाल गर्वनर और मुनिगणवडे-बडे उद्योगपति आप के सम्पर्क मे आये । वगाल के गर्वनर एस० सी० मुखर्जी भी अवसर पाकर आप के दर्शनार्य सेवा मे उपस्थित हुए और जन श्रमण के आचार विचार एव तपोमय सयमी जीवन को देय सुनकर काफी प्रभावित और मन्तुष्ट भी हुए। यहा तक कि---जहा कही अन्यत्र ये सभा सोसाइटी मे जाते थे वहा भारी जैनेनर मेदनी के बीच जैन श्रमण के महान् जीवन की तारीफ करते हुए कहते थे कि-"जिनके भक्तगण एडी से चोटी तक सोना पहनते हैं, उच्चातिउच्च महलो मे वास करते हैं और खान-पान परिधान भी वैसा ही रखते हैं, किन्तु उनके गुरुओ का हाल सुनिए, वे नगे सिर एव नगे पर पाद यात्रा करते है। न रुपये पैसो की भेंट लेते हैं और न किसी के सामने दीनतापूर्वक हाथ ही पसारते हैं । अहा ! कितना महान् त्याग । ऐसे सच्चे सन्त महत ही विश्व का कल्याण कर सकते हैं। यदि मुझे पुनर्जन्म मिले तो मैं भगवान से ही प्रार्थना करता हू कि-ऐसे पवित्र जन परिवार मे मुझे दे । और ऐसे ही त्यागी वैरागी जैन साधुओ का सुयोग भी मिलें, ताकि मैं अपने भावी जीवन को सर्वोत्तम वना सकूँ।"
__ मैं भी (रमेश आ टपकाविशेप सकल सघ के खुशी का कारण मैं भी एक था चातुर्मास उठते-उठते मैं (रमेश) भी वैरागी का बाना पहनकर कलकत्ता आ टपका। यद्यपि मेरा जन्म एक भरे-पूरे सम्पन्न ओसवाल जैन
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५८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
परिवार में अवश्य हुआ था। किन्तु जैन आचार-विचार मे मैं सर्वथा अनभिज्ञ ही था। फिर भी मन में एक ही तमन्ना, एक ही लगन और एक ही धुन थी-वम सर्व सासारिक सावद्य प्रतियो से मख-मोडकर गुरु भगवत श्री प्रतापमल जी म० एव पण्डित रत्न श्री हीरालाल जी म० के साहचर्य मे आहती दीक्षा शिघ्रातिशीघ्र ले लेना ही उपयुक्त रहेगा। इस महान् मनोग्य को मन-मजूपा मे सुरक्षित रखता हुआ, गुरू प्रवर श्री की पवित्र सेवा मे हाजिर हुआ।
इस प्रकार सर्व आयोजन शान्तिपूर्वक सम्पन्न हुए। कलकत्ता सघ की सेवा-भक्ति सराहनीय एव अनुकरणीय थी। यह वर्षावास भी अपनी शानी का अनोखा था।
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झरिया में दीक्षोत्सव
विदाई समारोह और विहार - वगाल की राजधानी कलकत्ता का ऐतिहासिक वर्षावास सम्पन्न होने के पश्चात् सवं मुनि मण्डल का हजारो नर-नारी नागरिको द्वारा विदाई समारोह सम्पन्न हुआ। उस समय का दृश्य दर्शनीय व अनोखा था । अधिकाश नर-नारो वियोग-वेदना से व्याकुल एव उदासीनता की आधी से पीडित-दुखित जान पड रहे थे । "गुरुदेव । पुन दर्णन की कृपा शीघ्र करें, गहरे गतं मे गिरे हुए इस क्षेत्र को भूलें नही, हम तो केवल धनार्थी है, न कि धर्मार्थी । अतएव हमारी विनती सदैव आप के झोली-पात्र मे ही नही, अपितु मन-मजूपा में रहे ।" इस प्रकार कलकत्ता निवासी जनता की व्यथिन वाणी बार-बार अनुनय अनुरोध कर रही थी।
सरस्वती का सदन शान्ति-निकेतन - शस्य-श्यामला वगाल धरातल को पावन करते हुए तथा इर्दगिर्द निवासियो को जैन श्रमणजीवन का परिचय, उपदेश वाणी विज्ञापन पत्रो द्वारा करते हुए विश्व विख्यात शान्ति निकेतन (वोलपुर) पधारे । यह नगर सचमुच ही शान्ति एव सरस्वती का जीता जागता सदन माना गया है । इस विराट सस्था के सचालक कुलपति कर्मठ कार्यकर्ता आचार्य क्षिति मोहन सेन थे। जहा भारतीयो के अलावा इरानी, चीनी, नेपाली वर्मी एव लका निवासी आदि नाना देशो के सैकडो विद्यार्थी अपनीअपनी रुचि के अनुसार दर्शन-भूगोल, इतिहास, विज्ञान आदि विपयो का अध्ययनाध्यापन किया करते हैं । सचमुच ही यह केन्द्र भारतीयो के लिए गौरव का प्रतीक है और भारतीय संस्कृति के लिए भी ।
आचार्य क्षितिमोहनसेन स्वय अनेक होनहार छात्रो को सग लेकर दर्शनार्थ आए । जैन-दर्शन, प्राचीन जैन इतिहास एव जैन साहित्य श्रमण-जीवन के विषय मे काफी तात्विक चर्चाएं हुई । उपस्थित जिज्ञासु विदेशी विद्यार्थियो ने भी श्रद्धा भक्ति एव जिज्ञासा पूर्वक दुभाषियो के माध्यम से 'मुहपत्ति' 'रजोहरण' 'केश लोचन' एव पादयात्रादि विषयक प्रश्नो का सम्यक् समाधान प्राप्त किया। इस प्रकार काफी प्रभावित व प्रसन्न चित्त होकर लौटे और दूसरे दिन "जैन दर्शन" पर उसी सस्था के विशाल हाल मे प्रवचन भी करवाया व सस्था द्वारा मुनिवरो को अभिनन्दन पत्र भेंट किया । जो आगे दिया गया है और सस्थाओ के सर्व विभागो का अवलोकन भी करवाया गया।
मनियो का मागलिक मिलनयहा से श्रमण गण सैथिया आए। जहा वयोवृद्ध तपस्वी महा भाग्यवान श्री जगजीवन जी म०, प्रखरवक्ता श्री जयन्ति लालजी म० एव श्री गिरीश मुनि जी म. सानन्द विराज रहे थे । उदार मन मुनियो का पारस्परिक व्यवहार अत्यधिक प्रेम भरा एव सौहार्द स्नेह पूर्ण था। आप मुनिवरो के सान्निध्य मे यहा एक सर्व धर्म सम्मेलन भी हुआ, जो सैथिया नागरिको के इतिहास मे नवीन ही था। यहाँ आशातीत धर्म-प्रभावना एव धर्मोन्नति हुई। यद्यपि घरो की संख्या से यह क्षेत्र लघु था तथापि
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६० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ पारस्परिक सगठन-सहयोग के प्रभाव से अत्यधिक बल मिला। काफो दिनो तक विराज कर सर्व मुनि मण्डल ने झरिया की राह पकडी। जहा मेरे (रमेश) दीक्षोत्सव का गुजराती स्थानक वासी जैन समाज की ओर से एक अभूतपूर्व आयोजन का श्री मगल होनेवाला था।
दीक्षा का शखनाद - झरिया सघ एक सुसम्पन्न अनुभवी, दीर्घदृष्टि-दर्शक एव शुद्ध स्थानकवासी परम्परा श्रद्धा का सदैव अनुगामी रहा और है । जहा सौ से भी ज्यादा सुखी-सुयोग्य जैन परिवारो का वास है। दीक्षा की शुभ सूचना का शख शम्मेदशैल से ही इतस्तत प्रमारित हो चुका था । एतदर्थ झरिया निवासियो मे वेहद उत्साह-उमग उल्लास का वातावरण छा गया, जिसमे बहिनो मे तो मानो खुशी का पारावार ही उमड पडा था । वहुत मे जैन वाल व युवको ने आहती दीक्षा के अद्यावधि दर्शन तक नही किये थे और दूसरा कारण यह भी था--कि बिहार प्रात मे काफी शताब्दियो से जैन दीक्षा का सिलसिला अवरुद्ध था। इसलिए पुन इस शुद्ध मार्ग का गुरु भगवत द्वारा उद्घाटन हो रहा था अतएव हर्प भरा वातावरण होना स्वाभाविक ही था।
मैने उत्तर दियामेरी ज्ञान, घ्यान साधना को देखकर सघ के मदस्यगण बहुत ही प्रभावित हुए । मेरे परिवार के विपय मे भी सघ ने पूरी पूछ-ताछ की। यद्यपि अनेको पारिवारिक जन मौजूद थे और है । लेकिन भावी कठिनाइयो के भय से मैंने निश्चयवाद की शरण लो -जैसा कि
कोना छोर ने फोना घाछरु कोना धाय ने वाप ।
अन्तकाले जावू एफलु साथे पुण्य ने पाप ।। सवो को मेरा एक ही उत्तर था—जो उत्तर गुरुदेव को था वही उत्तर सघ को, और वही अन्य मानवों को भी-'मेरे कोई नही है, मेरी आत्मा अकेली आई और अकेली ही जायेगी।" बस, विश्वासपूर्वक झरिया श्री सघ ने मुझे अपना ही लाडला मानकर, तथा तत्र विराजित मुनिवरो की जन-मानस को झकझोरने वाली वाणी ने सघ मे नया प्राण फूका, नई चेतना पनपाई एव नया जोशतोप का सूत्रपात किया।
हर्ष ही हर्षजहा देखो वहा हसी खुशी के फव्वारे फटने लगे, जहा देखो वहां गाजे-बाजे, गीतो की मनलुभावनी सुरीली तान, जहा देखो वहाँ शासन-शोभा की वाते, जहा देखो वहा आत्मीक वीणा की सुमधुर तान एव जहा देवो वहा धार्मिक प्रतिष्ठा के शुभ दर्शन होने लगे।
गुजराती-रीति-रिवाज के मुताविक दीक्षोत्सव प्रारम्भ हुआ। कई दिनो तक सम्मिलित प्रीतिभोज तो दूसरी ओर रजोहरण पात्र, शास्त्र एव वस्त्रो की बोलिया पर वोलिया लगना शुरु हुई । जिमको गुजराती भापा मे "उच्छवणी" कहते हैं।
थोडे ही समय मे सर के रमणीय प्रागण मे हजारो रुपयो का ढेर सा लग गया। मानो कुवेर प्रमन्न चित्त होकर नभ से बरस पडा हो । इस प्रकार आगन्तुक हजारो दर्शको ने इम अभूत पूर्व समारोह मे भाग लिया दर्शन किया और अपने को कृत-कृत्य मानते हुए जैन श्रमण के आचार विचार की भूरि-भूरि प्रशमा करने लगे।
इस प्रकार वंशाख शुक्ला सप्तमी की शुभ-मगल वेला मे मैं (रमेश मुनि) गुरु प्रताप के पवित्र पूजनीय पाद चिन्हों पर चलने के लिए श्रमण धर्म मे प्रविष्ट हुआ।
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इन्दौर चातुर्मास : एक विहंगावलोकन
त्रिवेणी का सुन्दर सुसगमःसवत् २०२० का यशस्वी चातुर्मास उदयपुर का सम्पन्न कर गुरुवर्य श्री प्रतापमल जी म० प० रत्न, वक्ता श्री राजेन्द्र मुनि जी म० श्री सुरेश मुनि जी म० एव इन चन्द पक्तियो का लेखक (रमेश मुनि) आदि मुनि हम चारो निम्बाहेडा होते हुए नीमच आए और इधर आचार्य प्रवर श्री आनन्द ऋषि जी म० एव तरुण तपस्वी प्रसिद्ध वक्ता मुनि श्री लाभचन्द जी म० अपना ऐतिहासिक वर्षावास साजापुर का सम्पन्न कर एव चिरस्मरणीय चातुर्मास खाचरोद का पूर्ण कर मालवकेशरी श्री सौभाग्य मल जी म० सा० आदि अनेकानेक मुनि-महासतियो का एक सुन्दर स्नेहमय त्रिवेणी सगम जुडा । जो सचमुच ही एक लघु सम्मेलन की ही झांकी प्रस्तुत करता था।
___भावी सम्मेलन विपयक एव आचार-विचार व्यवहार सम्बन्धी काफी अच्छे ढग से विचारो का विनिमय हुआ। एक दूसरे के दर्शन कर साधक मन फूले नही समा रहे थे। नीमच सघ के सदस्यो के मुख-मन एव जीवन-जीह्वा पर श्रमण संघ एव आचार्य प्रवर के प्रति अटूट श्रद्धा-भक्ति झलक रही थी । जो आज के प्रत्येक स्थानकवासी सघो के लिए एक अनुकरणीय पौप्टिक नवनीत है । होने वाली भावी सम्मेलन की पक्की रूप रेखा का सूत्रपात् एव शुभस्थान अजमेर-निश्चय की सूचना भी तार द्वारा यहा आ पहुंची।
मालवकेशरी और गुरु प्रवर - सध्या की सुन्दर सुहावनी अचल मे सर्व मुनि-मण्डल विराजित था। मालव केशरी जी म० ने गुरु प्रवर श्री प्रताप मल जी म० को एक तरफ बुलाकर परामर्श दिया कि-अगला चौमासा अर्थात २०२१ का जहा मैं कहू-वही करना होगा और वह स्थान है इन्दौर । सगठन एव ऐक्यता की दृष्टि से इन्दोर सकल-सघ की सेवा करना आप के लिए तथा बनेगा तो मेरे लिए भी जरूरी है । अत भले आप सम्मेलन मे पधारे किंवा अन्यत्र विचरण करें। परन्तु जहा तक इन्दौर सघ का विनती पत्र आप की सेवा मे न पहुच जाय, वहा तक आप अन्य किसी सघ को आश्वासन-स्वीकृति प्रदान न करें। वस, भने इसको भावना-कामना समझे कि आज्ञा।"
गुरु भगवत के जीवन मे यह भी एक खास विशेपता रही है-आप सदैव वडे बुजुर्ग गुरुओ के अमृत वचनो को सम्मानपूर्वक सिर चढाते आए हैं । दूसरी बात यह भी थी--कि-शात प्वभावी एव गहरे अनुभवी ऐसे मालवकेशरी जी म० की पवित्र स्वभाव की शीतल छाया मे रहने का अनायास ही यह सु अवसर हस्तगत हुआ। ऐमा दीर्घ दृष्टि से सोचकर गुरुदेव बोले कि- "आप मेरे गुरुदेव तुल्य है। मैं स्वप्न मे भी भवदाज्ञा का अतिक्रमण अवहेलना कैसे कर सकता हूँ?" अत आप के आदेशानुसार ही में कदम रखूगा । वस, आचार्य प्रवर आदि मुनिवरो ने अजमेर की दिशा ली, और हमने नीमच से मन्हारगढ की दिशा नापी।
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६२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
इन्दौर सघ का डेप्युटेशनजहा वैरागी वाल ब्रह्मचारी नाथूलाल (नरेन्द्र मुनि) विलौदा वाले और वैरागीन गटु वाई (ज्ञानवती जी) देवगढ निवासी की दीक्षा का मगलमय कार्य सम्पन्न करना था और उपरोक्त कार्य गुरु भगवत के कमनीय कर कमलो से ही सभव था। अतएव मल्हारगढ को पावन करना जरूरी हुआ। मल्हारगढ सघ ने भी गुरु प्रवर के कथनानुसार सहर्प-श्रद्धा एव निर्भयता पूर्वक होने वाले धार्मिकोत्सव को सादगीपूर्ण ढंग से सम्पन्न किया।
उपरोक्त कार्य सिद्धि के पश्चात पांचो मुनि-मण्डल रामपुरा, चवलडेम, भानपुरा, रायपुर, वकाणी व झालरापाटन आया। जहा इन्दौर सघ की ओर से सवत २०२१ के वर्षावाम का विनती पत्र लेकर कतिपय अग्रगण्य श्रावक आ पहुचे । इन्दौर का सकल' स्थानकवासी सघ गुरु भगवत पर अगाढ श्रद्धा भक्ति रखता आया है। गुरुदेव की प्रभावशाली वाणी के प्रभाव से ही यहा "सेवा सदन" (आय विल खाता) नामक सस्था का सवत २००४ के चौमासे मे निर्माण हुआ था । आज तो यह सस्था काफी सवल, वलिष्ट व प्रसिद्धि प्रख्याति मे वहुत आगे बढ चुकी है । इसका कार्य क्षेत्र बहुत ही विशाल वन चुका है। विन्दु का सा लघुरूप आज सिन्धु मे परिणित होता दृष्टिगोचर हो रहा है । अतएव इसकी शानी की सवल मम्था राजस्थान, खानदेश, उत्तरप्रदेश और मालवा भर मे शायद नहीं होगी। जिसमे प्रतिवर्ष हजारो भावुक जन सप्रेम लाभान्वित होते हैं। उपरोक्त शुभ प्रवृत्ति के मार्ग दर्शक हमारे चरित्र नायक ही रहे है।
राजधानी की ओर कदमकाफी अनुरोध आग्रह के पश्चात गुरुदेव ने शास्त्रीय विधानानुसार सम्वत २०२१ के चौमासे की इन्दौर मघ को स्वीकृति फरमाई। अभी समय की काफी वचत थी। अत परोपकारी मुनि-मण्डली नल खेडा, वडा गाव, सुजालपुर आदि छोटे मोटे नगर-निवासियो को दर्शन देते हुए मध्य प्रदेश की वैभव सम्पन्न राजधानी भोपाल पधारे | मुनि शुभागमन से स्थानकवासी सघ भोपाल मे आशातीत जागति आई, नव चेतना का शख बुलन्द हुआ और सघ की डावाडोल जडो मे गुरु-उपदेशामृत ने ठोस कार्य किया। जो काफी दिनो से स्थानीय सघ वाटिका उजडो जा रही थी। भोपाल सघ की ओर से यद्यपि इसी चौमासे के लिए अत्यधिक आग्रह था। लेकिन ऐसा न हो सका । चौमासे के दिन निकट भागे आ रहे थे । इसलिए आपाढ वदी तक मुनि मण्डल इन्दौर के उप नगरो मे आ पहुंचा और उधर सम्मेलन मे पधारे हुए मालवकेशरी जी म० इन्ही दिनो मे भण्डारी मिल मे आ विराजे । वम आषाढ शुक्ला तृतीया के शुभ मगल प्रभात मे हजारो नर-नारियो के अभिनन्दन-समारोह के साथ-साथ मुनि मण्डल (दसठाणा) का इन्दीर नगर में प्रवेश हुआ जो वडा ही अनूठा अनुपम दृश्य था।
साहित्य व सस्कृति का केन्द्र इन्दौर - इन्दौर केवल भौतिक-विकास वैभव का ही केन्द्र नहीं अपितु सस्कृति, साहित्य, इतिहास, कल कारखाने व धर्म की सुन्दर शोभनीय सगम भूमि भी है । जैन समाज के लिए तो सचमुच ही यह सगम जगम तीर्थ सा बना हुआ है । क्योकि यहा श्रमण सस्कृति के प्रतीक दिगम्बर श्वेताम्बर एव स्थानकवासी विधारा का सुन्दर मगम है । जो हमेशा अन्य मघो के लिए एक उज्ज्वल प्रेरणा का प्रतीक रहा है। .
हा, तो जन-मानम में श्रमण सघीय मुनिवरो के प्रति अटूट श्रद्धा भक्ति के साथ-माथ जहां तहाँ उन्माद के मधुर स्रोत भी फूट रहे थे। नंकडो हजारो भव्यात्माए व्याख्यानामृत पान करने लगी।
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प्रथम खण्ड इन्दौर चातुर्मास एक विहगावलोकन | ६३ उत्माही युवको द्वारा प्रत्येक रविवार को एक विशेप आयोजन कभी राजवाडे मे महावीर भवन मे होता। श्रावण-भादवे के दिनो मे जैसे वसुन्धरा का विशाल प्रागण हरा-भरा सरसन्न दृष्टि पथ होता है उसी प्रकार गुरु भगवत की वागतियश प्रभावेण भव्य मानस भूमि सरसन्ज स्वच्छ निखर उठी । एव जप-तप-शील सन्तोष श्रद्धा की अपूर्व उन्नति के माथ-साथ वाहरो दर्शनार्थी मुमुक्षुओ का भी एक ऐसा स्रोत प्रवाहित हुआ, जो इन्दौर स्थानकवासी मघ के इतिहास मे अद्वितीय था। इस प्रकार पयुर्पण पर्वाराधना एव लोकाशाह, दिवाकर जयन्ति महोत्सव आदि भी उन्साहपूर्वक सपन्न किये गये।
सघ सचालको को दूरदर्शिता - चारो मास पर्यन्त सघ सदन मे स्तुत्य शान्ति-सगठन एव स्नेह की वीणा बजती रही। जो सचमच ही अनुकरणीय ही थी। यद्यपि इस वर्षावास मे विद्वप विद्रोह के अनेको ऐसे नैमित्तिक तत्त्व अभिमख थे जो थोडी-सी विफलता पर राई का पर्वत एव तिल का ताड खडा कर दें। किन्तु सघ के जाने-माने विद्वद् वर्ग एव गुरुदेव प्रताप और सौभाग्य की वेजोड़ शान्ति-क्रान्ति ने ऐसा छिटकाव किया कि वे साम्प्रदायिक कटु तत्त्व भी सूल के फूल वन विछ पड़े।
सघ मे पर्याप्त शात वातावरण रहा । यह सर्व श्रेय सचालको के सिर पर रहता है उनमे से प्रथम श्रेय के घनी हमारे चरित्रनायक और श्रद्धय मालव केशरी श्री सौभाग्य मल जी म० है । जिनकी स्मित मुख मुद्रा पर आठो पहर शान्ति अठखेलियां करती है। जिनकी वाक्-शक्ति मे अद्वितीय भक्ति माधुर्य का सागर लहलहाता है। जो विनोदी को तो क्या पर विरोधी को भो आकृष्ट किये बिना नही रहता। जिनकी व्याख्यान शैलो जहां भव्य मानस को वैराग्य से मीगोती है, तो दूसरी ओर जीवन को झकझोरने वाली वही फटकार और ललकार । जहा हास्य एव वीर रस से श्रोताओ के मन-मुख एक साथ ही वाग-वाग हो जाते हैं । तो दूसरी ओर यदा-कदा करुणारस परिपूर्ण आपकी वाणी द्वारा सुनने वालो की
आंखो मे श्रवण-भादवा भी छा जाता है । इस प्रकार मुख्य रुपेण 'आत्मधर्म' विपय के अन्तर्गत ही उपरोक्त विभिन्न स्रोत आप के मुख हिमाचल से नि सृत होते रहते हैं। थोडे मे कहे तो सचमुच ही आप एक अनोखे जादू के अवतार हैं जो रुष्ट-तुष्ट एव योगी-भोगी आदि सभी को अपना अनुगामी बना ही लेते हैं।
स्व० श्री किशनलाल जी म० के प्रति आपकी भक्ति व श्रद्धा वेजोड मालूम पडी । एव सर्व साधुओ को निभाने एव पुकारने की कला का तरीका भी एक अनूठा देखने को मिला-ईश्वर | भगवान | कृपालु पधारो आदि-आदि आपके सम्बोधन के मुख्य सुमधुर चिन्ह हैं । आपका दिल जितना विशाल है, उतना ही मस्तिष्क विराटता को लिए है और वाणी मे भी उतनी ही मधुरता का वास है। जो छोटे-मोटे सभी यात्रियो को साथ में लेकर चलने की क्षमता रखते हैं । श्रमण-सघ के प्रति आप के जीवन का कण-कण एव रोम-रोम वफादार प्रतीत हुआ। कई वक्त आपने फरमाया भी था कि-"क्या करूँ ? मेरे घुटनो मे अव वह शक्ति नहीं रही, अन्यथा श्रमण सघ के लिए गुजरात, पजाब आदि प्रान्तो मे एक चक्कर लगा आता और अन्य सतो को भी मिलाने का भरसक प्रयत्न करता।" ऐसा भी देखने, सुनने में आया कि आप के प्रत्येक व्याख्यानो मे श्रमण-सघ पुष्टि के उद्गार स्फुरित होते रहते थे । अत नि सन्देह सघ-स्तम्भ के आप एक सफल सरक्षक सुभट प्रतीत हुए। ऐसे गुण रत्नाकर एव श्रमण-सघ के चमकतेदमकते रत्न युग-युग तक आत्मदर्शक के रूप मे विद्यमान रहे वस यही मन की शुभाकाक्षा है।
आपकी स्नेहमयी शीतल छाया मे रहने का यह प्रथम अवसर था। स्व० माध्वाचार्य, स्व० श्री
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६४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
किशनलाल जी म० एव आप (मौभाग्यमल जी म०) के अतीत जीवन की नित नई झांकियां सनने को एव सीखने को मिली। __इस प्रकार सभी दृष्टियो से यशस्वी, यह चातुर्मास इन्दीर के स्थानकवासी इतिहास मे अद्वितीय एव सफल रहा । विहार-वेला मे भी हजारो नर-नारियो ने उसी श्रद्धा-भक्ति पूर्वक विदाई समारोह में भाग लिया । और आचार्य सम्राट श्री आनन्द ऋषि जी म० श्री सौभाग्य मल जी म० एव गुरु प्रवर श्री प्रताप मल जी म० की जय-जयकारो से वह अनन्त आकाश मण्डल गूज रहा था।
आयावयति गिम्हेसु, हेमतेसु अवाउडा । वासासु पडिसलीणा, सजया सुसमाहिया ॥
- आचार्य शय्यभवसूरि प्रशस्त समाधिवत सयमी मुनि ग्रीष्म ऋतु मे सूर्य की आतापना लेते हैं हेमन्त ऋतु मे-शीतकाल मे अल्प वस्त्र रखते है और वर्षा ऋतु मे कछुए की तरह इन्द्रियो को गोपन करके रहते हैं।
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मजल गांव में महान-उपकार
।। । सरस शात प्राकृतिक सुषमा की गोद मे वसा हुआ मजल ग्राम मेरी मातृभूमि है जहाँ ओसवाल समाज के पच्चास से भी अधिक सुसम्पन्न परिवार वास करते हैं । जिनका विदेशी व्यापार-विनिमय से खासा । सम्बन्ध है और प्राय सबके सब अच्छी हालत में विद्यमान हैं। धार्मिक व सामाजिक जीवन भी जिनका स्तुत्य रहा है। देव. गुरु धर्म के प्रति जिनकी अच्छी श्रद्धा भक्ति व मान्यता है । सबके सब आज से ही नहीं, अपितु काफी समय से शुद्ध मान्यता के धनी 'स्थानकवासी' जैन समाज के अनुगामी रहे हैं । अतएवा यदा-कदा सती, गण के चौमासे भी हुआ ही करते है । वस्तुत श्रमण सस्कृति के आचार-विचार व्यवरहार आदि धार्मिक संस्कारो से यहा के वाणिदे सर्वथा अनभिज्ञ नही रहे हैं । धर्म-साधना-आराधना के लिए। एक भव्य स्थानक और कौमुदी को भी मात करने वाला सकल सघ का एक जिनालय भी बाजू मे ही खडा है। जो मजल गाँव की शोभा प्रतिष्ठा मे अभिवृद्धि कर रहा है।
___ गुरुप्रवर श्री प्रतापमल जी म० सा०, मैं (रमेश मुनि) प्रियदर्शी श्री सुरेश मुनि जी, श्री 'नरेन्द्र मुनि जी, श्री अभय मुनि जी, श्री विजय मुनि जी, श्री मन्ना मुनि जी एव सती जी श्री छोग "कुवर जी म०, श्री मदन कुवर जी म० एव श्री विजय कुवर जी म० आदि साधक गण का इस रमणीय'कमनीय गाँव मे यह प्रथम प्रवेश था।
___ मुझे दीक्षित हुए काफी वर्ष बीत गये। लेकिन मातृभूमि के महामहिम दर्शन से मैं दूर था और मातृभूमि के सपूत जन भी गुरु भगवत आदि मुनि महासती मण्डल के दर्शनो से वचित थे। 'यद्यपि भक्ति से ओत-प्रोत विनती का सिलसिला कई महिनो से निरन्तर चालू था। परन्तु अनुकूल वातावरण के अभाव मे उधर पग फेरा न हो सका।
जेही के जेही पर सत्य सनेहु । सो तेही मिल हु न काहु सवेहु ।
वस भावुक जन की भक्ति ने जोर पकडा और उधर सकल सघ-जोधपुर की विनती को मान्यकर मालवरत्न गुरु प्र० श्री कस्तूरचन्द्र जी म० सा० ने सम्वत् २०२४ के चौमासे की आज्ञा प्रदान कर दी। वस, 'एक पथ अनेक काज' के अनुसार कई गांव नगरो को पार करते हुए जोधपुर का चिर स्मरणीय वर्षावास भी व्यतीत किया और मार्गवर्ती सगे सम्बन्धी जन को दर्शन देते हुए, गुरु भगवत आदि सप्त ऋपियो का मजल के पवित्र प्रागण मे पधारने का शुभ दिन भी सन्निकट आ खडा हुआ।
प्रवेश समारोह भी अपनी शानी का अनोखा था । स्वागतार्थ आए हुए भाई-बहिनो मे अथाह उमगोल्लाम का प्रवाह फूट-फूट कर जयकारो के बहाने बह रहा था । व्याख्यान वाणी मे भी जैन जैनेतर अति भाव पूर्वक ठीक समयानुसार सुबह-दोपहर मे एकत्रित होकर गुरु प्रवर के, टूटे-फूटे कुछ विचारकण मेरे व सुरेश मुनि जी के उन नपे-तुले निखरे असरकारक शब्दो को एकाग्रता पूर्वक सुना करते थे । आवाल-वृद्ध आदि मजल के मेधावी मानव शासन चमकाने-दमकाने दीपाने मे व सेवा भक्ति मे किमी
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६६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन गन्थ अन्य सघो मे पीछे नही थे, बल्कि एक कदम आगे ही रहते थे । मत मण्डली को मालूम नहीं हुआ कि यह रेगिस्तान है कि ---मां का पेट मालवा देश | सभी मुनियो का यह प्यारा नाग बन गया था।
'मजल-मण्डली महान् है।
जिन शासन को शान है।" मजल के प्रत्येक मघ सदस्यो ने आनी जान से तो मेवा-भक्ति मे किमी बात की कमी नही रखी । अर्थात मकल सघ ने व आदीश्वर सेवा मण्डल के सदस्यो ने अपना पूरा-पूग उत्तरदायित्व अदा किया । उपरोक्त गुण गरिमा के वावजूद भी जिस प्रकार प्रकृति की वेढगी चाल ने रमदार गन्ने मे गठानो की भरमार, गुलाव मे काटो की कतार, चन्दन पर सपों का वाम, रत्नाकर समुद्र में खार जल का व चन्द्रमा मे कलक का होना पाया जाता है । उसी प्रकार मजल के मकल मघ मे भी सगठन व एकात्मभाव की कमी खटक रही थी। अर्थात् माघिक शक्ति दो विभागो (घडो) मे बटी हुई थी। यद्यपि व्याख्यानवाणी मे व सत को लाने पहुंचाने मे सब एक मत अवश्य ये । तथापि फूट के चगुल मे बुरी तरह जकडे हुये थे। इम वटे-घडे को काफी वर्ष हो चुके थे। वस्तुत एक कहावत भी है कि लडाई मे लड्ड् नही वटा करते हैं।' तदनुसार फूट-फजीती-कलह-क्लेश व वैर-विरोध भीतर ही भीतर मुलगता हुआ सीमा लाघ रहा था और सघ की विकासोन्मन्त्री भावी योजनाओ पर तुपारापात-सा हो गया था। मानो किसी स्वार्थी कानर ने मघ रूपी ग्य को आगे बटने मे ब्रेक लगा दिया हो । जो योजना सामूहिकवैचारिक दृष्टि से चलाई जाती है, वे योजना, वे कार्य मन्वर फलदायी सिद्ध होते है और जहाँ सगठन ही विघटन का चरण चूम रहा है वहा नवीन योजना का प्रश्न तो दूर ही रहा, परन्तु पूर्ववर्ती योजनायें भी खटाई मे पडना स्वाभाविक है। वम यही स्थिति मजल के श्री सघ की थी । अतएव किमी उत्तम पुरुप के निमित्ति की अव आवश्यकता महसूस हो रही थी। चू कि-फूट की इति श्री होने का काल परिपक्व हो चुका था।
इस अवसर पर गुरु भगवत का शुभागमन मानो शुष्क व मूछित उद्यान मे अमृत वृष्टिवत् था । जन-मानम को झकझोरने वाली वाणी की वरमात होनेलगी । वाणी मे कर्कशता-कठोरता व मर्म भदी वाण नहीं थे- अपितु वाणी प्रवाह में एक ओज था, आकर्षण था, जादू था व जोश-तोप से परिपूर्ण वह मीठा आपरेशन अवश्य था। जो दर्दनाक बीमारी को मिटा दे ? लेकिन जन-मानस को पीडा कारक नही जैसा कि
यह उपदेश नहीं गोलियां हैं, जो रोगी को दी जाती हैं । वस जादूभरी वाणी के प्रभाव से सकल मघ मे स्वच्छ शान्ति का वातावरण वना, सडी-गलीगुजरी मन-मजूपा मे छुपी ग्रयियाँ ढोली हुई, खुली भी और पिघल-पिघल वहने लगी । सच्चे मन से एक दूसरे के निकट व गले मे गले मिले, गई गुजरी पूर्व सर्व वातो को वही जाजम के नीचे दफना दी गई, तत्काल गुरु भगवन के समक्ष ही पारम्परिक क्षमा का आदान प्रदान हुआ। जो सचमुच ही भीतरी मन मे था । गली-गली और घर-घर में तो क्या किन्तु कोमो दूरवर्ती वाले उन गावो में भी खुशी हर्प के फव्वारे फूट पडे थे। सब के मुंह पर मुस्कान अठखेलियाँ कर रही थी । गुरु प्रवर के सफल प्रयास पी यम-तत्र सर्वत्र भूरि-भूरि प्रशसा होने लगी।
मुखद स्नेह की मरिसरी स्फुटित होने के पश्चात मकल मजल श्री सघ एव धर्मनिष्ठ सुश्रावक श्री
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प्रथम खण्ड मजल गाव मे महान्-उपकार | ६७
श्रीमान् भीमराज जो लक्ष्मीचन्द जी के अत्याग्रह पर उज्जैन निवासी ओसवाल श्री छोगमल जी के सुपुत्र वैरागी भाई श्री वसन्त कुमार जी को भागवती दीक्षा की गुरु भगवत ने स्वीकृति फरमाई।
ता० ७-४-६८ चैत्र शुक्ला नवमी रविवार की शुभ वेला मे दीक्षा का मगल महोत्सव मजल श्री सघ के पावण प्रागण मे उल्लास के क्षणो मे सम्पन्न हुआ। आस-पास के हजारो श्रद्धालु मुमुक्षुओ के अलावा कई अधिकारी कर्मचारी भी इस उत्सव में सम्मिलित हुए थे। मजल के इतिहास मे अपनी शानी का प्रथम यह धार्मिक अनुपम आयोजन था । इस महोत्सव से जैनधर्म की आशातीत प्रभावना हुई । कई जैन-जनेतर नर-नारियो ने दीक्षोत्सव देखकर अपना जीवन सफल किया ।
इस समारोह का सर्वश्रेय मजल संघ एव श्री भीमराज जी लक्ष्मीचन्द जी को है जिन्होंने उदार चित्त मे चतुर्विध संघ की महान् मेवा कर विपुल लाभ उपार्जन किया।
आज मजल के सकल सघ सदस्य एक माला के रूप मे गुम्फित हैं। सभी महोदर की तरह मिलते-जुलते-विचारते व प्रत्येक कार्य मे सहयोगी वन हाथ बटाते हैं। घर-घर मे वहाँ आज प्रेम-मैत्री स्नेह की मीठी रसदार गगा बह रही है। जिपमे वहां के निवामीगण डुबकी लगाकर शुद्ध-विशुद्ध हो रहे हैं । उपदेश-मन्देश के प्रभाव से वहाँ नूतन सगठन का निर्माण हुआ। अतएव गुरु प्रताप का प्रताा वहाँ के वामियो पर युग-युगातर अमर-अमिट रहे इसमे आश्चर्य ही क्या है ?
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शिष्य-प्रशिध्य परिचय
१-तपस्वी श्री बसन्तलाल जी महाराज -
आप मदसौर निवासी स्व० श्री रतनलाल जी ओसवाल दुगड के सुपुत्र हैं। स्व० सती शिरोमणि श्री हगाम कुवर जी महाराज की सत्प्रेरणा से आप को ज्ञान गभित वैराग्य उत्पन्न हुआ। तदनुसार ता० २१-२-४० को रतनपुरी (रतलाम) मे गुरु प्रवर के चरण कमलो मे प्रथम शिष्य होने का सीभाग्य प्राप्त किया । यथा वुद्धि हिन्दी-सस्कृत-एव जैनागम का पठन-पाठन पूर्ण किया। ज्ञान-ध्यान एव स्वाघ्याय मे आप की रुचि अधिक रही है। वस्तुत काफी वर्षे से आप लवा आसन अर्थात् न दिन मे और न रात मे शयन करते हैं। कभी एकान्तर, कभी वेले-तेले इस प्रकार निरन्तर रग-रगीली तपाराधना के माथ-साथ बहुधा मौन एक ज्ञान-ध्यान मे वाधा न पड़े, इस कारण जन कोलाहल से दूर रहना ही आप की अन्तरात्मा को अभीष्ट है ।
गुरुदेव एव घोर तपस्वी खद्दरधारी स्व० श्री गणेशलाल जी महाराज का साहचर्य पाकर आप की साधना अधिकाधिक सवल-सफल एव चमक उठी एव जन-जीवन के लिए श्रद्धा का केन्द्र वनी
__ कई महा मनस्वी मुनियो की महान् चरण सेवा कर अपने महा मूल्यवान सयमी जीवन को लाभान्वित कर चुके हैं । अद्यावधि आप ने मालवा, उत्तरप्रदेश, विहार, वगाल, नेपाल, खानदेश, राजस्थान, गुजरात, पजाब, आध्र और कन्नड प्रातो की हजारो मील की पद यात्रा तय कर चुके हैं । आप श्री को वक्तृत्व शैली मीधी-सादी श्रोताओ के हृदय को छूने वाली है । अभी आप खानदेश-महाराष्ट्र मे विचरण करते हुए शासन की प्रभावना वढा रहे हैं । २-श्री राजेन्द्र मुनि जी महाराज शास्त्री -
आपका जन्म पीपलु (म० प्र०) ग्राम मे क्षत्रियकुल भूपण सोलकी गोत्रीय श्री लक्ष्मणसिंह जी की धर्मपत्नी मौ० श्री सज्जन देवी की कुक्षी से कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा के दिन हुआ था। शंशव काल से ही आप की प्रवृत्ति धार्मिक कार्यों में विशेष रही।
एकदा अहमदावाद मे आपको गुरु प्रवर श्री प्रतापमल जी महाराज के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । 'जैना सग वैमा रग' तदनुसार गुरुदेव की अमृत वाणी सुनकर आपके हृदय सागर मे वैराग्य की गगा फूट पडी । साथ ही साथ जैन मुनि-महामतियो के प्रति प्रगाढ श्रद्धा उत्पन्न हुई और धार्मिक मध्ययन भी प्रारम्भ कर दिया । स्वल्प काल मे ही आशातीत सफलता मिली और वैराग्य भाव पुष्ट बने । अतत वि० स० २००८ वैशाख शुक्ला ८ की शुभघडी मे खण्डेला (जयपुर) मे पू० श्री रघुनाथजी महाराज एव गुरुदेव श्री प्रतापमल जी महाराज आदि मुनि सघ की उपस्थिति में दीक्षाव्रत स्वीकार किये।
दीक्षोपरात गुम्देव के नेतृव में हिन्दी-मस्कृत-प्राकृत भापाओ का अच्छा ज्ञान उपलब्ध किया एव धार्मिक शास्त्री तक की परीक्षाएं भी उत्तीर्ण की । स्वर की माधुर्यता के कारण आपकी व्याख्यान शैली
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HAI
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तपस्वी मुनि
श्री राजेन्द
"अनि श्रीबसन्ती
तीलालजी
"राजेन्द्र मुनिजी
रमेशमुनिजी
'निजीमा
११
सुधाकर
मेवाइ मूषा
पण्डितरत्न
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नमुनिजीमा.
पुरेशमनिजीमा
उसदेव श्री प्रताप
रहाराजसाकीजय
तापमलजीमहा
श्री प्रकाश
श्री नरेन्द्रमा
*काशमुनिजी
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श्रीबसन्त
वसन्त मनिजीमा
तपस्वी माग
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श्री विजय मुनि
जीमुनि श्रीमपन
यमुनिजीमा
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प्रथम खण्ड शिष्य-प्रशिष्य परिचय | ६६
रोचक है । आप द्वारा हिन्दी मे अनुवादित वर्धमान भक्तामर काफी आदरणीय वनी है । अभी आप एव साथी मुनि वीरपुत्र श्री सोह्न मुनि जी महाराज खानदेश एव महाराष्ट्र प्रातो मे धर्म की अपूर्व सेवा कर रहे हैं। ३-श्री रमेश मुनि जी महाराज, सिद्धान्त आचार्य, साहित्य रत्न :
मजल (मारवाड) निवासी श्रीमान् सेठ वस्तीमल जी की धर्मपत्नी श्रीमती आशा वाई कोठारी के भरे-पूरे मुसम्पन्न परिवार मे आपका जन्म हुआ । वाल्य एव किशोरावस्था विद्यार्जन व व्यापार मे वीती । सहसा आपको अन्त करण प्रेरणा एव महासती श्री बालकुवँर जी महाराज की वैराग्य भरी शिक्षाओ ने आप को प्रतियोधित किया। तभी आप की अन्तरात्मा अपने परिवार को कहे विना हो दुष्प्राप्य पथ की खोज में निकल पडी । - उस वक्त गुरु भगवन्त श्री प्रतापमल जी महाराज आगम विशारद् प० श्री हीरालाल जी महाराज ठा० ६ का चातुर्मास कलकत्ता में था । येन-केन प्रकारेण आप वहाँ पहुँचे और अपनी वैराग्य भावना प्रगट की । तीक्ष्ण बुद्धि के कारण कुछ ही दिनो मे अच्छा ज्ञान प्राप्त किया । तव सुयोग्य समझकर झरिया श्री सघ ने ता० ६-५-५४ की मगल प्रभात मे विशाल जन समारोह के साथ दीक्षोत्सव सम्पन्न किया । अर्थात् गुरुप्रवर का आपने शिष्यत्व स्वीकार किया। दीक्षोपरान्त गुरुदेव एव गुरु भ्राताओ के सहयोग से साहित्य रत्न, सस्कृत विशारद, जैन सिद्धान्त आचार्य आदि उच्चतम परीक्षाएँ उत्तीर्ण की। आप लेखक, वक्ता कवि को श्रेणी मे गिने जाते है । आप द्वारा लिखित कई कृतियाँ विद्यमान हैं--प्रताप कथा कौमुदी १, २, ३ जीवन दर्णन, वीरभानउदयभान चरित्र, गीत पीयूप, विखरे मोती निखरे हीरे, आदि । आप की वक्तृत्व शैली आत्मिक तत्वो से प्लावित एव श्रोताओ के मानस स्थली को छूने वाली है। ४-प्रियदर्शी श्री सुरेश मुनिः
.. आप जाति के जयशवाल दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के मानने वाले थे। श्री गया प्रसाद जी जैन एव माता ज्ञान देवी की कुक्षी से जन्म हुआ था। व्यापारी क्षेत्र मे जल्दी उतर जाने के कारण शैशवकाल मे विद्याध्ययन सीमित ही रहा । वम्बई एव कानपुर मे आप व्यवसाय कर रहे थे।
सम्वत् २०१६ का चौमासा गुरदेव आदि मुनिवरो का विले पारले (वम्बई) मे था । पीपीगज निवासी त्रिलोक चन्द जी के साथ-साथ आप भी दर्शनार्थ उपस्थित हुए। जैन मुनियो के आचार विचार से आप अत्यधिक प्रभावित हुए । वस, एकदम जीवन मे भारी परिवर्तन ले आए और दुकानदारी को समेट कर गुरुप्रवर को सेवा मे अर्ज की कि आप अपना शिष्य बनाकर मुझे भी धन्य बनावे । बिहार यात्रा मे साथ हो चले और आवश्यक ज्ञान साधना भी शुरू कर दी गई । सुयोग्यता देखकर सम्वत् २०१६ माघ शुक्ला १३ की मगलवेला मे श्री घोटी सघ ने दीक्षोत्सव का अपूर्व लाश उपाजन किया । दीक्षा का सर्वश्रेय श्रद्धय प०रत्न श्री कल्याण ऋपि जी महाराज आदि मुनिवरो को है । जिनकी वलवन्ती प्रेरणा घोटी श्री सघ को मिलती रही ।
दीक्षाव्रत अगीकार करने के पश्चात् गुरुप्रवर के सान्निध्य मे हिन्दी, सस्कृत एव धार्मिक अभ्यास पूण किया । आप की व्याख्यान शैली बहुत ही मथर गति से चलती है। भापा मजी हुई एव सरल सुवोध होने के कारण श्रोताओ के मन को आकर्पित कर लेती है । चन्द ही वर्षों मे आपने अपने जीवन में धीर वीर गम्भीर एव धीमेपन गुण को काफी विकसित किया है । यही कारण है कि आप
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७० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ साथी मुनियो को निभाना अच्छी तरह जानते हैं । सत एव सती मडल को साफ स्पप्ट सलाह देने में भी प्रवीण हैं । गुरु भक्ति मे पक्के निष्ठावान है । प्रथम प्रशिष्य के रूप मे अलकृत किया गया । ५-श्री नरेन्द्र मुनि जी महाराज -
मेवाड प्रात मे स्थित 'विलोदा' आप की जन्म स्थली है। श्रीमान् भेरूलाल जी एव सौ० धूलि देवी की कुक्षी से आपका जन्म हुआ । तात-मात की तरह वालक का जीवन भी सुसस्कारो से ओत-प्रोत रहा। फलस्वरूप साधु-जीवन के प्रति प्रगाढ अनुराग स्वाभाविक था। कोई भी सत-सती बिलोदा गाँव मे पहुचते ही, वालक नाथूलाल सेवा मे हाजिर होकर विना कहे आहार पानी की दलाली मे जुट जाता।
विलोदा होते हुए हमारा मुनि सघ उदयपुर पधार रहा था। उस समय वाबू नाथूलाल अपने मात-पिता से पूछकर मुनियो के माथ हो गया और रुचि-अनुसार धार्मिक एवं सामाजिक अध्ययन भी शुरू कर दिया। इस प्रकार उदयपुर का वर्षावास पूर्ण होने के पश्चात् श्रीमान भेरुलाल जी ने नीमच के जन स्थानक मे दीक्षा का आना पत्र लिखकर गुरुदेव श्री के कर कमलो मे समर्पित किया। तदनुसार म० २०२० माघवदी १ की शुभ घडी मे मल्हारगढ के मगल प्रागण मे दीक्षा समारोह सपन्न हुआ । आप को गुरुप्रवर के प्रशिप्य के रूप मे घोपित किया गया ।
अव आप अध्ययन कार्य मे रत हैं। चन्द ही वर्षों मे आपने अच्छी योग्यता प्राप्त की है। व्याख्यान शैलो का प्रवाह भी धीरे-धीरे निखर रहा है। प्रकृति से आप शीतल-शात एव समताशील हैं । मातृभाषा हिन्दी-अध्ययन मे आपकी अभिरुचि अधिक है। गुरु-भक्ति मे आप पूर्ण श्रद्धावान् साधक हैं। गुरुदेव श्री के आप प्रणिप्य के रूप मे घोपित किये गये । ६ - तपस्वी श्री अभय मुनि जी महाराज -
आप की जन्मस्थली 'काकरोली' मेवाड है। स्व० श्रीमान चुन्नीलाल जी स्व० श्रीमती नाथीबाई सोनी गोत्रीय ओसवाल परिवार मे आपका जन्म हुआ है। बाल्यकाल सघर्पमय रहा । तथापि जीवन आशा से ओत-प्रोत रहा । साधु जीवन के प्रति प्रगाढ स्नेह था। कई महा मनस्वियो की सेवा कर जीवन को सुसम्कारी बनाया । प्राय उज्जैन मे आप व्यवसाय किया करते थे।
महासती श्री छोग कु वरजी, श्री मदनकु वरजी, श्री विजय कु वरजी ठा० ३ स० २०२२ का चौमासा नयापुरा उज्जैन था। तव महासती जी के सदुपदेश से आपकी अन्तरात्मा जागृत हुई और अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री मेरलाल जी से पूछ कर सीधे रतलाम चले आये । जहाँ मालव रत्न गुरु श्री कस्तूरचन्द जी म० एव ५० रत्न श्री रमेश मुनि जी म० का वर्पावास था । सेवा मे पहुचकर धार्मिक साधना शुरु करदी।
आवश्यक जान होने के पश्चात प्रतापगढ़ की रम्यस्थली मे स० २०२२ माघवदी ३ के मगल प्रभात में आपका दीक्षा समारोह सपन्न हुआ। गुरुदेव श्री प्रताप मलजी म० का शिष्यत्व आपने स्वीकार किया।
मुन्य स्पेण आप का परम ध्येय-सत-सेवा एव तपाराधना ही रहा है। विनय-अनुनय एव भक्ति में आप का जीवन ओत-प्रोत है। अभी तक आप ८ ९ १५ १५ २१ तक की लम्बी तपा गधना कर चुके है।
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प्रथम खण्ड · शिष्य-प्रशिप्य परिचय | ७१
७-श्री विजय दुनि जी महाराज 'विशारद' ~~
उदयपुर निवासी श्रीमान् कोठारी मनोहरसिंहजी एव सौ० श्रीमती शातादेवी की गोद से वि० स० २००८ माघ सुदी १० मगलवार की शुभ घडी मे जन्म हुआ था। मात-पिता की ओर से पुत्र विजय कुमार को मम्कार अच्छे मिले । प्रारम्भ मे ही कोठारी जो की इच्छा थी कि- हम अपने विजय
और वीरेन्द्र कुमार को धर्म-मेवा मे समर्पित करेंगे। तदनुसार स० २०२० का चातुर्मास गुरुदेव आदि मुनिवृन्द का उदयपुर था। मुनियो के मधुर व्यवहार से प्रसन्न होकर मान्यवर कोठारी जी ने अपने पुत्र विजय कुमार को साधनामय जीवन के लिए गुरुदेव के वरद हाथो मे सौंप दिया। तत्काल धार्मिक अध्ययन प्रारम्भ कर दिया गया।
उपयोगी ज्ञान साधना एव परिपक्व वैराग्य के होने पर स० २०२३ मृगसर वदी १० की शुभ वेला मे मन्दसौर के रम्य-भव्य स्थली मे दीक्षोत्सव सम्पन्न हुआ। इस उत्सव मे काफी साधु-साध्वी एव हजारो मुमुक्षु ने भाग लिया था। यह समारोह भी अपनी शानी का अनुपम था। गुरुप्रवर श्री के प्रशिष्य के रूप मे आप घोपित किये गये ।
दीक्षोपरान्त विनय-विवेक-विद्याध्ययन का अच्छा विकास किया । हिन्दी-सस्कृत-और प्राकृत अध्ययन मे रत हैं। व्याख्यान शैली जोशीली व रुचिवर्धक है । कवित्त कला एव लेखन कला मे आपकी प्रशसनीय गति है । श्रोताओं को पूर्ण विश्वास है कि भविप्य मे आप अच्छे मनस्वी एव व्याख्यान दाता वनेगे। ८-आत्मार्थी श्री मन्ना मुनि जी महाराज -
स २०२४ का वर्षावास गुरुदेव आदि सप्त ऋपियो का जोधपुर था। उस समय आप वोटाद गुजरात प्रात की ओर से दीक्षा की शुभ भावना को लेकर इधर आए हुए थे । लिखित प्रश्नो का गुरुदेव के मुखारविन्द से उचित समाधान प्राप्तकर आप काफी प्रभावित हुए और दीक्षा की भावना व्यक्त की। आप मुझे भागवती दीक्षा प्रदान कर धन्य बनावें। अच्छा सयम पालने की मेरी रुचि आप का शिष्यत्व पाकर सुहट वनेगी और रत्न त्रय की अच्छी सवृद्धि होगी।
___ तदनुसार स० २०२४ मृगसर वदी १० के मगल प्रभात मे जोधपुर के पवित्र प्रागण मे दीक्षोत्मव सम्पन्न हुआ।
आप को दशवैकालिक सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र एव कई थोकडे भी कठस्थ हैं । सदैव ज्ञानध्यान मे निमग्न रहते है । यदा-कदा तपाराधना भी किया करते है। हिन्दी एव गुर्जर भाषा मे व्याख्यान भी फरमाते है । गुरुदेव के निश्राय मे आपको बनाये गये हैं। ह-श्री वसन्त मुनि जी महाराज स० -
आप उज्जैन के ओमवाल श्रीमान् छोगमल जी के सुपुत्र है । स० २०२४ का जोधपुर चातुर्मास था। जोधपुर मे दर्शन के निमित्त से आए हुए थे। उन्ही दिनों सन्तो के आप अधिक सम्पर्क मे आए और एकदम भावना मे परिवर्तन ले आए। तदनुसार अपने ज्येष्ठ भ्राता श्री माणिक लालजी एव मातेश्वरी की अनुमति प्राप्तकर स० २०२५ माघसुदी १५ के दिन भागवती दीक्षा आपकी मजल नगर मे सम्पन्न हुई। प्रशिग्य के रूप मे आपको घोपित किया गया। सदैव रत्नत्रय की अभिवृद्धि के आप अभिलापी एव सन्त-सेवा भी किया करते हैं । हिन्दी प्राकृत-सस्कृत अध्ययन मे रत हैं ।
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७२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ १०-श्री प्रकाश मुनिजी म० साहित्यरत्न -
वि० स० २००६ माघशुक्ला ११ रविवार के दिन श्रीमान् नाथूलालजी धर्म की पत्नी श्रीमती सोहन वाई गाग की कुक्षि से जन्म हुआ। शंशव काल सुख शान्ति के क्षणो मे बीता । येन-केन-प्रकारेण मुनि-महासती वर्ग का सम्पर्क मिलता रहा। जीवन मे सुप्त सस्कार फूलझडी को तरह विकसित होते रहे। फलस्वरूप प्रभुलाल की अन्तगत्मा धर्म-रग से ओत-प्रोत हो उठी। पारिवारिक विघ्न घटा से उत्तीर्ण होने के पश्चात् स. २०२५ माघ शुक्ल १५ की मगल प्रभात मे भीम नगर के सघ द्वारा विशाल पैमाने पर दीक्षोत्सव सम्पन्न किया गया । इस धार्मिक महोत्सव मे स्थानीय एव वाहर के हजारो मुमुक्षुओ ने लाभ प्राप्त किया।
___ माधना मार्ग पर आरूढ होने के पश्चात् गुरुदेव का साहचर्य पाकर श्री प्रकाश मुनि जी अध्ययन रत हैं । विनय-विवेक विद्याध्ययन एव सेवा गुण को दिन प्रतिदिन विकसित कर रहे हैं । समाज को ऐसे नवयुवक मन्त से काफी आशा है । आपने गुरु प्रवर का शिष्यत्व स्वीकार किया। ११-१२ - श्री सुदर्शन मुनि जी म० एव श्री महेन्द्र मुनि जी म० सा० -
अमत शहर के गढका ग्राम के आप निवासी है। अग्रवाल जाति म जन्म लेकर राजवैद्य नाम को खव ही चमकाया है । वैद्य-कला मे आप (श्री सुदर्शन मुनि जी) अतीव निपुण एव अनुभवशील हो । ससारी पक्ष की दृष्टि से आप दोनो पिता-पुत्र हैं । गुरु प्रवर एव मुनिमण्डल का माधुर्य भरा गावदार एव प्रशस्त आचार सहिता को देखकर दोनो अत्यधिक प्रभावित हुए । इन्दौर एवं उज्जैन मे उपस्थित होकर अनुरोध किया कि-आप हमे अपने चरण कमलो मे स्थान दें। ताकि हमे स्व-पर के कल्याण का सुनहरा अवसर मिल सके ।
आपके अत्याग्रह पर परोपकारी गुरुदेव ने वि० स० २०२६ जेठ वदी ११ को हसन पालिया से निराडम्बर तरीके से दीक्षा व्रत प्रदान किया। साधना मय जीवन का परिपालन करते हुए जिनशासत प्रभावना की अभिवृद्धि मे सलग्न हैं । १३-श्री कांति मुनि जी म० सा० -
उज्जैन निवासी श्रीमान् अनोखीलालजी, श्रीमती सोहनवाई पितलिया की कुक्षि से वि० स० २० ७ वैशाख सुदी ४ (चौथ) के दिन जन्म हुआ। शैशवकाल अध्ययन एव मुनियो की सेवा में व्यतीत हआ। 'जैसा सग वैसा रग' तदनुसार गुरुप्रवर श्री कस्तूर चन्दजी म० सा० की सेवा मे काफी वर्षों तक रहे । धार्मिक सस्कार, अध्ययन एव आवश्यक अनुभव सीखते रहे। तत्पश्चात् वैराग्य भाव परिपुष्ट होने के वाद मात-पिता की अनुमति प्राप्त कर स० २०२७ माघ शुक्ला ५ रविवार की मगल प्रभात मे छायन ग्राम के सघ द्वारा भागवती दीक्षोत्सव सम्पन्न किया गया। गुरुदेव का शिष्यत्व स्वीकार किया। अव रत्नत्रय की अभिवृद्धि एव साधना मे दत्तचित्त है । उपसंहार :
"To love one that is great is almost to be great oneself” atafa HEFT BUTCHT के प्रति अनुराग करना स्वय को महान् बनाना है।
यद्यपि पवित्र पुरुपो का सारा जीवन ही गुण सुमनो से ग्रन्थित, गभित, गुम्फित एव सुप्रेरणा
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प्रथम खण्ड शिष्य-प्रशिष्य परिचय | ७३ का पवित्र प्रतीक माना गया है। जीवन का प्रत्येक कण और प्रत्येक क्षण परोपकार-महक से महकता है, सेवाधर्म से दमकता है और शील सदाचार से चमकता रहता है ।
___इसलिए एक सामान्य साधक द्वारा एक महामहिम मनस्वी के सयमी जीवन का सागोपाग एव सुष्ठुरित्या वर्णन-विश्लेपण करना असाव्य ही नहीं अपितु एक दुष्कर कार्य भी है । चूकि गुण तो इतस्तत विखरे हुए असीम हैं और लेखक की वही एक जिह्वा और वही एक लेखनी जो उस समय मे एक ही गुण का कथन व चित्रण कर पाती है ।
मैंने भी अपने भीतर मे उभरते हुए मनोभावो को वलवती प्रेरणा से प्रेरित होकर चन्द शब्दो द्वारा परम प्रतापी यमनियमनिष्ठ, जनोज्वल मणि, महामहिम गुरुप्रवर श्री प्रताप मलजी म० के ज्योतिर्मय सयमी जीवन की झिलमिलाती झांकी विद्वद् वृन्द के कमनीय कर कमलो मे अर्पित की है । पर्याप्त सामग्री अनुपलब्ध होने के कारण तथा पूरी जानकारी के अभाव मे यद्यपि जहाँ तहाँ त्रुटिया एव यत्रतत्र प्रासगिक भाव आदि छूट भी गये हैं। तथापि इस सम्यक् परिश्रम के लिये मैं अपने आपको शतवार भाग्यशाली मानता हू कि-एक यशस्वी ओजस्वी आत्मा के प्रति मुझे कुछ लिखने का सौभाग्य मिला है । जो हर एक लेखक एव वक्ताओ के लिये दुष्प्राप्य सा रहा है । इस परिश्रम की सफलता का श्रेय भी मेरे उन्ही श्रद्धय गुरु देव को है, जिन्होंने मुझे वास्तविक सावना के मगलमय, महामार्ग का दर्शन करवाया है।
जिस प्रकार गुलाव मानव के दिल-दिमाग को ताजगी एव स्फूर्ति प्रदान करता है उस प्रकार गुरु भगवत का जीवन भी भव्यात्माओ के मनमस्तिष्को मे सत्य, शिव, सुन्दरम् की शीतल मन्द सुगन्ध प्रस्फुरित करता रहेगा। अतएव कहा है कि-महापुरुषो के गुणानुवाद करना मानो अपने आप को महान् बनाना है।
लेखक का सर्वोपरि ध्येय व लक्ष्य व्यक्ति के जीवन निर्माण का है। जिसका आधार है—गुरु भगवतो का साधना मय चमकता जीवन, दमकता उपदेश, अनुभव एव इनके धार्मिक आत्मिक विचार और आचार, इन्ही मौलिक विचारो के माध्यम से ही व्यष्टि और समष्टिगत जीवन का सम्यक् सुन्दर स्वस्थ निर्माण सम्भव है।
महापुरुषो का पढ़हु चरित्र । ताते होय जीवन सु पवित्र ।
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गुरुदेव के अद्य प्रभृति चातुर्मास
व्यावर रामपुरा मन्दसौर रतलाम जावरा
२००५ २००६ २००७ २००८ २००६ २०१० २०११ २०१२ २०१३
रतलाम
इन्दौर
रतलाम
२०१४
१९८० १९८१ १९८२ १९८३ १९८४ १९८५ १९८६ १९८७ १९८८ १९८६ १९६० १९६१ १९६२ १९६३ १९९४ १९६५ १९६६ १९६७ १९६८ १९६६ २००० २००१ २००२ २००३ २००४
अहमदाबाद पालनपुर वकाणी देहली कानपुर कलकत्ता संथियां कलकत्ता कानपुर मन्दसौर पूना (बम्बई) विलेपारले रामपुरा रतलाम अजमेर उदयपुर इन्दौर बडी सादडी मन्दसौर जोधपुर मदनगज मन्दसौर वडी सादडी देवगढ डूंगला इन्दौर
२०१५ २०१६ २०१७ २०१८ २०१६ २०२० २०२१ २०२२ २०२३ २०२४ २०२५ २०२६ २०२७ २०२८ २०२६ २०३०
जावरा जलगाव हैदराबाद रतलाम दिल्ली सादड़ी (मारवाड) व्यावर जावरा शिवपुरी कानपुर मदनगज इन्दौर
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संस्मरण
१. वाणी का प्रभाव सम्वत् २००४ का चातुर्मास तपस्वी श्री छव्वालाल जी म. सा. एव गुरु प्रवर श्री प्रतापमल जी म. सा. आदि मुनिवरौ का विराट् नगर इन्दौर मे था । उन दिनो राजनैतिक क्षेत्र में भारी उग्रता छाई हुई थी । अग्रेजो की करतूतो ने अखण्ड भारत को हिंद और पाकिस्तान के रूप में विभक्त कर दिया था । एतदर्थ जन-जोवन मे पर्याप्त अस्थिरता एव भगदड मची हुई थी।
___ उन दिनो पजाब प्रान्त के काफी जैन परिवार भी अपने भावी जीवनोत्थान एव सुरक्षा की भावना से प्रेरित होकर इन्दौर शहर की ओर चले आये थे। आगत जन वन्धु सीधे जैन स्थानक मे आकर गुरुदेव के समक्ष आद्योपात घटित घटना कह सुनाने व स्थानीय कार्यकर्ताओ के समक्ष मकान, दुकान, भोजन समस्या को सामने रखते थे। उस समय मध्य प्रदेश मे राशन भी कहा था और तन मन-धन से शुभागत बन्धुओ का सम्मान-सत्कार एव सहयोग करना-करवाना भी अनिवार्य था।
विकट परिस्थिति को ध्यान में रखकर गुरु प्रवर ने अनुपम सूझ-बूझ से कार्य किया। सघसुविधा की दृष्टि से प्रारम्भिक तौर पर एक लघु योजना के माध्यम से स्थानीय कार्यकर्ताओ को मार्गदर्शन देते हुए कहा कि अभीहाल 'सेवासदन' (आयम्बिल खाता) योजना को आप सभी सर्वानुमति से कार्यान्वित करें ताकि यथाशक्ति आगत सभी जैन परिवार ज्यादा से ज्यादा लाभान्वित हो सके।
स्थानीय सघ के श्रद्धावान सदस्यगण ननुनच कुछ भी कहे विना गुरुप्रवर के अमूल्य वचनो को शिरोधार्य करते हैं । शुभ घडी पल मे सेवा सदन अर्थात् (आयबिल खाता) नामक सस्था की स्थापना हुई । आज इन्दौर का सेवा सदन मेरी दृष्टि मे राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, प्रान्तो मे यह एक पहली ठोस सस्था है जो साधर्मी सेवा के वरदान से उत्तरोत्तर प्रगतिशील एव पल्लवित-फलित होती जा रही है । जहाँ प्रति वर्ष समाज के हजारो बन्धु जन लाभान्वित होते हैं।"
इस रचनात्मक कार्य के लिए इन्दौर स्थानकवासी समाज का बच्चा-बच्चा गुरु भगवत के सामयिक कार्य कुशलता की मुक्त कठ से प्रशसा करता हुआ प्रतिवर्ष सश्रद्धा आप को याद करता है।
२. जोडने की कला गुरुदेव श्री प्रतापमल जी म. सा०, प्र० श्री हीरालाल जी म. सा. आदि मुनि मण्डल सवत् २००८ का चौमासा राजधानी दिल्ली मे बिता रहे थे। जनता उपदेशामृत से अधिक लाभान्वित हो रही थी।
उन दिनो दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के आचार्य श्री सूर्यसागर जी म० व इसी समाज के आचार्य नेमिसागर जी म० का चौमासा भी दिल्ली के उपनगर मे था । अनेकों बार गुरु प्रवर श्री के एव सूर्य सागर जी म० सा० के मयुक्त व्याख्यान हो चुके थे । एतदर्थ दिगम्बर समाज गुरुदेव के माधुर्य व्यवहार
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७६ | मुनश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ से काफी प्रभावित हो चुका था। किंतु श्री सूर्यसागर जी म० एव श्री नेमिसागर जी म० के सम्मिलित व्याख्यान व स्नेह मिलाप न हो पाया था। वस्तुत दिगम्बर समाज के अनुयायियो को जमा चाहिए वैसा सतोपानुभव नही हो रहा था। .
अवसरज्ञ प्रबुद्ध वर्ग द्वारा दोनो आचार्यों के व गुरु प्रवर के सम्मिलित प्रवचन हो, ऐमी योजना तैयार की गई। तदनुसार मुनिवरो से स्वीकृतियां प्राप्त कर रविवारीय कार्यक्रम प्रकाशित भी करना दिया गया.। -
-सहमा कुछ गई-गुजरी बाती को लेकर दोनो आनार्यों में तना-ननी वट गई । मंयुक्त व्यान्यान “योजना खटाई में जा गिरी। दोनो महा मनस्वियो को ममझावे कौन ? प्रकृतियो का उदयभाव विचित्र हुआ करता है । यदि व्यारयान शामिल नहीं हुए तो सचमुच ही कार्यकर्ताओं की एव जिन - शासन की ‘अच्छी नहीं, लगेगी ऐसा नोचकर दिगम्बर समाज के कुछ जाने-माने महानुभाव गुरुदेव श्री की सेवा में - आयेऔर सारी घटना की मूलोत्पत्ति कह सुनाई।
.! -- मुनि जी ! आप शाति के अग्रदूत हैं। वहां पधार कर हमारे दोनो आचार्यों को समझाकर पारस्परिक वैमनस्यता को खत्म करवा दीजिएगा । ताकि रविवार की विस्तृत व्या च्यान योजना सफल बन सके । हमे विश्वास है कि-आप जोडने की कला मे कुशल हैं । आपकी जुबान में पीयूष भरा, है। इस कारण वातावरण अच्छा बनेगा।
--- गुरुदेव ने आगत - दिगम्बर समाज के कार्यकर्ताओ को पूर्ण विश्वास दिया। उनके नन्न. "निवेदन पर-वहाँ पधारे । वात की वात मे दोनो आचार्यों के बीच प्रेम की गगा वहा दी । खुशी के फव्वारे फूट पडे । व्याख्यान योजना आशातीत सफल रही । इस प्रकार दिगम्बर जैन समाज मे गुरुप्रवर का शाति मिशन सफल हुआ । यत्र-तत्र सर्वत्र स्नेह सरिता वहाने वाले साधक की जय घोप से धर्मशाला का प्रागण मुखरित हो उठा। । -
-:-.--.-.-३ गुरुदेव के उत्तर ने मुझे आकर्षित किया . . .
, सम्वत् २०१० की घटना है। स्व० सती-शिरोमणि गुराणी जी श्री वालकु वर जी मसा० आदि सती वृन्द का चौमासा 'हरसूद' मध्यप्रदेश मे था । येन केन-प्रकारेण उज्जैन से मेरा भाग्य भी उन सतियो की विहार यात्रा मे माथ था। पाद यात्रा के कडवे-मीठं अनुभव करते हुए हरसूद नगर मे सती वृन्द का प्रवेश हुआ । स्थानीय सघ का अत्यधिक स्नेह देखकर मैंने भी चातुर्मास पर्यन्त वही रहना ठीक समझा । कतिपय मज्जन वृन्द मुझे अपने यहां पर रखने लिये अति उत्सुक थे और सतीजी से कहलाया .भी सही, किन्तु मेरी अन्तरात्मा. विल्कुल इन्कार पर इन्कार कर रही थी। जैसाकि:--'पहले का ना धोया कीच, फिर कीच वीच फसे". इस कहावतानुसार दलदल मे उलझना मैंने ठीक नहीं समझा। ...
___अन्तत वर्षावास पूर्ण होने आया । तव वडी महामतीजी ने फरमाया कि--रतन, चातुर्मास . पूर्ण हो रहा है, अब तुम्हे अपने भाग्य का निर्णय कर लेना चाहिए । क्या करना ? कहाँ रहना ' और : कहाँ जाना ? मानाकि तुम्हे रखने वाले साधर्मी वन्धु वहुत हैं, तथापि अपनी बुद्धि से जिस क्षेत्र मे रहने
में तुम्हारी अन्तगत्मा प्रसन्न हो नि सकोच उस मार्ग का चुनाव कर लेना चाहिए । पताका की तरह म
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द्वितीय खण्ड सस्मरण | ७७
विचारो की दुनियां मे डोल रहा था । चितन की तरगे कभी धर्म पक्ष मे तो कभी ससार पक्ष मे हिलोरें मार रही थी। एक दिन स्वप्न मे आवाज आई कि-"कही दल-दल मे मत फंसना, कठिनता से सुनहरा अवसर हाय लगा है।" वस किसी की सलाह लिये विना मैंने दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया।
उन्ही दिनो अर्थात् स० २०१० का चातुर्मास गुरुदेव श्री प्रतापमल जी म० आदि ठाणा ६ का कलकत्ते मे था । मेरे माध्यम से ही 'हरसूद-कलकत्ते' के बीच चौमासे मे पत्रो का आदान-प्रदान हुआ करता था । वस्तुत मुझे भली प्रकार मालूम था कि-इन्ही सतियो के गुरु महाराज का चौमासा कलकत्ते मे है। उत्सुकता पूर्वक यदा-कदा मैं सती मण्डल से सन्त-स्वभाव सम्बन्धित परिचय पूछ भी लिया करता था। परिचय सन्तोषजनक मिलता रहा । तब गुरुप्रवर के पवित्र चरणो मे मैंने एक पत्र लिखा।
___"मैं हुजूर की पावन सेवा मे दीक्षा लेने के लिए आना चाहता हूँ। यद्यपि प्रकृति से वाकिफ न आप हैं और न मैं हूँ। आप मेरे लिए नये और आप के लिए मैं नया हूँ। तथापि जीवन पराग की सौरभ छिपी नहीं रहती है । आपके विमल व्यक्तित्व की महत यहाँ तक व्याप्त है । मुझे तो आपका ही शिष्यत्व स्वीकार करना है । मैं मारवाड राज्य का निवामी हूँ । अतएव शीघ्र प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा मे हूँ । सघ की तरफ से उत्तर दिलाने में विलम्ब न होने पावे । क्योंकि चौमासा काल पूर्ण होने आ रहा है। फिर मैं आपको कहाँ ढूढूगा । मुझे अतिशीघ्र निज भाग्य का निर्णय करना है।
- दर्शनाभिलापी हरसूद मध्य प्रदेश
रतनचन्द कोठारी
__चातुर्माम पूर्ण होने के तीन दिन बाद एक लिफाफा मुझे मिला। जिसमे हृदय स्पर्शी निम्न भाव थे
आप खुशी-खुशी से पधारें। कलकत्ते का स्थानकवासी जैन सघ आपका भावभीना स्वागत करेगा । आपकी पवित्र भावना को शतवार साधुवाद है। आपकी सफलता के लिए शासनदेव सहयोगी - बने । कुछ शर्ते निम्न प्रकार हैं। उन्हें शान्त दिमाग मे विचार कर एव अच्छी तरह पढकर फिर आगे कदम रखें
(१) किसी प्रकार का जीवन मे लोभ-लालच न हो, - (२) जीवन मे अस्थिरता एव आकुल-व्याकुलता न हो।
(३) किसी तरह की उदरस्थ धूर्तता- ठगाई-पाखण्डपना न हो।
(४) एव पारिवारिक विघ्न-बाधा भी न हो, जिसके कारण बार-बार आपको जाने-आने की क्रिया करनी पडे, तो कृपया आप आने का कष्ट न करें। वही साधु-समुदाय बहुत हैं। वास्तविक मत्यता एव अन्तरात्मा की प्रौढ मजबूती के लिए सघ के द्वार सदैव खुले हैं। आप अवश्य कलकत्ते पधारें । अध्ययन करके अपने जीवन को खुव चमकावें । मुनि मण्डल ने सतीवृन्द को सुख-सन्देश एव आपको धर्म मदेश फरमाया है।
भवदीय कार्तिक शुक्ला ७,
मार्फत-श्री श्वे० स्था० जैन सघ . २७, पोलाक स्ट्रीट कलकत्ता
प० किशनलाल भण्डारी
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७८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
उपर्युक्त उद्गारो को पढकर मेरा मन मयूर खुशी के मारे नाच उठा मुझे आशातीत सतोप हुआ। जैसा कि कहा है-"दुर्लभा गुररवोलोके, शिप्यचित्तापहारका' अर्थात् ऐसे निर्लोभी गुरु ही वास्तव मे स्व-पर का कल्याण करने में समर्थ होते है। उन्ही का साहचर्य पाकर शिप्य का शिप्यत्व दिन दुगुना फलता-फूलता है । वस मैंने एक महान मनोरथ की सिद्धि के लिये कलकत्ते की ओर प्रयाण कर दिया।
४ सवल प्रेरक मम्वत् २०१६ का वर्षावास विलेपारले (वम्बई) मे था । चातुर्मास प्रारम्भ होते ही मैंने गुरुदेव श्री की प्रेरणा से ही हिन्दी, मस्कृत, प्राकृत परीक्षोपयोगी अध्ययन चालू किया था। "काव्य सेवा विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्" तदनुसार श्रावण एव भादवामास रत्न-त्रय की सवृद्धि के रूप मे बीता। स्थानीय सघ मे आशातीत धर्म प्रभावना हुई और हो रही थी।
आमोज का महीना चल रहा था। पठन-पाठन सुचारु रूप से गतिशील था। परीक्षोचित तीनो केन्द्र अर्थात्-हिन्दी रत्न, सस्कृत-विशारद, एव सिद्धान्त प्रभाकर के केन्द्र अनुकूलतानुसार पृथकपृथक कॉलेजो मे चुनकर आवेदन पत्र भी भर दिये गये थे।
सहसा मेरे पारिवारिक जनो की तरफ से उन्ही दिनो हृदय-विदारक विघ्न आ खड़ा हुआ। विघ्न भी वववत कठोर एव लोमहर्पक था। साधारण साधु तो क्या, वडे-वडे गुरु-महत भी गड़बडा उठते हैं । वात ऐसी बनी कि जब मैंने (रमेश मुनि) दीक्षा व्रत स्वीकार किये थे, तव निश्चय नयका आधार लेकर गुरुदेव एव झरिया श्री सघ आदि सभी को मैंने एक ही उत्तर दिया था कि-"समारी पक्ष में मेरे कोई नही है" तभी सघ एव गुरुदेव ने मुझे दीक्षा व्रत प्रदान कर कृत-कृत्य बनाया था।
वस्तुत कुछ वर्षों के बाद छिपी हुई मेरी वाते धीरे-धीरे खुल पडी । पारिवारिक जनो को मेरा विश्वसनीय पता लगते ही (विलेपारले वम्बई) वहां आ खडे हुए। पुन ससार मे मुझे ले जाने के लिये वे लोग तन तोडकर तैयारी मे थे । अतएव वातावरण काफी दूपित हो चुका था। अशात वातावरण के कारण अध्ययन क्रम वही का वहीं रुक सा गया । परीक्षोपयोगी उमगोल्लास हवा हो चुका था।
ऐसी परिस्थिति के अन्तर्गत मैंने गुरुदेव से कहा-अब मुझे कोई भी परीक्षा नही देना है चकि दिन प्रतिदिन वातावरण विपाक्त वनता जा रहा है। नित्य नई नई बातें खडी हो रही हैं। इस कारण अध्ययन मे विल्कुल चित्त नही लग रहा है । पता नही भावी गर्भ मे क्या छिपा है ?
___ मेरे निराशा भरे उद्गारो को सुनकर गुरुदेव कुछ उदासीनाकृति मे वोले-वत्स | परीक्षा काल सन्निकट आ रहा है, अध्ययन भी अच्छा हुआ है। सात-सात दिनो के अन्तर मे तीनो परीक्षाएं पूर्ण हो जायेगी । घबराना नही चाहिए । पारिवारिक समस्या को सुलझाने मे व उन्हे समझाने मे मैं और सकल सघ यथाशक्ति प्रयत्नशील हैं। क्या तुम्हे पता नही ? "होती परीक्षा ताप मे ही स्वर्ण के सम शुर की" अर्थात् कमोटी माधक जीवन की ही हुआ करती है। क्या दिवाकर जी महाराज सा० एव पूज्य प्रवर श्री खूबचन्द जी महाराज पर मुसीवते नही आई ? यदि तुम अपने साधना मार्ग मे मजबूत हो तो कोई भी शक्ति तुम्हे डिगा नहीं सकती । इसलिए तुम विल्कुल हताश न बनो । पुस्तकें खोल कर देखो। मिर पर मडगया हुआ संकट शात शीतल समीर के झोको से स्वत विलीन हो जायगा ।
गुरुदेव के शुभाशीर्वाद से वैमा ही हुआ। तीनो परीक्षा विघ्न रहित पूर्ण हुई । परिणाम भी अच्छे उपलब्ध हुए। विघ्न-विघ्न के ठिकाने पहुंचा। गुरुदेव की सवल प्रेरणा ने मेरे मन मस्तिष्क में ऐसी चेतना फू की जो अद्यावधि वही चेतना मुझे प्रतिपल प्रेरित कर रही है।
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द्वितीय खण्ड संस्मरण | ७६
५ क्या तुम्हे डर नहीं? गुरुदेव आदि सतवृद उत्तर प्रदेश को पार कर विहार प्रात के बीचो-बीच होते हुए पधार रहे थे। विहारी जनता यद्यपि भद्र एव सरलमना अवश्य है किन्तु धर्म एव सस्कृति के प्रति अज्ञ भी काफी है। ढोग पाखण्ड एव अध-विश्वास मानव के मन मन्दिर मे गहरी जड जमा वैठा है । यही कारण है कि अनार्य संस्कृति की तरह विहार प्रात मे भी दया धर्म की हीनता एव मद्य मास का प्रचार अधिक मात्रा मे दृष्टिगोचर होता है ।।
जैसा कि मुनिवृ द चलते हुए 'वारहचट्टी' नामक गाव की सड़क पर से गुजर रहे थे किवही अर्थात् उसी सड़क के किनारे पर ही एक वचिक बकरे की बात करने की तैयारी मे था । मुनि मण्डल अब विल्कुल उसके निकट आ पहुंचे थे। इस तरह दयनीय दृश्य को देखकर गुरु प्रवर आदि का हृदय द्रवित हो उठा । एकदम जोशीली ललकार मे वोले-जरा ठहरो क्यो यह अधर्म कृत्य कर रहा है? क्या किसी अनुशासक का तुम्हें डर नही है ? मानवी परिधान मे दानवीय कुकृत्य, और वह भी राजमार्ग पर । जरा तुम्हें शर्म नही । मूक प्राणियो की इस तरह अपने स्वार्थों के लिए हत्या कर क्यो मानवता को कलकित कर रहे हो।
__ ओज पूर्ण आवाज को सुनकर उस वधिक के हाथ थर-थर काप उठे। कपोत की तरह गिडगिडाने व फडफडाने लगा । छुरी हाथो से छूट पड़ी । बकरा भी हाथो से मुक्ति पा मुनियो के चरणो मे आ खडा हुआ । हो हल्ले के कारण अव खासी भीड जमा हो चुकी थी । जन कोलाहल को सुनकर वधिक का स्वामी मकान मे से बाहर आया । देखता है-पांच छ-श्वेत परिवान मे महात्मा एव बीसो अन्य न नारी चारो ओर खडे हैं।
___ महात्मा जी । हमे क्षमा करें। ऐसा कार्य सडक पर नही करें' आज दिन तक ऐसी नेक सलाह देने वाले हमे आप जैसे कोई नही मिले।
अरे । तुम मानव बने हो और पेट-कल के लिए हमेशा मूक प्राणियो की हत्या | क्या दूसरा घधा रुजगार नही है ? तुम्हारे जैसे सपूतो से ही भारत माता पीडित है एव प्रकृति भी यदा-कदा प्रलय मचा रही है।
वह कापता हुआ वोला-आप भगवान तुल्य हैं । इतना कोप न करें। मैंने वकरो की बहुत हत्या की और करवाई है। अव मैं कसम खा कर कहता हूं कि--यह धघा छोड दूंगा। इसलिए आप मुझे शाप देकर नही जावें, वरन हम खाक हो जायेंगे। यह बकरा आप की शरण में आ चुका है। इस कारण इसे अमर बनाकर गाव मे छोड देता हूँ। अथवा आप भले साथ ले जावें । मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
इस प्रकार उस बकरे को अभयप्रदान कर मुनिवृ द ने कदम आगे बढ़ाये ।
६ हम न चोर न लुटेरे हैं डामर की सुदूर लम्वी सडक पर गुरुदेव आदि मुनि सघ पादयात्रा मे निमग्न थे । विहार प्रात मे शाकाहारी वस्तियां कही-कही पर मिलती हैं। और कही पर तो विल्कुल शाकाहारी का नामोनिशान भी नही । लगभग दस मील जितना मार्ग तय करने के पश्चात् साधकगण एक नन्हे से गांव में
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२० । मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ जा पहुँचे थे । उम गांव के निकट एक थाना था। थाना इसलिए था कि समीपस्थ वन विभाग में से कोई लकडियो की तस्करी नही कर बैठे । इस कारण इन्सपेक्टर और चार पुलिम मैन रहते थे।
तपस्वी श्री वसन्तीलालजी म. सा. के उपवास का पारणा था। अतएव मुनि श्री शाकाहारी परिवार की पूछ-नाछ मे निमग्न थे । इतने मे तो थानेदार को मालूम हुआ कि श्वेत पोशाक मे पाच छ चोर लुटेरे गाँव की एक पाठशाला मे चुपके से ठहरे हुए हैं। खवर सुनते ही तन्क्षण उसने पुलिस को भेजा कि जाओ | उन श्वेत पोषाक वालो को थाने मे ले आओ।
पुलिस—आपको थानेदार साहव बुला रहे हैं । गुरु-किसलिए? पुलिस-यह तो मुझे पता नहीं।
गुरु-तपस्वी जी | पात्र लेकर जाओ । सभव हैं थानेदार शाकाहारी अथवा जैन होंगे । जो रूखा-सूखा असण मिल जाय, ले आओ।"
आज्ञानुसार तपस्वी जी वहां पहुंचे । न कोई आदर सत्कार और न मधुर वाणी का उपहार था । अपितु भडक कर वोला-तुम कौन हो ? किमलिए मुह पर कपडा बांध रखे हो ? वैठो यहाँ, अपनी सारी रिपोर्ट लिखाओ वरन् जेल में ठूस दिये जाओगे । दुनियाँ की आंखो मे धूल झोक कर डाका डालते हो।
____ तपस्वी-शात मुस्कान मे-क्या आपका भापण पूरा हुआ ? प्रथम तो आपको वोलने मे जरा भी विवेक नहीं है । मैं जैन श्रमण भगवान महावीर का शिष्य हूँ। शायद आप नशे मे अन्ट-सट वकवाद कर गये। ऐमा मुझे महसूस हुआ। हम न चोर और न डकैत हैं, हां, यदि मुझे मालूम होती कि आप इन्क्वारी के लिए बुला रहे है, तो नि सन्देह मेरे गुरु जी यहाँ मुझे कदापि नही भेजते । आप को ही वहाँ जाना पड़ता।
वस्तुस्थिति का परिज्ञान होने पर थानेदार साहब का टम्प्रेचर कम हुआ। शीघ्र कुर्सी से उठकर करवद्ध होकर बोला-आप आज कहां से आ रहे हैं और कहां जा रहे है ? यहां तो कोई भी जैन नहीं है । अक्सर सभी मासाहरी रहते हैं ।
तपस्वी हमारा मुनि सघ पार्श्वनाथ हिल्स होता हुआ कलकत्ते की तरफ धर्म प्रचार के लिए जा रहा है । हम तो आपको शाकाहारी समझकर आहार के लिए आये हैं । लेकिन यहाँ तो 'ऊंची दुकान फीका पकवान' की तरह विपरीत वातें मिली । अस्तु,
थानेदार–मन ही मन खेदित होता हुआ, उफ । जैन साघु आशा लेकर आये और खाली जावे । मेरी खुराक गदी है । आप मेरे यहाँ से फल ले पधारें।
हम श्रमण, सवीज वाले फल लिया नहीं करते हैं । आप तो मेरे साथ चलकर मेरे गुरुदेव के दर्शन कर वही कुछ भेट अर्पण करें ।
गुरु प्रवर की सेवा में उपस्थित होकर अपराव की क्षमा मागता हुआ वोला-गुरु जी । मैं क्या मेंट करूं आपको ?
बम, आज मे आप मासाहार का त्याग कर शाकाहार की प्रतिज्ञा स्वीकार करें। हमारे लिये यह अमूल्य भेंट होगी।
तदनुसार थानेदार माहव प्रतिज्ञा स्वीकार कर घर की ओर लोटते हैं ।
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द्वितीय खण्ड सस्मरण | ८१
- ७ पैसा पास है क्या ? पूर्व भारत मे मुनियो का परिभ्रमण हो रहा था। लगभग ११ मील का विहार करने के पश्चात् एक छोटे ग्राम में गुरु प्रवर आदि ने विश्राम लिया था। वह ग्राम आशा के विपरीत था। पेट खुराक माग रहा था । बात भी ठीक थी-विना खाना-दाना दिये चले भी तो कैसे ? मानव काम तो कराले और दाम न चुकावे, तो निसदेह साहूकार और कर्मचारी मे ठने विना नही रहेगी। इसी प्रकार पेट और पैरो को खुराक नही मिलने पर सुस्ती आना भी स्वाभाविक है। कवीर की भापा मे
कवीर काया कूतरी करे भजन मे भग ।
... ठण्डा वासी डालके करिये भजन निशक ।। जैन श्रमण का तपोमय जीवन कचन-कामिनी से सर्वथा निर्लेप रहा है । इसलिए विश्व ने जैन साधु के त्याग की भूरि-भूरि प्रशसा की है । मार्गवर्ती एक यमुना पार निवासी अग्रवाल भाई की दुकान थी। वहां गुरु प्रवर ने लघु मुनि को भेजा कि-सत्त अथवा भुने हुए चने हो तो कुछ ले आओ।
मुनि पात्र लेकर वहाँ पहुँचे । भक्त | क्या तुम्हारे यहाँ भोजन वन गया ? अभी नही, मैं एक वजे खाता हूँ-उत्तर मिला।
मुनि खाली लौट आये । लगभग एक बजे के पश्चात् फिर वहां पहुंचे। सत की वृत्ति श्वान जैसी मानी है । उसने उत्तर दिया मैंने खा लिया है, अब कुछ नही वचा । शाम को वनाऊँगा। वह भी रात मे, यदि तुम रात को खाते हो तो भोजन यहाँ से ले जाना ।
__ अच्छा भक्त | हम रात मे तो नही खाते । इस थैले मे चून जैसा यह क्या है ?
यह सत्तु है । जो गेहूँ और चने भूनकर बनाया जाता है इधर की जनता नमक मिर्च और पानी के साथ इसको खा कर दिन विताती है ।
हां, यदि तुम्हारी भावना हो तो दो चार मुट्ठी हमारे पात्र मे वहा दो। दुकानदार---पैसे लाये हो क्या ? मुनि--पैसे तो हम घर छोड आये हैं। अब हम नही रखते हैं।
इस प्रकार माल मुफ्त मे मैं लुटाता रहूँ तो मेरी पूंजी ही सफाचट हो जाय । देश छोडकर यहाँ कमाने के लिए आया हूँ न कि खोने के लिये ।
मुनि प्रवर समता भरी मुद्रा में लौट आये । अनुभव के कोष मे यह अध्याय भी जुड गया।
८ मै क्या भेंट करू? मुनि मण्डल टाटानगर से विहार कर मार्गवर्ती "पिंडरा जाडा' ग्राम के डाक-वगले मे कुछ घटो के लिये विश्राम कर रहे थे । उधर राची से एक कार सरसर करती आई और वही रुक गई । उस कार मे सपत्नी एक अग्रेज अधिकारी था । प्रोग्राम से मालूम हुआ कि उनका भी उसी डाकबगले मे भोजन आदि कार्य निपटने का था।
उस अग्रेज दम्पत्ति ने जैन श्रमणो को प्रथम वार ही देखा था । मुख पर वस्त्रिका देखकर
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८२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
उन्होने देखा कि यह कोई अस्पताल है। ऑपरेशन के लिये डाक्टरो ने मुख पर श्वेत वम्य वांधा है। इस कारण आगतु महाशय असमजस मे अवश्य पडे । आश्चर्यान्वित होकर मुनियो से पूछा कि-This is a hospital अर्थात् क्या यह अस्पताल है ?
प्रत्युत्तर मे - नहीं, यह डाक वगला है। "तो आप सभी ने मुंह पर वस्त्र क्यो वाध रखे है ?"
तव मुनिवृन्द द्वारा सक्षिप्त जैन मुनि परिचय नामक पुस्तक उन्हे दी गई। तत्पचात् जैन श्रमण, साधना एव मुखवस्त्रिका सम्बन्धित विस्तृत जानकारी से उन्हे अवगत कराया। सुनकर पतिपत्नी दोनो काफी प्रभावित हुए । करबद्ध होकर त्यागमय जीवन का पुन पुन अभिनन्दन करने लगे।
अग्रेज महिला-आप मे से बडे कौन हैं ? मुनि-आप अर्थात् श्री प्रतापमल जी महाराज सा० । अग्रेज महिला-आप मेरा हाथ देखिये । मेरे हाथ मे सन्तान का योग है कि नही? गुरुदेव-आशा भरी वाणी मे, हिन्दी भापा आप अच्छी तरह समझ जावेगे ?
क्यो नही ? मेरा व साहेव का सारा जीवन ही हिन्दी मे वीता है। मैं तो भारत को अपना ही वतन मानती हूँ। इसलिए यहाँ की वेश-भूपा-भाषा से मुझे अत्यधिक प्यार है ।
आपकी दैनिक खुराक क्या है ? गुरुदेव ने प्रश्न किया। गुरुजी | मैं आप से झूठ नहीं बोलूगी । मेरी खुराक डव्वल रोटी और मुर्गी के अण्डे आदि । गुरुदेव-आप समस्त ससार को ईसामसीह का बनाया हुआ मानते है कि नहीं? "हाँ, गुरुजी।"
तो अण्डे भी तो उसी ईसा की सन्तान हुई। क्योकि सजीव है, जिसमे प्राणो का सहभाव हैं । आप बुरा न माने, ईसा भगवान् की सन्तान अर्थात् अण्डो को खा जाते हैं। इस कारण प्रकृति का प्रकोप आप पर है । सन्तान रुकावट का खास कारण मेरी समझ मे यही होना चाहिए । इसका इलाज (प्रतिरोध) है, उन्हे खाना छोड दीजिए रुकावट दूर हो जायगी।
अच्छा | अच्छा | मैं समझ गई, जब भगवान की सन्तान मुर्गी के अण्डो को खाती हूँ तव भगवान मुझे सन्तान कैसे देंगे ? मैंने कई स्थानो पर अपना हाथ दिखकर सैकडो रुपये खर्च कर दिये । लेकिन आप जैसा सही-साफ स्पष्ट मुझे किसो ने भी नही कहा । बस, अब मैं किसी को अपना हाथ नही बताऊँगी।
गुरुदेव के चरणो मे मनीवंग रखकर बोली-इसमे पाच सौ रुपये हैं। इन्हे आप स्वीकार करें, आगे के लिए आप मुझे अपना पूरा पता लिखा दें । मैं साहब से पाच सौ रुपये और भिजवा दूंगी।
"नही, बहिन । जैन साधु रुपयो की भेंट नहीं लिया करते हैं।" तो आपका दैनिक खर्च कैसे चलता है ? क्या कोई जायदाद जमीन की इन्कम है ?
नही वहिन जी । जैन भिक्षु कचन-कामिनी के सर्वथा त्यागी होते हैं। अब हमारे लिये सारी सृष्टि हमारा परिवार है। नियमानुसार हमारी सर्व आवश्यकता जैन समाज पूर्ण करती है। शाकाहारी परिवारो मे हम भिक्षा वृत्ति करते हैं।
फिर मैं क्या भेंट करूं ? - अग्रेज महिला वोलो ।
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द्वितीय-खण्ड , सस्मरण | ८३ आप अण्डे खाना सदा-सदा के लिये छोड दीजिए । यही हमारे लिये वहुत वडी भेंट होगी।
अच्छा गुरुजी । मैं अकेली ही नही, मेरे साहब भी, हम दोनो जीवन भर के लिये अब हम अण्डे नहीं खायेंगे । आप हमे आशीर्वाद प्रदान करे ।
___अपना पूरा पता देकर, हाथो को जोडकर मानवता के पुजारी दोनो आगे बढ जाते है।
९ सरलता भरा उत्तर गुरु प्रवर कलकत्ते का वर्षावास विता रहे थे । वहां चारो सम्प्रदाय के हजारो जैन परिवार निवास करते हैं । अक्सर मुनि-महासतीजी के चातुर्मास भी हुआ करते हैं । व्याख्यान-वाणी के विपय मे वहां के मुमुक्षु काफी रसिक रहे हैं । गुरुदेव एव प्रवर्तक प्रवर श्री हीरालाल जी महाराज सा० के हृदयस्पर्शी तात्विक व्याख्यानो को सुनने के लिये स्थानकवासी, मूर्तिपूजक एव तेरह पथी वन्यु काफी तादाद मे उपस्थित हुआ करते थे।
एक दिन गुरुदेव रतलाम श्री मघ के पत्र का उत्तर लिखवा रहे ये । उस वक्त एक तेरा पथी वन्यु दर्शनाथ उपस्थित हुआ । कुछ-कुछ शिष्टाचार कर समीप ही बैठ गया । लेखन कार्य पूरा हुआ कि-आगतुक वन्धु बोला
___मत्यएण वन्दामि | साधु-साध्वियो को पत्र लिखना कल्पता है क्या ? और किस शास्त्र के आधार पर आप यह क्रिया करवाते है ?"
___ गुरुदेव-पत्र लिखाने का विधेयात्मक आदेश किसी भी जैन आगम मे नही है । अपितु कल्पसूत्र आदि मे निषेधात्मक वर्णन अवश्य मिलता है ।
फिर आप क्यो लिखाते है ? उस भाई ने पुन प्रश्न किया।
यह युगीन परिपाटी है । अधिकारी मुनि जैसे-आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, गुरु-गच्छाधिपति एव माधु-साध्वी-सघो को सूचना देना कभी-कभी अत्यावश्यक हो जाता है । आज के युग मे यह जरूरी है अन्यथा सैंकडो कोसो की दूरी पर बैठे हुए अन्य मुनि एव सघो के मन-मस्तिष्क मे हमारे प्रात कई तरह की गल्त भ्रान्तियाँ होना स्वाभाविक है । वस्तुत उन्हे ध्यान रहे कि अमुक सघाडा अमुक क्षेत्र मे अमुक जन-कल्याण का कार्य कर रहे हैं । समाचार पत्रो मे भी इसी भावना से प्रेरित होकर समाचार लिखाय जात है। केवल समाज व्यवस्था की दृष्टि से पत्र लिखाने का प्रयोजन रहा हुआ है।
सरल-स्पष्ट समाधान को पाकर पृच्छक काफी प्रभावित होकर वोला-मत्थएण वन्दामि | इस विषय में हमारे सन्तो को जब हम पूछते हैं तो गोल-माल माया भरा उत्तर दे देते हैं । आप ने कम से कम साफ तो फरम्ग दिया कि-आगम आदेश नहीं देते हैं । केवल इस प्रक्रिया में व्यवस्था की दृप्टि निहित है । अव वह नित्य प्रति सन्त दर्शनहेतु स्थानक मे आने-जाने लगा।
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८४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
१० जैसे को तैसा उत्तर उन दिनो गुरुप्रवर एवं प्रवर्तक श्री हीरालाल जी महाराज कलकत्ते मे जैन शासन की प्रभावना वढा रहे थे । सैकडो हजारो नर-नारियो की उपस्थिति | जहां-तहां व्याख्यानो की धूम | वास्तव मे शासन प्रभावना मे चार चाँद लगा रहे थे। कई मन्दिरमार्गी एव तेरापथी भाई भी प्रश्नोत्तर-समाधान की प्रभावना को लेकर यदा-कदा उपस्थित हुआ करते थे।
एक तेरापथी भाई ने प्रश्न किया-"आप किस टोले के सत है ?"
हम श्रमण भगवान महावीर के परम्परागत आचार्य प्रवर श्री आत्मागमजी महाराज, उपाचार्य श्री गणेशीलाल जी महाराज एव गुरुदेव श्री कस्तूरचद जी महाराज के अनुगामी सत है।
- मेरा अभिप्राय भूतकालीन सम्प्रदाय से है अर्थात् आप किम सम्प्रदाय के है ? उस भाई ने पुन प्रश्न दुहराया।
गुरु प्रवर पृच्छक की खण्डनात्मक भावना को भाप गये थे। जान-बूझ कर बोले-हम हैं महामहिम तीरण-तारण जहाज, विश्व वदनीय, आचार्य प्रवर श्री सहनमल जी महाराज की सम्प्रदाय के ।
मन को मसोडता हुआ वोला-हमारी ममाज में से जो निकाले हुए थे, क्या ये वही हैं ?
हाँ, ये वही हैं । किन्तु निकाले हुए नही । स्वय मत्य तथ्य को समझकर निकले हैं । न कि निकाले गये।
उपहास के रूप-वाह | वाह । हमारे मे से अलग किये हुए साधक को आप के सघ ने आचार्य पद पर आसीन कर दिया । कितनी वडी वात | क्या वे आचार्य पद के योग्य बन गये ?
क्यो नही ? वे सर्वथा सुयोग्य, सवल अनुशासक के साथ-साथ विद्वान एव सफल व्याख्याकार है। किन्तु मजे की बात तो यह है कि- स्थानकवासी समाज मे से बहिष्कृत साधक आप की समाज के सर्वेसर्वा एव जन्मदाता बने हैं। भक्ति के वश जिनको आप कभी-कभी पच्चीसवें तीर्थकर भी कह देते हैं । कहिए यह कार्य वडा हुआ कि हमारा ?"
उचित उत्तर सुनकर वह वन्धु चलता बना और मन ही मन समझ भी गया कि यह भिक्षुगणी पर करारा व्यग्य है।
११ भूले पथिक को राह गुरुदेव के चारु चरण उत्तर प्रदेश की ओर मुड गये थे। सड़क के किनारे से कुछ ही दूर पर एक घास की कुटिया मिली । जिसमे प्रज्ञाचक्षु एक भगवा वेशधारी महात्मा व उन्ही के एक युवक शिष्य का वास था। उसी मार्ग से हम जा रहे थे। उस समय दोनो महात्माओं मे वाकयुद्ध चल रहा था। हमारे पर भी वही रुक गये । शिष्य गुरु से कह रहा था-अव मैं आपके पास रहना नही चाहता हूँ। मुझे दुनियाँ देखनी है । आप मुझे ससार मे जाने दीजिए।
गुरु कह रहे थे-वत्स ! मैं अन्धा हूँ। मेरी सेवा कौन करेगा ? सन्यासपना मिट्टी में मिल जायेगा । मैंने तुझे छुटपन से पाला पोपा-पढाया और हुशियार किया । अव तू मुझे निराधार कर भागना चाहता है ? मैं हर्गिज तुझे नहीं जाने दूंगा । उसके उपरात भी नही मानोगे तो मेरे गले मे फासा डालकर फिर भले
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"द्वितीय खण्ड सस्मरण | ८५
- गुरु प्रवर के कर्ण-कुहरो मे उस शब्दावली की स्पष्टत झन-झनाहट आ पहुंची थी। बस. सडक के किनारे अपने उपकरणो को रखकर विना बुलाये गुरुदेव वहां पहुंचकर वोले-महात्मा जी । आप आनन्द मे हैं ?
___"कौन आप ?" प्रज्ञाचक्ष् जी बोले ।
मैं जैन भिक्षु हूँ। मेरे साथ दो मेरे अन्तेवासी है। हम कानपुर की ओर जा रहे हैं । यद्यपि आप दोनो के बीच मुझे नही आना था। फिर भी मैं आवाज सुनकर आ गया हूँ। मेरे आने से आपको दिक्कत तो नही ?"
नही, नही, हम आपका स्वागत करते हैं जैन महात्मा है कहाँ ? विराजिए ।
गुरुदेव-पीयूप भरी वाणी मेवोले-आप दोनो मे कुछ-कुछ विवाद की स्थिति हो रही है । ऐसा मैंने सुना है। क्या सत्य है ?
हाँ, महात्मा जी । प्रज्ञा चक्षु जी वोले—मेरा चेला यह मुझे छोडकर ससार मे जाना चाहता है । आप ही फरमा, मेरा क्या होगा । आप मेरे शिष्य को समझावें ।
गुरु महाराज-"तुम इनके शिष्य हो ?" "हाँ, गुरु जी।" "क्या तुम्हारी भावना दुनियादारी में जाने की है ?" लज्जावशात् उसकी ओर से कोई उत्तर नही था । गुरु-"मैं कुछ भी कहूँ तुम बुरा नही मानोगे ?" "नही, गुरुजी | आप भगवान हैं।'
माधक | ससार मे पुन प्रवेश करने का मतलव हुआ कि-तुम वमन की हुई वस्तु को पशुपक्षी की तरह पुन चाटना चाहते हो ? क्या यह शर्म की बात नहीं है ? क्या साधु जीवन के लिए कलक नहो ? जरा ठन्डे दिमाग से सोचो, उतावले न वनो । मोहान्ध होकर आत्मा को नरक के गर्त मे न धकेलो । गुरु-सेवा भाग्यवान को मिलती है । शीघ्र हा अथवा ना का उत्तर देओ । मुझे अभी आगे बढना है।"
ओजपूर्ण वाणी को सुनकर वह भूला पथिक काफी शर्मिन्दा हुआ। नीचे माथा नमाकर वोला--आपने मेरा अज्ञान हटा दिया। मैं कर्त्तव्य से भ्रष्ट हो रहा था। आप ने मुझे बचाया। अब मैं गुरु चरण सेवा छोडकर कही नही जाऊंगा।।
गुरु प्रवर की महती कृपा से दोनो महात्माओ के अन्तर्हृदय मे स्नेह की सुरसरी फूट पडी। समस्या सुलझाने वाले गुरुदेव के पावन चरणो मे दोनो महात्मा सश्रद्धा झुक चुके थे। प्रज्ञाचक्ष महात्मा जी को भी शिक्षा भरी दो बातें कह कर गुरुदेव ने आगे की राह ली।
१२ विरोध भी विनोद गुरुदेव आदि मुनिमण्डल लखनऊ पधारे हुए थे । लखनऊ क्षेत्र मे श्री श्वेताम्बर मन्दिरमार्गी सम्प्रदाय बन्धुओ के अधिक परिवार निवास करते हैं । स्थानकवासी मुनियो का शुभागमन सुनकर ये जन काफी हर्पित एव सश्रद्धा स्वागत समारोह मे सम्मिलित भी हुए। यह दृश्य वहाँ के यतिजी को सहन
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८६ | मुनि श्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ नही हुआ। वह ईयां वशात् जलकर खाक हो गये । कही स्थानकवासी साधुओ का पैर जम गया तो मेरी जमी-जमाई सारी दुकानदारी उठ जायगी इस मलीन भावावेश मे वह गुप्त ढग से उनके घरो मे मुनियो के प्रति विप-वमन-मिथ्या प्रचार करने लगे।
"ये ढढिये वहुत खराव होते हैं । अपने भगवान की निन्दा करते हैं । मुह वाधकर जीवो की हिंसा करते हैं । इसलिए इनके व्याख्यानो मे व सेवा मे कोई नही जावे । वरन् अपना धर्म भ्रष्ट हो जायगा।"
धर्मशाला मे मुनिवृन्द के व्याख्यानो का वढिया रग जम चुका था। श्रोतागण रुचिपूर्वक वाणी सुनते और शब्दो का भी पूरा-पूरा ध्यान रखते थे कि कही हमारी आम्नायाओ का खण्डन तो नहीं कर रहे हैं । इस प्रकार व्याख्यान सप्ताह शान्त वातावरण व उत्तरोत्तर वृद्धि मे व्यतीत हो जाने के बाद कुछ कार्यकर्ता सदस्यगण गुरुदेव श्री की सेवा में उपस्थित होकर वोलेमहाराज | हमारे दिल-दिमाग मे आपके प्रति कुछ मिथ्या भ्रमना है । उन्हे दूर कीजिए।
को पत्थर कहकर अवहेलना करते हैं ? गुरुदेव-कौन कहता है ? हम भगवान की प्रतिमा को आप की तरह ही मूर्ति मानते हैं । केवल द्रव्य पूजा, व्यर्थ का आडम्बर, आरम्भ जिससे कर्मों का बन्धन और जोवो की विराधना होती हो, ऐसी क्रियाओ का हम क्या समूचा जैन दर्शन ही निषेध करता है । कहिये क्या आप आडम्बर को पसन्द करते हैं?
नही महाराज | जिन क्रियाओ से कर्म खेती निपजती हो, हम भी उन क्रियाओ को पसन्द नही करते हैं । आप के व्याख्यानो से हमारा समाज काफी प्रभावित हुआ है । हमे राग-द्वेप की बाते विल्कुल नहीं मिली। हमारी इच्छा है कि आप चातुर्मास पर्यन्त यही विराजें। हमे काफी मार्ग दर्शन मिलेगा। हमारे यति जी ने तो कुछ भ्रमना अवश्य भरी थी किन्तु आप की मधुर वाणी- प्रभाव से भ्रमजाल स्वत ही टूट गया है।
गुरु महाराज-सुनिए, हम श्रमण कहलाते हैं । कोई हमारा अपमान करे कि सम्मान । विरोध कि विनोद । हमे तनिक भी दुख नही होता। क्योकि हम विरोध को भी विनोद समझते हैं और सत्य का सदैव विरोध होता आया है।
__ आगन्तुक महाशयगण अपूर्व क्षमता, सरलता पाकर गुरुदेव के चरणो मे झुक पडे । अन्ततोगत्त्वा उन यतिजी को भी लज्जित होना पडा । जनाग्रह पर एक मास पर्यन्त मुनिवृन्द को वहाँ रुकना पडा। आशातीत शामन प्रभावना सम्पन्न हई।
१३ भ्रान्ति निवारण यह घटना सन् २०१४ की है। आगरा में विराजित पूज्य श्री पृथ्वी चन्द्र जी महाराज सा० आदि मुनि मण्डल के दर्शन कर मयशिप्यमडली के गुरुप्रवर धर्म प्रचार करते हुए कोटा राजस्थान की तरफ पधार रहे थे । बीच-बीच मे ईसाममीह के धर्मानुयायी एव इसाई प्रचारको की बहुलता परिलक्षित हो रही थी। प्राय इमाई धर्म प्रचारक चालाक हुआ करते हैं । वे उजाड एव पिछडी हुई पर्वतीय वस्तियो
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द्वितीय खण्ड . संस्मरण | ८७ मे मानव-समाज को बरगलाकर धर्म-परिवर्तन कराया करते है। भारत मे करोडो हिन्दुओ को ईसाई इस क्रमानुसार से बनाये गये हैं।
मार्ग के सन्निकट एक ईसाई स्कूल के वरामदे मे कुछ क्षणो के लिए मुनि मण्डल ने विश्राम किया था। भीतरी-भाग मे ईसाई अध्यापक बना प्रचारक भारतीय वालको को पढा रहे थे। पढाई के तौर-तरीके अजव व कापट्य पूण थे। भगवान राम और कृष्ण के प्रति उन भोले-भाले वालको के दिलदिमाग मे घृणा का हलाहल टू सते हुए वे अध्यापक महोदय हिन्दु-धर्म की निकृष्टता और ईसाई धर्म की उत्कृष्टता की सिद्धि निम्न प्रकार से कर रहे थे
काले तस्ते 'Black Board' पर राम-कृष्ण एव ईसामसीह के चित्र अकित थे। भरसक प्रयत्न पूर्वक उन वालको को समझा रहे थे कि-देखो वालको । हिन्दू अवतार श्रीकृष्ण मक्खन की चोरी
और राम धनुष्य-वाण लेकर शिकार पर तुले हुए हैं। दूसरी ओर भगवान ईसामसीह का चित्र है । जो शात-प्रेम और क्षमा रूपी अमृत से पूरित दिखाई दे रहा है ।
क्या चोरी एव शिकार करने वाले भगवान बन सकते हैं ?'' "नही, I नही" शिशु वाणी की गडगडाहट गू जी । "तो आप के भगवान कौन ?' अध्यापक गण वोले । "हमारे भगवान ईसामसीह ।"शिशु बोले ।
उपर्युक्त नाटकीय पाखण्ड की शब्दावली गुरुदेव के कानो मे अच्छी तरह पहुँच चुकी थी। आर्य सस्कृति पर होने वाले मिथ्या प्रहार को गुरु महाराज कव सहन करने वाले थे । अन्दर पहुँच कर वोले--अव्यापक महोदय 1 मैं जैन भिक्षु हैं । आप लोग हिन्दी भाषा अच्छे ढग से बोल रहे है । अत आप किस देश के हैं ' गुरुदेव ने पूछा।
'हम विहार प्रान्त के निवासी हैं । अब हम लोग महाराज ईसानुयायी वनकर पढाने के बहाने धर्म प्रचार भी करते हैं।"
ओजस्वी वाणी मे गुरुदेव वोले-बुरा न माने | आप के प्रचार का तरीका विल्कुल गल्त है। अभी-अभी इन दूध मुहे बच्चो के दिमाग मे भगवान राम और भगवान कृष्ण के प्रति जो घृणा भरी है यह सर्वथा अनुचित है । इस प्रकार हिन्दू धर्म को गल्त सिद्ध कर ईसाई धर्म का प्रचार करना, क्या जनजीवन को सरासर धोखा नहीं है? क्या यह तरीका ठीक है? आप ही सोचिए । सभी अध्यापक अवाक थे । मेरे वच्चो | राम-कृष्ण और महावीर अपने देश मे महान अति महान हुए हैं। आप सभी मेरे मुंह से उनकी गौरव गरिमा सुनें
सभी लडके गोलाकार मे गुरुदेव को घेरे चारो ओर बैठ जाते हैं । मन ही मन अध्यापक तिलमिला रहे थे।
मेरे वालको | ध्यान दे सुनो | जो वालक अपने मात-पिता को भूल जाता है । क्या वह अच्छा वालक माना जाता है ?
"नही । नही !"-बाल वाणी गूंज उठी।
भगवान राम और श्री कृष्ण के विषय मे जो आप के अध्यापक ने कहा है वह ठीक नहीं है। राम और कृष्ण न चोर और न वे शिकारी थे। वे मानव धर्म के महान् अवतार, आर्य धर्म के सस्थापक, एव कस रावण जैसी आसुरी वृत्तियो का अन्त कर एव दैविक भावना की स्थापना कर मानव समाज का
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८८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
ही नहीं, अपितु प्राणी मात्र का बहुत बडा हित किया है । फलस्वरूप राम और कृष्ण को भूल जाने का मतलव है-आप अपने मात पिता को भूल रहे हैं।
बोलो बच्चो | अपने भगवान राम और कृष्ण-महावीर को भूल जाओगे ? नही | नही । जन्म से ही हमे याद है हमारे भगवान राम और कृष्ण हैं । अच्छा वोलो-भगवान राम की-"जय जय ।" भगवान कृष्ण की-"जय जय" भगवान महावीर की-"जय जय" इस प्रकार उन्हे वास्तविक वस्तु स्थिति का ज्ञान करा कर गुरु देव ने आगे की राह ली।
१४. समय-सूचकता स० २००६ का वर्पावास गुरुदेव पालनपुर मे वीता रहे थे। उन दिनो हरिजन समाज के विकास की चर्चा चारो ओर गूंज रही थी। सरकार एव सुधारवादी जन की ओर से उस समाज को काफी सुविधा प्रदान की जा रही थी।
एक दिन विकासशील जैन युवक मण्डल गुरुदेव के पावन चरणो मे आकर वोला--महाराज ! हम हरिजन समाजोत्थान के इच्छुक हैं । वे भी मानव और हम भी मानव हैं । जैन धम पक्का मानवता का पुजारी रहा है। भगवान महावीर ने जातिवाद को नही, कर्मवाद को महत्त्व दिया है। फिर क्या कारण कि-वे आपके अमृत मय उपदेश से वचित रहे ? इस कारण हमारा युवक मण्डल उन हरिजन नरनारियो को आपके उपदेश एव दर्शन से लाभान्वित करना चाहता है । यद्यपि बुजुर्ग जन मदैव विरोधी रहे हैं तथापि आप को मजबूत रहना होगा और हरिजन यहाँ आवे तो आपको तिरस्कार नही करना होगा।
___ गुरुदेव तो प्रारभ से ही ममन्वय प्रेमी एव सुधारवादी रहे हैं। “वसुधैव कुटुम्बकम्" भावना के हामी ही नही, अनुगामी भी रहै हैं ।
"युवक मण्डल हरिजनो को स्थानक मे ला रहे हैं ।" वुजुर्ग कार्य-कर्ताओ को जब यह सूचना मिली कि वे शीघ्रातिशीघ्र गुरुदेव की सेवा मे आकर निवेदन किया--महाराज नगर मे युवक मण्डल विकास के बहाने सस्कृति-सभ्यता का सरासर विनाश कर रहे हैं । जवरन उन्हे मन्दिर एव स्थानको मे लाते हैं आप सावधान रहें । नवयुवको के चक्कर मे आवें नही । वरन् समाज मे फूट फैल जायगी और आप को भी अशाति का अनुभव करना होगा।
दुहरा वातावरण गुरुदेव के सम्मुख था । उत्तर मे महाराज भी बोले-आप बुरा नही मानो यदि वे स्थानक मे आकर उपदेश सुनते हैं तो आप को क्या आपत्ति है ? फिर भी समस्या उलझने नही देऊंगा । इतने में तो हारजनो का एक काफिला आता नजर आया । सभी बुजर्ग जन लाल-पीले हो चले थे।
____ कही विपाक्त वातावरण न बन जाय । इस कारण शीघ्र महाराज श्री स्थानक के बाहर आकर बोले-मेरे नवयुवको । मैं आपके विचारो का आदर करता हूँ। आज का यह कार्य-क्रम अपने
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द्वितीय खण्ड संस्मरण | ८६ को सार्वजनिक व्याख्यान के रूप में विशाल पैमाने पर मनाना है । ताकि अनेक दर्शकगण भी सुधारवाद की प्रेरणा सीख सके । जमाना विकास की ओर आगे वढ रहा है। अतएव अपने को स्थानक एव मदिर की चारदीवारो मे वद नही रहना है । क्राति का शख गुजाना है तो अपन सव मैदान के प्रागण मे चलें।
वैसा ही हुआ । स्थानीय विशाल चौक बाजार में कार्यक्रम पूरा हुआ । नवयुवक मण्डल को भारी जोश यो धा कि हमारी योजना आशातीत सफल रही, बुजर्ग जन का सन्तुलन स्थान पर था किहमारा स्थानक वाल-बाल बच गया। हरिजन समाज को बेहद खुशी थी कि-जैन समाज ने हमारा बिल्कुल तिरस्कार नहीं किया और गुरुदेव को प्रसन्नता इस बात की थी कि सभी विचारधाराओ का समन्वय सफल रहा।
हरिजन समाज गुरु प्रवर के व्याख्यान वाणी से काफी प्रभावित हुआ एव यथाशक्ति नियम ग्रहण कर चलते बना।
बुजुर्ग एव नवयुवक मण्डल गुरुदेव की सामयिक सूझ-बूझ पर मत्र मुग्ध थे । वोले-महाराज ! कमाल आपकी सूझ-बूझ । आज तो आपने साधुत्व का महान कार्य कर प्रत्यक्ष वता दिया । सभी वर्गों मे श्लाघनीय प्रतिक्रिया हुई ।
१५ जादू भरा उपदेश २०२५ की घटना है । गुरुदेव व्यावर से विहार करके भीम पधारे हुए थे। भीम मेवाड प्रात का जाना-माना क्षेत्र रहा है। जहां का श्रावक वर्ग जिन शासन के प्रति श्रद्धाशील एव धर्मनिष्ठ रहा है । तथापि भीम सघ मे एकात्मभाव का अभाव और फूट का बाजार गर्म था। वस्तुत जैसी चाहिए वैसी समाज मे प्रगति नही हो पा रही थी।
बडे-बडे मुनि-मनस्वी एव आस-पास के कई सज्जन वृन्द ने भी भरसक प्रयत्न चालू रखे कि इस फूट-फजीती को स्नेह-सगठन के सूत्र मे वदल दिया जाय । किन्तु मद भाग्य के कारण उन्हे तनिक भी सफलता प्राप्त नही हो सकी । अपितु कपायी ग्रन्थी सुदृढ वनी।
दुनियाँ जव हठाग्रहवादी बन जाती है तव हितकारी-पथ्यकारी बात को भी ठुकरा देती है। चूँकि मिथ्यानिंदा, आलोचना तुराई एव अनर्थकारी विचारो का कचरा उनके दिमाग मे भरा रहता है । इस कारण प्रिय वातें भी अप्रिय और मित्र भी शत्रु प्रतीत होते है।
___गुरुदेव शुभ घडी मे वहा पहुंचे थे। विघटन कार्यवाइयां सर्व ध्यान मे थी। सदैव महाराज श्री कार्य कुशल रहे हैं । वे जन-मन को बनाना जानते है । सुघा-पूरित वाणी मे स्व-मण्डन की निर्मल धारा नि सूत हुआ करती है। प्रभावोत्पादक व्याख्यानो से लाभ-हानि का श्रोताओ को भान हुआ। छिपी हुई ग्रन्थियाँ शिथिल हुई । पारस्परिक विचारो का विनिमय होने लगा। सेवा मे उपस्थित होकर वोले-गुरुदेव । आप की वाणी ने हमारे कानो की खिडकियां खोल दी हैं। अव कृपा करके आप हमे वैरागी भाई प्रकाश जी की दीक्षा यहाँ करने की अनुमति प्रदान करें। ताकि हमारा सघ धन्यशाली बने ।
___गुरुदेव-वैरागी भाई की दीक्षा से भी मेरी दृष्टि मे सघ का आदर्श महान् है। आप सभी महान् आदर्श को बढाना चाहते हो तो सर्वप्रथम सघ मे एकात्मभाव का सृजन करे । गई गुजरी सर्व
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६० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
बाता को भूल जायें। उसके बाद यदि मुले सनोपजना बातावरण प्रतीन आ नो में दीक्षा याने की अनुमति दे गकता है । वरन् मत के लिए मेकटी गाव है।
वैमा ही हुआ । काफी वर्षों की फट गत्म हुई। पर-पर ग्नेर-गगठा नमागी सुरमरी प्रवाहित हो चली। आनन्दोल्लास के क्षणों में दीक्षोसाय भी गम्पन हुमा । आज भीम नगरमा आबालवृद्ध गुरुदेव के इस अनुपम कार्य को बार-बार दुहराता हुना अदा रा उनके पवित्र चरणों में नतमस्तक है।
१६ विरोधो को प्रिय वोध आहार आदि कार्यों से निवृत्त होकर गुरुदेव हमे स्याद्वादमजरी, प्रमाणामागा आदि दर्शन शास्त्र का अध्ययन करवा रहे थे।
___ सहसा एक भाई मेवा मे उपस्थित हुआ । गुरु भगवत के पवित्र पाद पयो में माथा झुकाया, अश्रुपूरित आखो से, गद्गद् गले से एव उभय घुटनो को जमीन पर टेककर स्वय की समीचीन मालोचना का रिकार्ड शुरू कर दिया । समीपस्थ विराजित हमारा मुनि सघ डग हण्य को पंनी दृष्टि में देख व गुन भी रहा था।
महाराज | मैं निन्दक, दुगुणी एव परछिद्रान्वेपी हूँ।-आगतुम उस भाई ने पहा । धावक जी | दरअसल वात क्या है ? रहस्य खोलकर साफ दिल से कहो-गुरदेव ने पूछा।
महागज । जव आपने इन्दीर-चातुर्मास करने की स्वीकृति फरमाई पी। तब मुझे अत्यधिक बुरा लगा, मेरी अन्तरात्मा इस खवर को पाकर खाफ हो गई । क्योकि हमारे पूज्य श्री नानालाल जी म० का चौमामा भी यहां ही निश्चित हो चुका था । अत जन-मत आपके विरोध में कहे, इन कारण भरपेट मैंने चुपके-चुपके अन्य नर-नारियो के मामने आपकी झूठी-निन्दा-चुराई की एव जन-मन को बरगलाया भी सही । ताकि आपका चातुर्मास विगड जाय । ऐसा कहा जाता है
न गगा हो गई मैली कभी अधी के कहने से ।
न सूरज हो गया काला कभी उल्लू के फहने से ।। "ठीक इसी प्रकार महाराज | मैं मदेव महावीर भवन मे आपके तपा इन मुनियो के छिद्र देखने के लिए आता रहा हूँ। कभी भी मुझे उनीमी वात दृष्टि गोचर नही हुई। बल्कि आपके मुह से हमारे आचार्य श्री की तारीफ ही मुनी । वास्तव में आप नदी-नाले नहीं सागर समान हैं, अज्ञान वगात् मेरी अन्तरात्मा ने आप की निंदा-व भारी अवहेलना कर कर्म बान्धे हैं । निश्चय ही में आपका कर्जदार है। इमलिए विहार के पहले मैंने आलोचना करना ठीक समझा। आप क्षमा के भण्डार और शात-सुधा के सदेशवाहक हैं । मुझे मेरी गल्तियो के लिए मनसा वाचा-कर्मणा क्षमा प्रदान करे। ताकि मेरी अन्तरात्मा कर्म वोझ मे हल्की बने ।"
गुरुदेव आपकी अन्तरात्मा निर्मल हो चुकी । आप ने बहुत अच्छा किया। मेरे सामने आलोचना
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द्वितीय खण्ड सस्मरण | ६१
कर दी। वरन् नाता का खाता वढता ही जाता । सुनिये-सत जीवन का कोई अपमान किंवा सम्मान, विनोद अथवा विरोध, निंदा अथवा तारीफ करें हमे तनिक भी खेद नहीं होता है। हम जानते हैं कि विचार धारा सभी की एक समान नही रहती है।
आप इसी प्रकार भविष्य मे सरल वृत्ति अपनाये रखे । साप्रदायिक पक्ष के दल-दल मे उलझें नहीं । निष्पक्षपातपूर्वक जीवन वितावे । सद्वोध ग्रहण कर चलता बना।
१७. भविष्यवाणी सिद्ध हुई उन दिनो गुरुदेव दिल्ली विराज रहे थे । सुविधानुसार पजाव सप्रदाय के कई विद्वद मुनि प्रवर एव आचार्य श्री गणेशीलाल जी म० के शिष्यरत्न श्री नानालाल जी म० भी इलाज के लिए अन्य स्थानक मे वही-कही रुके हुए थे।
"सत मिलन सम सुख जग नाही" इस कथनानुसार मुनियो का एक विशिष्ट स्थान पर मधुर मिलाप हुआ था। विचारो का सुन्दरतम आदान-प्रदान एव स्नेहिल वातावरण के उन क्षणो मे गुरु महाराज की शात दृष्टि सम्मुख विराजित एक मुनिराज के हाथ पर जा टकराई । उस मुनि के करतल में बहुत ही सुन्दर प्रभाविक ऊर्ध्वरेखा खीची हुई थी । जो विशिष्ट भावी भाग्य-उन्मेप-उन्नयन की प्रतीक थी।
__ हस्तरेखा देखकर गुरुदेव बोले--मुनिराज | आप भले विश्वास करे या नही। किंतु मेरा पक्का अनुमान है कि-ऊर्ध्वरेखा यह आप को भविष्य मे जैन समाज के आचार्य जैसे महान पद पर प्रतिष्ठित करेगी। आप कोई कल्पित बात नही समझें ।
___ मत्यएण वदामि | आप की भविष्य वाणी मिल भी सकती है। किंतु इन दिनो जहां-तहाँ सप्रदायवाद का व्यामोह छोडकर एकीकरण योजना का नारा बुलन्द हो रहा है। समाज मे सगठन के स्वर दिन प्रतिदिन गूज रहे हैं और आप फरमा रहे कि तुम आचार्य पद पर आसीन होगे?
कुछ भी हो भविष्यवाणी अवश्य मिलेगी। सभी मुनि प्रवर अपने-अपने स्थानो की ओर लौट गये । वात वही की वही रही। नदनुमार गुरु भगवत की वही भविष्य वाणी उदयपुर मे सिद्ध हुई । इसलिए कहा है--
जो भाणे वालक कथा, जो भाष मुनिराय । जो भाणे वर कामिनी, एता न निष्फल जाय ॥
१८ आक्षेप निवारण महाराज श्री का वनारस पदार्पण हुआ था । व्याख्यान के पश्चात् एक सस्कृत निष्णात पडित सेवा मे उपस्थित हुआ। कुछ वार्तालाप के पश्चात् वोला-महाराज | आप भले जैनधर्म को मुक्त कठ से
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१२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य प्रशसा करे किंतु व्यक्तिगत मे जैन धर्म को नास्तिक मानता हूँ । जो नास्तिक धारा का पक्षपाती-हिमायती हैं, जो वेद-व्याख्या को मान्य नही करता क्या वह म्व-और पर को जीवनोत्थान-कल्याण की दिशा दर्शन दे सकता है ? मेरी दृष्टि मे तो कदापि नही । अब आप अपना मतव्य प्रगट करें।
गुरुदेव-आप विद्वन होते हुए भी दर्शनशास्त्र से अनभिज्ञ कैसे रह गये ? चार्वाक के अतिरिक्त जैन-बौद्ध, साख्य, वैशेपिक, न्याय एव योग दर्शन आदि सभी आस्तिक दर्शन माने हैं। फिर आप ने जनदर्शन को नास्तिक कैसे माना ? नास्तिक दर्शन की परिभाषा क्या आप नही जानते हैं ? "नास्तीति मतिर्यस्य स नास्तिक " जो आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं कन्ता, वह नास्तिक और अस्तीति मतिर्यस्य स आस्तिक --अर्थात् आत्मा की सत्ता स्वीकार करनेवाला दर्शन आस्तिक दर्शन कहलाया है।
हाँ, तो जैनधर्म पक्का आत्मवादी रहा है। आप बुरा न माने, ईर्ष्यालु तत्त्वो ने जनदर्शन के मर्म स्वस्प अनेकान्त मिद्वान्त को समझा नहीं, अपितु मिथ्या प्रलाप कर जैनधर्म को नास्तिक कह दिया । वेदो को नहीं मानने वाला नास्तिक नही । नास्तिक तो वह है जो आत्मा को नहीं मानने वाला है । जैनवर्म तो स्वर्ग, अपवर्ग-पुण्य पाप विपाक एव पुनर्जन्म आदि सभी को मानता है। अब बताइए नास्तिक कसे?
नास्तिक दर्शन के तो सिद्धान्त ही विपरीत है । जिम ममय चारो भूत अमुक माया में अमुक रूप मे मिलते हैं, उसी समय शरीर बन जाता है और उममे चेतना आ जाती है। चारो भूतो के पुन विखर जाने पर चेतना नष्ट हो जाती है । अतएव जव तक जोओ तब तक सुख पूर्वक जीओ, हंसते और मुस्कराते हुए जीओ । कर्ज लेकर के भी आनन्द करो, जव तक देह है, उससे जितना लाभ उठाना चाहो उठाओ । क्योकि शरीर के राख हो जाने पर पुनरागमन कहां हैं ?" यह चार्वाक अर्थात् नास्तिक सिद्धान्त है । समझे?
पडित-महाराज | आप का अध्ययन गहरा है । आप पूण मननशील है। वास्तव में आत्मापरमात्मा के अस्तित्व को नहीं माननेवाला ही नास्तिक की श्रेणी मे गिना जाता है। कतिपय लेखक महोदय ने मिथ्या वातें लिखकर जैनधर्म को वास्तव मे अपवित्र किया है । मैं जिज्ञासु हूँ। मैंने इसलिए समाधान चाहा । आपके समाधान से मेरे विचारो को नया मोड मिला है । मैं आपके समाधान से अत्यधिक प्रभावित हुआ हूँ।
___ मैंने आपका ममय लिया मुझे क्षमा प्रदान करें । अब मैं कभी भी जैनदर्शन को नास्तिक नही कहूंगा।
१६ आग मे बाग यह घटना रतलाम से सम्बन्धित हैं । गुरुप्रवर अपने एक माथी मुनि के साथ शौच से निपट कर लौट रहे थे । मार्ग मे ही एक भाई तेज गति से हापता हुआ सेवा मे आ खडा हुआ । गुरु महाराज । मैं आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। ज्यादा वात करने का अभी समय नहीं है। आपकी शिप्या अर्थात् मेरी
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द्वितीय खण्ड ' संस्मरण | ६३ धर्मपत्नी अपघात करने पर तुली हुई है । पारस्परिक हम दोनो मे कहा सुनी हुई और मैंने आवेश में आकर उसके मुह पर दो-चार चपातें जमा दिये । इस कारण अब वह तेल छिडक कर खुद की हत्या करना चाहती है। मकान के सर्व दरवाजे वद कर दिये हैं।
अब मैं गरकार की शरण मे जाऊँ, तो हम दोनो की इज्जत और धन की पूरी हानि होगी। इस कारण मैंने आपकी शरण लेना ठीक समझा है । मुझे पक्का विश्वास है कि-आपकी बात मानकर वह समझ जायगी । आग मे सरसन्ज बाग लगाने में आपकी वाणी सशक्त है। दुर्घटना आप के चारचरण कमलो से टल जायगी। अतएव आप देर न करे । वरन् अकाज होने की निश्चय ही सभावना है।
साथी मुनि के साथ गुरुदेव वहाँ पहुँचे । वास्तव मे वहां दारुण दृश्य निर्मित था। चारो ओर से मकान के दरवाजे वद थे । चारो ओर मिट्टी के तैल की बुदबू उड रही थी।
गुरुदेव- "वहन | जरा वाहर आओ । कुछ सेवा-शुश्रू पा का काम है।" "आप कौन हैं ?" अन्दर से आवाज आई। मैं प्रताप मुनि हूँ । कपडा सीने के लिए मुझे सुई की आवश्यकता है । वाहर आकर दे ओ।
गुरु महाराज | मैं किसी भी हालत मे वाहर नही आ सकती हूँ। आप पडोसी के यहाँ से ले जाइए।"
नही, सुई तुम्हे ही देना होगा।"
आखिर मे वह सुई लेकर बाहर आई । सारे कपडे तैल से आप्लावित थे। शारीरिक दशा दुर्दशा मे वदल चुकी थी।
अव गुरुदेव बोले-वहन । यह क्या? और किसलिए? क्या तुम्हे मरना है ? अपघात करके ही क्यो ? अपघात करके कोई भी सुखी नहीं, अपितु नारकीय वेदना-व्यथा अवश्य प्राप्त करता है। तत्पश्चात उसके लिए भवभवान्तर मे भटकने के सिवाय और कोई मार्ग ही नही। तुम समझदार होकर क्रोध के वश भय कर अधर्म करने पर कैसे उतर गई ? माना कि - दाम्पत्य जीवन तुम्हारा अशात एव दुखी है। किंतु इसका मतलब यह तो नही कि इस अनुपम देह की दुर्दशा कर मरे । मरना ही है तो धर्म-करणी करके मरो।
असरकारी वाणी के प्रभाव से दोनो की अक्ल, ठिकाने आई । उसी वक्त दोनो के आपस मे क्षमापना करवाया गया, गृहिणी को अपघात नहीं करने का त्याग एव गृहस्वामी को हाथ नही उठाने का परित्याग करवाया। पति-पत्नी के वीच पुन शान्त भाव की प्रतिष्ठा हुई। आग में बाग लगाने वाले साधक के चरणों मे अश्रुपूरित नेत्रो से वे दोनो झुक पड़े थे।
___ अद्यावधि गुरुदेव की शिक्षाओ पर अमल करते हुए दोनो का जीवन गही सलामत फलफूल रहा है । सई लेकर गुरुदेव स्थानक मे पहुँचे, भारी दुर्घटना वच गई।
२० विरोधी आप की तारीफ क्यो करते हैं ? शिप्य मडली के साथ गुरुदेव श्री जी का नागदा जक्शन पर पदार्पण हुआ था । मध्याह्न की शान्त वेला मे एक मुमुक्षु कार्यकर्ता चरणो मे उपस्थित होकर वोला-महाराज | ऐसा आप के पास कौन सा
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१४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
जादू, मन्त्र और ऐमी कौन सी विशेषता आपने प्राप्त करली है जिसके कारण साम्प्रदायिक तत्त्व भी पीठ पीछे मुग्धमन से आप को तारीफ किया करते हैं ?
___गुरुदेव ने प्रत्युत्तर मे कहा-विरोधी दल पीठ पीछे तारीफ क्यो करते है ? वह कारण इस प्रकार हैं-सुनिये-मालवरत्न पूज्य गुरुप्रवर श्री कस्तूरचन्द जी महाराज द्वारा मुझे अनुपम सुधा भरी शिक्षा प्राप्त हुई है। फलस्वत्प विरोधी धारा के बीच कैसे रहना उनके समक्ष कार्य करते हुए स्वकीयपक्ष को मजबूत कैसे करना? विरोधी पक्ष के दिल-दिमाग को किस तरह जीतना? कार्यकुशलता-सावधानी बरतते हुए आगे कैसे बढना ? तथा उनका कहना है कि प्रताप मुनि | मैं तुम्हें विरोधी दल-बल के सामने बार-बार चातुर्मास की आज्ञा प्रदान कर रहा हूँ। इसका मतलव यह कदापि नही कि-तुम उनके साथ साम्प्रदायिक सघर्प-द्वन्द्व लेकर यहां आओ। इसलिए भेज रहा हूँ—तुम जहाँ कही पर भी, किसी धर्म सभा मे वोल रहे हो तुम्हारे बोलने से कदापि वहां कपायवृत्ति की वढोतरी न होने पावे । विरोधी विचार धारा को खण्डन एव मिथ्याक्षेप एव व्यर्थ के वाद-विवाद से कभी भी जीता नही जाता है। उन्हें जीतना ही है तो स्नेह-समता सहिष्णुता एव मण्डनात्मक शैली के माध्यम से जीता जाता है।"
गुरु प्रदत्त इन अनुपम शिक्षाओ को मैंने यथाशक्ति अन्तरग जीवन में उतारा है। बम, यही बादू और यही विशेष मन्त्र मेरे पाम रहा हुआ है । भली प्रकार यह मैं जानता हूँ कि यह दुनिया न किसी की बनी और न बनने वाली है । फिर मैं चन्द दिनो के लिए समाज मे क्यो विद्वप-क्लेश के कारण खडा कलें । उसी की बदोलत मैंने विरोधी पक्ष को अपना बनाया है।
मुमुक्ष -महाराज | वास्तव मे आपने जो फरमाया है यह ठीक है। आपका माधुर्य भरा व्यवहार ही आपके लिए प्रस्याति का कारण एव विरोधीपक्ष के लिए आकर्षण का केन्द्र रहा है । यही कारण है कि आपका नाम सुनकर माम्प्रदायिक तत्त्व भी श्रद्धा से नतमस्तक हो जाते हैं।
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अभिनन्दन : शुभकामनाएं : वंदनाञ्जलियां
प्रातः स्मरणीय प्रखर वक्ता पंडित मुनि श्री प्रतापमल जी म. सा.
पुनीत चरणो से
अभिनन्दन-पत्र-१ वन्दनीय !
विक्रम स० २००७ वीर स० २४७६ मे आपने हमारे ग्राम वकानी (कोटा) मे चातुर्मास की जो अनुकम्पा की है उसके अपार हर्ष का फल अवर्णनीय है । हमारा नगर वकानी आभार प्रदर्शित करता हुआ चरणो मे नत-मस्तक है । धर्म-प्राण ।
आपने स० १९६५ मे देवगढ (मेवाड) की वीर भूमि मे जन्म लिया और स० १९७६ मे मन्दसौर मे गुरुवर्य श्री वादकोविद प्रखरपडित श्री श्री १००८ मुनि श्री नन्दलाल जी महाराज से दीक्षा लेकर अब तक जैन-जनेतर समाज का जो उपकार किया है, वह अविस्मरणीय है। आदर्श-साघु ।
सासारिक वैभव को ठुकरा कर आपने जो आदर्श पथ ग्रहण किया है वह हँसी खेल नही है। हम मामारिक क्षणिक त्याग (वारह व्रत) का आशिक पालन करने मे भी अपने को असमर्थ पाते हैं, किन्तु आप पचमहाव्रत का पालन कर रहे हैं । वास्तव मे ससार का दुख ऐसे ज्ञानी और ध्यानी साधु ही नष्ट कर सकते हैं । आप के पदार्पण से हम कृतकृत्य हो गये है। सुयोग्य गुरुवर ।
आत्मार्थी मुनि श्री वसन्तीलाल जी म०, व तपस्वी मुनि श्री गौरीलाल जी म० जैसे सुयोग्य और विनीत शिप्यो ने आप को सुयोग्य गुरु प्रमाणित कर दिया है। आज दोनो सन्त आप की सेवा में सप्रेम आत्मोन्नति मे रत हैं, यह परम हर्ष का विपय है। नवयुग प्रेमी।
आज स्वतन्त्र भारत को रूढिप्रेमी, एकान्तवादी, अन्धविश्वामो के भक्त साधुओ की आवश्यकता नहीं है। परम हर्प का विषय है कि आप इस कसौटी पर भी खरे उतरे है । आप रूटिंवाद के सहारक, अनेकान्तवाद के समर्थक और अन्धविश्वासो के विरोधी के रूप मे सर्व-धर्म समन्वय की भावना से ओत-प्रोत सच्चे देश समाज और धर्म सेवक साधु हैं। साधु समाज के लिये आपके आदर्श अनुकरणीय हैं। साम्प्रदायिकता की गन्ध आप से कोसो दूर है और यही वर्तमान युग की आवश्यकता है । यही कारण है कि आप के मनोहर शिक्षाप्रद व्याख्यानो से जैन, हिन्दू, सिक्ख, मुसलमान आदि सभी धर्मवालो ने सहर्प लाभ उठाया है।
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६६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
हमे आशा ही नही पूर्ण विश्वास है कि भविष्य मे प्रति वर्ष आप समान गुणी सतो की धर्मवाणी मिलती रहेगी। एक साथ ही वन्दनीय, धर्म प्राण, सुयोग्य गुरुवर, नवयुग प्रेमी की प्रतिभा प्रदर्शित करनेवाले मुनिराज हम आपके चरण कमलो मे भक्ति-पूर्वक वन्दना अर्पित करते है।
हम है आपके उपदेशाकाक्षी जैन-जैनेतर सघ बकानी के बन्धु-गण
श्री १०८ पूज्य मुनि श्री प्रतापमल जी म० की
पवित्र-सेवा में
अभिनन्दन-पत्र-२ मान्यवर महोदय ।
श्री चरण ने इस वर्ष स० २०१३ विक्रम का चातुर्मास कानपुर नगर मे करने की विशेष कृपा की है इससे जन एव अर्जन समाज का वृहत्तर कल्याण हुआ है। इसी प्रकार श्री मुनि महाराज ने स० २००२ वि० तथा स० २००६ वि० मे भी चातुर्मास करके कानपुर नगर के जैन समाज को पात्र बनाया था, अत यहां का जैन समाज विशेष रूप से अत्यन्त आभारी है तथा अपार हर्षोल्लास के साथ भक्ति युत श्री चरणो मे नत मस्तक है ।
आपने वि० स० १९६५ मे देवगढ (मेवाड) की वीरप्रसविनि अवनि पर अवतरित होकर वि० स० १९७६ मन्दसौर मे गुरुवर्य वादकोविद प्रखर पडित श्री श्री १००८ मुनि श्री नन्दलाल जी म० मे दीक्षा ली। दीक्षोपरान्त जैन शास्त्र तथा संस्कृत साहित्य का यथेष्ट अध्ययन करके आदर्श मुनि महाराज ने अधिकाश भारतवर्ष के भू भाग का पैदल परिभ्रमण कर, व्यवहार पटुता, कार्य कुशलता, परमौदार्यता न्याय परायणता एव विनम्रता का सवल परिचय एव सन्देश देकर भारतीय समाज का जो उत्कृष्ट उपकार किया है, वह स्तुत्य तथा अनुकरणीय है।
आदर्श मुनि ।
आप ने ससार मे अवतरित होकर भव-वन्धनो को ठुकरा दिया तथा लौकिक वासनाओ को सर्वथा परित्याग करके आदर्श मुनि वेश-धारण कर पच महाव्रत का पालन करने का दृढ सकल्प किया है, वस्तुत ऐसे ज्ञानी एव विरक्त महात्मा सासारिक दुखो को प्रनष्ट कर सकते हैं । हम लोग आप के पदार्पण से कृत-कृत्य हो गये हैं । सुयोग्य मुनिवर ।
आत्मार्थी मुनि श्री वमन्तीलाल जी म० सा०, विद्यार्थी मुनि श्री राजेन्द्र कुमार जी म० तथा वि० मुनि श्री रमेशचन्द्र जी म० जैसे सुयोग्य एव विनीत शिष्य आपको सुप्रतिष्ठित गुरु पद पर परमासीन करके निरन्तर आप की सेवा मे रत रहकर आत्मोन्नति के लिये सतत शास्त्राभ्यास मे सलग्न हैं यह परम हर्ष का विषय है।
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाएं वन्दनाञ्जलियाँ | १७
आधुनिक जिज्ञासु ।
वर्तमान युग की आवश्यकता अनुसार मुनिश्री के चरणो मे उदारता, गुणग्राहकता, मिलनसारिता, धैर्य तथा विवेक से दुरुह परिस्थितियो के अनुगमन मे निरभिमानता तथा सर्वधर्म समन्वय के सिद्धान्तो एव आदर्शों का पूर्णतया समावेश है अत सन्त एव भारतीय समाज के लिए आप अनुकरणीय प्रमुख महात्मा हैं। क्योकि इन आदर्शों मे ही भारतीय आर्य तथा अनार्य जनता का कल्याण निहित है ।
___ आशा ही नहीं अपितु पूर्ण विश्वास है कि हम लोगो को प्रति वर्ष आपके सदृश निस्पृह तथा निर्विकार साधुओ का अमर धर्मोपदेश प्राप्त होता रहेगा। हम जैनसघ, धर्म, सत्य, नि स्वार्थ तथा वात्सल्यादि प्रतिभा पूर्ण मुनि श्री के पद-पकजो मे भक्ति एव श्रद्धा पूर्वक अभिनन्दन समर्पित करते हैं। दिनाक १८-११-५६ ई०
हम है आपके चरण चचरीक श्री ओसवाल जैन मित्र मण्डल, कानपुर
मालवरत्न शासनरक्षक ज्योतिविद पडितवर्य श्रद्धेय गुरुदेव श्री कस्तूरचन्द जी म० द्वारा प्रदत्त
आशीष-वचन पं० मुनि श्री प्रतापमल जी म० अपनी दीक्षा-साधना के पचास वर्प के वैभव को प्राप्त कर चुके हैं । यह हर आध्यात्मिक साधक के लिए परम प्रसन्नता की वात है। किन्ही भी विशिष्ट साधक की साधना अन्य साधको के लिए मार्गदर्शन है।
आपका स्वभाव अत्यन्त कोमल है। छोटे से बालक जैसा निश्छल मन है । व्याख्यान की शैली मन मोहक और प्रभावशाली है। द्वन्द्व भाव से आप एकदम दूर रहते हैं । मिलनसारिता और उदारविचार आपके प्रमुख गुण हैं।
जहा भी आपका चातुर्मास और विचरण होता है, वही पर ही आपकी लोकप्रियता का कीर्तन होता है। यह एक प्रशसनीय विशेषता है। जो कि सामान्य रूप से हरेक मे ही प्राप्त नही
होती है।
स्व० वादिमान मर्दक पडित श्रद्धेय प्रवर श्री नन्दलाल जी म० के आप प्रतिभाशाली सुशिप्य हैं । आप भी अपने शिप्य-अनुशिष्य के परिवार से भरे पूरे हैं । जिन मे अपनी-अपनी शानदार विशेपताएँ भी हैं। आपकी मेरे प्रति हार्दिक रूप से भक्ति निष्ठा है।
में पूर्ण रूप से आपके लिए यह कामना करता हूँ, कि आप इसी प्रकार जन जीवन को जिनवाणी की प्रेरणा से प्रतिबोधित करते रहे । धर्म प्रभावना की महनीय सुगन्ध से समार को महकाते रहे। साधना की चिर जीवत ज्योति की उज्ज्वलता से निरन्तर प्रकाशमान हो। इसमे आप सक्षम हो, सफल हो एव सशक्त हो। अनन्त चतुर्दशी जैन स्थानक, नीम चौक रतलाम (म० प्र०)
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१८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
मेरी शुभ कामना
-स्थविरमुनि श्री रामनिवास जी म मेरे जीवन मे यह प्रथम प्रसग था कि-पण्डितमुनिश्री प्रतापमल जी म. सा. के साथ सम्वत् २०३० इन्दौर का यह चातुर्माम विताने का अवसर मिला । आप जितने शरीर से महान् है उससे भी कई गुनित विचारो मे उदार एव महान् है ।
आप सम्प्रदाय वाद से परे है। सकीर्णता से दूर है । 'उदार चरितानाम् तु वसुधैव कुटुम्बकम्" इस सिद्धान्त को आपने जीवन साक्ष किया है । तद्नुसार आप का शिष्य परिवार भी उमी पवित्रपरम्परा को निभाने मे कटिवद्ध हैं । एव विवेक, विनय, विद्याशील है। मेरी शुभ कामना समर्पित है।
अभिनन्दनीय यह क्षण
--प्रवर्तक, शास्त्रविशारद मुनि श्री हीरालाल जी म० 'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि' दार्शनिक जगत ने फूल एव वज्र की दृष्टि से सत जीवन को कोमल एव कठोर उभय धर्मात्मक अभिव्यक्त किया है। परकीय दुख-दर्द-पीडा-चीत्कार एव सरासर मानवता का अध पतन आखो के समक्ष देखकर साधक का मृदु मन द्रवित होना स्वाभाविक है। इसलिए कहा है-'परोपकराय सता विभूतय' अर्थात् साधक-विभूतियाँ समार मे परोपकार के लिए अवतरित हुई हैं।
मेवाड भूपण प० श्री प्रतापमल जी म० सा० भी उदार विचार के धनी एव उच्चकोटि के कर्मठ साधक माने गये हैं। जिनके साथ मेरा मधुर सम्बन्ध वैराग्य-अवस्था से अर्थात् १९८६ से अट चला आ रहा है । अनेक सयुक्त वर्पावास भी साथ करने का मुझे अवसर मिला है।
आप मे अगणित गुण विद्यमान हैं। सचमुच ही अन्य साधक जीवन के लिए अनुकरणीय है। माधुर्यता पूरित भापा, नम्रवृत्तिमय जीवन एव समन्वय सिद्धान्त के माध्यम से सगठन-स्नेह की गगा प्रवाहित करने मे आप अत्यधिक कुशल हैं।
अनेक साधु-साध्वी वर्ग को अध्यापन करवा कर उन्हें होनहार बनाने मे आपका श्लाघनीय सहयोग रहा है। रचनात्मक कार्य भी आपके द्वारा पूर्ण हुए हैं-इन्दौर मे स्थापित 'सेवा सदन', जावरा मे सस्थापित 'स्वाध्याय भवन', दलौदा का 'दिवाकर स्मृति भवन' आदि आपकी ही देन हैं।
सुदूर देशो मे आपने विहारयाया करके भ० महावीर के दिव्य सन्देश को प्रसारित किया है।
आप की सयम साधना सुदीर्घ काल तक सघ रूपी उद्यान को उत्तरोत्तर विकसित एव सुवासित करती रहे । यही मेरी शुभकामना है।
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाएं वन्दनाञ्जलियाँ | RE सरल और सुलझे हुए संत !
-प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी म० सा० प० रत्न श्रद्धय श्री प्रतापमल जी म० सा० हमारी पीढी के एक समझदार और सुलझे हुए सन्त हैं।
कई वार मेरा उनसे मिलने का प्रसग आया। बच्चो जैसी सरलता, मधुर व्यवहार और बातचीत मे आत्मीयता देखकर मैं उनसे प्रभावित हुआ हूँ।
मेरा उनसे बहुत निकट सम्बन्ध है । मैं उनके विषय मे इतना तो नि सकोच कह ही सकता हूँ कि किसी के लिये उनसे उलझना आसान नहीं है। क्योकि वे स्वय अपने मे बहुत सुलझे हुए हैं।
शतायु वनकर शासन सेवा करते रहे यही शुभ कामना |
मेरी असीम मंगल कामनाएं
___- बहुश्रुत श्री मधुकर मुनि जी भक्तगण श्रद्धय मुनि श्री प्रतापमल जी म. का अभिनन्दन करने की साज-सज्जा मे सलग्न है यह जानकर अतीव प्रसन्नता है मुझे ।
साधना के पथ पर अविराम गति से अपना पदन्यास करने वाले सत जनो का अभिनन्दन करना उनके प्रति अपनी आस्था का एक प्रकर्ष रूप है। भक्तगण का मुनि श्री जी के इस अभिनन्दन के साथ मेरा भी यह अभिनन्दन प्रस्तुत है ।
मुनि श्री जी सयम साधना के पथ पर निरन्तर बढते चलें और चिरजीवी बनें-यही एक मात्र शुभ मगल कामना ।
हार्दिक मंगल कामना
-उपप्रवर्तक श्री मोहनलाल जी म० सा० जीवन का यह एक जाना माना जीवन्त तथ्य है कि सयमशील एव तपोमय महान जीवन की दिव्य झलक-झाकी, जन जीवन के अन्तराल मे त्याग, तप एव सयम की उदात्त भावनाएं जगाती हैव्यक्ति के जीवन मे कुछ कर गुजरने की हिलोरें पैदा करती है जीवन निर्माण की दिशा में आगे बढ जाने के लिए उत्प्रेरित करती है ।
हर्ष का विपय है कि त्याग-वैराग्य के पवित्र पथ पर निरन्तर आगे बढ़ने वाले स्थानकवासी समाज के महान सत श्रद्धेय श्री प्रतापमल जी म. सा. के सुदीर्घ चारित्र पर्याय एव सघ-सेवा के उपलक्ष्य मे प्रताप अभिनन्दन ग्रथ प्रकट होने जा रहा है।
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१०० , मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
___ मुझे श्रद्धेय मुनि श्री से अनेक बार मिलन, न केवल मिलन अपितु उन्हे निकट से देखने का परखने का अवसर मिला है, इससे मैं यह दृढता के साथ कह सकता हूँ कि महाराज श्री छल प्रपचो व द्वन्द्वो से एकदम परे साक्षात् सरलता की भव्य मूर्ति हैं । आगम की मापा मे नि सन्देह उनका जीवन चन्द्र से अधिक निर्मल, सूर्य से अधिक तेजस्वो एव सागर से अधिक गभीर है।।
श्रमण सघ मे ऐसे त्यागी, वैरागी तपस्वी मनस्वी विद्वान सतो का होना समाज के लिए ही नही राष्ट्र के लिए भी सीभाग्य की बात है अत मे इसी शुभ एव मगल कामना के साथ
सतत साधना पथ पर बढ़ता, रहे 'कमल' जीवन स्यन्दन । परम प्रतापी प्रताप मुनिवर, स्वीकृत करिये अभिनन्दन ।।
श्रद्धय श्री प्रतापमल जी म. सा० : एक अनुभूति
-भगवती मनि "निर्मल" निश्छल नयन, निर्मल चेहरा हर्प प्रफुल्लता मे ओतप्रोत विकसित नयन श्याम उपनेत्र से आच्छादित, व्यक्तित्व को देखकर कौन आल्हादित नहीं होगा, वालक वृद्ध कोई भी हो, उसे उसी मुद्रा मे सभापण करने की कला मे प्रवीण पडितजी म० के उपनाम से सम्बोधित प० रत्न श्रद्धेय प्रतापमल जी म० सा० को कौन नही जानता?
मेरा आपमे सर्व प्रथम परिचय वम्बई थाना मे हुआ था उसी समय का अमिट प्रभाव आजतक मेरे ऊपर है । हाँ मव्य मे कुछ व्यवधान आया, वाधाएं आयी पर थे वे भी क्षणभगुर नाशमान देह के समान अल्पवयी। वडो मे जो छोटो को मार्गदर्शन देने की या अभिमानपूर्वक वार्तालाप करने की भावना देखी जाती है वो भावना आप मे नाम मात्र भी दृष्टिगोचर नही होती। प्रेम पूर्वक निश्चल नेत्रो से दृप्टिपात करते हुये हर एक को मार्गदर्शन कराते हुये आपको कभी भी देखे जाते हैं।
वडे-बडे दिग्गजो मे भाषा का जो व्यामोह देखा जाता है, भापा सस्कृतमय क्लिष्ट शब्दावली मे उच्चारित विद्वानो के सन्मुख उन्हे विद्वानो की श्रेणी मे रखे किन्तु जन साधारण के पल्ले कुछ नही पडने वाला वह औरो के कहे हुए वाक्यो की चू कि विद्वानो है, प्रतिध्वनि भले ही करले किन्तु अन्तर मन से विद्वान के भापण उसके समझ से परे की वस्तु है ।
विपय उसके मस्तिक मे कुछ भी नही आता, वह आखें वन्द किये खानापूर्ति के लिए बैठा है किन्तु जिन महापुरुपो ने जनता जनार्दन की भापा मे व्याख्यान उपदेश दिये हैं या अपना मन्तव्य दिया है वे ही उनके गले के हार बन गये हैं । प्रत्येक व्यक्ति उन्ही की ओर आकर्षित होता है वह उन्हीं को अपना गले का हार वना बैठा है। श्रद्धा का केन्द्र विन्दु भी उन्ही के इर्द गिर्द घूमता चक्कर लगाता हुआ दिखता है। प्रसिद्ध वक्ता जैन दिवाकर चौथमल जी म० सा० के व्याख्यान मे जन साधारण की भीड इसी कारण मे थी वही नजारा श्रद्धेय प० रत्न श्री प्रतापमल जी म. सा. के व्याख्यानो मे भी देखा जाना है। विशेषता है कि वे अपने उपदेश व्याख्यान विद्वद् भापा मे न देकर जन साधारण की भापा में देते हैं, कैसा भी गूढ विषय हो, उसे साधारण भापा में व्यक्त कर श्रोताओ के हृदयगम करा देने की कला मे आप पटु है अत आपके व्याख्यानो मे प्राय देखा जाता है कि प्रत्येक श्रेणी के व्यक्ति
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द्वितीय खण्ड : अभिनन्दन शुभकामनाए वन्दनाञ्जलियाँ | १०१ आकर उपदेश श्रवण कर कृतकृत्यता का अनुभव करते हैं । फिर पास्परिक चर्चा मे भी कथित को दुहराते हैं वह इसलिए कि विपय उसकी समझ मे आ जाय ।
पर्यटक मानव एक स्थान मे रहता है तो अनुभवशील नही होता है क्योकि उसकी वातो मे नवीनता का अभाव होता है, नवीन अनुभवो मे वह हीन है, किन्तु जिसने यथेष्ट मात्रा मे परिभ्रमण कर लिया है, प्रत्येक स्थानो को गहराई में देखने की कला में माहिर है वह अपने अनुभवो को ज्ञान तन्तुओ की तुलनात्मक लय मे जाधकर कहे सजोये मवारे तो वह-अनूठी होती है अनोखी होती है आप सच्चे अर्थों में परिव्राजक हैं जो मालवा मेवाड के डगर से तो परिचित है ही, किन्तु सुदूरवर्ती प्रदेश वग प्रदेश (पश्चिम) महाराष्ट्र उत्तर प्रदेश की भूमि भी आपके चरणरज से पवित्र हो गयी है। गुजरात भी अछूता न रहा, वह भी अपने पवित्र स्पर्श से उपदेश की अमित धारा से पावन किया है । अपने जीवन को उन्नतिमय पवित्र शील बनने की कला मे भी आप पटु है किसी को भी अपना बनाने की कला मे पटु है, मिद्धहस्त है । अपना बनाने की कला में हर कोई पढ़ नहीं बन सकता वह तो विरल प्राणियो मे ही देखी जाती है।
आप मे यह मद्गुण भी देखा जाता है कि जो भी अपने कार्य करने का निश्चय कर लिया उस पर गहन मनन के वाद यदि नही हो तो उसे करे बिना चैन भी नहीं पडता, करना है इसीलिए करना नही । कर्त्तव्य है करणीय है इससे सुफल निकलेगा वम इसी भावना, से कार्य करने मे कटिवद्ध हो जायगें फिर तो अनेको वाधाएं मुह पसारे सामने खडी हो जाय या अन्य कुछ भी हो जाये करके ही छोडेंगे ।
___ आज उनकी जो स्वर्ण जयन्ति मनाई जा रही है अभिनन्दन ग्रय भेंट करने का जो आयोजन चल रहा है वह अतीव हर्प का विषय है। मैं श्रद्धेय श्री श्री प्रतापमल जी म. सा. को हार्दिक अभिनन्दन प्रेपित कर रहा हूँ। साथ मे मेरी यह भावना बताने का लोभ भी नही सवरण कर पा रहा हूँ कि दीक्षा की मौवी जयन्ति मानने के आयोजन मे मैं भी शामिल होऊ व अपना मन्तव्य सहस्रायुभव कहकर पूरा करूं। इसी भावना के साथ-साथ पुन पुन अभिनन्दन जय वन्दन के माथ विरमामि ।
प्रतिभासम्पन्न व्यक्तित्व : एक विश्लेषण
-मुनि रमेश सिद्धान्ताचार्य, साहित्य रत्न गुरु प्रवर के यशस्वी जीवन के सम्बन्ध मे जितना भी लिखा जाय, वह अपर्याप्त ही रहेगा। आप मे उदारता, गुणग्राहकता, मिलनसारिता, धैर्यता, विवेकता और समन्वयता के साथ-साथ परिस्थितियो के समझने को खूवी अजव की रही है। निरभिमानता, समता आदि कूट-कूट करके जीवन के कण-कण मे ओत-प्रोत हैं । यही कारण है कि-विरोधी जन भी आप के सान्निध्य मे उपस्थित होकर विरोधी भावना भूल से जाते हैं और अक्षुण्ण आत्मशाति का अनुभव कर वही ईर्ष्या-द्वेष के किटाणुओ को विसर्जन कर देते हैं । ।
कानो से वातें करती करुणा-पृारत आखें, सुन्दर पलको की पाखें, शात सौम्य चन्द्रानन, चमकता विशाल भाल, चाँदी सी दमकती केशावली, धनुपाकार भौहे, शुचि शुक नासिका, अमृत रसमय अधर पन्लव, दत मुक्ता, "क्ति-द्वय की विद्युत् छटा, गोल गुलावी गाल, मन मोहक मुंह पर मधुर
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१०२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
मुस्कान, जो वैराग्य भावो से ओत-प्रोत आदि आप के पार्थिव शरीर का वाह्य वैभव है। जो सचमुच ही आगन्तुक भव्यात्माओ को सहज मे ही प्रभावित करता है ।
महकता जीवन "उदार चरिताना तु वसुधैव कुटुम्बकम्' अर्थात् आप के लिये सारा ससार ही एक विराट परिवार है । यद्यपि सम्प्रदाय के बीच आप ने विकास पाया है । तथापि साम्प्रदायिक भावनाओ मे आप कोसो दूर रहे हैं । फलस्वरूप प्रत्येक मानव के प्रति आप का व्यवहार बहुत ही उदार और सुखप्रद रहा है । गुण ग्राहकता आप की निराली विशेषता रही है। चाहे वालक अथवा वृदृ हो, चाहे योगी हो या भोगी, परन्तु उनकी गुणज्ञता आप सहर्ष स्वीकार करते हैं। मिलनसार भी आप अपने ढग के अनोखे हैं । जहाँ भी आप के चरण कमल पहुँचते है वहाँ अपनत्व का मधुर वातावरण सर्जन करके ही लौटते है।
सेवा धर्म आप के जीवन का मूल मत्र है। इस पर जन्म-जात आप का अधिकार भी है। अनेक शिप्यो के होते हुए भी अद्यावधि आप उमी प्रकार सेवा कार्य मे दत्तचित्त है। आप द्वारा कृत सेवा से प्रसन्न होकर स्व० श्रद्धेय गुरुदेव श्री नन्दलाल जी म. सा. सदैव अपनी सेवा मे ही रखते थे। इसी प्रकार जव जव स्थविर-वृद्ध मुनिवरो की सेवा-शुश्रूपा की आवश्यकता पडती थी तब आप की याद किये जाते थे । स्व० पूज्य श्री मन्नालाल जी म० सा०, तपस्वी श्री वालचद जी म. सा. वैराग्य मूर्ति मोतीलाल जी म० सा०, तपस्वी श्री छव्वालाल जी म. सा० एव स्व० उपाध्याय श्री प्यारचन्द जी म० सा० आदि २ अनेकानेक महामना मनस्वियो की आप ने दिल खोल कर सेवा की है । तपस्वियो की सेवा-भक्ति करना सचमुच हो कटका कीर्ण माना है। फिर भी आप सेवा साधना मे सफल हुए हैं। अतएव अनुमान सही बताता है कि सेवा क्षेत्र में आप एक कुशल-कर्मठ योद्धा रहे है ।
चमकता सयम . "प्रज्ञाऽऽजश्वर्य क्षमा माध्यस्थ सपन्न सभापति"
-प्रमाणनयतत्वालोक उपयुक्त गुण आप के महकते जीवन मे परिपूर्ण पाये जाते हैं। तभी तो आप एक सफल एवं सवल अनुशासक eohtroller की श्रेणी मे गिने जाते हैं । Simple living and higthinking अर्थात सादा जीवन और उच्च विचार हमारे चरित्र नायक के जीवन का उच्चातिउच्च आदर्श है। आप के जीवन का एक-एक क्षण मर्यादा पालन मे वीता और वोत रहा है। आपके शासन मे न कटुता, न कठोरता, न कापट्य पूर्ण व्यवहार और न दीखावटी-दृश्य ही है जो अन्य अधिकारी शासको के शासन मे पनपते हैं । वस्तुत मरलता, ऋजुता, समता और करणी-कथनी मे समन्वयात्मक शासन आप का स्तुत्य सुशासन है।
कथनी करणी का सुमेल अन्तर और बाह्य एकता पर सत जीवन की सबसे वही विशेषता निर्भर है। जिसके मन मै वाणी मे दुसरापन और आचरण मे तीसरापन । वह वास्तविक सत नही हो सकता । जीभ और जीवन के बीच की खाई जितनी ही चौडी होती जायगी सतवृत्ति उतनी ही दूर होती जायगी । जीभ और जीवन की समानता मे सतवृत्ति पुष्पित पल्लवित होती है। सतवृत्ति के अनुरूप गुरु भगवत का महकता हुआ साधना मय जीवन एक वास्तविक जीवन रहा है । फलस्वरूप कई विद्वद् माधक शिप्य
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाएं . वन्दनाञ्जलिया | १०३
आप के स्वभाव की शीतल छाया मे रहकर अमीम आत्मिक आनन्द उल्लास का अनुभव करते हैं। तथा अपने को शतवार भाग्यशाली मानते हैं।
___ शासक तो बहुत बन जाते हैं । किन्तु कसौटी की घडी निकट आने पर शासक और शासित (सेवक) दोनो भानभूल कर स्व कर्तव्यच्युन हो जाते हैं । परन्तु हमारे चरित्रनायक के सम्मुख कठिनाति कठिन अवसर आने पर भी आत्मभाव को भूलते नहीं है। अपितु अथाह सहिष्णुता समता धीरता मे ही रमण किया करते और उभरे हुए वातावरण को अपनी पैनी बुद्धि से शात बना देते हैं। वस्तुत निमने और निभाने की कला कुशलना का वरदान जो आप को प्राप्त है वह अन्यत्र इने-गिने अधिकारियो मे ही परिलक्षित होता है ।
सवल प्रेरक . यद्यपि भव्यात्माओ को भगवान का स्वरूप माना है । वन्धित कर्म दलिक ज्यो-ज्यो दूर हटते हैं त्यो त्यो देहधारी विदेह दशा की अर्थात् शुद्धता की ओर वढता जाता है। अन्तत केवल ज्ञान दर्शन को उपलब्ध कर वीतरागी कहलाने का अधिकार पा लेता है । जव सर्वोत्कृष्ट साधना के मर्म भेद को समझना ही दुष्कर है तो वहाँ तक पहुंचना और भी कठिन है । उसमे आश्चर्य ही क्या है ?
जब भूली-भटकी आत्माओ को कोई सच्चा गुरु अथवा सवल प्रेरक मिले, तभी वास्तविक आत्म-मार्ग की प्राप्ति, मुर्दे मन मे पुन उत्साह का निर्झर और तभी उच्चतम साधना शिखर तक पहुंचने का जीवन मे साहस प्रस्फुरित होता है । वरना साधारण से कष्ट से मानव का मन होतात्साह होकर पुन विपय वासना मे लौट आता है । इस कारण पामर प्राणियो के हितार्थ सवल प्रेरक की महती आवश्यकता रही है।
__"सतत प्रिय वादिन" अर्थात् हाँ मे हाँ मिलानेवाले हजारो है किन्तु "अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता सदा दुर्लभ" स्पष्ट एव पथ्यकारी प्रेरणा देने वाला वक्ता दुर्लभ माना गया है। गुरु भगवत का जीवन भी प्रत्येक मुमुक्षुओ के लिये योग्य प्रेरणा का ओज भरने वाला एव नई चेतना फूकने वाला सिद्ध हुआ है । ऐसे एक नही अनेकानेक उदाहरण मौजूद हैं जो निराशावादी जीवन मे शान्त सुधाभरी वाणी का सिंचन कर उन मुर्शित कलियो को विकसित होने मे अपूर्व साहस प्रदान किया है।
शान्ति के सस्थापक "शान्तिमिच्छति साधव" सत जीवन सदैव स्व-पर के लिये अभयात्यक शान्ति की कामना किया करते है । गुरु महाराज का सयमी जीवन भी जिम देश-नगर गावो मे विचरा है। वहां अशान्ति के कारणो की इति श्री कर शान्ति का शीतल-सुगन्ध समीर प्रवाहित किया है । विछुडे हुए दो भाइयो को मिलाए हैं, रोते हुए राहगीरो को हसाए हैं । फूट-फूट की परिस्थितियां मे सगठन एव प्रेम भरी वीणा ध्वनित की है । खण्ड-खण्ड के रूप में देखना आप को इष्ट नही है । यही कारण है कि आप जोडना जानते है न कि तोडना। भगवान महावीर के निम्न सदेश को आप ने निज जीवन के साथ जोडा है
बुद्ध परि निम्बुडे चरे, गाम गए नगरे व सजए ।
सती मग्ग च बूहए, समय गोयम ! मा पमायए । मुमुक्षु । भले तू गाँव, नगर, पुर, पाटन अथवा और कही विचरन करना किन्तु शाति मार्ग का उपदेश देने मे प्रमाद मत करना ।
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१०४ ] मुनिजी प्रताप अभिनन्दन राम
ITRATihari पायवा बिनोद तो पिrim'THE, TH
र? की गिन नापना मितीमा
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महात्मा गांधी arrfri HTTR A आश्रम में देश के अंग गोटि मा
पानीमा नीEि TE पर विचार विमर्श करना य मार्ग गनना धाया
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र मे. सममा रहे थे।
पििचन विदेशी नागा गोमोजो rian भी मरत्वपूर्ण कार्यों का नाग और देर रात गमा TTER
गांधीजी ने म्मित मुमा से उपर देने का - Amar zmi Err और क्या कहता' चुर हाकर बंट गया । ठोमा गीत यही कारण है कि आप अपने ममीप रहने वाले
मामो पतन पढाया एव रटाया हो परत है। अनेक माधु-नायो नी भन न मुयोग fri', र मिना पढना एव व्याधान गला का आप में प्रशिक्षण ग्रहण गे। पिय मा यः सुशिक्षित होकर आज ऊंत्री श्रेणी में योग्य धागा मन पर निशाना मी माग
वस्तुत ममन्यय आपके जीवन का मोनिस गुण: । मनः मार दिमिर मरने की मदेव इच्छा बनी रहती है। आप भी जिन शामन रे उदीयमान 'भागा। पापि नानाविध गुप रत्नो से चमकते-दमकते माप गभीर गनार हैं । जो गोने लगाने पर ही मिल पा रहा मो:"जिन खोजा तिन पाइया गहरे पानी पंट' जिसने गुरु महागज पे चरण में है जाने अवमेव मिटा फल पाया है।
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाए वन्दनाञ्जलिया | १०५ आचार्य क्षितिमोहनसेन शास्त्री (शान्तिनिकेतन) प्रदत्त
अभिनन्दन-पत्र बगाल और जनधर्म
___समार में अन्य सभी देशो मे धर्म को लेकर मार-काट सघर्प और युद्ध हुए हैं । सभी यह प्रयत्न कर रहे हैं कि अपने धर्म को स्थापित करके अन्य धर्म को लुप्त कर दिया जाय, इसलिये यूरोप मे कई शताब्दियो तक इसाईयो और मुसलमानो के बीच धर्म युद्ध (क्रुसेड) होते रहे है। वस्तुत इम रक्तपात का नाम ही क्रुसेड है।
भारतवर्ष मे अनेक धर्म मत फूलते-फलते है, किन्तु एक ने दूसरे को रक्त के स्रोत मे डुबाने का प्रयत्न नहीं किया । हमने अपने और दूसरों के सम्मिलित मगल को सत्य माना है। जिसे अग्रेजी मे "लिव एण्ड लेट लिव" कहते है । धर्म को लेकर हमने विचार विनिमय किया है, तर्क-वितर्क किया है किन्तु रक्तपात नही किया है। कारण प्रेम और मंत्री ही हमारे धर्म का प्राण है । उग्र धर्मान्धता या कट्टरता इम देश के लिये विरल है।
___भारतवर्ष में बहुत प्राचीन काल से धर्म की दो धाराएं वहती आई है एक वैदिक और दूसरी अवैदिक । वैदिक धर्म की शिक्षा यज्ञ की वेदी के चारो ओर दी जाती थी। अवैदिक धर्म की शिक्षा के स्थान थे तीर्थ । इसलिये अवैदिक धर्म की धारा को तैथिक धारा कहा जाता है।
___भारतवर्ष के उत्तर पूर्व प्रदेशो अर्थात् अग, वग, कलिंग, मगध, काकट (कलिंग) आदि मे वैदिक धर्म का प्रभाव कम तथा तैर्थिक प्रभाव अधिक था। फलत श्रुति, स्मृति आदि शास्त्रो मे यह प्रदेश निन्दा के पात्र के रूप मे उल्लिखित था । इसी प्रकार इस प्रदेश मे तीर्थ यात्रा न करने से प्रायश्चित करना पडता था।
श्रुति और स्मृति के शासन से बाहर पड जाने कारण इम पूर्वी अचल मे प्रेम, मैत्री और स्वाधीन चिन्तन के लिये वहृत अवकाश प्राप्त हो गया था। इसी देश मे महावीर, बुद्ध आजीवक धर्म गुरु इत्यादि अनेक महापुरुपो ने जन्म लिया और इसी प्रदेश मे जैन, बुद्ध प्रभृति अनेक महान् धर्मों का उदय तथा विकास हुआ । जैन और वौद्ध धर्म यद्यपि मगध देश मे ही उत्पन्न हुए तथापि इनका प्रचार और विलक्षण प्रसार वग देश मे ही हुआ। इस दृष्टि से वगाल और मगध एक ही स्थल पर अभिपिक्त माने जा सकते हैं।
वगाल में कभी वौद्ध धर्म की वाढ आई थी, किन्तु उससे पूर्व यहाँ जैन धर्म का ही विशेप प्रमार था । हमारे प्राचीन धर्म के जो निदर्शन हमे मिलते हैं वे सभी जन है । इमके वाद आया वौद्ध युग । वैदिक धर्म के पुनरुत्थान की लहरें भी यहाँ आकर टकराई किन्तु इस मतवाद मे कट्टर कुमारिल भट्ट को स्थान नहीं मिला। इस प्रदेश में वैदिक मत के अन्तर्गत प्रभाकर को ही प्रधानता मिली और प्रभाकर थे स्वाधीन विचार धारा के पोपक तथा समर्थक ।
जैनो के तीर्थंकरो के पश्चात् चार श्रुतकेवली आये । इनमे चौथे श्रुत केवली थे भद्रवाहु तीर्थकरो ने धर्म का उपदेश तो दिया किन्तु उसे लिपिवद्ध नही किया । श्रुतकेवली महानुभावो ने इन सव उपदेशो का संग्रह करके उन्हे एक व्यवस्थित रूप दिया। उनमे से प्रथम तीन की कोई रचना नही मिलती। चतुर्थ श्रुतकेवली भद्रवाहु के द्वारा रचित अनेक शास्त्र मिलते है । उनके दशवकालिक सूत्र इत्यादि अनेक ग्रन्थ मिलते है जो जनो के प्राचीनतम शास्त्र के रूप में सम्मानित हैं ।
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१०६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
ये भद्रवाहु चन्द्रगुप्त के गुरु थे। उनके समय मे एक वार वारह वर्ष व्यापी अकाल की सम्भावना दिनाई दो थी। उस समय एक वडे संघ के साथ वगाल को छोडकर दक्षिण चले गये और फिर वही रह गरे । वही उन्होंने देह त्यागी। दक्षिण का यह प्रसिद्ध जैन महातीर्थ श्रवण वेलगोल के नाम से प्रनित है । दुभिक्ष के समय में इतने बडे सघ को लेकर देश मे रहने ने गहन्थो पर बहुत वडा भार पडेगा । इमी विचार से भद्रबाहु ने देश परित्याग किया था।
भद्रबाहु की जन्म भूमि थी वगाल । यह कोई मनगटन्त कल्पना नहीं है, हरिसेन कृत वृहत् कथा मे इसका विस्तृत वर्णन मिलता है। रत्ननन्दी गुजरात के निवासी थे। उन्होने भी भद्रवाहु के मम्बन्ध मे यही लिखा है। तत्कालीन वग देश का जो वर्णन रत्ननदी ने दिया है इसकी तुलना नही मिलती।
___ इन कथनानुमार भद्रबाहु का जन्म स्थान पुडवर्धन के अन्तर्गत कोटीवर्ष नाम का ग्राम था। ये दोनो स्थान आज (वगुडा) और दिनाजपुर जिलो मे पडते हैं। इन सब स्थानो मे जैन मत की कितनी प्रतिष्ठा हुई थी, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वहा से राढ तामलुक तक सारा इलाका जैन धर्म से प्लावित था।
__उत्तर वग, पूर्ववग, मेदनीपुर, राढ और मानभूमि जिलो मे वहुत सी जैन मूर्तियां मिलती हैं। मानभूमि के अन्तर्गत पातकूप स्थान मे भी जैनमूर्तियां भी मिली हैं। सुन्दर वन के जगलो मे भी धरती के नीचे से कई मूर्तियां मग्रह की गई हैं । वाकुण्डा जिला की सराक जाति उस समय जैनश्रावक शब्द के द्वारा परिचित थी । इसप्रकार वगाल किसी समय जैन धर्म का एक प्रधान क्षेत्र था। जव वौद्ध धर्म आया तव उम युग के अनेको पडितो ने उसे जैन धर्म की शाखा के रूप मे ही ग्रहण किया था।
इन जैन साधुओ के अनेक मघ और गच्छ हैं। इन्हे हम माधक सम्प्रदाय या मण्डली कह सकते हैं । वगाल मे इस प्रकार की अनेक मण्डलियाँ थी । पुटवर्धन और कोटिवर्प एक दूसरे के निकट ही हैं किन्तु वहाँ भी पुण्ड्वर्धनीय और कोटिवर्षिया नाम की दो स्वतन्त्र शाखाएं प्रचलित थी। ताम्रलिप्ति मे तानलिप्नि नाम की शाखा का प्रचार था । इस प्रकार और भी बहुत शाखाएं पल्लवित हुई थी जिनके आधार पर हम यह कह सकते हैं कि - वगाल जैनो की एक प्राचीन भूमि है । यही जैनो के प्रथम शास्त्र रचयिता भद्रवाहु का उदय हुआ था। यहां की धरती के नीचे अनेक जैन मूर्तियां छिपी हुई हैं और धरती के ऊपर अनेक जैन धर्मावलम्बी आज भी निवास करते हैं।
आज यदि दीर्घ काल के पश्चात् अनेक जैन गुरु बगाल मे पधारे हैं तो वे वस्तुत परदेश मे नही आये, वे हमारे ही है और हमारे ही वीच आये उन्हे हम वेगाना नहीं कह सकते । ये सव जैन साधु हमारे अग्रज है और हम श्रद्धा के साथ उनका अभिनन्दन करते हैं। हमारे इस स्वागत मे यदि कोई समारोह का अभाव जान पड़े तब भी उसके भीतर वडे भाई का मादर अभिनन्दन करने की भावना नि सन्देह छुपी हुई है । पदानित ऐसी एहिक घटना बहुत प्राचीन त्रेतायुग मे भी घटित हुई थी तब वनवास के बाद रामचन्द्र अयोध्या लौटकर आये थे और छोटे भाई भन्त ने भक्ति एव प्रीति सहित उनका स्वागत विया या । अपने जैन गुरजो का हम उमी भावना से अभिनन्दन कर रहे हैं।
आज थिया में श्री श्री १०८ श्री जैन मुनि श्री प्रतापमल जी म० श्री हीरालाल जी मः श्री जगजीवन जी म० नीर श्री जय तीलाल जी म. के नेतृत्व में जैन गुरुओ का जो समागम हो रहा है
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन · शुभकामनाए वन्दना लिया | १०७
वह वरवस ही त्रेता युग के भरत-मिलन की उस कथा का स्मरण करा देता है । हमारी यही कामना है कि यह नवीन मिलन जययुक्त हो, प्रेम और मंत्री से पूर्ण यह प्रदेश कल्याणमय हो, पृथ्वी पर शाति और मैत्री की प्रतिष्ठा हो ।
श्री जैन संघ ऋपि पचमी
साइथिया १६ भाद्र १३६१ वगान्द
ता० २-६-१९५४
आदरणीय गुरु प्रवर के चरणो मे
-महासती विजयाकुमारी इस विराट् विश्व के अचल में प्रतिदिन प्रतिघटे और प्रतिपल अनेक आत्माएँ मानव के रूप में अवतरित हुए और होती हैं। अपनी-अपनी विभिन्न अवस्याओ को पार करती हुई काल कवलित वनकर धरातल से चली गई।
परन्तु कौन उनका जीवन पुष्प सौरभ मकलित करता है? कोई नहीं। केवल उन्ही का स्मरण किया जाता है जिन्होंने अपने जीवन को जगत मे जगमगाया है और परोपकार में लगा रहे हैं निज जीवन को।
हमारी मेवाड घरा ने समय-समय पर अनेको महान नर-रत्नो को जन्म दिया है । जैसेराणा प्रताप, दानवीर भामाशाह और आज हमारे सम्मुख है परम प्रतापी, शात, मरल-स्वभावी शास्त्र ज्ञाता मेवाड भूपण ५० रत्न श्री गुरुदेव श्री प्रतापमल जी म० सा० ।
___आपका जन्म मेवाड प्रात के देवगढ (मदारिया) नामक गांव मे स०१६६५ मे हुआ था। आपके पिता धर्म प्रेमी श्री मोडीराम जी एव माता दाखांवाई थी। १५ वर्ष की उम्र मे वादीमानमर्दक प० रत्न श्री नन्दलाल जी म० के सदुपदेश से मन्दमोर मे दीक्षा ली।।
वौद्विक प्रतिभा के धनी होने से अल्प समय मे ही सस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओ पर प्रभुत्व पाया । आपकी प्रवचन गैली जनता को आकर्षणकारी है। आपकी ज्ञान दान के प्रति हमेशा लग्न लगी रहती है।
मैं सद्भावना पूर्वक चरण कमलो मे भाव-भीनी पुष्पाञ्जली मश्रद्धा समर्पित करती हूँ।
सन्त-जीवन
-साध्वी कमलावती हमारा यह भारत वर्ष एक आध्यात्मिक तथा महान् देश है । इसके कण-कण मे उज्ज्वलता भरी हुई है । यह भूमि रत्न-गर्भा है । यहाँ अनेक भव्य आत्माएँ अवतरित होकर अपनी जान-गरिमा से देश को आलोकित करते है तथा अपने सद्गुणो की महक फैलाते है ।
सन्त जीवन एक पुष्प के समान है। जिस प्रकार गुलाव का पुप्प काटो के वीच पैदा होता है, उसके चारो ओर काटे ही काटे रहते हैं, पर वह हंसता हुआ उन काटो को पार करके उनसे ऊपर उठता है । फिर वह हसता-खिलता कोमल गुलाव हम मभी को कितना प्यारा आल्हादजनक तथा आनन्द दायक होता है ? इसी प्रकार सन्त जीवन में भी अनेकाअनेक काटे रुपी कठिनाइयाँ आती हैं । पर सत
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१०८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
हसते हुए उनका सामना करते है और साधना के पथ पर बढते हुए चले जाते हैं । वे कभी पीछे नही हटते हैं । उनका हृदय सुख के समय फूल मा कोमल होता है, और सकट के समय शैल सा कठोर, अकम्पअडोल । सत जीवन राग, द्वेप, कपाय से विल्कुल परे होता है । वस निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर वढता रहता है । एक कवि ने कहा है
संसार द्वेष की माग मे जलता रहा पर सन्त अपनी मस्ती मे चलता रहा । सन्त विष को निगल करके भी सदा, ससार के लिये अमत उगलता रहा ।। परोपकार, दया, स्नेह, मधुरता, शीतलता आदि इनके मुख्य गुण हैं । कहा हैसाधु चन्दन बावना शीतल ज्यारो अंग । लहर उतारे भुजग की देदे ज्ञान को रंग ।।
प्रताप की प्रतिभा
-तपस्वी श्री लाभचन्द जी महाराज भारत एक चिन्तनशील राष्ट्र है और उमकी विशिष्टता है आत्म-साधना । आत्मा परमात्मा के स्वत्प को पहिचानना, समझना। व्यग्रता और समग्रता के कारणो को देखना परखना । इस देश के कण-कण में पवित्रता पावनता है।
यहां की विशिष्टता है आध्यात्मिकता | अपने जीवन को देखना, परखना, निरीक्षण तथा परीक्षण करना । इस प्रकार की महत्ता अन्य देश यूनान, यूरोप आदि ने भी प्राप्त न की। पाश्चात्य देशो मे आत्मा का जो वर्णन किया गया है वह मुख्यतया जड प्रकृति को समझने के लिए है किंतु भारत ने आत्मा को परखने के लिए जड प्रकृति का विवेचन किया।
सच्चाई तो यह है कि भारतीय सत आ-मा और परमात्मा की खोज के लिए अनादि काल से प्रयत्नशील हैं। अगणित सतो ने उसमे सम्पूर्ण सफलताएं भी प्राप्त की हैं।
भारत की और खामकर जनसस्कृति की यह विशिष्टता है, सभी को माथ लेकर चलना सभी के विचारो को समझना, समन्वय करना । पाश्चात्य संस्कृतियो की तरह भारतीय दर्शनो मे मौलिक एक दूमरो का मतभेद नही है। जैन मस्कृति का मुख्य लक्ष्य है-सत्य का साक्षात्कार करना, सत्य को जीवन मे उतारना, सत्य चिन्तन करना ।
___ भारत की शप्यण्यामला भूमि जो आध्यात्मिकता की भूमि है और रही है, उसका कारण सत कृपा, मत की तप साधना । एक मस्कृत के अनुभवी ने कहा है कि
सत' स्वत प्रकाशते, न परतो नृणाम् कदा ।
आमोदो नहि कस्तूर्या, शपथेन 'वभाव्यते ॥ अर्थात्-- मत्पुरुषो के सद्गुण स्वय ही प्रकाशमान होते हैं । दूसरो के प्रकाश से नही । कस्तूरी की मुगन्ध शपथ दिलाकर नही बताई जाती। उसकी खुशबू उसकी महत्ता प्रगट करती है। इसी प्रकार महापुरुपो का जीवन भी मद्गुण-शीलता मदाचार की महक प्रदान करनेवाला होता है । साधना के उत्तम शिखर पर पहुचने के लिए ज्ञान, दर्शन, चारित्र की मशाले लेकर अनाना धकार को विच्छिन्न करने के लिए वे सदा प्रयत्नशील रहते हैं। वे मत मार्ग में आने वाले कष्टों की परवाह न करते हुए, मुस्काते हा आगे कदम वढाते हुए वे अपनी मजिल प्राप्त कर लेते है। इतिहास के पृष्ठो पर अनेक नाम अमिट यक्ति है जगे--सुदर्णन, श्रीपाल, महावीर गौतम, खदक आदि समुज्वल नाम प्रात स्मरणीय हैं।
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाए वन्दनाञ्जलिया | १०६
सत परम्परा मे मेवाडभूपण पण्डित रत्न श्री प्रतापमल जी महाराज का जीवन भी एक कडी है। आप आदर्ग, गोलसम्पन्नता की माक्षात् मूर्ति हैं। आप के जीवन मे सहिष्णुता, क्षमता मधुरता, विशिष्ट रूप में पाई जाती हैं। आप स्पष्ट व निर्भीक हैं । आप सत्य के पक्ष मे सुदृढता से अडे रहते है। आपके जीवन की एक प्रमुख विशेषता है कि-आने वाली विकट परिस्थितियो से आप समझौता नहीं करते वरन् उनको सुलझाना ही जानते हैं।
आपने वाल्यकाल से जैन सत की कठिन साधना स्वीकार की। आप वीर-भूमि मेवाड मे स्थित देवगढ के निवासी है।
"महापुरुषो को जीवनी यह हमको बतलाती है । अनुकरण कर मार्ग उनका उच्च बन सकते हैं सभी । काल रूपी रेती पर चिन्ह वे जो तज जाते हैं।
आदर्श उनको मानकर आगन्तुक ख्याति पा जाते हैं।" महापुरुषो का चित समृद्धि के समय कमल के समान कोमल, मक्खन के समान स्निग्ध, स्नेह युक्त सदैव हो जाता है । परन्तु आपत्ति के समय वे अपने मन को पर्वत की चट्टान की भांति कठोर एव अचल वना लेते हैं। आप श्री के सम्पर्क में मुझे रहने का बहुत बार अवसर मिला । आप मे साघुता सेवा-भावना आदि प्रचुर मात्रा मे पाई गई। शासनदेव आप को दीर्घायु दें ताकि ऐसे महान् नर-रत्न से जन-समाज खूब लाभान्वित वने । इसी शुभ कामना के साथ • I
मेरे आराध्य देव !
.-आत्मार्थी तपस्वी श्री बसन्तीलाल जी महाराज भगवान महावीर ने कहा है- “से कोविए जिणवयण पच्छ्गा सूरोदए पासति चक्खूणेण" । चाहे मानव कितना भी कोविद हो, जिनवाणी की अपेक्षा अवश्य रही है। जैसे-आखे होने पर भी देखने के लिए सूर्य की अपेक्षा।
उसी प्रकार पामर प्राणी के जीवन विकास के लिए आधार चाहिए । सही दिशा-निर्दश की वहुत वडी आवश्यकता रही है । पार्थिव आंखें होने पर भो दिशा-निर्देशक के विना अनभिज्ञ आत्माओ का एक कदम भी आगे बढना हानिकारक माना है ।
भारतीय सस्कृति मे इसीलिए गुरु रूपी निर्देशक का बहुत बडा महात्म्य गाना गया है । गुरुगरिमा-महिमा के पन्ने के पन्ने लिखे गये है। तथापि गुरु के गुणों का चित्रण एव विश्लेपण करने मे लेखक एव कविगण असफल रहे हैं। गुरु-महात्म्य को इस प्रकार दर्शाया है
पिता माता-भ्राता प्रिय सहचरी सूनु निवह सुहृत् स्वामी माद्यत्करि भट रथाश्वपरिफर निमन्त जन्तु नरफकुहरे रक्षितुमल, गुरो धर्माधर्म - प्रकटनपरात फोऽपि न पर ।
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११० मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
नरक रूपी कूप मे डूबते हुए प्राणी को धर्म-अधर्म के प्रगट करने मे तत्पर ऐसे गुरु से भिन्न अन्य पिता-माता-भाई-स्त्री-पुत्र-मित्र-स्वामी मदोन्मत्त हाथी-योद्धा रय-घोडे और परिवार आदि कोई भी समर्थ नही है।
मोह मायावी जीवात्मा को परमात्मा पद पर आसीन करने मे गुरु का ही मुख्य हाथ रहा है। कारीगर की तरह जीवन के टेढे एव वाकेपन को निकाल कर उन्हे सीधा-सरल एव सौरभदार बनाते है ? जैसा कि
गुरु कारीगर सारिखा, टाची वचन विचार ।
पत्थर की प्रतिमा करे, पूजा लहे अपार ।। परम श्रद्धय मेवाड भूपण गुरुदेव श्री प्रतापमल जी मा० मा० मेरे जीवन के सर्वोपरि निर्देशक रहे है। जिनका सफल नेतृत्व मेरी साधना को विकसित करने मे पूरा सहयोगी रहा है । इस अनन्त उपकार से मुक्ति पाना मेरे जैसे साधारण शिप्य के लिए कठिन है।
'प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ' गुरुदेव के कमनीय कर कमलो मे जो समर्पित किया जा रहा है । यह चतुर्विध संघ के लिए गौरव का प्रतीक है। महा मनस्वी आत्माओ का बहुमान करना, अपनी सस्कृति-सभ्यता को अमर वनाना जैसा एव अपने आप को धन्य वनाना है।
विनम्र पुष्पांजलि...
-मुनि हस्तीमल जी म० 'साहित्यरत्न' पडितवर्य मेवाडभूपण श्री प्रतापमल जी म० का दीक्षा अर्ध शताब्दी समारोह के उपलक्ष मे 'प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ' का प्रकाशन हो रहा है। यह सर्वथा अनुकरणीय एव प्रबुद्ध जीवी के लिए गौरव का प्रतीक है । महा मनस्वियो का अभिनन्दन करना, यह समाज की अटूट परम्परा रही है ।
'जहाँ-जहाँ चरण पडे सत के, वहाँ-वहाँ मगल माल' तदनुसार आप जिस किसी प्रात-नगर एव गाव मे पधारे हैं, वहाँ आप ने भ० महावीर के 'शान्तिवाद' सदेश को प्रसारित किया है । क्षीरनीर न्यायवत् आप मिलना एव मिलाना अच्छी तरह जानते हैं ।
अपनी इम दीर्घ दीक्षा अवधि मे आपने लाखो श्रोताओ को अपनी माधुर्य पूर्ण वाणी द्वारा अभिभूत एव अभिमिचित किया है। फलस्वरूप भावुक जन की मानसस्थली मुलायम हुई और दान शील-तप-भावो की लनाएँ पल्लवित-पुप्पित हुई है।
ऐसी पवित्र विभूति के पाद पद्मो मे मक्ति भरी पुष्पाजलि समर्पित करते हुए आज मुझे अपार आनन्दानुभूति हो रही है।
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाए · वन्दनाञ्जलिया | १११ प्रतापी व्यक्तित्व : भावांजलि की भीड़ में !
-मुनि प्रदीप कुमार 'विशारद' परमपूज्य गुरुदेव श्री प० श्री प्रतापमल जी म. सा. के अभिनन्दन ग्रन्य की पावन वेला मे श्रद्धा युक्त हार्दिक पुप्पाजलि ।
मेवाड भूषण, धर्म सुधाकर वालब्रह्मचारी प्रात:स्मरणीय श्री श्री १००८ श्री पूज्य गुरुदेव के अभिनन्दन ग्रन्य का प्रकाशन के मगलमय अवसर पर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता और आल्हाद हो रहा है। उसे मैं शब्दो मे व्यक्त करने में असमर्थ हू ।
सौम्यता, सरलता एव सादगी की प्रतिमूर्ति पूज्य गुरुदेव । दीक्षा की अर्धशती पार कर चुके। इस अवधि मे जो सदुपदेश और प्रवचन पूज्यपाद ने जन मानस को दिये हैं, वे आज भी हृदय स्थल पर अकित है।
___ अहिंसा के सन्देश को व्यापक बनाते हुए जो सघर्ष आपने किया है । उसे कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता है।
मैं उन समस्त विद्वद्जनो के प्रति आल्हादित हूं, जिन्होने अभिनन्दन ग्रन्थ के प्रकाशन मे अपना अमूल्य सहयोग दिया है ।
मेरी यह हार्दिक कामना है कि गुरुदेव श्री का सदेश दिग्-दिगन्त म व्याप्त होकर इस समस्त सृष्टि को आलोकित करदे ।
अपने सुदीर्घ त्यागमय तपस्वी जीवन में देश के विभिन्न अचलो की ज्ञान यात्राएं कर पूज्य गुरुदेव ने जो ज्ञान गगा प्रवाहित की उसका निमज्जन कर विश्व-भारती अपने मुख-सौभाग्य को सराहती रहेगी। इसमे लेशमात्र भी सन्देह नही है।
यू तो शताब्दियो से अद्भुत शक्तिया धरा पर अवतरित होती रही हैं, कभी भी नर रत्नो का अभाव नहीं रहा।
भारतीय नर पुगवो-नर राजाओ की साहसिकता, महानु भवता, कला-कौशलता, शासन कुशलता, अतुलित त्याग तपस्या, प्रवल पाडित्य सिन्धु मम गाभीर्यादि जैन समाज कैसे प्रदर्शित कर सकता था? यदि श्री गुरुदेव के सम्मान मे अभिनन्दन अन्य का प्रकाशन न किया होता।
___ आपके तपोमय परोपकारी एव जनकल्याणकारी स्वरूप को देखते हुए, महात्मा तुलसीदास जी की ये निम्न पक्तिया आपके जीवन में कितनी चरितार्थ होती है
साधु चरित सुम चरित कपासू निरस विसद गुणमय फल जासू ।
जो सहि दुख पर छिद्र दुरावा वन्दनीय जेहि जग जस पावा !! और देखिये
वदउ सन्त समान चित हित अनहित नहीं फोइ !
अलि गत सुभ सुमन चिमि सम सुगन्ध कर दोइ !! उपर्युक्त कयन आपके उज्ज्वल न्यागमय जीवन मे कितना निकट है इसे प्रकट करने में मेरी लेखनी असमर्थ है।
अतएव, यदि चन्दन की लेखनी को मधु मे डूबाकर पूज्य श्री के महान कृत्यो को लिखा जाये, तो भी गुरुदेव के महान जीवन का वर्णन नहीं किया जा सकता है । अत इस पुनीत पावन मगलमयी वेला पर मैं माभार अपनी भक्ति पुप्पाजलि सविनय अर्पित करते हुये अपने को धन्य मानता हूँ।
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११२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
गौरव-गाथा
-श्री विमल मुनि जी म० के शिष्यरत्न श्री वीरेन्द्र मुनि जी म. मवाड भूपण गुरुदेव श्री प्रतापमल जी म० के सम्मानार्य अभिनन्दन ग्रन्थ की रूप रेखा देखते ही मेरा मावुक हृदय कुछ लिखने का साहस कर बैठा। वैसे तो गुरुदेव के सम्बन्ध में कुछ भी लिखना सूर्य को दीपक बताना है । तथापि मैं अपने भक्ति के सुमन मुनि श्री जी के चरणो मे समर्पित करता हू ।
आप का जीवन गुणानुरागी रहा है । यही कारण है कि-गुण रूपी सुमनो से आप के जीवन को चप्पा-चप्पा महक रहा है। एतदर्थ आप का निर्मल यश सभी प्रातो मे परिव्याप्त है। 'परोप काराय सता विभूतय' सज्जन पुरुपो का जीवन परोपकार के लिए है। तदनुसार आप भी माधुर्य भरी वाणी द्वारा सभी नर-नारी का भला किया ही करते है ।
___ मुझ पर भी आप का अकथनीय उपकार रहा है जो अविस्मरणीय रहेगा । दीक्षा सम्बन्धित - विचारणा मे मेरे तात-मात एव भ्राता गण को सद्बोध प्रदान करने मे आप ने कोई कमी नही, रखी। वस्तुत आपकी महत्ती कृपा का ही यह मधुर फल है कि आज मैं साधक जीवन मे आनन्द की अनुभूति ले रहा है।
ऐसे महामना परमोपकारी विश्व वात्सल्यनिधि वन्धुत्व भावना के सवल प्रेरक, मेवाड भूषण पडित वर्य श्री के चरणो मे भाव पुष्पाजलि स्वीकार हो ।
ऐक्यता के प्रतीक
-श्री निर्मल कुमार लोढा सत विश्व के लिए नवीन चेतनाओ द्वारा विश्व के जन-मानस के जीवन को विकसित करने वाले देवदूत हैं । ये अन्धकार के मार्ग की ओर भटकती हुई जनता को प्रकाश-पथ की ओर अग्रसित करने वाले प्रकाश-स्तम्भ हैं। विश्व मे अशाति, साम्प्रदायिकता, वैमनस्यता को दूर करने वाले तथा मार्ग प्रदर्शित करने वाले सत ज्ञान के अक्षय स्रोत होते हैं । अपना जीवन जन-मानस के बौद्धिक एव सर्वस्व सुखदाय की भावनाओ से पूरित होता है।
श्रद्धेय मेवाड भूपण ऐक्यता प्रेमी पण्डितरत्न श्री प्रतापमल जी महाराज साहव विश्व सत माला के एक अनमोल रत्न है । ऐवयता, मृदुलता एव वन्धुता की जन-मानस पर अमिट छाप है। विशाल हृदय-साम्प्रदायिकता से बहुत दूर ऐक्यता हेतु जीवन एक उत्तम आदर्श है । राष्ट्र के अनेक प्रातो मे विचरण कर सामाजिक सुधार-ऐक्यता एव सर्व धर्म समन्वय की भावनाओ से जनता को जीवन पथ की ओर बढाया है।
सन् १९५१ मे आपका एव प्रर्वतक श्री हीरालालजी म० सा० का चातुर्माम देहली मे हुआ था। दिवाकर जी महाराज की प्रथम पुन्य तिथी पर आपके नेतृत्व एन प्रेरणा से एक विशाल सर्व धर्म सम्मेलन हुआ था। मर्व धर्म समन्वय के प्रतीक -ऐक्यता के अग्रदूत सन्त रत्न श्रद्धेय पण्डित श्री प्रतापमल जी महाराज साहब के सघ सेवाओ से सारा समाज प्रफुल्लित हो उठता है। गुरुदेव श्री के बहुमानार्य आयोजित "प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ" का जो प्रकाशन हो रहा है वह सराहनीय प्रयत्न है।।
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द्वितीय खण्ड . अभिनन्दन शुभकामनाए वन्दनाञ्जलिया | ११३ अन्त मे वीर प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि गुरुदेव दीर्घायु होवे एव आपकी प्रेरणाएँ एव आशीर्वाद मे सघ-समाज एव राष्ट्र के अन्दर शान्ति एव "वसुधैवकुटम्बकम्' की भावनाओ से एक दूसरे का जीवन प्रेम प्रकाश की और पल्लवित-विकसित होता रहे।
हजारों साल नरगिस अपनी वेनूरी पै रोती हैं। बड़ी मुश्किल से चमन मे दिदावर पैदा होता है ।।
हार्दिक अभिनन्दन !
-मदन मुनि 'पथिक' महापुरुपो का जन्म अपने लिये नही, विश्व, समाज और उस दलित वर्ग के लिये होता है, जो सदियो से उपेक्षित और प्रताडित है।
यह बहुत बड़े सौभाग्य की बात है कि भारतीय तत्त्व चेतना के स्वर समय-समय पर ऐसे ही महापुरुपो के द्वारा मुखरित हुए हैं जो अपने से अधिक अन्य प्राणियो के कप्ट और पीडाओ को महत्त्व देते थे। हमारा इतिहास गवाह है कि यहां स्वार्थी विपय पोषक और लोलुप व्यक्तियो को कभी भी महत्त्व नही मिला, भारतीय जनमानस सद्गुणोपासक रहा, क्यो कि हमारे प्रतिनिधि महापुरुप वस्तुत सद्गुणो के साक्षात् अवतार थे।
___भारतीय सस्कृति में जैन सास्कृतिक धारा का अपना अन्यतम स्थान है । यह गर्व नही, किन्तु गौरव की बात है कि त्याग-वैराग्य के क्षेत्र मे, दान और सेवा के क्षेत्र मे जितने महापुरुप भारत को इस परम्परा ने दिये उतने सभवत अन्य धाराएं नहीं दे सकी। भगवान महावीर से पूर्व के इतिहास को गौण भी कर दें तो भी तत्वज्ञ गौतम स्वामी, महान त्यागी जम्बू, प्रभव, श्री सुधर्मा आदि अध्यात्म साधना के सर्वोच्च शिखर को छ्ते हुए कई स्वर्ण कलशवत् देदीप्यमान उत्तम महापुरुपो का भव्य इतिहास हमारे पास है।
महान् क्रान्तिकारी वीर लोकाशाह, पूज्य श्री धर्मदास जी म०, पू. श्री लवजी ऋपि, पू० श्री धर्मसिंह जी, पूज्य श्री जीवराज जी म० आदि महान क्रान्तिकारी महान आत्माओ के तेजस्वी कार्यकलापो से हमारा इतिहास सर्वदा अनुप्राणित रहा है।
इनकी उत्तरवर्ती परम्पराओ का कुछ परिचय देना भी लगभग एक ग्रन्थ रचना जितना है । जैन सास्कृतिक-धार्मिक उपवन मे यहा हजारो रग विरगे सुन्दर पुष्प खिले हुए दिखाई देते हैं।
सौभाग्य का विपय है कि आज हम उमी महान परम्परा के एक महान् अग्रदूत का हार्दिक अभिनन्दन कर रहे हैं।
५० रत्न मधुरवक्ता श्री प्रतापमल जी म. सा. जो स्थानकवासी जैन समाज की महान् विभूति हैं । आज मानव मात्र के वरदान स्वरूप है। मुनि श्री जी का दीर्घ सयम, अविकल प्रशसनीय शासन सेवा और श्रेष्ठ माहिय साधना अपने आप मे इतने महत्त्वपूर्ण है कि आज क्या सदियो तक अभिनन्दनीय रहेगें।
में हृदय की गहराई से मुनि श्री का अभिनन्दन करता हुआ दीर्घ सयमी जीवन की शुभकामना करता हूँ।
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११४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन गन्थ एक अपराजेय व्यक्तित्व : प्रताप मुनि !
-मधुर वक्ता श्री मूलचन्द जी म० श्रद्धेय पडित प्रवर, धर्म-सुधाकर श्री प्रतापमल जी म. के साधक जीवन की स्वणिम वेला मे हृदय की श्रद्धामय पुष्पाजलियाँ समर्पित हैं ।
प्रकृति स्वय ही अपने साधना-पुत्र का ममतामयी शृ गार कर रही है । दिशाएँ अभिनन्दन के सगीत मे थिरक रही है । जीवन का माधुर्य उमड-उमड कर निष्ठा के साथ हिनारे ले रहा है । आपके प्रति प्रतिपल नत है । यह महका-महका वातावरण नत है । भक्ति के बोल सविनय नत हैं।
ज्ञान चेतना की स्फूर्ति आपकी स्वाभाविक विशेषताओ मे से एक है। कठिन एव गभीरतम विपयों को सरलीकरण का स्वरूप देना, आपकी कला की सिद्धि है । मुनियो एव सतियो के लिए आप वाचक गुरु की योग्यता से प्रतिष्ठित हैं । अध्यापन की अनूठी शक्ति के दर्शन आप मे प्रशसनीय रूप से होते हैं । संघर्ष की क्रूरता को मुस्कान की शोभा मे बदलना, आपसे सीखा जा सकता है । ममन्वय की साक्षम्यता को आप प्रमुखता प्रदान करत हैं। आपका "मित्ती मे सव्व भूएसु" मूलमत्र है । आप "गुणिप प्रमोद" की भावना के प्रतीक हैं।
आप कार्य गरिमा की सक्रियता की मान्यता को स्थापित करते हैं। लोक्पणा आपकी मनोभूमि को नहीं छू पाई है। आपके सानिध्य में समीपस्थ अतेवासी वर्ग एव सम्पर्क मे आगतजनो को आपकी गुरु कृपा का वरदायी सन्देश नये होश नये जोश के माथ वितरित होता रहता है। जीवन मे उत्तरोत्तर उर्वमुखी एव सर्वांगीण उन्नति पथ की ओर निरन्तर अग्रसर होने की महनीय प्रेरणा हम सभी को उपलब्ध होती रहती है ।
पुरानी पीढी की वुजुर्गता के होते हुए भी नयी प्रजा के उदीयमान अस्तित्व के समर्थक एव सरक्षक हैं । आप मे भविष्य के उत्तरदायित्व पुरुपत्व के दर्शन होते है । आप हमारे कोटि-कोटि प्रणाम के अधिकारी हैं।
ऐसे पूज्यनीय पडित प्रवर श्रद्धेय मुनि श्री प्रतापमल जी महाराज के रूप मे एक अपराजेय व्यक्तित्व को मेरी मर्वतोभावेन आदराजलि समर्पित हैं ।
सर्वतोमुखी-सर्वाङ्गीण-सार्वभौमिक संत पुरुष !
-श्री अजित मुनि जी म० "निर्मल' परम श्रद्धे यवर्य मेवाड भूपण धर्मसुधाकर पडितप्रवर श्री प्रतापमल जी म० के अभिनन्दनीच व्यक्तित्व को श्रद्धाभिभूत अनन्त-अपरिमित वन्दन-नमन |
पूज्यनीय पडित जी म० का मेरे लिए वरदायी एव स्नेह पूरित वाणी और दृप्टि का विपुल कोप मेरे बचपन से ही मुझे मुक्त रूप से प्राप्त होता रहा है। साथ ही यह भी पूर्ण विश्वास है, कि इसी प्रकार भविप्य के स्वर्णिम पथ मे भी आपके सुखद-सुहाने सवल की प्रस्तुति रहेगी। मेरा आपके प्रति
पूज्य
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाए वन्दनाञ्जलिया | ११५
गौरवमयी श्रद्धा का मम्वोधन "पडितजी महाराज" रहता है। जो कि यह छोटा सा शब्द मुझे अत्यन्तप्रिय है।
आपकी प्रवचन एव वार्ताकला वास्तव मे अनुपम शक्ति पूर्ण है। मैंने प्रत्यक्ष रूप से यह पाया है कि विरोधी की कटुता भी आपके सम्मुख निरस्त हो जाती है । क्योकि आपका किसी के भी प्रति अप्रिय व्यवहार रहता ही नही है। आपकी गुर-सम्मति निश्छल एव निर्पेक्ष भाव से तत्परता रखती है । आप वालक से वृद्ध तक समान रूप से लोक प्रिय है।
आपका प्रत्येक शुभ एव प्रगति कार्य के प्रति वेहिचक स्वीकृति-सहयोग एक अनुकरणीय प्रयास है। आप उत्माह के स्तभ, शिक्षा के प्रकाश, सेवा के धाम, जिनवाणो के सन्देशवाहक, आध्यात्मिक चिकित्सक, धर्म के प्रभावक, जीवन के गुरु उदार विचारो के धनी, स्नेह के सागर, शिष्यत्व के पोपक, गुरुजनो के नैप्टिक उपासक, सर्वतोमुखी-मर्वा गीण-सार्वभौमिक-सन्त पुरुप, चेतना के उत्कर्प ध्र व, साधना मगीतिका के सरगम, मौन कार्य कर, पद एव यश के निष्काम ज्योतिर्धर हैं । इस प्रकार आप मे अगणितअप्रतिम एव वैविध्य पूर्ण विशिष्टतामो की विराटता सन्निहित है ।
प्रमुदित मुख, प्रलव देहमान, वचनो मे निर्झर माधुर्य की मुस्कान, वय से प्रौट, स्वभाव से नवजात, चमकता भाल प्रदेश, "वादिमान मर्दक गुरु" के समन्वयी शिष्य ।।
__ बस । यही तो है, हमारे पडित जी महाराज का दैहिक, वाचिक एव मानसिक गुणधर्मा प्रत्यक्ष परिचय ।
__ आपका मेरे प्रति अत्यन्त स्नेहभाव रहता है। आपने मेरी शिशुवत भावनाओ का प्राय सम्मान ही किया है। आपकी स्तरीय प्रवीणता एव अग्रसरता की सशक्तप्रेरणा मेरे लिए वरदायिनी थाती है।
____ मेरे 'प्रतीक गुरु' के पुण्य-पुनीत विकासमान व्यक्तित्व को मेरी सम्मानित आदरजलि सपित है।
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श्री प्रतापमलजी महाराज का गुणाष्टक
-प्रवर्तक मुनि श्री उदयचन्दजी म० "जैन सिद्धान्ताचार्य" (शार्दूल विक्रीडित छंद) श्रीमनिर्जरमण्डल स्तुतवरे भूमण्डले शोभिते, प्रख्याते वर भारतेऽति महति राजस्थले मण्डिते । श्री शोभायुत मेदपाट महिते श्रीदेवदुर्गपुरे
गांधीत्यन्वय शोभितो नरवर श्री मोडिरामाभिध ॥१॥ देवताओ की मन्डली द्वारा स्तुति किये गये शोभा युक्त इस भूमण्डल पर एक प्रसिद्ध भारत वर्ष देश है, उममे राजस्थान नामक प्रान्त है उसी प्रान्त मे शोभा एव लक्ष्मी से युक्त मेवाड नाम क्षेत्र मे देवगढ नामक नगर मे गाँधी वश के सुशोभित पुरुपो में श्रेष्ठ श्री मोडीरामजी प्रसिद्ध हए है।
तत्पुत्रोऽतिगुणान्वित सुसरलो द्राक्षा जनन्यात्मज नम्रोऽतीष परोपकारनिरतो नाम्ना प्रतापानिध बाणे पण्णवचादि सख्यकयुते श्रीवैक्रमे वत्सरे
आश्वीनोत्तम मास सप्तमितिथी जन्माग्रहीत्सत्तन ॥२॥ उन सु श्रावक श्री मोडीरामजी तथा सुश्राविका श्री दाखा वाई के अत्यन्त सरल स्वभाव वाले नम्र तथा परोपकारी प्रतापमलजी नाम के सुपुत्र हुए । उनका जन्म विक्रम सवत् १९६५ आश्विन महीने की सप्तमी तिथी के दिन हुआ।
माता चास्य शिशुत्वभाव समये स्वर्ग समासादिता । तस्या मोहममता बन्धन विधि स त्यक्तवान् सात्विक । लोकस्याप्यवशिष्ट नन्धनविधौ मोहात्मफस्तत्पिता।
औदासीन्य तया त भाग्य विभवे त्यक्त्वा च त स्वर्गत ॥३॥ उनकी माता बाल्यावस्था में ही स्वर्ग सिधार गई। इस प्रकार उनकी माताश्री का मोह मय बन्धन छुट गया । ससार मे अव उनके पिता श्री का मोहमय बन्धन ही शेप रहा था उसको भी आपने भाग्य विभव की उदासीनता के कारण शीघ्र ही छोड दिया अर्थात् उनके पिता श्री भी उनको छोड स्वर्गवासी हो गये।
बाल्येऽसी परमा विरक्तिमगमत् साधूपदेशामृत । श्रीमन्नन्दसुलाल नाम मुनिना सत्सगमासाध स ।। श्री कस्तूरसुधासु नाम मुनिना सच्छिक्षया शिक्षित ।
पूर्वस्मिन् कृत पुण्य सचिय तया वैराग्यमाव गत ॥४॥ उन्होंने बाल्यावस्या । साधु सतो के उपदेशामृत को पान कर वैराग्य भाव को धारण कर लिया । श्रीमान् महाराज मादेव श्री नन्दलालजी के सत्मग को प्राप्त किया तथा श्रीमान् कस्तूरचन्दजी महाराज सा० की शिक्षाओ से सुशिक्षित हो गा । इस प्रकार अपने पूर्व भव मे किये हुए पुण्य कर्मों के सचय मे वैराग्य की भावना को प्राप्त किया।
नन्दा ये मुनिनन्द शुकन्यने श्रीवक्रमे वत्सरे । मासानामति तौरवान्विततमे श्रीमार्गमासे सिते ।।
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाए वन्दनाञ्जलिया { ११७ पूर्णे चन्द्रयुते सुपूणिमतियो ससारमुक्तव्यथित ।
श्री मन्नन्दसुलाल ज्ञान गुरुणा दीक्षाविधौ दीक्षित ॥५॥ विक्रम सन् १९७६ मासोतम मास मृगशिर मास मे शुक्ल पक्ष मे पूर्ण चन्द्रमा से युक्त पूर्णिमा तिथि के दिन संसार से मुक्ति चाहते हुए श्रीमान ज्ञान गुरु महाराज श्री नन्दलालजी के द्वारा दीक्षा प्राप्त करली।
सत्ताहित्य सदागमादिक सदाभ्यासेन सत्पण्डित । सच्छास्त्र मुमहत् परिश्रमतया निष्णातवान् ज्ञानवान् ।। स्वात्मज्ञान युतोऽपि शिक्षणविधी प्राप्त प्रसिद्धि पराम् ।
कर्मास्यस्य मुबन्धनस्य कपणे ज्ञानोपदेशे शुभाम् ।।६।। दीक्षा लेने के बाद आपने सत् साहित्य तथा आगम शास्त्रो का अभ्यास किया और उत्तम शास्त्रो के चिन्तन मे महान परिश्रम करके निष्णात हो गये तपा ज्ञानवान् और पण्डित हो गये । आत्मज्ञान प्राप्त करने पर भी शिक्षा प्रदान करने मे तथा कर्म वन्धनो को क्षीण करने के निमित्त ज्ञानोपदेश करने मे वडी प्रतिष्ठा प्राप्त की।
व्याख्याने सु च मेघमन्द्र गिरया माधुर्यभाव गत । लोको मन्त्र सुमुग्ध भावगमितो वक्तृत्ववैशिष्ठ्यत ।। चित्ते साधु सुभावनिप्ठसरल व्यापारवृत्या युत ।
जात्यादौ विषमादि भेद रहितो नैसर्गिको निष्ठित ॥७॥ महाराज श्री के व्याख्यानो मे मेघ के समान गभीर कण्ठध्वनि, मधुरता का भाव और वक्तृत्व शैली की विशिष्टता के कारण सब लोग मन्त्र-मुग्ध के समान हो जाते हैं। उनके चित्त मे साधु स्वभाव एव सरलता की वृत्ति सदा विराजमान रहती है । वे जाति आदि ऊंच नीच के भेद भाव को त्याग कर स्वाभाविक मानवोचित निप्ता मे लीन रहते हैं।
कीतिस्तस्य विशालता गतवती कारुण्यभावान्विता । मान प्य सफल च तस्य समभूत् साद्गुण्य सपत्तित ॥ लोकानामुपकार कार्य करणात् पुण्याने यत्नवान् ।
धर्मास्यापि समृद्धि सिद्धि सहितो जीयात्समा शास्वतम् ।।८॥ उन महाराज श्री की कीर्ति वहुत बढ गई। वे करुणा के भाव से भरे हुए हैं। उन्होने सद्गुणो की सपत्ति को प्राप्तकर इस मानव जीवन को सफल कर लिया है । वे ससार का उपकार करने के कारण सदा पुण्यो के उपार्जन मे प्रयत्न करते रहते हैं । इस प्रकार धर्म की समृद्धि एव सिद्धि से युक्त होकर वे सदा शाश्वत समय पर्यन्त जीवित रहें, यही कामना है।
चन्द्रोदयमुनेरेषा भावना पद्य पुष्पिता ।
प्रताप कोति मालेय लोकश्रेयस्करी भवेत् ।।६।। उदयचन्द्र मुनि की यह भावना पद्यो के पुप्पो से युक्त होकर श्रीमान् प्रतापमलजी महाराज सा० की कीर्ति की माला बनाई गई है अत यह ससार का कल्याण करने वाली होवे। 6 .
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११८ | मुनि श्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
श्री प्रताप-प्रभा -मरुधरकेशरी प्रवर्तक प० रत्न श्री मिश्रीमल जी म०
सोरठा मिला मुजे इकवार, मरुधर सोजत रोड पै, संत सेवा सश्रीक, जीवन मे की जोर री, मैं परख्यो धर प्यार, मोती तू मेवाड रो ॥१॥ अरु साधना ठीक, मोती तू मेवाड रो ॥२॥
निज कर करी तैयार, शिष्य मडली सातरी ।
__ अर्को मुजस अपार, मोती तू मेवाड रो॥३।। वाचक कला विज्ञान सुख मुनि से शीखी सदा, प्रकटयो घर पर ताप, पिण फैल्यौ मुनि वेष मे, दीवाकरिय दरम्यान, मोती तू मेवाड रो ॥४॥ सरल हृदय रो साफ, मोती तू मेवाड रो॥शा
रति अतिवत रमेश, मरुधर मनि हाथे चढी ।
उन्नती बढे हमेश, मोती तू मेवाड रो॥६॥ छाने रहा छमेस, चवडे अव चमक्यो मुने । सजम रो है सार, जिनमारग उजवालजो। अनुग्रह करी तूर्येश, मोती तू मेवाडरो ।।७॥ उज्ज्वल रख आचर, वडशाखा ज्यो विस्तरो।।।
प्रताप के प्रति
-कविरत्न श्री चन्दन मुनि मेदपाट भूषण । गत दूषण । जियो और जीने का जग को
शातमूर्ति मुनिराज प्रताप | देते हो सदेश प्रताप | ज्यो चन्दन हरता है तन का इसी भावना से कटते हैं
हरो जगत का आप त्रिताप ॥१॥ कोटि जन्म कृत-कारित पाप ॥२॥ सहज साधुता, हृदय सरलता स्वय सयमी ही सयम से
चिन्तन-मनन गहन पाया। रहने का कह सकता है। गुरुवर 'नन्दलाल' की पाई असयमी आई विपदाए
सिर पर शुचि शीतल छाया ।।३।। सम से कब सह सकता है ? ॥४॥ सयम और सयमी का ही लिया न जाता दिया न जाता
अभिनन्दन करना उत्तम । सयम सहजवृत्ति का नाम । किया गया जो सयम के हित सहज साधुता द्वारा वश मे उत्तम कहलाएगा श्रम ||५|| हो सकता है इन्द्रिय-ग्राम ।।६।। 'चन्दन' की श्रद्धाञ्जलि स्वीकृत
करना भाव सहित भगवन् । श्रद्धास्पद वे होते हैं जो
होते राग - रहित भगवन् ।७।
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द्वितीय खण्ड . अभिनन्दन शुभकामनाए वन्दनाञ्जलियाँ . ११६ श्री प्रताप अभिनंदन पञ्चकम्
-मुनि महेन्द्र कुमार 'कमल' 'काव्यतीर्थ' 'साधुसघ वरिष्ठाश्च, प्रतापमलसज्ञका। मेवाडभूमि मूर्धन्या' द्वित्रा सन्ति महीतले ।।१।। तेपा विद्वद्वरेण्याना, साम्प्रत ह्यभिनन्दनम् । विधीयते च विद्वद्भि, श्रुत्वा मोमुद्यते मन ।।२।। नदलाल गुरु]पा, जैनागमविचक्षणाः । तपस्विन कथ नस्युस्तेषा शिष्या विशेपत ॥३॥ हिन्दी गुर्जर भाषाणा सस्कृत प्राकृतस्य च । काव्य लेखन मर्मज्ञा. मुनिश्री धरणीतले ॥४॥ मेवाड भूपणश्चायं, धर्म व्याख्यानकृद् मुनि । विचरन् ससुख लोके, जीव्याह्न शरद. गतम् ॥५॥
श्रद्धा के कुछ फूल
-मुनि श्री कीर्तिचन्द्र जी महाराज "यश" अभिनन्दन है आपका, प्रतापमल्ल महाराज । जैन जगत के आप जो,चमके बन कर ताज ॥ चमके बनकर ताज, धन्य है जोवन तेरा, लेकर सयम, खूब पाप का तोडा घेरा । कहे "कीर्तिचन्द्र,' नन्द के प्यारे नन्दन,
जुग जुग जीते, रहो,सभी करते अभिनन्दन ।। मस्ती तेरी क्या कहूँ, ओ मेवाड सपूत । दर्शन आपके थे हुए, शहर आगरा मॉय । धन्य साधना आपकी, अहो । जैन अवधूत ॥ हुए वहुत ही वर्ष पर, स्मृति रही है आय ।। अहो जैन अवधूत, निराली महिमा तेरी, स्मृति रही है आय, भला क्या बात बताऊँ ? चकित समस्त संसार, देख गुण गरिमा तेरी। देखा था जो रूप, शब्द मे कैसे लाऊँ ? कहे "कीर्तिचन्द", नही बिल्कुल भी सस्ती, कहे "कीर्तिचन्द्र" हुआ था तन मन परसन । न्यौछावर कर सर्वस्व, पाई तूने यह मस्ती। ऐसे मुनि प्रतापमल्ल जी के हैं दर्शन ।।
समर्पण करता तुम्हे, श्रद्धा के कुछ फूल । गुच्छ हार के मध्य मे, इन्हे न जाना भूल ।। इन्हे न जाना भूल, नजर इन पर भी करना, करके मेरी याद, इन्हे अञ्जलि मे भरना । कहे “कीर्तिचन्द्र", इसी मे मेरा तर्पण, कर लेना स्वीकार, किये जो फूल समर्पण ।।
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१२० / मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
श्रद्धा के सुमन
-मगन मुनि 'रसिक' (तर्ज-दिल लूटने वाले जादूगर) गुरुदेव दयामय तेज पुज, मन मन्दिर के उजियारे हो ।
पद-पकज मे है विनय यही, जीवन के आप सहारे हो टेर है नाम आपका प्रतापमल जी, पण्डित प्रवर सुहाते हो, वाणी मे अमृत भरा हुआ, जन-मानस आप जगाते हो,
है हृदय सुकोमल मक्खन सा, समभाव सदा गुण वारे हो गुरुवर है जैन दिवाकरजी, जो जन-जन के मन भाये थे, भक्तो के गातिनिकेतन थे, वे जग वल्लभ कहलाये थे,
उनके ही शिष्य कहाते हो, सिर मौर सदैव हमारे हो मेवाड देश मे नगर देवगढ, जन्म-भूमि कहलाती है, वीरो की जननी विश्व-प्रसिद्ध, कवियो की वाणी गाती है,
जहाँ ओसवश में गाँधी-गौत्र, पितुमात के आप दुलारे हो उत्कृष्ट भावो से सजम लेकर, कूल को उजागर कीना है, जीवन की प्रगति हर-क्षण मे, प्रतिभामय सुयश लीना है, ___अविराम घूमकर देश-देश मे, वन गये सब के प्यारे हो हो सन्मति-पथ के पथिक आप, सद्ज्ञान सुनानेवाले हो, जो भूल गया है पथ अपना, पुन राह बतानेवाले हो,
शुद्ध सयम व्रत के पालक हो षटकाया के रखवारे हो हो ज्ञान प्रदाता धैर्यवान, मगलमय दर्शन नित पाएँ, हो नव्य भव्य जीवन के स्वामी, गौरवमय हम गुण गाएँ, __ अभिनन्दन सदा 'रसिक' चाहे, भक्तो के नयन सितारे हो
पांच-सुमन समर्पित हो !
-बसन्त कुमार बाफना, सादडी गरु प्रताप के चरण मे, वन्दन हो हजार। नील-सन्तोप-सिंगार से, दमके भव्य सुभाल । वरदान ऐसा चाहूँ, हो जीवन-उद्धार ॥१॥ सुवा सरस मुख से झरे, ज्यो निशाकर तार ।।२।।
जैन धर्म उन्नायक तुम, उपकारी गुरुराज
अभिनंदन करते सभी, मिलकर जैन समाज ।।३।। गाव-नगर मे घूमकर, किया अहिंसा प्रचार । पाच सुगन्धित ये सुमन, ज्यो महाव्रत पाच । हिंसा-अनीति-अन्याय, का किया प्रतिकार ।।४।। 'वसत शिष्य' आपका पूर्ण बात यह साच ॥५॥
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाए वन्दनाञ्जलिया | १२१
गुरु-गुण पुष्प -तपस्वी श्री अभयनुनि जी महाराज
[तर्ज --कोरो काजलियो ]
गुण गाऊँ मैं हर वार, गुरुवर प्यारे रे ।।टेर।। सम्बत् उगणी सौ पैसठ माही, आसोज महीनो सार |गुरु० ॥१॥ कृष्णा सातम सोमवार दिन, जन्म लियो हितकार ।।गुरु० ॥२॥ नगर देवगढ मायने, है गाधी गोत्र सुखकार ।।गुरु० ॥३॥ मात-पिता परिवार मे, छायो है हर्ष अपार ।।गुरु० ।।४।। प्रतापमल जी नाम आपका, है प्रियकारी श्रेयकार ||गुरु० ॥५॥ उगणीसौ गुण अस्सी मे, है मृगशिर मास उदार ।।गुरु० ॥६।। पूज्य गरु नन्दलाल जी, है महिमावन्त अपार |गुरु० ॥७॥ मन्दसौर, शुभ शहर मे, लीनो है सयम भार ।।गुरु० ॥८॥ ज्ञानी ध्यानी गुणवन्ता, मैं नाम जपू हर वार ।।गुरु० ॥६॥ सहनशीलता जीवन मे, भरपूर भरी नही पार ।।गुरु० ॥१०॥ तप-जप सयम निर्मला, पाले है शुद्ध आचार ।।गुरु० ।।११।। जुग जुग जीवो गुरुवर मेरे, श्रद्धा पुष्प चरणार ।।गुरु० ॥१२।। शिष्य अभय मुनि कर जोडी, करे वन्दन बारम्बार ।।गुरु० ।।१३।।
गुरु-भक्ति-गीत
–महासती प्रभावती जी, सुशीला कुवर जी (तर्ज-काची रे काची रे प्रीति मेरी काची ) आओ रे, आओ रे शीष झुकाओ प्रताप के गुण गाओ सवत पैसठ मे जन्म लिया,
'देवगढ' को गुरुवर ने पावन किया, __आश्विन का महिना, जन्मे नगीना सप्तम का शुभ वार रे एए आओ
परम प्रतापी गुरु 'नन्द' कीना
मदसौर नव्यासी मे सयम लीना 'मोडीराम' के लाला, 'दाखा' के व्हाला, गाधी गौत्र उजवाल रे एए आओ ३. , तप-तेज किरणें दमक रही
सौम्य सी सूरत चमक रही ज्ञान के हैं दरिया, गणो से भारया, प्रेम का पुञ्ज विशाल रे एए. आओ
मुनि मडल मे गुरु सोहे जैसे
तारो मे चन्दा सोहे ऐसे आर्या-प्रतिभा" और "सुशीला" भक्ति सुमन चढाएं रे एए आओ
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१२२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
प्रताप-गुण-इक्कीसी
-मुनि रमेश-सिद्धातआचार्य वीन्भूमि मेवाड मे 'देवगढ' सुविख्यात । गाँघि गोत ओसवश का खिला पुण्य प्रभात ।।१।।
'मोडिराम' श्रीमान्जी माँ 'दाखा' की गोद ।
_ 'प्रताप' पुत्र प्रगट हुआ छाया मोद-प्रमोद ।।२।। वालवये पितु-मात का पडा दुःखद वियोग । स्थिति जान ससार की, किया न कुछ भी शोक ।।।।
फिर भी हताश हुए नही भारी सहा अघात ।
होनहार विरवान के होत चीकने पात ।।४।। मधुमय शिशु जीवन मे थे धार्मिक सस्कार । वे दिन-दिन विकसित हुए ज्यो सुधा की धार ॥शा
पाकर के सुनिमित्त को छेद मोह का जाल ।
__ लघु अवस्था देखता कैसा किया कमाल ।।६।। ज्ञान चक्षु तत्क्षण खुले जागा आतम राम । वादीमान मर्दन गुरु 'नन्दलाल' सुख धाम ।।७।।
वैराग्य से परिपूर्ण हो, सयम लिया सुखकार ।
गरु के चरण सरोज मे चित्त दिया उस वार ।।८।। अध्ययनाध्यापन मे लगे प्रमाद आलस छोड । ज्ञान-क्रिया के मेल से दिया जीवन को मोड़ ।।६।।
विनय-विवेक-विनम्रता हुई जीवन के सग ।
गुरु नन्द प्रसन्न हुए रग दिया पूर्ण रग ।।१०।। हिंदी-प्राकृत-सस्कृत गुजराती इगलीश । वहु भाषज तुम वने फला गुरु आशीश ।।११।।
समता ऋजुता सरलता सेवा मे अगवान ।
निर्भीक और निडरता धैर्यवान गुणखान ॥१२॥ स्नेह सगठन सहिष्णुता हुआ यहाँ पर मेल । समन्वय के तुम धनी शोर्य को वढतो वेल ।।१३।।
समस्या सुलझाइ सदा तुम हो कुशल प्रवीन ।
ओजयुक्त वाणी प्रवल हो श्रोता लवलीन ।।१४।। दुःख मे घबराये नहीं कभी न सुख मे गर्व ।। गुरु के जीवन मे सदा रहा है मगल पर्व ।।१५।।
प्रतिकूल वातावरण मे, न भूले क्षमा धर्म ।
वास्तव मे जाना गुरु साधुता का सुमर्म ।।१६।। सदा गुरु के चेहरे पे खिलता देखा वसत । अवश्य करोगे गुरु तुम्ही कमाँ का वस-अत ॥१७॥
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाएं वन्दनाञ्जलियाँ | १२३ सम्पदा मे फूले सदा, फिर भी वाद से दूर ।
नीर-नीरज न्यायवत् निर्लेप निर्मल पूर ।।१८।। शुद्ध साधना के धनी, विशद क्रिया सुज्ञान । पुण्याई बहु बढ रही, ज्यो, प्रभात का भान ।।१९।।
सुखमयी आचार पक्ष, विचार भी उत्तग ।
व्यवहार पवित्र है सदा, परम आप का ढग ॥२०॥ गणी गरु प्रताप का, प्रगटे पग-पग तूर । विद्या विनय विवेक से, 'रमेश' रहे भरपूर ।।२१।। वंदना हो स्वीकार...!
-रग मुनि जी महाराज मुक्ति मार्ग की साधना मे निशदिन सलग्न, प्रसन्न वदन मुनि नित्य रहे नही तनिक अभिमान, निर्वद्य सयम पालते ज्ञान ध्यान निर्विघ्न । तारण तिरण जहाज है शात-दात धृतिमान । पद विहार किया आपने फिरे हजारो कोस, लक्ष लक्ष तव चरण मे वन्दन हो स्वीकार, ममता तन की त्यागकर सहन किये कई रोष । जीवन दीर्घायु बनें “रगमुनि” उद्गार ।
गुरु-गुण गरिमा
-~-अभय मुनि जी महाराज (तर्ज-जय बोलो) जय बोलो प्रताप गुरु ज्ञानी की,
सम दम के शुभ ध्यानी की ।।टेर॥ गुरु 'देवगढ' मे जन्म लिया।
असार ससार को जाना है। गुरु ओसवश उज्ज्वल' किया।
त्याग वैराग्य शुभ माना है । पिता 'मोडीराम' गुण खानी की ॥१॥ सयमपथ के सुखदानी की ॥२॥ ये शात गुण रख वाले है।
दर्शन कर कलिमल धो डालो।। ये मधुर बोलने वाले हैं।
आज्ञा इनकी मन से पालो ।। बोलो रत्न त्रय के स्वाभिमानी की ॥३॥ इस प्रेमामृत भरी वाणी की ॥४॥
'देवगढ' मे चौमासा ठाया है।
तीन ठाणा सु यहाँ आया है। जय जय हुई जिनवाणी की ॥५॥
'अभयमुनि' गुण गाता है।
घर घर मे वरती साता है। शिव-मुख सूरत मस्तानी की ॥६॥
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- महासती विजय कुवर जी वंदन-शत-शतवार
१२४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
अभिनन्दन प्रताप गुरुका करती हर्पित हो शतवार । सुजीवन की गौरव गाथा से चमक रहा जिनका दीदार ।। राजस्थान मेवाड देश की, देवगढ है भूमि प्यारी । मोडीराम जी दाँखा बाई की, कुक्षि गुरु तुमने घारी ॥ आश्विन कृष्णा सातम तिथि अरु प्यारा था वह दिन बुधवार ॥१॥ पन्द्रह वर्ष की आयु मे ही, तुमने गुरु बनाया। वादीमान' मुनि नन्दलाल जी नाम से ख्याति पाया। मन्दसौर मार्गशीर्ष पूर्णिमा का भव्य दिवस सुखकार ।।२।। अध्ययन आपका गहन गम्भीर, व समता रस मे है भर पूर । गम्कत-प्राकृत हिन्दी भाषा का, ज्ञान आपको है भरपूर ।। स्यादवाद से ओत-प्रोत वाणी मीठी है रस धार ।।३।। मैत्री की गगा ले गुरु जन-जन की प्यास बुझाते । जो भी आपके पास मे आने, ककर से शकर बन जाते ।। 'प्रताप, प्रतापी बनो यही वप्त प्रेरित करता है नर नार ।।४।।
यशोगान
-राजेन्द्रमुनि जी म. "शास्त्री" गुरु का गुण गाले गाले रे मानव जीवन ज्योति जगाले रे ॥टेर।।
देवगढ नगरी मे जन्मे प्रताप गुरु जी सुहाया रे ।
मोडीराम जी दाखा बाई के तुम जाया रे ॥१॥ सवत् गुण्यासी मन्दसौर नगर मे सयम को अपनाया रे । वाद कोविद गुरु नन्दलाल जी का शरणा पाया रे ॥२॥
सस्कृत, प्राकृत हिन्दी का अभ्यास गुरु ने वढाया रे ।
कुछ ही दिनो मे गुरु सेवा से ज्ञान पाया रे ॥३॥ मगलकारी दर्शन गुरु का जो कन्ता सुख पाता रे। . पावन कर्ता अपने तन को शिव सौख्य मनाता रे ॥४॥
सादा जीवन रग्वते गुरुवर प्रेम का पाठ पढ़ाते रे ।
सत्य-शिव विचार से गुरु कदम वढाते रे ।।५।। सरल, सतोपी, सेवाभावी सद्वक्ता सुविचारी रे। सदा शास्त्र मे रत रहते हैं गुण भण्डारी रे ||५||
गुरु ज्ञान के दाता हैं ये महान् जगत् के दयालु रे ।
सव सतो के हृदय हार है बडे कृपालु रे ।।७।। मुझे गुरु ने निहाल कीना सयम का पद दीना रे। अमूल्य रत्न त्रय द करके जग-यश लीना रे ।।८।।
रविवार को सन् बहत्तर मे प्रेम से भजन बनाया रे । श्री गोदा मे राजेन्द्र मुनि ने शुभ दिन गाया रे ।।६।।
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन : शुभकामनाए · वन्दनाजलिया | १२५
वंदनांजलि-पंचक
-श्री सुरेश मुनि जी म० 'प्रियदर्शी' सौम्य-आकृति गात प्रकृति महर्षि वर उदार है, महा-उपकारी करुणा धारी, भारी क्षमा भण्डार । सकल मनोरथ पूरक सुर तरु अभीष्ट के दातार है, प्रताप गुरु के चरण नमता मिटे कर्म की मार है ॥११॥
अमृतमय है वाणी, गुरु की जो सुने एक बार है, अघ-अधोगति दूर जावे पावे सुख अपार है। सन्मार्ग उसको शीघ्र मिलता न रुले ससार है,
प्रताप गुरु के चरण नमता मिटे कर्म की मार है ।।२।। सुन्दर शिक्षा स्नेह-सगठन की देते हर वार है, दूध मिश्री-सा मेल करन मे कुशल कलाकार है। शात मुद्रा से निर्मल निर्भर की वहती शीतल धार है, प्रताप गुरु के चरण नमता मिटे कर्म की मार है ॥३॥
हृदय जिनका शम-दम पूरित मधुर गिरा रस धार है, परहित साधक निरभिमानी भद्र प्रकृति के लाल है। श्रमण सघ के हित साधक तेरा अमल आचार है,
प्रताप गुरु के चरण नगता मिटे कर्म की मार है ॥४॥ छ काय के प्रतिपालक गुरुवर | आज मैं तुमको नमू, रत्न त्रय के आराधक स्वामी । आज मैं तुमको नमू। पालक-उद्धारक और तारक तू ही मम आधार है, प्रताप गुरु के चरण नमता मिटे कर्म की मार है ।।५।।
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१२६ / मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
मेरी वंदना स्वीकार हो...!
-विजय मुनि जी "विशारद"
[नर्ज जरा मामने तो ] जरा तुमको वताऊँ मैं भैया प्रताप गुरु हमारे सिरताज है। जिनके चरणो मे सीग झुकाओ गुण गाओ सभी मुनि आज रे ॥टेर।।
देवगढ नगरी मे जन्मे गाँधी गोत्र पावन किया।
मोडीराम जी पिता कहाये दाखा वाई ने जन्म दिया । क्या कहूँ जीवन को महिमा सारी महक सुगन्ध का राज है ॥१॥
सवत् उन्नीसौ पैसठ मे प्रताप गुरु ने जन्म लिया।
पन्द्रह वर्ष की वय मे आये पावन गुरु ने चरण दिया ॥ वादोमानमर्दक नद गुरु थे जो महान् प्रतिभा के साज है ।।राः
शिष्यरत्न वसत मुनि जी जिनकी महिमा सव जाने ।
मधुर वक्ता राजेन्द्र मुनिवर सिद्धान्त शास्त्री बखाने ।। गुरु नाम से सब सुख राज है और सफल होय आवाज है ॥३।।
सिद्धान्ताचार्य रमेग मुनि जी कवि लेखक वक्ता पाये।
प्रियदर्शी श्री सुरेश मुनि जी जीवन सुधारक कहलाये ।। मोहनमुनि भी तपस्या करते ये पूरे तपस्वीराज है ।।४।
विद्याभ्यासी नरेन्द्र मुनि जी अभयमुनि सेवा भावी।
आत्मार्थी है मन्ना मुनि जी बसन्त मुनि है समभावी ।। प्रकाश मुनि भी गुरु सेवा अरु विद्या मे रत ये आज है । ५॥
मुदर्शन अरु महेन्द्र मुनिवर लघु शिष्य ये कहलाये ।
कान्ति मुनि भी सेवा मे रत ज्ञान गुरु से यह पाये॥ मुनि गुणियो की माला चमके मही पर आज है ॥६॥
प्रताप गुरु के शिष्य सभी ये एक-एक से बड भागो ।
महिमा इनकी कितनी गायें सबकी किस्मत ही जागी । 'विजय" माला लभी मिल पाओ संतोष सरल मुनिराज है ।।७।।
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाएं वन्दनालिया | १२७
गुरु-गुरण-माला [तर्ज -सुनो सुनो ऐ दुनियाँवालो ]
-नरेन्द्रमुनि जी "विशारद' सुनो सुनो ए भवी जीवो तुम । महापुरुष की अमर कहानी। प्रताप मुनि है नाम गुरु का है ज्ञानी अरु निर्मानी ।।टेर।।
राजस्थान मेवाड देय मे देवगढ है सुन्दर है स्थान । सेठ मोडीराम जी रहते सकल्प जिनके थे महान् ॥ सम्वत् उनीस सौ पेसठ साल मे गुरुदेव ने जन्म लिया। मातु श्री दाखा ने शुभ प्रतापचन्द यह नाम दिया । बाल्यकाल के कुछ दिन बीते मात-पिता की दूरी हुई।
वाद कोविद नन्द गुरुवर प्रतापचन्द को भेट हुई ॥ झलक रही थी मुख पर तप-तेज-त्याग की मस्तानी ॥१॥ दर्शन करके हर्षित हुए स्नेह भरा उपदेश सुना । आत्म-बोध हुआ जागृत तव गुरु को अपना सर्वस्व चुना ।। परिवार जन से आज्ञा माँगो सयम पथ अपनाऊंगा। सत्य धर्म का शखनाद कर सोई सृष्टि जगाऊँगा । देव दुर्लभ देह पाकर निरर्थक नही गवाऊँगा।
आत्मा से परमात्मा बनने का मुख्य लक्ष्य अपनाऊँगा ।। खाने पीने ओर मौज करने मे नही खोऊँ जिन्दगानी ।।२।।
अति प्रेम से परिवारजन प्रतापचन्द को समझाया। किन्तु वैरागी वीर प्रताप ने उनकी बातो को न अपनाया ॥ रहे अडिग अपने निश्चय पर उनको ऐसा कहते है। सुख साधन है धर्माराधन क्यो अन्तराय देते है। । सच्चे मित्र का यह अभिप्राय सहधर्म मय जीवन जीने का।
ठान लिया है मैंने मन मे त्यागमय जीवन विताने का ॥ सम्यग्-ज्ञान-दर्शन अरु चरित्र है शिव सुख की खानी ॥३॥ इस तरह सबको समझाकर मन्दसौर नगरे जोग लिया। न्याति-गोति अरु अन्य से मुख अपना मोड लिया ।। अल्प समय मे सस्कृत प्राकृत हिन्दी का अध्ययन किया । ज्ञान बढा त्यो गुरु गभीर हुए शासन को चमका दिया । सेवा भावी है आप पूरे शीतल प्रकृति के साधक है। समता सागर भवी - तारक क्षमा के आराधक है। देखो । देखो | दीप रहे है 'नरेन्द्र मुनि' ये गुरु ज्ञानी ॥४॥
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१२८ मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
शत-शत-वन्दना...
(तर्ज—देख तेरे ससार )
-विद्यार्थी श्रीकान्ति मुनि जी म० गुण रत्नो के सागर गुरुवर प्रतापचन्द महाराज,
शत शत वन्दन होवे आज । तारक उद्धारक पारक मुनिवर और धर्म जहाज,
___ शत शत वन्दन होवे आज ।।टेर।। शान्त सुरत है मोहनगारी, शील तेज से दमकती भारी। ज्ञान दान के हैं भण्डारी, साधना तुम्हारी है सुखकारी ।। तव चरणो को जिसने भेंटा सुधरे उसके काज ।।१।। वाणी आपकी ताप वुझाती, जन्म मरण का वेग मिटाती। अघोगति दूर हटाती, संसार सागर से पार पहुंचाती ।। पुनर्जन्म का चक्कर मिटे मिले मुक्ति का राज ।।२।। दोन दुखी के तुम हो त्राता, शीघ्र वनो मुक्ति के दाता। शिष्य काति मुनि गुण तव गाता, चरण सेवा सदा मैं चाहता। कृपा किरण से सयम मेरा फले फले गुरु राज ।।३।।
महिमा अपार है!
[तर्ज-जिया वेकरार है ] -आत्मार्थो मुनि श्री मन्नालाल जी म० गुरु गुण भण्डार है, शासन के शृगार है
गुरु चरण के शरण की महिमा अपार है ।टेर।। ओ स्यादवाद युत वाणी मुख से मानो अमृत बरषे जी।
सुन सुन करके भवि भावुक जन-मन अति हरष जी ॥१।। ओ लघुवय मे नन्दीश्वर गुरु के चरण मे दीक्षा धारी जी।
रवि-शशि सम दीप रहे है प्रताप जिनका भारी जी ।।२।। ओ त्वमेव माता त्वमेव पिता त्वमेव भव सिंधु सेतु जी।।
त्वमेव दृष्टा त्वमेव स्रष्टा त्वमेव मोक्ष का हेतु जी ॥३॥ ओ 'करुणानिधि कृपा करके दीजो आत्मा तारी जी।
चौरासी का अटका-भटका दीजो शीघ्र निवारी जी ॥४॥ मन्नामुनि भक्ति भाव युत गुरुवर के गुण गावे जी। गुरु चरण से मगल हो यह भाव सदा ही भावे जी ॥५॥
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द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाए . वन्दनाजलियां | १२६
गुरु-महिमा
(तर्ज–स्याल की ) -श्री प्रकाश मुनि जी म० 'विशारद'
गुरु प्रतापमल जी, किस विघि मैं गाऊँ महिमा आपकी ॥टेर।।
देवगढ है बहुत सुहाना बसे जहाँ धर्मी लोग ।
श्रावक जैनी वहुत वहाँ पर अच्छा मिला सुयोग ।।१।। मोडीराम जी नयन सितारे माता दाखाँबाई। ओसवश मे जन्म लियो है देवगढ़ मे आई ॥२॥
वादीमान गुरु 'नन्दलाल जी' पूज्यराज पधारे ।
आनन्द छाया सारे शहर मे भाग्य सभी के न्यारे ॥३॥ विशाल नेत्र, भुजा प्रवल थी चेहरा बहुत चमकता । समता भाव मे रमण करते भाग्य सभी का दमकता ॥४॥
ज्ञान भानु थे स्पष्टवक्ता चारित्र जिनका सवाया।
सरल भद्र, शात-स्वभावी नही, जीवन मे माया ॥५॥ स्याद्वाद शैली के वेत्ता व्याख्यान उनका प्यारा। ऐसे नन्द गुरु जी पधारे चमका भाग्य सितारा ।।६।।
वैराग्यमय उपदेश सुनके हृदय प्रताप का भीना।
सयम लेने का तव आपने दृढ निश्चय कर लीना ॥७॥ सम्वत् उन्नीसौ साल गुण्यासो दीक्षा समय शुभ आया। मन्दसौर (दशपुर) शहर का देखो चमका पुण्य सवाया ।।८।।
उच्च भाव से दीक्षा लीनी ज्ञान ध्यान भी कीना।
गुरुवर की सेवा वहु करके यश आपने लीना ॥६॥ गाँव-गाँव व नगर-नगर मे धर्म का ठाठ लगाया। धर्मोपदेश के द्वारा आप ने कई शिष्य बनाया ॥१०॥
प्रसन्न हृदय से रहते हरदम गुरुदेव उपकारी।
स्नेह मगठन समता को बस त्रिवेणी प्रसारी ॥११॥ शिष्य रत्न है बहुत आपके एक-एक वड भागी। व्याख्यानी व त्यागी वैरागी शात सरल सौभागी ॥१२॥
शात-दात यह सरोज मुहावे गुरु दर्शन मन भावे । परम प्रतापी सत रत्न के 'प्रकाश मुनि' गुण गावे ॥१३॥
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१३० मुनिश्री प्रताप अमिनन्दन ग्रन्थ
श्रद्धा से नत है....!
-श्रीचन्द सुराना 'सरस'
श्री प्रताप मुनिवर का मजुल है व्यक्तित्व विशाल,
जिसके प्रति श्रद्धा से नत है विश्व मनुज का भाल । जैनधर्म मे नही जन्म का, किन्तु कर्म का स्थान, अपने प्रवल पराक्रम से बनता मानव भगवान । साधारण से सत असाधारण तुम बने महान्, वने विंदु से सिंधु, वीज से शतगाखी फलवान । अभिनन्दन हे सत ! धरा पर जीओ तुम चिरकाल। श्री प्रताप मुनिवर का मजुल है व्यक्तित्व विशाल ।
विद्या, विनय, विवेक विमलता जीवन मे साकार, शुचिता, सत्य, सरलता मन की निर्मल है आचार ! प्रतिपल प्रतिपद प्रतिभा का आलोक धरापर निखरे, अन्तर की निर्वेद-सुधा का रस धरती पर प्रसरे ! ज्योतिर्मय हो बनो शतायु । वरो, विजय वरमाल,
श्री प्रताप मुनिवर का मजुल है व्यक्तित्व विशाल ! जल प्रवाह की भाँति तुम्हारा जीवन है गतिमान । दीपक की ज्यो जन-हित जलकर रहता ज्योतिर्मान । श्रेष्ठ-सुमन की भाति विश्व को करता सोरभ दान । दिनकर की व्यो अग-जग मे तुम लाते स्वर्ण विहान । गमक रहा, समता-उपवन मे शम-रस भरा रसाल । श्री प्रताप मुनिवर का मजुल है व्यक्तित्व विशा।
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जीने की कला
गौतमकुलक नामक ग्रन्थ में लिखा है-"सव्वकला धम्मकला जिणेई" अर्थात् सर्व कलाओ मे धर्म-फलात्मक जीवन श्लाघनीय माना है । किन्तु आज विपरीत प्रवाह वह रहा है। जहां-तहाँ आज मानव समाज अनैतिक एव अधर्म साधनो के सहारे जीवन यापन करना चाहता है। प्रत्येक वर्ग की आज यही शोचनीय स्थिति परिलक्षित हो रही है। जहाँ स्वर्गीय सुखो का निर्माण करना था, जहां धर्म-सस्कृति सम्पदा से जीवन को सज्जित फरना था वहां गहराई से पर्यवेक्षण किया जाता है तो हमे विपरीत वातावरण दिखाई देता है । अतएव वर्तमान मे गुरु प्रवर का "जीने की कला" नामक प्रवचन इसलिए प्रवाहित हुआ है । प्रत्येक पाठक वर्ग के लिए पठनीय एव मननीय है।
–सम्पादक] प्यारे सज्जनो!
कलाओ का जीवन में महत्व ! आज के प्रवचन का विपय है-"जीने की कला" इस शीर्पक मे जीवन का बहुत बडा समाधान एव रहस्य छुपा हुआ है । विचित्रता से परिपूर्ण दृश्यमान एव अदृश्यमान ससार सचमुच ही नाट्यगृह का प्रतिनिधित्व प्रस्तुत करता है। इसकी आश्चर्यजनक लीला की सर्वोपरि ज्ञानानुभूति सवज्ञ के अतिरिक्त और किसी अल्पज को हुआ नहीं करती है। कारण यह कि-जगतीतल की परिधि असव्यात योजन में परिव्याप्त है जिसके अगाध अचल मे असख्यात तारे, ग्रह, नक्षत्र, सूर्य-चन्द्र विस्तृत योजनो पर्यंत परिव्याप्त उल्का, पहाड, पर्वत, नदी-नाले, अगणित वृक्षावलियाँ एव देव-दानव-मानव-पशु-पक्षी सभी निवास करते हैं। विविध विपमता से भरे-पूरे ससार मे जीवन नैया सुरक्षित कैसे रहे ? जीवन उत्थान की राह कौनसी एव अपना समुचित सुन्दर सुकलामय जीवन कैसे बीताया जाय ? आदि-आदि ज्वलन प्रश्न आज के नही अनादि के हैं। कल के नहीं, पलपल विचारणीय एव अन्वेपणीय रहे है । ऐसे नो जनदर्शन एव इतर ग्रन्थी मे वहत्तर कलाओ का सागोपाग वर्णन देखने को मिलता है । जिनमे जीने की कला भी अपना अद्वितीय महत्व रखती है
कला वहत्तर सीखिये तामे दो सरदार
एक पेट आजीविका दूजी जन्म सुधार ।। जीना कैसे ? अर्थात् समार मे रहना कैसे ? आप मन-ही-मन विचारो मे डूब रहे होंगे कि क्या यह भी कोई प्रश्न है ? अवश्यमेव । जिन नर-नारियो को ससार रूपी घोसले मे रहना नही आया, अथवा रहने की कला मे जो मर्वथा अनभिज्ञ रहे हैं । ऐसे मानव आकृति से भले मानव के वशज हो परन्तु प्रकृति की अपेक्षा पशु पक्षी की श्रेणी मे माने जाते है । क्योकि धार्मिक जीवन के पहले व्यावहारिक और नैतिक जीवन जीया जाता है। तत्पश्चात् धार्मिक जीवन का श्री गणेश होता है। नीतिणतक मे भर्तृहरि ने कहा है
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१३४ ) मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य मालिक आया और एक वक्त उसने सरसरी निगाह से जमा-खर्च के बही-खाते देखे तो कम्पनी के दस हजार रुपये फर्म मे जमा पाये गये ।
मुनीम से पूछा गया आपने हिसाब कैसे कर दिया ? जवकि कम्पनी के दम हजार रुपये फर्म मे जमा हैं । अस्तु आप शीघ्र जाकर कम्पनी के मेनेजर को ये रुपये दे आवें ।
मुनीम-फर्म और कम्पनी का खाता पूग तो हो चुका है। इमलिए दस हजार की फर्म मे वचत मान कर रहने दो।
नही मुनीम जी | मुफ्त का घन मैं अपनी फर्म मे नही रख सकता । मूल को सुधारना अपना काम है । अपनी उज्ज्वल परम्परा सत्य पर आधारित है । ७४॥ का अक प्रामाणिकता का ही प्रतीक माना है । जैसा कि कहा है
सातो कहे सत राखजो लक्ष्मी चौगुनी होय ।
सुख दुख रेखा कर्म को टाली टले न कोय ।। मुनीम-मैं तो नही जा सकता, अगर साहव विगड जाय तो कौन निपटेगा।
श्रीमन्त स्वय थैली मे रुपये लेकर पहुचे। टेवल पर रखकर सारी स्थिति कह सुनाई । श्री मन्त की प्रामाणिकता पर मेनेजर अत्यधिक प्रभावित हुआ। वह बोला--सेठ । दूमरा विश्वयुद्ध होने वाला है। इसलिए रग महगा होने वाला है अत उसकी खरीदी कर लो। कहते हैं कि अग्रेज अधिकारी के कहानुसार उसने रंग खरीद लिया, जिसमे उनको लगभग चालीस लाख का नफा हुआ । कहाँ दम हजार, और कहाँ चालीस लाख । यदि नैतिक जीवन न होता तो कहिए उन्हें ऐसा सुनहरा अवसर मिलता ? इमलिए जीवन मे प्रामाणिकता होनी चाहिए । कवि का कथन है कि --
अन्यायी वनकर कमी दो न किसी को कष्ट ।
कत्तंव्य नीति मे रत रहो कर दो हिंसा नष्ट । इसीप्रकार सरकारी कर्मचारी वर्ग को और किसान वर्ग को भी अपने कत्तव्यो का ज्ञान होना चाहिए। आज पर्याप्त मात्रा मे सभी कर्मचारी वर्ग मे रिश्वतखोरी पनप रही है । यह दुहरा जीवन, जनता एव सरकार के साथ विश्वासघात जैसा है। इससे राष्ट्र का बहुत बडा अहित हो रहा है। भ्रष्टाचार, अन्याय को वढावा मिलता है। भ्रष्टाचार को बढावा देने का मतलब है-जान बूझ कर समाज एवं राष्ट्र को अध पतन मे घसीटने जैसा है । कवि की वाणी अक्षरश सत्य बोल रही है
न्यायालय मे एक भाव से गीले-सूखे सब जलते हैं । रिश्वत खा-खाकर अधिकारी न्याय नाम पर पलते है।
-उपाध्याय अमरमुनि वस्तुत भ्रष्टाचार को घटाने का यही प्रशस्त मार्ग है कि-रिश्वतखोरी, खाना और खिलाना बन्द करना चाहिए तभी पूर्णत कर्मचारी के जीवन मे प्रामाणिकता फैलेगी तभी वफादारी मानी जायेगी।
किमानवर्ग मे भी आज म देखते हैं कि- शहरी जीवन का अनुकरण हो रहा है । यह कसे ? सुनिये--पहले किमान का जीवन सीधा-सादा, मरल-माया, छल-प्रपच से रहित होता था । आज उाके अन्तर्जीवन मे नी चाप नमी, निष्ठुरता कठोरता एव मायावी प्रवत्तियाँ चालू हैं। मुझे एक वात
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया जीने की कला | १३५ याद आगई। मैं सन्त मण्डली महित रामपुरा से मन्दमौर की तरफ आ रहा था। मार्ग मे एक कृपक (किसान) मिला।
___मैंने पूछा-क्यो भक्त । आज कल क्या घधा करते हो ? उसने उत्तर दिया-महाराज | मैं आपके सामने झूठ नही बोलूगा । मैं हमेशा घी के व्यापार में तीन रुपये कमाता हूँ।
मैंने फिर पूछा-यह कैसे ?
उसने कहा---डालडा पशु को खिलाता हू मक्खन, के साथ-साय वह भी मक्खन वन जाता है, गर्म करके असली के भाव में बेच देता है । ग्राहक असली मानकर ले लेते है ।
क्या व्यापारियो (ग्राहक) को पत्ता नही लगता असली नकली का ?
नहीं गुरु महाराज | वे लोग सू घते हैं, सू घने मे तो असली जैसी ही गध आती है। घी डवल हो जाता है, तीन के छ रुपये हो जाते है अत: तीन का लाभ कमा लेता हू ।
भक्त । तुम्हे ऐसा नही करना चाहिए, यह तो उनके साथ विश्वास घात हुआ न ?
हाँ गुरुजी । ऐसा करना महा पाप है किन्तु मन नही मानता । महगाई अधिक वढी हुई है, इसलिए ऐसा करना पड़ता है।
कहने का मतलब यह है कि उनके जीवन में कपटाई-चापलूसी घर जमा वंठी । और ऐसे कार्य करने लगे, यह शहरी जीवन की देन है।
अमृत सा मीठा जीवन जीयें -- में तो यही मानता हू कि-आज के युग में ऐसे भी मानव हैं, जिनको धर्ममय जीना आता 'है। वहुसरयक मानव तो ऐसे हैं जिनके भाग्य मे अद्यावधि सही तौर-तरीको से रहने की कला का उदय ही नहीं हुआ । कतिपय मानवो के कर्ण-कुहरो तक ये शब्द पहुचे अवश्य है । किन्तु अन्तर्ह दय तक नहीं । ससारी ममन्त आत्माओ को भी समार मे रहना है तो मीठा जीवन जीना चाहिए । मीठे जीवन का मतलब यह नहीं कि उसमे शक्कर-गुड अथवा मीठा पदार्थ अधिक मात्रा मे खा करके मीठा वना माय नहीं नहीं । जीवन में सरलता, दान, दया एव न्यून कपाय वृत्ति, मंत्री भावना, सेवा-सहानुभूति, निलभिता आदि गुणो की वद्धि होनी चाहिए। महापुरुपो का जीवन जव ससार मे रहता है तव समस्त आणिया के प्रति अमृत की धारा वहाने वाला होता है। भ० तीर्थकरो के समवशरण मे सिंह और वकरी आसपास बैठे रहते हैं । यह तीर्थंकरो के अमृतमय जीवन-अतिशय का महत् प्रभाव है । रघुवश महाकाव्य + निगाता कवि कालिदास ने रघवश के दसरे सर्ग मे लिखा है-जब मर्यादापुरुपोत्तम राम के चरण मरोज वन में पहुंचे तो वहां का टन वातावरण विना वृष्टि के ही शात हो गया । अनायास वृक्ष, लता, गुल्म, गुच्छे सभी फूलो-पत्तो से लहलहाने लग गये। सभी जीव-जन्तु वर-विरोध-द्वे प-क्लेश को भूलकर सामरिक स्नेह सरिता में डुबकियां लेने लग गये। इस प्रकार सर्वत्र जगल में मानो शाति का साम्राज्य छा गया था।
शशाम वृष्टाऽपि विना दावाग्निरासोद् विशेषा फल पुष्पवृद्धि । ऊनं न सत्वेषु अधिको ववाघे, तस्मिन् वने गोप्तरि गाहमाने ।।
-रघुवश महाकाव्य ऐसा क्यो? इसीलिये कि उनके जीवन मे स्वर्गीय सुपमा का साम्राज्य था। तदनुसार वाहर भी वैसी ही प्रतिछाया अवश्य पडती है। हालाकि --प्रत्येक ससारी कोई साधु नहीं बन सकते
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१३२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
साहित्य सगीत कलाविहीन साक्षात्पशु पच्छविषाणहीन ।
तृण न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेय परम पशूनाम् ।। साहित्य, सगीत एव मुकलात्मक जीवन यदि नही बना पाये तो वह जीवन सचमुच ही पशुवृत्ति का प्रतीक आका है। भले वह घाम फम नही खा रहा, भले उसके शरीर पर शृग-पुच्छ आदि पाशविक चिन्ह नही हो तो क्या हो गया ? किन्तु भावात्मक दृष्टि से वह पशु की श्रेणी में है । क्योकि पशु के मन-मस्तिष्क मे विचारो का मथन नही हुआ करता है और न पारम्परिक विचारो का आदानप्रदान ही होता है। वस्तुत हेय-ज्ञेय उपादेय क्रिया-कलापो में बहुधा पशु जीवन विवेक-विकास शून्य मा रहा है।
केवल उपाधियाँ त्राणभूत नहीं:आप विचार करते होगे कि आज दुनियां अत्यधिक विवेकशील, अध्ययनशील एव सभ्यता शील बन चुकी है। राकेटो का युग है। राकेट यान मे अनन्त अन्तरिक्ष की उडान भरने मे सन्नद्ध है। समुद्र के गभीर अन्तस्तल का पता खोज निकाला है। आकाश पाताल की विस्तृत सधियां नापी जा रही है । एव परमाणु शक्ति का तीव्रतर गति मे प्रगति मे जुडे हुए हैं। नित्य नये-नये आविष्कारो का जन्म होता चला जा रहा है, अब कहां विवेक की कमी रही ।
भले इस आणविक युग में मानव 'वी० ए०' एम० ए, वी० कॉम, पी० ए०एल० एल० वी, एव आचार्य, शास्त्री, विशारद, प्रभाकर आदि उच्चतम डिग्रियां-उपाधियाँ उपलब्ध करके डॉक्टर-वकीलवेरिष्टर, इ जनियर एव ओवरसीयर आदि वन गये है। किन्तु व्यवहारिक-नैतिक एव धार्मिक जीवन का धरातल यदि उनका तिमिराच्छादित है। उनका अन्तर्जीवन अनुशासन हीनता से दुराचार एव अनाचार के कारण मडाने मार रहा है, और आसपास के विशद वातावरण को विपाक्त वना दिया है तो कहिए वे डिग्रियाँ, उपाधियाँ एव पद उनके लिए भूपण स्वरूप है कि-दूपण स्वरुप ? आगम में कहा है"न त तायति दुस्सोल-(उ० सू० अ० २५२८)
अर्थात्-वे उपाधियाँ अधोगति मे जाते हुए उन्हे रोक नहीं सकती है । मझधार मे डूवते हुए को तार नही सकती है । आगे और ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर ने स्पष्ट बता दिया है
न चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासण ।
विसण्णा पादसम्मेहिं वाला पडियमाणिणो ।। हे चेतन | थोडा वहुत पढ जाने पर अपने आपको पडित मान लेते हैं वे वास्तव मे अज्ञानी आत्माएं हैं, जो पाप कृत्यो मे फैमे रहते हैं। वे यह नहीं जानते हैं कि-प्राकृत सस्कृत आदि अनेक विविध भापाओ का रटन-ज्ञान मीख लेने पर भी परलोक मे वह भाषाज्ञान रक्षक नही होता है, तो फिर बिना अनुष्ठान के तान्त्रिक कना-कौशल की साधारण विद्या की तो पूछ ही क्या है ? अर्थात् साधारण विद्या प्राणभूत नहीं बन सकती है।
हो तो, जीवन टन भभकेदार चमक-चाँदनी एवं भौतिक चटक-मटक से दूर रहे जैसा कि"Simple living and high thinking" अर्थात्-"सादा जीवन उन्च विचार, यही करता जीवन उद्धार ।" जब यह मुहावरा जीवन मे ओत-प्रोत हो जायगा वम वही जीवन जन जन के लिए सम्माननीय-आदरणीय माना है । जिसयो माविक जीवन जीना कहते हैं ।
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया जीने की कला | १३३
कर्तव्यपरायण बनो:आज हम देख रहे हैं कि भारतीय व्यापारीवर्ग, कर्मचारी एव किसान वर्ग ईमानदारी के स्थान पर पर्याप्त मात्रा मे वेईमानी फैला रहे हैं सभी कर्तव्य भ्रष्ट दिग्मूढ से हो रहे है । उन्मार्ग मे प्रविष्ट होकर जीवन मे आनन्द की थोथी कल्पना कर रहे हैं । व्यापारी वर्ग आज महत्वाकाक्षी बन चुका है। उनके नामने नीति-न्याय ईमानदारी का उतना महत्व नहीं जितना धन-ऐश्वर्य का है । वस्तुत आमदनी के लिए वह फिर देश-द्रोह, धोखाघडी, दगाखोरी, चोरी, वस्तु मे भेल, माल मे मिलावट, नाप-तोल-मोल मे मनमानी मुनाफाखोरी लेना ही उमका ध्येय रहता है। इस प्रकार अनेक काले कर्म छोटे-मोटे समूचे व्यापारी वर्ग मे दिनो-दिन पनप रहे है। सरकार डाल-दाल तो व्यापारी वर्ग पत्ते-पत्त पर घूम रहे हैं। फिर जीवन मे क्षेम की कल्पना करना क्या निरीह मूर्खता नही है ? क्या आग मे वाग लगाने जैसा दुस्साहस नही है ? एक कवि की मधुर स्वर लहरी ठीक ही बता रही है
कैसे हो कल्याण करणी काली है, नहीं होगा भुगतान हुडी जाली है।
भ० महावीर ने साधु एव व्यापारीवर्ग को निजकर्तव्यो का समीचीन रूप से ज्ञान कराते हुए कहा है
जहा दुमस्स पुप्फेसु भमरो आवियइ रस । ण य पुप्फ फिलामेइ सो य पीणेइ अप्पय ।।
-दशवकालिक अ० १ गा० २ जिस प्रकार भौरा फलो से रम ग्रहण करके अपने आप को तृप्त करता हुआ रस दाता को किसी प्रकार का कप्ट नही होने देता।
उसी प्रकार साधु जीवन के पक्ष मे गृहस्थ जन पुरप तुल्य माने हैं उनके घरो से साधक आवश्यकतानुमार उतनी ही सामग्री ग्रहण करे ताकि अपना कार्य भी बन जाय और गृहरथ को भारभूत न मालूम हो । वैसे ही व्यापारी पक्ष मे भी ग्राहक जन रस दाता है। उनके साथ व्यापार वृत्ति ऐसी होनी चाहिए कि उन्हे दु खानुभूति न होने पावे और नफा भी उतना ही ले कि वह प्रसन्न मुद्रा मे दे सके । वह वापिस उसी दुकान पर आने को स्वय इच्छा करे । परन्तु आज देखा जाता है कि व्यापारिक जीवन काफी वदनाम हो चुका है। इसका मुख्य कारण व्यापारी वर्ग स्वय अपने जीवन मे खोजे । व्यापारियो के जीवन मे निम्न गुण होना जरूरी है-वाणी मे मधुरता-नम्रता-हाथो की सच्चाई, जीवन मे प्रमाणिकता, जन-जन का विश्वासी एव देश-गांव के प्रति वफादारी । इस प्रकार कर्त्तव्य परायण होकर जीवन वीताना सीखे। एक अग्रेज तत्त्ववेत्ता ने कहा है-"Honesty is the best IPolic)" प्रामाणिकता उत्तम व श्रेष्ठ नीति है।
नैतिक जीवन की वाह वाह । नैतिक जीवन पर एक मार्मिक घटना इस प्रकार सुनी गई है~भारत मे अग्रेजो का शासन था। उस समय ईस्टइन्डिया कम्पनी का व्यापारिक कारोवार काफी तेज था। कम्पनी एवं कलकत्ता के एक मेठिया फर्म के साथ लाखो का व्यापार विनिमय चल रहा था। फर्म के खास मुख्य कार्यकर्ता मालिक कही गये हुए थे। इधर सहमा कम्पनी की तरफ से तकाजा हुआ कि-अपना कार्य का पूर्ण हिसाब कर लिया जाय । तदनुसार मुनीम ने पूरा हिनाव निपटा दिया। अब कम्पनी की तरफ ने रोठिया फर्म का कोई देना-लेना बाकी नहीं रहा। दोनो ओर से हस्ताक्षर भी हो गये । कुछ दिनो वाय
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१३६ । मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ हैं। किन्तु मसार मे रह करके भी जीवन मे माधुत्व की सुन्दर प्रवृत्नियाँ तो चालू कर सकते है । ताकि आम-पास वाले सभी उनका अनुकरण कर सके । मरने पर भी दुनियां उन्ही क गीत गाती रहे ।
खिदमत करूं मै सबफी खिदमत गुजार बनकर ।
दुश्मन के भी न खटकू आंखो मे सार वनकर ।। व्यावर निवासी सेठ कालूराम जी कोठारी का जब स्वर्गवास हुआ तव एक मुसलमान मुहफाड कर रोने लगा।
उससे पूछा-तू क्यो रो रहा है ? वह वोला-आज मेरे वाप मर गये हैं । अव मेरा क्या होगा? अरे । वह जैन और तू मुसलमान । फिर तेरे वाप कैसे हुए ?
उसने कहा-एकदा मेरे शरीर पर लकवे का असर हुआ तो मेरी घरवाली मुझे छोडकर नाते चली गई। मैं अपने घर पर रो रहा था, इधर से सेठ जी निकले । रोते हुए मुझे देखा तो मेरे पाम आए, और मैंने आप वीती सारी बात कह सुनाई। तब उन्होने मुझे मास खाने का त्याग करवाकर और आटे दाल का मेरे मिल प्रवन्ध किया । वे अब नही रहे सो मेरा क्या होगा? इसलिए मैं उनके अमृतमय जीवन को याद कर रहा हूँ। इसीलिए कहा भी है
ओ जीनेवाले जीना है तो जीवन मधुर वनाया कर।
तन से मन से अरु वाणी से अमृत का फण वरसाया कर ।। __ अब जो मुमुक्षु ससारी प्रवृत्तियो से उदासीन रहना चाहते हैं उनके लिए आगम वाणी मे इस प्रकार मागदर्शन दिया है -
जहा पोम जले जाय नोवलिप्पई वारिणा । एव अलित्त काहि त वय वूम माहण ॥
-भगवान् महावीर हे मुमुक्षु । जैसे कमल जल मे उत्पन्न होता है, पर जल से सदा अलिप्त रहता है, इसी तरह । काम भोगो मे उत्पन्न होने पर भी विपय वामना सेवन से जो दूर रहता है, वह किसी भी जाति व कीम का क्यो न हो, मैं उमी को महान् मानता हूँ।
जिसको गीता मे अनामक्तियोग कहा जाता है और जैन दर्शन की परिभापा में अमूर्छा भाव अथवा अगृद्धभाव कहते हैं। इस प्रकार ससार-स्थली मे रहकर मुमुक्षु जीव अपनी मर्यादा के अनुमार म्व-पर के लिए भले कोई भी उचित कार्य करे, उनके लिए मुक्ति दूर नहीं । क्योकि—जिसने मातृकुक्षि में जन्मधारण किया उनका प्रथम कर्तव्य है कि वे न्याय नम्रता पूर्वक अपने बडे बुजुर्गों का पालन-पोपण करे, समाज एव राष्ट्र के प्रति पूरा-पूरा वफादार रहे, एव अडोसी-पडोसी की भलाई करते हुए प्राणी मात्र के साथ माधुर्य से पूर्ण मिप्ट और इण्ट व्यवहार करें। चूकि जितने उत्तरदायित्व उन पर लदे हुए हैं । उत्तरदायित्व से मुंह मोडना मानो जीवन की भारी पराजय है ।
अतएव सव की ओर देख भाल करना तो ठीक है किन्तु उनमे उलझ जाना, व्यामोहित हो जाना, कर्तव्य से पतित हो जाना अर्थात् जर, जोल, और जमीन को ही सर्वस्व जीवन का आधार मानकर गद हो जाना, जीवन के लिए एक खतरनाक चुनौती है।
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया जीने की कला ! १३७
जैसे धाई माता बालक-बालिकाओ का तन-मन से लालन-पालन, खिलाना-पिलाना आदि सर्व मेवायें करती है तथापि उनमे मोह की मात्रा नही। क्योकि उसका मन यह भली भाति जानता है कि - यद्यपि मैं उनकी सेवा शुश्रु पा अवश्य करती हू किन्तु-"ण मे अत्यि कोई, ण अहमिव वस्मवि"। मेरे पोई नही न मैं किसी की है। ये चुन्नु-मुन्नु तो राज के ताज हैं । नि सन्देह देखा जाय तो विश्व वाटिका मे वास करने की यही सरस कला है। मर्यादा के अनुसार सर्व कार्य कलाप पर भी मन मजूपा मे आसक्ति का उद्भव नही, मुख पर हर्प-अमर्प के चिन्ह नहीं और वाणी मे रोप-तोप के तुपार नहीं।
इस प्रकार जीवन व्यतीत करनेवाले मुमुक्षु अवश्यमेव ऋद्धि-मिद्धि एव समृद्धि से भर उठने हैं -
विहाय कामान्य सर्वान् पुमाश्चरति निस्पृह । निर्ममो निरहफार स शांतिमधिगच्छति ॥ तस्मादसक्त. सततं कार्य-कर्म समाचर । असक्तो ह्याचरन् सिद्धि परमाप्नोति पूरुष ॥
-गीता हाँ तो, लुखे-सूखे भावो मे सदा रमण-गमन करनेवाले मानव अवश्यमेव अपना व अन्य का उद्धार का बनते हैं। परन्तु अफसोस गजव है कि मोह-माया की जीव लुभावनी वातावरण की छायामाया मे ऐसे एकमेक बन जाते है कि उन्हें यह भान नहीं होता कि अपने लिए क्या करना है ? कही जीवन के माय अन्याय तो नहीं हो रहा है ? कही आत्मवचना तो नहो ? कही ऐसा न हो जाय कि"पुनरपि जनन पुनरपि मरण" की कला का विकास-विस्तार हो जाय । अतएव उदात्त दृष्टि से देखा जाय तो आज मानव समाज के कदम विपरीत दिशा की ओर बढ रहे हैं। विकाम नही विनाश का आलिंगन करने जा रहे हैं । सुख शाति की खोज नही, दुख की फौज जुटा रहे हैं।
. अतएव प्रत्येक बुद्धिवादी के लिए रहने की कला का प्रशिक्षण करना जरूरी है । यह शिक्षण कालजों में नहीं, अपितु महापूरपो की वाणी का सुस्वाद करने से ही प्राप्त हो सकेगा । तभी सभव है कि जीवन में आनन्द का झरना-प्रवाहित होगा।
इस दुनियां मे हूँ दुनियां का तलवगार नहीं हूँ। इस बाजार से गुजरता हूँ पर खरीददार नहीं हूँ ॥
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सर्वोदय सिद्धि का सोपान
सहयोग धर्म
बुद्धि का विस्तृत भण्डार जितना मानव के कमनीय कर कमलो को मिला हुआ हे उतना अन्य किसी गतिवाले जीव-जन्तु को नहीं मिला । ऐसा क्यो? इसलिये कि-मानव अपने मूल्यवान मस्तिष्क में स्थित मेधा का उपयोग अन्य के निर्माण मे सहयोग मे एव सृजन मे करता-फरवाता है। आज के इस विकासशील युग मे प्रत्येक देश-सीमा को दृष्टि से नहीं, किंतु व्यावहारिक एव वैचारिक दृष्टि से अत्यधिक समीप आ और आये रहे हैं । इसमे सहयोग ही बहुत वडा माध्यम माना जाता है। गुरुदेव द्वारा 'सहयोग धर्म' पर प्रदत्त प्रवचन पदिए ।
सम्पादक प्यारे सज्जनो!
आर्यसस्कृति सदैव चैतन्य उपासना मे विश्वास रखती है। वह मृण्मय देह की नही देही की आरती उतारा करती है । वासना की ओर नही उपासना की ओर कदम बढाने का सकेत देती है। चित्र का नहीं, चरित्र का गुणानुवाद करती है। कारण कि हमारी परम्परा गुणानुरागी है। इसलिए मानव जीवन अत्यन्त गुणो का भण्डार माना गया है । सर्वोपरि अनन्त गुणो का विकास वीतराग दशा की उपलब्धि होने पर ही हो सकता है अन्यथा नही । साधक की साधना, आराधना इसी प्रयोजन के लिये होती है । यद्यपि भव्यात्माओ मे अनन्त गुणो का सद्भाव है तथापि विभाव परिणति के कारण उन अनन्त गुणो मे से कुछेक गुण ही विकसित हो पाये हैं। सहयोग धर्म की आवश्यकता
सहयोग गुण भी वाह्य एव आन्तरिक जीवन से सम्बन्धित है। अतएव सहयोग गुण का मानव समाज मे अधिकाधिक विकास होना आज के युग मे अत्यावश्यक है । सहयोग के विना कोई भी राष्ट्र, समाज, सघ, ग्राम, नगर एव परिवार उभयात्मक जीवन का उत्थान नही कर सकते हैं। एक युग था जिसमें सहयोग की उपेक्षा रखते हुए मानव अकेला जीवन यापन कर लेता, अकेला खा पी लेता, अकेला घूम फिर लेता, और अकेला ही दुख-सुख की परिस्थितियो मे हंस और रो लेता, पारिवारिक, मामुहिक जीवन की ओर उनका कुछ भी लक्ष्य नही था। वे उत्तरदायित्व से मुक्तवत् थे। इसका मतलब यह नही की वे अनभिज्ञ असभ्य थे । आर्यमस्कृति व सभ्यता का विकास तो हजारो वर्ष पूर्व हो चुका था, वस्तुत वह निस्पृह जीवन था । अतएव अकेलेपन मे ही उन्हे सुखानुभूति होती थी किंतु इस आणविक युग मे कोई कहे की मैं अकेला रहकर सब कुछ कर लूगा, साध लूगा, जीवन का सागोपाग नव निर्माण भी कर लूगा मुझे किसी मानव के सहयोग की आवश्यकता नहीं। ऐसी वात मैं नही मान मकता है क्योकि-मायक या ससारी सभी के लिये महयोग धर्म की जरूरत रही है। भगवान् महावीर ने कहा है-माधक का साधना मय जीवन भी पृथ्वी, अप, तेऊ, वायु, वनस्पति और ससारी जनो के महयोग पर ही काफी हद तक टिका हुआ है वरना पग-पग और डग-डग पर विघ्न तैयार है।
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया सहयोगधर्म | १३६
सहयोगधर्म की व्याख्या "परस्परोपग्रहो जीवानाम्" (तत्वार्थ सूत्र) सहयोग गुण का अभिप्राय है एक दूसरा एक दूसरे का महायक वने, सुख किंवा दुख दर्द भरी घडियो मे भागीदार बने, जैसे पिता, पुत्र, गुरु, शिष्य, स्वामी-सेवक, और अडौमी-पडीसी । चूकि समस्या एक दो नही अपितु आध्यात्मिक, सामाजिक, व्यवहारिक एव पारिवारिक इस प्रकार अगणित समस्याएं जीवन के साथ जुडी हुई हैं । मैदान छोडकर सामाजिक प्राणी कही भाग नही सकते हैं । यदि परेशान होकर कही इधर-उधर दुवक भी गये तो कहाँ जायेंगे ? जहाँ भी जायेंगे वहाँ नवोदित वे समस्या समाधान चाहेंगी। एक शायरी मे कहा -
लोग घबरा कर कहते हैं कि मर जायेंगे।
मर कर भी चैन न पायेंगे तो किधर जायेंगे । इम कारण उभरी हुई समस्त समस्याओ से हमे तनिक भी घबराना नही चाहिये और न उनके प्रति हमे उपेक्षाभाव वरतना चाहिए अपितु सभी मिलकर समाधान ढूंढे ताकि समस्याओ का मार्ग प्रशस्त बने और दिल-दिमाग का वोझा हल्का होवे ।
मानव पर यह उत्तरदायित्त्व क्यो ? सहयोग करना-करवाने का सर्व उत्तरदायित्त्व महा-मनस्वियो ने मानव की वलिष्ट भुजाओ पर लादा है, ऐमा क्यो ? क्या इस विराट् विश्व की अचल मे अन्यान्य जीव जन्तु नही हैं ? चरिन्दे-फरिन्दे इस प्रकार अनन्त प्राणी सृष्टि की अगाध खाड मे कुलवुल कर रहे हैं तथापि मेधावी मानव को ही महयोग धर्मानुरागी अभिव्यक्त किया है ? दर असल वात ठीक है, अन्य प्राणियो की अपेक्षा मानव असीम वुद्धि का भण्डार है, वह हिताहित का ज्ञान-विज्ञान रखता हुआ स्वपर के उत्थान विकास मर्वोदय मे अपना भी अभ्युदय मानता है । इसी आभप्राय के अन्तर्गत महर्पिव्याम ने कहा
"न हि मान पात् श्रेष्ठतर हि किंचित् ।" वत्स | आज मैं तुम्हारे समक्ष अनुपम गूढातिगूढ रहस्योद्घाटन कर रहा हूँ वह यह है कि सारे विश्व मे मनुष्य से श्रेष्ठ दूसरा कोई भी प्राणी नही है इसलिए मानव के समूह विशेप को 'समाज' की सज्ञा दी है और पशु के समूह को समाज न कहकर 'समज' कहा है । अतएव तन-मन-धन से मानवममाज महयोग करने मे सर्वथा सुयोग्य है । धन-सम्पत्ति द्वारा किन्ही निराश्रितनिर्वल आत्माओ को महायता करके तारीफ वटोर लेना काफी सरल है किंतु काया से दुखित, दलित जीवो की मदद करना अतिदुष्कर माना है। हंसते-मुस्कराते जीवन के अमूल्य क्षणो को पर पीडा निवारण मे विताना अति कठिन माना है । एक महिला अपने वृद्ध पति की सेवा-सहायता करती हुई ऊब गई तब वह मन ही मन प्रभु से प्रार्थना करने लगी
आया वर्ष जव सेंकडा तन-मन हुआ खोखरा ।
पतिव्रता पति सुकहे अब मरेतो सुधरे डोकरा ।। यत्किंचित् नर-नारी ही भाग्यवान् होगे, जो निज काया से सेवाकार्य करते हुए कभी भी ऊवते नही हैं, जिनको कभी भी ग्लानी पैदा नही होती, परन्तु सहयोग करके प्रसन्नचित्त होते हुए अपने भाग्य को सराहते हैं । ऐसे मानव सृष्टि के लिए भार नही हार स्वरूप माने गए है। किन्तु आज यहाँ-वहाँ दृष्टिपात करते हैं तो हमे आज के जमाने पर तरस आती है । आज भाई-भाई का तिरस्कार, वहिष्कार, यहां
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१४० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य तक की कचन-कामिनी के पीछे कोर्ट-कचहरी की पेटियाँ नाप रहे हैं । एक दूसरे एक दूसरे को शत्रु मान रहें हैं । एक कुक्षी से जन्म लिया, एक थाल मे भोजन किया, और एक ही धूलि के कणो मे खेले, व फूले-फले वडे हुए हैं, आज उन्ही के साथ कोई महयोग नही । माधुर्य भरा व्यवहार नही, कितनी शोचनीय स्थिति वन चुकी है ? वास्तव मे मानव की बुद्धि का भले विकास हुआ हो किंतु मानव का हृदय दिन प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है। मानवी व्यवहार पर दानवी वृत्तियां हावी हो रही है, फलस्वत्प आज सभी भयातुर हैं । इस अनिष्टकारी प्रवृत्ति के कारण लाखो-करोडो भारतीय नर-नारी पाश्चात्य मस्कृति के अनुयायी अर्थात् ईसाई वने और वनते जा रहे हैं । ऐसी दुखद घटना निश्चय मानिये आर्य सस्कृति के निये घातक एव वरदान नही अभिपाप सिद्ध हुई है । ऐसी गलतियाँ उनकी नहीं, हमारी हैं। हम लोगो ने परमार्थता, उदारता, विशालता, महयोग, महानुभूति एव अपनत्व-भ्रातृत्व को भुला दिया और प्रत्येक बात मे स्वार्थपना ले आये, इस कारण आये दिन हमे कटुफल भोगने पड़ रहे हैं ।
उपदेश को कार्यान्वित करें न० १८-२८ की बोधप्रद एक घटित घटना है, ववई के कुष्ठि दवाखाने में एक ईसाई मिशन कार्य कर रहा था । सैकडो हिन्दु और मुमलिम कुप्टि नर-नारी ईसाई बनते चले जा रहे थे। धर्म परिवर्तन की कहानी मरकार तक पहुँची । विधान सभा से पूछा गया कि क्या यह कुष्टि दवाखाना है या धर्म परिवर्तन की कार्यशाला ? उत्तर मिला कि वास्तव में धर्म परिवर्तन की प्रणाली मानव समाज के लिये अतिघातक है अतएव शीघ्रातिशीघ्र रोकथाम होनी चाहिए। प्रस्ताव स्वीकृत होते ही हिन्दु धर्म की सुरक्षा के लिये पडितो की और इस्लामधर्म की सुरक्षा के लिये मौलवियो की व्यवस्था की गई।
पडित पहुंचे, महाभारत, गीता का उपदेश देने लगे । यह ईश्वर का प्रकोप है। पूर्व जन्म के किये हुए अपने ही अशुभ कर्मों का फल है
अवश्यमेव भोक्तव्य कृत फर्म शुभाशुभम् ।
नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि । अर्थात्-कृतकों को अवश्यमेव भोगना ही पडेगा । विना भोगे कर्म विपाक मे कभी भी छुटकाग नहीं मिल सकता है भले कितना भी काल क्यो न वीत जाय, इस कारण आप शाति-पूर्वक सहन करते हुए धर्म का परित्याग न करें।
अव मोलवी कहढे लगे-अल्लाह की इबादत न भूले, खुदा की बन्दगी करें, वह तुम्हे सभी गुन्हा माफ करेगा। दवाई, इलाज की वात दूर नही किंतु कही रोग हमारे न लग जाय इस कारण ने किसी गेगी यो छुआ, न स्पर्ण किया और नहीं कोई महानुभूति सहयोग नावना प्रगट की, केवल धर्म की बान वह कर चलते बने ।
कुछ समय बाद ईनाई मेवक उपस्थित हुए जो अन्य के मन-मस्तिष्को को वात की बात में सन दे, उनये पाम उपदेश नही अन्तगत्मा के जादू भरे मृदुस्वर थे । उन गेगियो को सान्वना देते हुए, पावो तो धोने हए बिना ग्लानि किये मरहम पट्टी के साफ सुथरे वस्त्र पहनाये तत्पश्चात् पापिय देह पे लिये प्रति वर्धक ग्राद्य वन्नु खिलाते हुए नुमधुर वाणी का सुन्दर उपहार उन मरीजो फी समर्पित करते हैं । स्दन दुनियां उनकी बन गई । न गीता न कुरान का उपदेश उनके मन-मन्दिर
बदरकपा । यह निविवाद मत्य है कि टन और मण भर उपदेश की अपेक्षा क्षण गर का मयोग
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया सहयोग धर्म | १४१ महानुभूति पापाणवत् कठोर मन मस्तिष्क को बदल सकती है-इस कारण जीवन मे उपदेश को अवश्यमेव कार्यान्वित करे-जैसा कि म० महावीर ने कहा
___'असगिहीय परिजणस्स सगिण्हणयाए गिलाणस्स अगिलाणए वेयाच्चकरणयाए अन्भुठेयत्व भवइ ।"
-स्थानाग सूत्र ८ जो असहाय एव अनाश्रित है उन्हें सहयोग एव आश्रय देने मे, तथा जो रोगी है उनकी परिचर्या करने मे सदा तत्पर रहना चाहिए ।
अन्न कृतांग सूत्र मे श्री कृष्ण वासुदेव सम्बन्धित बहुत ही हृदयस्पर्शी प्रसग आपने कईबार सुना होगा। श्रीकृष्ण वासुदेव हजारो सामन्तो के साथ भगवान श्री अरिष्ठनेमि के दर्शनो के लिए जा रहे थे। मार्गवति एक वृद्ध ई टो के ढेर मे से एक-एक ईट उठाकर मकान के अन्दर रख रहा है । ढेर काफी बडा था। दयनीय दृश्य देखकर वासुदेव का हृदय द्रवित हो उठी तत्क्षण मानवी कर्त्तव्य समझ कर सहयोग करने मे तत्पर हो गये । "राजानमनुवर्तन्ते यथाराजा तथा प्रजा" तदनुसार माथवालो ने भी वैसा ही अनुकरण किया । वात की वात मे सारा ढेर अन्दर पहुँच गया । वहुत बडा कार्य हजारो-हजार हाथ मिलने से कुछ ही क्षणो मे पूर्ण हो गया । उस वृद्ध के अन्तरात्मा के तार झकृत हो उठे।
महापुरुष ही दुनियां में दुखियो के दु ख को हरते हैं । अपना कार्य बने न बने पर अन्य का कार्य वे करते हैं ।।
सहयोग धर्म का व्यापक स्वरूप मयोग धर्म मे शून्य जीवन इस धवल धरा पर धिक्कार का पात्र माना है। वह जीवन पशु से वया पाषाण से भी गया वीता माना है। यदि देहधारी के जीवन मे पारस्परिक सहयोग की आकाक्षा, प्राय मृत सी हो गई है तो एक पत्थर मे और उस चलते-फिरते पुतले मे क्या अन्तर है ? पत्थर के टुकडे को आप तोडेंगे-फोडेंगे तो समीप पडे हुए दूसरे पापाण मे आत्मीयता को कोई प्रतिध्वनि नही होगी । अपमान एव सवेदना की स्फुरणा नहीं होगी, किंतु दुखी-दर्दी प्राणो की चित्कार को सुनकर देह धारी की आत्मा चीख उठेगी। उसके दिल मे वष्ट निवारण की हलचल अवश्य हिलोरे मारने लगेगी। सुरक्षा सहयोग की अनेकानेक अनुभूतियां स्वत उभर उठेगी । यदि स्फूरणा नही हुई है तो ऐमा मानना पडेगा कि अभी तक उसने निज कर्त्तव्यो को पहिचाना नही, परखा नही, कहा भी है
अगर तेरे दिल मे दयाभाव ही नहीं,
समझ ले तुझे दिल मिला ही नहीं। वह मुर्दे से भी बदतर है जो सुख न किसी को देता है।
लोहारो को धोकनी सदृश बेकार सास वो लेता है ।। जैन दर्शन में ही नही, अपितु वैदिक एव बौद्धदर्शन मे भी रत्नत्रय का महात्म्य अच्छे ढग मे अभिव्यक्त किया है । सम्यक् दर्णन, ज्ञान, चारित्र ये रत्न भव्यात्माओ को लिए भारी सहायक हैं । रत्न अयपी महायता विना भव्यात्माओ को स्वकीय-परकीय एव हेय, जेय उपादेय का कुछ भी प्रबोध नहीं होता है । इनकी बदोलत नर से नारायण, मानव से महावीर और आत्मा से परमात्मा पदवी तक को प्राप्त करते हैं कहा है
नाणेण जाणई भावे दसणेण य सदहे । चरित्तेण निगिण्हाई तवेण परिसुज्झई ।।
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१४२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
___ वत्म | ज्ञान, दर्शन, चारित्र एव तप की सहायता से यह जीवात्मा भली प्रकार से जीवादि तत्वो को जानता है, यद्वता है । आगत कर्माश्रव को रोकता एव समस्त कर्मों का क्षय करने मे सफलता भी प्राप्त करना है । इस प्रकार गुरु की मदद बिना गोविन्द, और अरिहन्त की कृपा विना सिद्ध स्वरूप का सम्यक् जान कदापि नही होता है । इस तथ्यानुसार गोविन्द एव मिद्ध प्रभु की अपेक्षा, गुरु एव अरिहन्त प्रभु का माहात्म्य अधिक माना है क्योकि ये हमारे लिये परोपकारी है । जैसा कि कहा है
गुरु गोविन्द दोऊ खडे काके लागु पाय ।
बलिहारी गुरुदेव की गोविन्द दिया बताय ।। परम महायक का गुण गान करना सम्यक् दृष्टि को पहिचाना है। मम्यक्दृष्टि के शममम्वेग-निर्वेद-अनुकम्पा और आस्था, ये व्यावहारिक लक्षण माने गये हैं, इसमे अनुकम्पा चौथा लक्षण है । सह्योग रूपी सुधा-रस का सिंच न पाकर ही अनुकम्पा गुण समृद्धि विकास को प्राप्त करता है । धर्म रूपी वृक्ष परिपुष्ट होता हुमा जीवन मागर सदृश्य अवश्य विराट वनता है। स्नेह-सगठन एव समता के झरने अवश्य हो प्रस्फुटित हुए बिना नही रहते हैं । थोडे मे कहुँ तो सत्य शिव-मुन्दरम्, ये तीतो गुण महयोग धर्म मे समाविष्ट है । रोते हुए को हंमाना, गिरे को उठाना और अनाथ को नाथ के पद पर आसीन करना मह्योग धर्म का मगल कार्य है । सुनिये जीवन-स्पर्शी उदाहरण
साधारण वस्त्र पहिने हुए एक नन्ही वालिका थोडा दही लेकर आ रही थी। कुछ लोग सामने से गुजर रहे थे एक भाई उस वालिका से टकरा गया । विचारी का दही सडक पर बिखर गया । वर्तन भी फूट गया लडकी जोर-जोर से रोने लगी। आने जाने वालो ने उस बच्ची को चुप रहने का उपदेश दिया पर कोई सहयोग का हृदय लेकर नही आया । अन्त मे एक सज्जन पुरुप आया और बोलाबेटी | क्या हुआ, दही गिर गया ? अच्छा रोओ मत चुप हो जाओ और लो यह पैसे दही और वर्तन ले आओ । वैमा ही हुआ, वह लडको अपना सामान ले आई और प्रसन्न मुद्रा मे नाचती-कूदती अपने घर चली गई। कहा है
हाथ फैलाओ कि हम फैलायें हाथ हैं ।
साथ तुम हमे दो हम तुम्हारे साथ हैं ।। आप जरा गहराईपूर्वक सोचे, इजिन मे सैकडो मन वजन ले जाने को शक्ति है किंतु पटरी के अभाव मे ? मछली मे दौड लगाने की क्षमता है किंतु जलाभाव मे ? इसीप्रकार जीव और पुद्गलो मे गति करने की समता है किन्तु धर्मास्ति काय का महयोग नही रहा तो क्या इधर-उधर जा पाओगे ? टिचल नही । इनी तरह प्रत्येक द्रव्य पारस्परिक महयोगी है । प्रकृति की प्रत्येक वस्तु जैसे कि नदी, नाले, झाड-पर्वत, निर्झर, रवि-राकेश, सभी जीव एव पुद्गलो के लिये मददगार है, अर्थात्-सहयोग धर्म से परिपूर्ण है।
यद्यपि समय काफी हो चुका है, मुझे आशा है कि-आप मेरे विचारो को अपने दिल-दिमाग से मोचेंगे व जीवन की पवित्र प्रयोग शाला मे कार्यान्वित भी करेंगे जब ऐमी आत्मिकस्फुरणा का अन्तर हृदय में उद्भव होगा तभो महयोग धर्म इसका महज स्वभाव बन जायगा। जब अपने समान दूसरो यो भी सुत्रसम्पन्न बनाने की आपसरी अन्तरात्मा मे उत्कण्ठा जागेगी वही उत्कण्ठा आपके भविष्य तो चमनायेगी-दमकायेगी एव मुख सम्पन्नता से भरेगी इतना कहकर मैं अपने वक्तव्य को विराम देता हूँ।
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संयममय जीवन
___ आज हम जिधर भी दृष्टि डालते हैं । उधर भौतिकवाद का बोलवाला है। सभ्य समाज के प्रत्येक नर-नारी भौतिक सुख-सुविधा मे और फैशन मे अधिकाधिक मदोन्मत्त बनते जा रहे हैं। सयमी नहीं, असयमी एव मर्यादित नहीं अमर्यादित जीवन विताना अधिक पसन्द कर रहे हैं । ऐसा क्यो ? यह दोष आध्यात्मिकवाद का नहीं अपितु भौतिकवाद का रहा है। जिसने आहारविचार और आचार मे बहुविध विकृतियां पैदा की है। वस्तुत. आहार की विकृति से विचार विकृत हुए और विचारो की विकृति से मानव का सदाचार (सयम) भी फलकित होना स्वाभाविक है। इसी वातावरण को दृष्टिगत रखकर गुरु प्रवर ने "सयम ही जीवन है" प्रवचन फरमाया है जो प्रत्येक मुमुक्षु के लिए प्रेरणामओ का स्रोत रहा है।
-सपादक प्यारे सज्जनो!
आज के इस विराट् विश्व की वाटिका में करीब-करीव तीन-चार अरव जितनी जनसख्या निवास कर रही है। जिसमे चीन प्रथम श्रेणी में, हिन्द द्वितीय, तृतीय श्रेणी मे रसिया और क्रमश फिर अन्य देशो का नम्वर आता है ।
आज हिन्द की लगभग ५५ करोड जितनी जनसख्या मानी जाती है । फलस्वरूप प्रत्येक देश की बढती हुई जन-आवादी को देखकर आज केवल हिन्द को ही नहीं, अपितु प्रत्येक राष्ट्र को भय-सा प्रतीत हो रहा है। सभी के समक्ष आज एक प्रकार की जटिल समस्या और एक गम्भीर प्रश्न आ खडा है। वह ममस्या इस प्रकार है कि वढती हुई प्रजा को कहां विठाएंगें ? क्या खिलाएंगे ? क्या पिलाएंगे और क्या पहनाएंगे? आदि-अहर्निश उपरोक्त प्रश्न प्रत्येक राष्ट्र को वेचन सा बना रहे हैं ।
अभी-अभी थोड़े वर्षों पूर्व काग्रेस-कान्झन्म का अधिवेशन नागपुर मे हुआ था। जिसमे बढती हुई जनसंख्या के प्रश्न पर भी कुछ विचार-विमर्श किया गया था कि इस जनवृद्धि के लिए हमे भविष्य मे क्या करना चाहिए । विशाल रग-मच पर कितनेक वक्ताओ के इस समस्या सम्बन्धित भापण भी हुए थे। किसी-किमी का अभिमत यह था कि-जन्मते ही बालक-बालिकाओ को क्यो न काल के गाल मे डाल दिया जाय और किसी के उद्गार यह थे कि-वैदेशिक-औपधि-इ जेक्शनो का उपयोग किया जाय ताकि किसी की उत्पत्ति ही न हो और मदा के लिए वृद्धि का मार्ग ही अवरुद्ध हो जाय । आज भी कतिपय नमें अनेको गांवो मे घूमती है और औपधियो का प्रयोग करने का स्त्री समाज मे जोर-शोर से प्रचार कर रही है।
___ अब विद्वद् समाज ही पैनी बुद्धि और शात मन-मस्तिष्क मे नोचे कि क्या उपर्युक्त उपाय मानव-जीवन को लाभ और गाति सतोपदायक है ? 'न भूतो न भविष्यति !" अर्थात् कदापि नहीं ।
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१४४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
नि सन्देह ऐसे उपायो का उद्घाटन करनेवाले और ऐसे उपायो का व्यवहारिक जीवन मे आचरण करने वाले नर-नारी भारी भूल के पात्र हैं। वे मानव-समाज का हित नहीं अहित करते हैं । मानव जीवन को पतन के गहरे गर्त में गिरने का भारी जान तैयार कर रहे है । इन उपायों से मानवजीवन का उत्थान कल्याण असम्भव है।
___ इस प्रकार आज का वैज्ञानिक वर्ग 'सतति-निरोध' इस समस्या का समाधान ढढने मे तल्लीन और प्रयत्नशील है । तथापि अद्यावधि सफलता का सूर्योदय नही हुआ है। परन्तु लीजिए इस तुच्छ समस्या का समाधान तो पतित-पावन-पवित्र प्रभु महावीर स्वामी ने आज से २५ शताब्दियो पहिले ही अपनी विमल-विशद वाणी द्वारा कर दिया था "सयम खलु जीवनम्" ।
हे मुमुक्षु । सयममय जीवन ही वास्तविक जीवन कहा जाता है। और देखिए - वर मे अप्पा दन्तो, सजमेण तवेण य ।"
-भ० महावीर हे जितेन्द्रिय । प्रत्येक मानव को यह अवश्यमेव जानना चाहिए कि-सयम और तप के द्वारा ही वह अपनी आत्मा का दमन करे। क्योकि-इन साधनो से आत्मा को वश मे करना सर्वोत्तम है। और भी कहा है - लज्जा दया सजम बभचेर कल्लाणभागिस्स विसोहिठाण।
-दशवकालिक सूत्र अर्थात् लज्जा, दया, सयम और ब्रह्मचर्य, कल्याण चाहने वालो के लिए विशुद्धि के स्थान माने है।
__ "सयम्यते नियम्यते स्वरूपे स्थाप्यते आत्मा पाप पु जात् अनेन इति-सयम ॥
अपने आप को पाप पुज से हटाकर निजस्वरूप में स्थापित करना ही सयम की परिभाषा है। सयम का मतलब यह नही कि-सभी साधु वेश के धारक होवें। किन्तु इन्द्रिय एव श्रय योग (मन-वचनकाया) जो पाप और आश्रव की ओर बढ रहे हो उन्हे नियन्त्रित कर सदा-सदा के लिए तीन करण तीन योग के माध्यम से जो सवर की ओर मोड देना, वह सर्वाश सयमी जीवन कहलाता है और कुछ नियमित काल के लिए जो सावधप्रवृत्ति से निवृत्ति ग्रहण करते हैं वह देश रूप में सयमी जीवन कहलाता है।
वास्तव मे सयममय जीवन ही महान् जीवन कहलाता है। सयम एक महान् शक्ति है-जो नर-नारी को नारायण का रूप प्रदान करने वाली है। अन्धकार से प्रकाश की और प्रेरित करने वाली
और दशो दिशाओ मे जीवन को चमकाने-दमकाने वाली है। जैसे लालटेन मे तेल जितना गहन-गम्भीर होगा, तो प्रकाश की तीव्रता भी उतनी ही वढेगी। मानव जीवन के लिये सयम-ब्रह्मचर्य तेल है। और प्रज्ञा की प्रभा यह प्रकाश है। मानव जीवन मे सयम रूपी तेल का अजस्र स्रोत प्रदीप्त होता रहेगा तो बुद्धिमत्ता उतनी तेजस्विनी होती रहेगी। अगर जीवन मे किसी भी बात का सयम (कण्ट्रोल) नही, तो निश्चय ही सर्वशक्तिया कमजोर और शुष्क हो जाएगी। सयम आध्यात्मिक जीवन को तथा भौतिक जीवन को ऊँचा उठाने वाला एक सर्वोत्तम साधन है। विनोबा जी भी यही कहते हैं --- 'सयममे ही जीवन का विकास सम्भव है"।
एकदा महात्मा गाधी जापान की यात्रा पर गये । जापान देश-सभ्यता सस्कृति एव कला विज्ञान मे काफी अगुआ रहा है। जापान पहुचने पर वहां के निवासियो ने भाव भीना स्वागत सत्कार कर अपनी संस्कृति मभ्यता की पूरी जानकारी अवगत करवाई। बापू ने वहाँ कई विशेष नई-नई चित्रित
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया सयममय जीवन | १४५
वस्तुएं देखी । जिसमे तीन वन्दरो का एक मूक चित्र भी मम्मिलित था । एक बन्दर ने अपने दोनो कानो पर हाथ दे रखा, दूसरे ने आँखो पर और तीसरे ने मुंह पर हाथ दे रखा था । विस्मय मे डालने वाले उस चित्र को देख कर महात्मा गांधी वहाँ के कार्यकर्ताओ से बोले-इन चित्रो से क्या प्रयोजन ?
____ कार्यकर्ता हमारे देश मे सयम का अत्यधिक महत्त्व माना गया है। दुनिया को उपदेश देने के लिए घर-घर कौन जावे ? उपदेशक के पास इतना समय भी तो नही । उस कमी को हमारे ये तीनो वन्दर पूरी करते हैं । ये हमारे कलाकारो की विशेष सूझ-बूझ है।
एक वन्दर मानव को सकेत करता है कि किसी की ओर तुरी दृष्टि नही डालना। दूसरा बता रहा है--बुरे वचन अपने मुंह से नही उगलना । तीसरा मकेत करता है—किसी की निन्दा, मिथ्या लोचना एव वुरी वाते न सुनना ।
कहिए, यह उपदेश क्या कम है ? इन्द्रियाँ और मन को सयमित करने का कितना सुन्दर मार्ग है । आँखे, कान और मुंह पर सयम रहने पर बहुत से क्लेश दूर हो जाते हैं। शिक्षा भरी वातें सुनकर वापूजी अत्यन्त प्रसन्न हुए। और वापिस लोटते समय उन चित्रो को अपने साथ लेकर भी आये।
इन्द्रिय एव मनोनिग्रह पर भ० महावीर ने तो बहुत ही जोर दिया है । यथाजहा कुम्मे स अगाइ सए देहे समाहरे । एव पावाइ मेहावी अज्झप्पेण समाहरे ॥
हे आर्य | जैसे कछुआ अपना अहित होता हुआ देखकर अपने अगोपागो को अपने शरीर मे सिकोड लेता है, इसी तरह मेघावी भी विषयो की ओर जाती हुई अपनी इन्द्रियो को आध्यात्मिक ज्ञान से सकुचित कर रखते हैं । और भी कहा है--
आस्रवो भवहेतु. स्यात् सवरो मोक्ष कारणम् ।
इतीयमाहतो दृष्टि - रन्यदस्या प्रपचनम् ।। आश्रव (बाह्य-निष्ठा) भव का हेतु है और सयम-सवर (आत्म-निष्ठा) मोक्ष का हेतु है । अर्हत की सार दृष्टि मे इतना ही है, शेप सारा प्रपच है। वेदान्त के आचार्यों ने भो इन्ही स्वरो मे गाया है -
अविद्या वन्धहेतु स्यात् विद्या स्यात् मोक्षकारणम् ।
ममेति बध्यते जन्तु न ममेति विमुच्यते ॥ अविद्या (कर्म-निष्ठा) वन्ध का हेतु है और विद्या (ज्ञान-निष्ठा) मोक्ष का हेतु है ।' जिसमे ममकार है वह वैधता है और ममकार का त्याग करने वाला मुक्त हो जाता है।
वेदो मे सयमी जीवन विताने की सुन्दर व्यवस्था का वर्णन है -ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और मन्यासाश्रम । अर्थात २५ वर्ष की वय मे लगन करते और ४५ वर्ष की वय मे पुन वे सासारिक कार्यों से निवृत हो जाते थे और सहर्ष मगलमय जीवन-यापन करते थे।
___ रघुवश नामक मस्कृत महाकाव्य के निर्माता महाकवि कालिदास ने रधुवश के राजकुमारो के कार्य कलापो का सुन्दर चित्रण निम्न श्लोक मे प्रस्तुत किया है -
शेशवेऽभ्यस्तविद्याना यौवने विषयषिणाम् । वार्द्ध क्ये मुनिवृत्तीना योगेनान्ते तनुत्यजाम् ।।
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१४६ । मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
अर्थात - रघुवश के कुमार शैशव काल मे विद्याध्ययन करते, योवन वय मे जन-धन की वृद्धि करते और वृद्वकाल मे सयम योग की साधना करते हुए प्राणो का उत्सर्ग करते थे।
श्री राम, लक्ष्मण एव सीता सम्बन्धित एक बहुत ही सुन्दर प्रसग आता है जिसमे लक्ष्मण का सयमी जीवन अधिकाधिक निखरता हुआ बतलाया है-राम, लक्ष्मण और सीता एकदा तीनो वनविहार कर रहे थे। सहसा भ० राम कही पीछे रह गये और सीता भगवती को अधिक थकान का अनुभव हो रहा था । सेवा चतुर भावज-भक्त लक्ष्मण को मालम होते ही निकट घने वृक्ष की शीतल छाया मे घुटनो का तकिया बनाकर मातृवत् सीता को आराम करने के लिए आमन्त्रण दिया। सीता भगवती आराम कर रही थी कि इतने मे राम शुक पक्षी के रूप मे परीक्षार्थ उस वृक्ष पर उपस्थित होकर बोले
पुष्प दृष्ट्वा फल दृष्ट्वा दृष्ट्वा योषित यौवनाम् ।
त्रीणि रत्नानि दृष्ट्वंव फस्य नो चलते मन ? लक्ष्मण | फल-फूल एव स्त्री के खिलते हुए यौवन को देखकर किमका मन चलित नहीं होता ? अर्थान् तीनो रत्नो को देखकर अवश्य ही मन चचल होता है । तव लक्ष्मण वोले
पिता यस्य शुचीभूतो माता यस्य पतिव्रता ।
उभाभ्या य. समुत्पन्न तस्य नो चलते मन । हे शुक | भाग्यवान् पिता एव पतिव्रता माता की पवित्र कूख से जिसका जन्म हुआ है, उसका मन कदापि चलित नही होता है । शुक ने पुन मार्मिक प्रश्न रखा
घृतकुम्भ समा नारी तप्तागारसम पुमान् ।
___जानुस्थिता परस्त्री चेद् कस्य नो चलते मन ? लक्ष्मण घृत कुम्भ सम नारी और तप्त अगार तुल्य पुरुप को माना है। तो भला जिसके घुटने पर पर स्त्री सोई हुई है क्या उसका मन सयम मे रह सकता है ? प्रत्युत्तर मे सौम्यमूर्ति लक्ष्मण ने कहा
मनो धावति सवत्र मदोन्मत्तगजेन्द्रवत् ।
ज्ञानाऽकुशे समुत्पन्न तस्य नो चलते मन ।। हे शुक | माना कि पागल हाथी की तरह मन इतस्तत अवश्य दौडता है किंतु जिसके पास ज्ञान रूपी अकुश विद्यमान है उसका मन कभी भी चलित नही होता है।
सागोपाग उत्तर को सुनकर शुक रूप मे रही हुई राम की अन्तरात्मा अत्यधिक प्रसन्न हुई, राम असली रुप मे प्रगट होकर भाई लक्ष्मण को स्नेह पूर्वक गले लगाया और अन्त करण से वोलेवन्धु । तेरे सयमी जीवन से सारा रघुवश गौरवान्वित हो रहा है। वास्तव मे तेरे जैसे भाई दुनिया मे विरले ही होगे । सोने को तपाने पर वह निखरता है उसी प्रकार लक्ष्मण तेरा अन्तर्जीवन भी श्लाघनीय है। इस प्रकार इस दृष्टान्त मे इन्द्रिय एव मन का महत्वशाली सयम दर्शाया है। जो नर-नारी के लिए आचरणीय और अनुकरणीय है।
सयम के इस तरीके से यदि आज का मानव-समूदाय काम ले तो फिर वैज्ञानिको को यह
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तृतीय खण्ड . प्रवचन पखुडिया सयममय जीवन | १४७ कहना न पडे कि—मार दो । खत्म कर दो । परन्तु खेद है कि आज के वैज्ञानिक वर्ग विपरीत गली मे गमन कर रहे हैं । पूर्वजो के महान् उपदेशो को भूल रहे हैं। उनके वाक्यो की अवहेलना-उपेक्षाकर रहे हैं । तभी तो अमानुपिक दानवी साधनो का आविष्कार करके मानव-जीवन पर कुठाराघात कर रहे हैं । औपधि इजेक्शनो का जो तरीका अपनाया जाता है भले ही वह वाह्यदृष्टि से आज के युग को सतुष्ट करने वाला हो, परन्तु आभ्यन्तर दृष्टि से जरा मनन-मथन किया जाय तो और अधिक स्वेच्छाचार, भ्रष्टाचार और असयम का वर्धक है। इससे मानव जीवन का पतन है । मानव जीवन का पतन ही समाज का और समाज का पतन ही राष्ट्र का पतन है।
___ मानव जीवन के पतन के कई कारण समाज और देश मे वर्तमान है। जिसमे कितनीक तो जीर्ण-शीर्ण रूढियां हैं । जो मानव-जीवन को असयम को ओर घसीटती हैं। जैसे कि-लघुवय मे मातापिता ठापने लड़के-लडकियो के गले मे शादी रूपी जहरीला फाँसा डाल देते हैं। जिससे होनहार वालक-बालिकाओ का जीवन तार अस्त-व्यस्त हो जाता है। नेत्रो की रोशनी और चेहरे की चमकदमक शुष्क नीरस और फोकी पड जाती है । वे फिर विचारे घाणी के बैल की तरह जीवन पर्यंत उसी विषैली फांस मे मकडी के मानिंद जकडे रहते है । सयमी जीवन विताने का अथवा सयम पालने का सुनहरा अवसर ही उन्हें प्राप्त नहीं होता है । और कितनेक पतन के कारणो का आविष्कार आज के वैज्ञानिको ने किया है । जिससे क्षण-क्षण मे नवयुवक का सयमी जीवन लूटा जा रहा है। प्रथम कारणसिनेमा । इसके द्वारा नवयुवक समाज का भारी पतन हुआ है । गन्दे गायनो से भी मानवजीवन का भारी पतन हआ है। दिनो-दिन नानाविध फैशनो का जन्म हो रहा है। इससे भी हानि ही हुई है। शृ गार-साहित्य तथा खोटे साहित्य का आज भी पर्याप्त रूपेण सृजन हुआ है और हो रहा है । मास अण्डे कसे खाना, यह तरीका आज के अध्यापकगण नूतन साहित्य के आधार से नन्हे-नन्हें वालक-बालिकाओ को मिखाते हैं ।
यह महती कृपा आज के वाज्ञानिक वर्ग की है। उपरोक्त कारणो से मानव के सयमी जीवन को भारी क्षति पहुँची है । इन पतनवर्धक आविष्कारो की सारी जिम्मेवारी आज के वैज्ञानिक वर्ग पर ही है। क्यो नही आज का जनतन्त्र-राष्ट्र इन उपरोक्त पतन के कारणो की इति श्री करें ताकि भ्रूण मारने की और औपधियां आदि देने की नौबत ही न आए । 'न रहे वास न वजे वासुरी' । क्यो न चोर की माँ को खत्म कर दिया जाय ताकि चोर का जन्म ही न हो । यानी असयम के स्रोत को ही नष्ट करना बुद्धिमत्ता है।
विकाम की ओर बढने की भावना रखने वाले मानव के लिए सयमीवृत्ति का विकास करना अनिवार्य है । ऐन्द्रिक, शारीरिक और मानसिक शक्तियो का सुकार्यों में व्यय करना ही सयम है । यह सयम या सयमी जीवन ही उत्थान है । और असयम या असयमी जीवन ही पतन है। सयम ही सुख का राजमार्ग और असयम ही द ख की विकराल वीथिका है।
इस अशाति रो बचने के लिये भ० महावीर, वैदिकशास्त्र और विनोबा आदि सयम की ओर निर्देश करते हैं कि-सयम सजीवनी है। जो दुख से वेभान बने हुए प्राणियो को नव-जीवन प्रदान करती हैं। सयम ही वह रामबाण औपधि-इजेक्शन है जिसके सेवन करने मे अशातिरूपी व्याधि भस्म हो जाती है। सयम ही अमृत है और असयम ही विष है । सयम का अमृत पान करने के लिए भ० महावीर ने यही घोपणा की थी-"सयम खलु जीवनम्" ।
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सच्चे मित्र की परख
'सच्चे मित्र की परख' यह गुरुदेव का प्रेरक प्रवचन मानव समाज को सकेत दे रहा है कि- भौतिकवस्तु भले कितनी भी सुन्दरतम एव विपुल मात्रा मे तुम्हारे पास क्यो न हो; तथापि तुम्हारी रक्षा नहीं हो पावेगी चू कि--जड वस्तु स्वय पराधीन व परिवर्तनशील है और आत्मिक बन्धु आत्मा का धर्म है । वह मृत्यु रूपी गीदड से बचाने वाला और सदैव साय निभाने वाला है। इन्हीं विस्तृत भाव व्यजनाओ का दिग्दर्शन निम्न प्रवचन मे है । पढ़िए
सपादक] सज्जनो।
विश्व के समस्त पशु-पक्षियो को अपेक्षा मित्र की अधिकाधिक जररत मानव समाज के लिए रही है । मित्र-महयोगी विना मानव का जीना दुष्कर माना गया है। क्योकि-भौतिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एव राजनैतिक आदि सभी क्षेत्रो मे सुहृदयी की परमावश्यकता सर्व विदित है । कहा भी हैन वृत्ति न च वान्धव" अर्थात् जहाँ जीवनोपयोगी वृत्ति और हित चिन्तक न रहते हो, वहाँ बुद्धिजीवी को वास करना उचित नही है-तत्र वासो न कारयेत्” । कारण कि मानव को जगतीनल का सर्वोत्तम बुद्धि का धनी-मानी माना गया है । वस्तुत उसके वलिप्ट कधो पर विविध प्रकार के उत्तरदायित्व लादे हुए हैं।
__ कई प्रकार की योजनाएं तो मानव के मन-मस्तिष्क से ही उद्भव होती है। और मानव के मन-मस्तिष्क की अनोखी सूझ-बूझ से ही वे योजनाएं साकार होती है। उपर्युक्त कार्यों की सफलतासवलता मे मलाह दे, सहयोग दे, एव प्रशस्त मार्गदर्शन भी दे । इस कारण पग-पग और डग-डग पर आत्म-विश्वास के साथ-साथ साथी के विश्वास की भी चाहना सदैव बनी रही है। वह विश्वास सही मित्र के विना अन्यत्र दुष्प्राप्य माना गया है। अतएव मार्गदर्शन एव सलाह-सबल ठीक मिल जाने पर दुल्ह मार्ग-मजिल को भी हंसी-खुशी और सुगमता-सुविधा के साथ पार कर ली जाती है। वरन् अकेले उस मार्ग को तय करने मे पैर लखडाने की सभावना बनी रहती है। इसलिये सखा-सहयोग की जरूरत प्रत्येक मेघावी मानव के लिए सर्वथा उचित है।
अब प्रश्न यही है कि- सच्चे मित्र कौन ? मित्रता का वास्ता किसके साथ जोडना? ऐसे तो आज किसी को कुछ खिलाया कुछ दिया अथवा कुछ पिलाया कि बात की बात मे अनेक मित्रो की खासी भीड मी जमा हो जायेगी। लेकिन सभी को मित्रता की श्रेणी (स्टेज) पर ला विठाना किंवा उन पर विश्वास कर लेना अपने आपको वोखे मे डालना है। चूंकि केवल खाने, पीने के रसिक न किमी के हुए और न होने के हैं जैसा-"All are not friends that go to church,,
"जो अपने घर मे निकल कर चर्च की ओर बढ रहे हैं, उन सभी जन को सज्जन (मित्र) समझने की भूल मत करो।"
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया सच्चे मित्र की परख | १४६
यदि धन को सच्चा साथी स्वीकार कर लिया जायगा तो नि सदेह कई प्रकार के प्रश्न खडे होगे। इस विशाल भूमण्डल पर अगणित धन कुवेर हो गये है जिनका अद्यावधि न कोई पता और न पहुच आ पाई । उनकी पीढी दर पीढी न जाने कहां गायब हो गई ? मृत्यु के मुंह मे कैसे समा गये ? जव कि हीरे, पन्ने, मणि, मोती, सोना चांदी, दास, दासी, पशु-पक्षी यहां तक कि आठो सिद्धियाँ, नव निधियाँ जिनके खाट तले दामीवत् खडी रहा करती थी। कहते हैं कि-सिकन्दर के खजाने की चावियाँ चालीस ऊँटो पर लदी की लदी रहती थी । ऐतिहासिक तथ्य है कि-बादशाह शाहजहां के सम्बन्ध मे कहा जाता है कि आज के इतिहास विज्ञ उसकी सम्पत्ति को आक नही सके । फ्रांस और ईरान के राज्य कोष की सयुक्त सम्पत्ति से भी अधिक सम्पत्ति शाहजहाँ के कोप मे थी। एक दिन कोपाध्यक्ष ने वादशाह से खजाने की दीवारे चौडी करने की अपील की। क्योकि सम्पत्ति के लिए खजाना छोटा पड रहा था। शाह ने इस समस्या के लिए "तख्त ताउस" नामक एक सिंहासन वनवाया । जिसका मूल्य उस युग मे ५३ करोड रुपये का था। उसमे कीमती हीरे, जवाहरात जड़े थे। तख्ते-ताउस मे ३५ मन सोना और ७ मन जवाहरात लगा । राज्य के कुछ कारीगरो ने सात वर्षों मे तैयार किया था।
मुहम्मद गजनी १७ वार मे सोमनाथ के मदिर मे से वीस मन जवाहरात, २०० मन सोना, एक हजार मन चाँदी वह लूटेरा बनकर ले गया और गेकडे कलदारो की गिनती ही नही थी। तथापि धनपतियो की जान एक ही क्षण मे न जाने कहाँ छूमन्तर हुई, जबकि अपार ऐश्वर्य के अम्बार जिनके अगल-बगल मे पड़े थे । जिन पर उनको पूर्ण विश्वास और गर्व था कि-कालरूपी पिशाच सिर पर मण्डराने पर मेरी रक्षा और कोई नही कर सकेंगे तो यह धन तो अवश्य करेगा। लेकिन यह मिथ्या भ्राति भी बालु की इमारत की तरह ढह गई। धन सम्पत्ति मे उस त्राणशक्ति का नितान्त अभाव पाया जाता है । गई हुई जान-ज्योति को फिर से हूँढ लावे अथवा बाजार-मार्केटो मे से खरीद कर उस पार्थिव पुतले से पुन प्रतिष्ठित कर दे । परन्तु इस अद्वितीय प्रयोग मे धन सर्वथा असफलता का मुख ताकता रहा है । क्योकि कहा भी है
___"Money will not buy every thing" अर्थात्-धन द्वारा प्रत्येक वस्तु नही खरीदी जा सकती है । हाँ, धन द्वारा जड वस्तु की खरीदी का तोल-मोल अवश्य होता है, किन्तु आत्मिक गुणो का नही, आज श्रीमतो के घरानो मे सगाई एव विवाह के प्रसग पर सतानो की बिक्री नोल-मोल मांगनी का जो सिलसिला चल रहा है वह केवल उस पार्थिव देह का है, न कि देही का । यदि देही की कीमत करते तो शील-सदाचार एव सद्गुणो का माध्यम अपनाते ।
कहते हैं कि--कवि माघ का विद्वान पुत्र कवि तो बना, किन्तु साथ ही साथ गरीबी की परिताडना से तग आकर चोरी कला भी सीख गया । एकदा वह घूमता २ अर्ध-रात्रि के समय राजा भोज के महल मे जा पहुँचा । उस वक्त भोज जाग रहा था। कही मुझे देख न ले इस कारण वह भोज के पलग के नीचे जा बैठा । स्वर्णिम पलग पर लेटा हुआ सम्राट भोज अपने तुच्छ वैभव के सम्बन्ध मे गर्योक्तियाँ इस प्रकार अभिव्यक्त कर रहा था।
चेतोहरा युवतय सुहृदोऽनुकूला,
सद्वान्धवा प्रणयनम्र गिराश्च भृत्या । बल्गन्ति दति निवहास्तरलास्तुरगा,
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१५० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
-चित्ताकर्प कई युवतियाँ (रानियां), आना पालक अनेकानेक सज्जनवृन्द, महचरी बान्धय, जी हुजूरी करने वाले सैकडो नौकर-चाकर, मदोन्मत्त हाथी एव घोडो की मुदूर लम्बी कतार एव अखूट घन-राशि की मुझे प्राप्ति हुई है । मेरी शानी का दूसरा सम्राट् आसपास है कहां? इस प्रकार कहता हुआ श्लोक के तीन चरण तो बना लिये किन्तु चतुर्थ चरण के वाक्य विन्याम ठीक प्रकार से जम नहीं रहे थे । उपर्युक्त गवित बातें सुनकर उस चोर पटित से रहा नहीं गया। वह एक्दम चौथे पाद की पूर्ति करता हुआ बोल पडा- समीलिते नयनयोर्नहि किञ्चिदस्ति'। गजन् ! तेरी आँबे वन्द हुई अर्थात् तुझे निद्रा आई कि यह महा मूल्यवान् धन राशि गायब हुई ममझो। यानि में चोरी कर ले जाऊँगा । सुनकर राजा चोक पडा । यह कौन ? आवाज आई कहाँ मे ? इनने मे तो स्वय चोर मम्मुख खडा था। उसने अपना परिचय कह सुनाया। नृप उसके उद्बोधन पर बेहद खुश था। तू चोर नही, मेरा गुरु है । ते चतुर्थ पाद ने मेरी अन्तरात्मा को जगा दिया है। मैं मिथ्या अभिमान पर व्यर्थ ही फूल कर कुप्पा हो रहा था, वास्तव में यह वैभव मैं जिन्दा हूँ वही तक है। मेरी आँखें वन्द हुई कि मेल ख-ग है। कहते हैं कि नृप भोज की गुणग्राहक बुद्धि ने फिर कभी भी इस अनित्य वैभव पर गर्व नहीं किया।
हाँ तो धन के चमकते-दमकते ये ढेर यहाँ-वहाँ घरे पडे हैं लेकिन वे भोक्ता-दृष्टा व सग्रह कर्ता अनन्त काल के गाल मे समा गये । अत विश्वास किया जाता है कि पार्थिव वैभव मानव का मच्चा मित्र नहीं है । वल्कि यदा-कदा धन, नर-नारी के लिये घातक भी बन जाता है। इस कारण धन को जीवन का सगी मानना भारी भूल ही मानी जायेगी । क्योकि मच्चा जो साथी होता है वह प्रत्येक स्थिति मे माय देता है। जैसा कि
उत्सवे व्यसने प्राप्ते दुमिक्षे शत्रुसंकटे ।
राज द्वारे श्मशाने च यदतिष्ठति स बान्धव । किंतु धन ऐसा नहीं कर पाता है । धन कहता है-मैं पार्थिव शरीर का अश हूँ । मेरे विषय मे पडित जन ठीक कहते हैं "धनानि भूमौ" यह सिद्धान्त सत्यमेव सही है।
पशु-पक्षी भी मित्र की श्रेणी में नहीं - पशु-पक्षियो को सच्चा मित्र मानना युक्ति सगत नहीं जचता, कारण कि पशु-पक्षियो मे प्रभूत अविवेक, अज्ञानता एव असहिष्णुता पाई जाती है। हिताहित के थर्मामीटर का उनके पास अभाव सा रहता है । लक्ष्य और उद्देश्य विहीन उनका सारा जीवन ज्यो का त्यो खाते-पीते एव वजन ढोते एक दिन काल के भेट हो जाता है । न खुद के लिए और न अन्य के लिए कुछ रचनात्मक कार्य कर पाते हैं । हाँ यदा-कदा मूर्खता और अविवेक के कारण वे अपने प्यारे पालक-पोपक के लिए घातक वन जाते है।
बुद्धिजीवी के समझने के लिए पचतत्र नामक ग्रथ मे बहुत ही सुन्दर एक कहानी इस प्रकार है-अत्यधिक प्रेमपूर्वक एक राजा ने एक अनाथ वन्दर को पाला । समयानुसार उस वन्दर शिशु को मानवीय मम्कार एव कुछ-कुछ मानवीय भापा ज्ञान भी सिखाया गया। ताकि पाशविक मस्कारो मे मम्यता का नचार होवे, वदर की अभिवृद्धि पर राजा काफी खुश था। अगरक्षक के रूप मे उम वन्दर को नियुक्त भी किया गया । एकदा राजा शयनकक्ष मे मोया हुआ था । वन्दर हाथ में तलवार लेकर अपने स्वामी के अग की देख भाल कर रहा था। किंतु मक्खियाँ नही मान रही
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया सच्चे मित्र की परख | १५१ थी। बार-बार आकर नृप की देह पर बैठ रही थी । वस्तुत परिणाम के सोचे विना उस विवेकहीन वन्दर को आवेश आया और आवेश के अन्तर्गत तलवार राजा की छाती पर दे मारी । मक्खियाँ तो भाग गई किंतु उस घटना स्थल पर राजा की मृत्यु हो गई । इसलिए कहा है
पडितोऽपि वर शत्रु न मूर्यो हितकारक ।
वानरेण हतो राजा कतिपय जानवरो की जातियाँ ऐसी भी पाई जाती हैं जैसा कि -कुत्ता, हाथी, गाय, घोडा, तोता आदि २ जो स्वामी भक्त होते हैं। घातक एव अनिष्टकारी तत्वो से अपने स्वामी को सावधान एव सुरक्षित करने में काफी मददगार सिद्ध हुए । अल्प समय के लिए भले उन्हे अगरक्षक मान लिया जाय, लेकिन आत्मिक मित्र की कोटि मे नही । क्योकि काल स्पी वाज के समक्ष वे भी निर्वल-निराधार बन जाते हैं तो अपने शामक महोदय को कैसे बचा सकते हैं ? अतएव ठीक ही कहा है-'पशवश्च गोष्ठं' अर्थात् पशु-पक्षी वाडे मे खडे २ देखते, रेगते, चिल्लाते, चित्कारते ही रह जाते है। और मालिक को सब कुछ छोड कर रवाना ही होना पडता है ।
पारिवारिक सदस्य भी नहीं - पारिवारिक सदस्य भले माता, पिता, भाई, भगिनी, भार्या, काका, मामा आदि कोई भी क्यो न हो, उनके जीवन के कण-कण और रोम-रोम मे मतलव की वू कूट-कूट के भरी रहती है।
जो स्वार्थ गगन मे उडाने ले, वे सच्चे मित्र कहलाने के हकदार कैसे ? हाँ, यह भी माना कि यदा-कदा लाभ सुख-सुविधा पहुंचाने में उनका पूरा-पूरा सहयोग साथ मिलता है । लेकिन कहां तक ? 'मुल्ला की दौड मस्जिद तक' की कहावत के अनुसार मतलव सधे वहाँ तक। वरना वही तिरस्कार, वहिष्कार, दुत्कार से सजा गुलदस्ता उपहार मे दिया जाता है।
___जव जीवन की सरसन्न वाटिका हरी-भरी, फूली-फली रहती है तब तो सव आ आकर ऐश आराम आनद लूटते है । कदाच आपत्ति-विपत्ति की श्याम घटा अनायास ही आ धमकती है तो सब यही कहते सुने गये हैं कि बेटा | ये कर्म तो तुझे ही भोगने पडेंगे, चूँकि तूने ही किये हैं। कर्म कर्ता का पीछा करते हैं यह एक शाश्वत नियम है । हाँ, यदि शरीर पर सोने-चादी का वजन हो तो वेटा । उसे उठाकर एक तरफ रख लें। लेकिन यह दुख दर्द की घटा हमारे लिए असहाय एव अभोग्य है।
इस प्रकार मृत्यु के भयावने थपेडो से मुक्त करने के लिये वे सर्वथा कमजोर-कातर रहते है । अत ठीक ही कहा है--"भार्यागृहद्वार जन श्मणाने" अर्थात् ज्यादा से ज्यादा साथ भी देंगे तो कहाँ तक ? घर वाली गृह द्वार तक, अन्य अडोसी-पडौसी व सगे-सम्वन्धी लोक-लाज के कारण श्मशान घाट तक, अन्तिम राम-राम कर, धाम काम की ओर पुन लौट आते है। अतएव उनको पक्का मित्र मानना किंवा उन पर विश्वास कर वैठे रहना और भविष्य के लिए तैयारी नही करना इससे बढकर और क्या मूर्खता होगी।
धन दारा अरु सुतन मे रहत लगाए चित्त ।
क्यो रहीम खोजत नहीं गाढ़े दिन को मित्त ॥ उपरोक्त मित्रो की कसौटी होने पर अब आध्यात्मिक क्षेत्र में गोते लगाना उचित ही है। क्योकि मच्चे मित्र मुक्तावलियो को माता आध्यात्मिक स्थली मानी गई है। अतएव जिनकी जहाँ प्राप्ति
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१५२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ हो, वही पर मेधावी मानव को खोज करनी चाहिए अन्यथा मारा किया-कराया परिश्रम वेकार व "खोदा पहाड निकली चूहिया' वाली कहावत चरितार्थ होगी। अतएव मही मित्र के विपय मे आगम पुराण कहते है - "धर्मो मित्र मृतस्य च ।"
मानव मात्र का ही क्यो, प्राणि मात्र का सच्चा सही मित्र अढाई अक्षर वाला वह "धर्म" है। जिनके विषय में सर्व ग्रथ-पथ एव मत एक स्वर से गुणगान गीत गाते हैं--
जरा मरण वेगेण वुज्झमाणाण पाणिण ।
धम्मो दीवो पइट्ठा य गई सरणमुत्तम । हे मुमुक्षु । जन्म, जरा, मृत्यु रूपी जल के प्रवाह मे डूबते हुए प्राणियो को मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला धर्म ही निश्चल आधार भूत स्थान और उत्तम शरण तप एक टापू के समान है। अतएव जो नर-नारी धर्म की हर तरह से रक्षा करते हैं वे अपने अमूल्य जीवन की रक्षा करते हैं और जो धर्म को फलाते-वढाते है नि सदेह वे अपने जीवन को ठोस मजबूत एव परिपुष्ट कर रहे हैं।
भौतिक विज्ञान की चकाचौंध मे उन्मत्त वना हुआ आज का मानव समाज जिसमे भी अधिक रूप से विद्यार्थी समाज सचमुच ही आर्यसस्कृति व सभ्यता के विपरीत चरण धर रहा है। तभी तो अनुशासन हीनता के जहाँ-तहाँ दिग्दर्शन हो रहे हैं । ये सव चलचित्र अधर्म की निशानियाँ व कुविद्या का प्रभाव ही माना जायेगा ।
____ अहिंसा धर्म के पुजारी, आज हिंसा धर्म के एजेंट बनते जा रहे हैं । जहा तक धर्ममित्र की अपेक्षा के वदले उपेक्षा रहेगी, वहाँ तक मानव समाज को दुर्भिक्ष से सुरक्षित रहना कठिन रहेगा, स्पष्ट भापा मे कहे तो मानव के पापमय कुकृत्यो ने ही आज पशु-पक्षी आदि सभी को तग कर रखा है। "ले डूवता है एक पापी नाव को मझधार मे" यह कहावत आज चरितार्थ हो रही है। तभी तो कुदरत अपना प्रकोप बता रही है।
___ यदि राष्ट्र व समाज का वास्तविक विकास करना है तो प्रत्येक भारतीय को धर्म रूपी सुहृदय की शरण मे जाना ही पडे गा तभी सम्भव है कि मानव समाज की रिक्त गोद अक्षुन्न, अखण्ड, अमिट सुख-समृद्धि से भर उठेगी, वस वही दिन सतयुग का प्रथम दिन माना जायगा।
धर्मेण हन्यते व्याधिः धर्मेण हन्यते ग्रह । धर्मेण हन्यते शत्रु. यतो धर्मस्ततो जय ॥
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भगवान महावीर के चार सिद्धान्त
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जीवन में अहिंसा । विचारों में अनेकान्त । वाणी में स्याद्वाद । समाज मे अपरिग्रहवाद ।
गुरप्रवर फा यह प्रेरक प्रवचन एक मौलिक महत्व रखता है । भाव गांभीर्य मय यह प्रवचन सचमुच ही वर्तमान युगीन सामाजिक उलझी गुत्थियो को सुलझाने में सक्षम है । हां, यदि भगवान महावीर प्रदत्त देशना को सही तौर-तरीके से मानव निज जीवन में उतारने का प्रयत्न करें, उस पर चलने मे तत्पर हो तो नि संदेह उभरे हुए वातावरण मे आशातीत राहत मिल सकती है। महावीर जयती के मगल प्रमात मे जावरा की विशाल मानव मेदिनी के समक्ष दिया गया प्रबधनाश जो पाठकगण के हितायं यहां अपित किया गया है
सपादक 'प्यारे सज्जनो।
अहिसा के प्रतिष्ठापक भ० महावीर उस युग के अलिम तीर्थकर हुए हैं। विक्रम में लगभग चार नौ सत्तर वर्ष पूर्व माता त्रिशला को कुलीन कुक्षि से चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की रात्रि को 'कुण्डलपुर' नामक नगर मे वरम तीर्यकर भ० महावीर का जन्म कल्याणोत्मव सम्पन्न हुआ था। पुत्ररत्न के शुभागमन पर सम्राट् निद्धाय ने करोडा का दान-पुण्य किया एव हर्पोद्घोप से जगतीतल को भर दिया था।
पूर्वस्थिति · सिंहावलोकन भगवान् महावीर के जन्म के समय समाज की स्थिति बहुत ही विपम थी। मानव जीवन मे मर्वत्र छुआछूत, स्वार्थ परायणता व हिंसा का माम्राज्य व्याप्त था। उस समय निम्न सिद्धान्त मानव समाज में गहरी जडे जमाये बैठा था "जीवो जीवस्य भक्षणम्" अर्थात् यह पाखण्ड धर्म के नाम पर जोर-शोर से चल रहा था। फलस्वरूप जो धर्म प्राणी मात्र के सुख-शाति और उद्धार के लिए माना जाता था वही हिमा-हत्या विपमता एव अगांति का अस्त्र बना हुआ था।
होनेवाली हिमा और व्याप्त विपमता से भगवान महावीर अहर्निश चिंतित रहते थे । करुणा-पूरित उनका अन्तहृदय मूक प्राणियो की दुर्दशा पर नवनीत सदृश द्रवित हो जाता था । वे मानव समाज के लिए ही नहीं, अपितु प्राणी मात्र के लिए अहिंसा की पुन प्रतिष्ठा करना चाहते थे। सभी अपने-अपने क्षेत्रो मे समान है, सभी को एक ममान जीने का अधिकार है । फिर विपमता की विप वल्लिका समाज के वीच क्यो पनप रही है ? वस्तुत भ० महावीर चाहते थे—यत्र तत्र ऊँच-नीच की इति श्री हो और वहां सर्वोदय का नारा बुलद होवे एव प्रत्येक नर-नारी समाजवाद को समझे और कार्यान्वित करें। इस कारण परमोपकारी तीर्थकर ने मानव हितार्य मुख्य चार सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं । जो जैन धर्म की मुदृढ नीव कही जा सकती है । जिस पर जैनागम का भव्य वृक्ष पल्लवित-पुष्पित हो रहा
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१५४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन गन्य है। वे सिद्वान्त निम्न प्रकार है--जीवन मे अहिंसा, विचारो मे अनेकातदृष्टि, वाणी मे अपेक्षावाद एवं समाज मे अपरिग्रह सिद्धान्त ।
जीवन में अहिंसा: भ० महावीर ने धर्म के विस्तृत क्षेत्र मे सर्व प्रथम अहिंसा-शख पूरा । जीवन के अस्तित्व का मद्भाव अभिव्यक्त कर प्राणी मात्र को जीने की स्वतन्त्रता प्रदान की। उन्होने बताया कि---कोई भी नर-नारी अपने निजी स्वार्थ के लिए किसी अन्य भूत-मत्व को मिटाता अथवा मरने का दुस्साहस करता है, तो वह अपने को ही मारता है, मिटाता है जैसा कि"तुमसि नाम त चेव ज हतत्व ति मनसि ।"
-आचारागसूत्र, १२५ नि सदेह वह अहिंसावृत्ति से दूर भागता है। माना कि स्वार्थी नर नारी कभी भी दूसरो के हित की परवाह न कर अपने हित की रक्षा करते हैं। इसकेलिए वह अपर जीवो के अस्तित्व को मिटाने का दुस्साहस करता है। वस्तुत इस दयनीयवृत्ति से उसे आत्मशाति कैसे मिल सकती है ? चूकि अन्याय अत्याचार एव हिंसा-हत्या आदि अशाति के मूल कारण है । जिन्हे वह अन्तर्ह दय मे स्थान दे बैठा है। फलस्वरूप वह भयभीत वना रहता है, कही मेरा शत्रु मुझपर आक्रमण न कर दे । मेरे अस्तित्व एव सत्ता को कोई छीन नही ले । इस प्रकार सकल्प-विकल्प के अन्तर्गत जीवन विताता हुआ सिद्धान्तो के विपरीत आचरण करता है। सिद्धान्त मे तो कहा है"सब्वे जीवा वि इच्छति जीविउ न मरिज्जिउ ।"
-दशवकालिक सूत्र अर्थात् सभी जीव राशि मरने की अपेक्षा जीना और दुख की अपेक्षा सुखी होना चाहते हैं। सभी को जीवन प्रिय है । अतएव ज्ञानी के ज्ञान का यही सार है कि वे सभी को समान जाने एव ऐसा जानकर किसी की हिंसा न करे । “एव खु नाणिणो सार ज न हिसइ किंचण" ।
-सूत्रकृताग सूत्र, १।१।४।१० आर्य धर्म के प्रति जो पूर्ण श्रद्धावान् है, उन्हे चाहिए कि वे "अहिंसा परमो धर्म" के केवल नारे लगाकर जीवन को बहलावे नही, अपितु “जीवो और जीने दो” को अन्तरात्मा मे स्थान दें। भावात्मक दृष्टि से उसे कार्यान्वित करे । अहिंमा भगवती का अत्यधिक महत्व है -
एता भगवई अहिंसा-भीयाण व शरण, पक्खीण व गयण, तिसियाण व सलिल, खुहियाण व असण, समुद्द मज्झे व पोतवाहण, दुहियाण च ओसहिबल, अडवि मझे व सत्य गमण, एत्तो विसिढ तरिया अहिंसा ।"-(प्रश्नव्याकरण मूत्र)
अहिमा भगवती-मितो के लिए शरणदायी, प्यामो के लिए पानी, बुभुक्षुओ के लिए आहार, नमार-ममुद्र मे पोत (जहाज) के समान, रोगियो के लिए औपधि एव भव-वन मध्य सार्थवाह के समान है, ऐना भ० महावीर ने कहा है । तदनन्तर ही अहिमामय जीवन के अतराल से मैत्री भावना का मधुर निर्झर प्रस्फुटित होता है । तदनन्तर ही पर वेदनानुभूति हो सकती है ।
विचारो में अनेकांत दृष्टि "जीवाजीवे अपाणतो मह सो नाहीइ सजम ।" अर्थात्-जीव-अजीव के स्वरूप को नही
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया भगवान महावीर के चार सिद्धान्त | १५५ जानने वाला वह साधक सयम को कैसे जानेगा? वस्तु विज्ञान की जानकारी के अभाव मे विचारो मे अनेकात नही आ सकती और अनेकात सिद्धान्त के विना वस्तु का वास्तविक परिज्ञान मुमुक्षु को कैसे होगा ? कहा है—"अर्थस्तुस्वतो न सम्यक् नाप्यसम्यगिति" । (स्याद्वाद मजरी टीका) अर्थात् वस्तु अपने आप मे न बुरी न अच्छी है । अच्छाई और बुराई का प्रश्न प्रयोगकर्ता पर निर्भर है । क्योकि वाद विवाद वस्तु मे नही । कभी भी ऐसा अवसर नहीं आया कि वस्तु वस्तुत्व से मर्वथा नष्ट हो गई हो, इतना अवश्य ध्यान रहे कि वस्तु की पर्याय मे प्रतिपल परिवर्तन अवश्य होता रहता है।
___जनदर्शन किसी भी सत् द्रव्य को वेदान्त दर्शन की भांति केवल धूव या नित्य नही मानता, बौद्ध दर्शन की भाति क्षणिक, एव साख्य दर्शन की तरह ऐसा भी नहीं मानता कि-पुरुप तो कूटस्थ नित्य और प्रकृति परिणामी नित्य है। अपितु अर्हतदर्शन की यह विशेपता रही है कि वह सभी पदार्थों को परिणामी के साथ ही नित्य भी मानता है । अर्थात् "सर्वेहि भावा द्रव्याथिर नयापेक्षया नित्या पर्यायाथिक नयापेक्षया अनित्या.।" स्पष्ट बात यह है कि-भले अचेतन या चेतन, अमूर्त या मूर्न, सूक्ष्म या स्थल इत्यादि समस्त पदार्थ "उत्पाद व्यय प्रौव्य युक्तं सत् ।" जो उत्पत्ति विनाश और स्थिरता युक्त है वही सत् है । जिसके सामान्य लक्षण निम्न हैं-अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, सत्व और अगुरु लघुत्व । आचार्य प्रवर ने विपय को अति सुगम बना दिया है। एक लघु रूपक के माध्यम से
घटमौलि - सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थिति स्वयम् । शौक प्रमोद माध्यस्थ जनो याति सहेतुकम् ।।
-न्यायदर्शन , तीन मानव एक स्वर्णकार की दुकान पर पहुचे । एक स्वर्णिम कुम्भ खरीदने का इच्छुक, दूसरा मुकुट का और तीसरा केवल मोने का ग्राहक था। दुकान पर पहुंचते ही देखा कि स्वर्णकार सचमुच ही कुम्भ को तोडकर मुकुट बना रहा है । कुम्म पर्याय का विनाश होता देखकर कुश्भ खरीददार को दुख हुआ, मुकुट पर्याय की उत्पत्ति को देखकर मुकुट लेने वाले को प्रसन्नता हुई और केवल सोने के ग्राहक को न शोक न हर्प अपितु वह मध्यस्थभाव में था। कारण कि-मूल वस्तु ज्यो की त्यो स्थिर थी।
हाँ तो, जिस वस्तु को जिस दृष्टिकोण से तुम देख रहे हो, वह उतनी ही नहीं, कई दृष्टिकोण से विरोधी मालूम होती है । विरोधी धर्म भी वस्तु मे विद्यमान हैं । अपने मन मे यदि पक्षपात की भावना को तिलाजलि देकर दूसरे के दृष्टिकोण से विपय को देखो तो पता चलेगा कि-वस्तु कैसी है ? वस्तु न एक धर्मात्मक है और न सर्वधर्मात्मक । अनतधर्मात्मक वस्तु मे सर्व समस्याओ का ममाधान निहित है । अतएव जड के अनन्त धर्म जड मे और चेतन के अनन्त धर्म चेतन मे विद्यमान हैं । एक दूसरे का धर्म न पर द्रव्य में प्रविष्ट होता है और न निज स्वभाव से पृथक ही । कहा है-"सग सग भाव न विजहति" अर्थात् निश्चय नय की दृष्टि से कोई भी द्रव्य निज स्वभा का कदापि परित्याग नहीं करता है । अगर ऐसा होने लग जाय तो वस्तु सर्वथा नष्ट हो जायेगी।
सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्व सत्व स्यात् स्वरुपस्याप्यसभव ।।
- न्यायदर्शन स्वभाव की अपेक्षा सभी वस्तुएँ सद्भावमय हैं और परभाव की अपेक्षा नास्तिरूप है।
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१५६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ यदि यह व्यवस्था नही मानी जाय तो वस्तु का अस्तित्व खतरे मे पडना स्वाभाविक है फिर न ;जड़-- रहेगा और न चेतन ही । अतएव सभी स्वतत्र सत्ता के धारक है । तात्पर्य यह है कि वस्तु अत्यधिक विराट-विज्ञान मय है । इतनी विस्तृत है कि अनन्त दृष्टिकोण मे देखी और जानी जा सकती है। अपनी दृष्टि का आग्रह करके दूसरो की दृष्टि का तिरस्कार करना स्वय की ना समझी है।
___ इस तरह जव वस्तु अनन्तधर्मात्मक है तव मनुप्य सहज ही मे यो सोचने लगेगा कि दूसरा मानव जो कुछ कह रहा है उसके अभिप्राय को भी स्थान देना चाहिए । जब इग प्रकार वैचारिक समन्वय का सुन्दर सगम हो जायगा, तव उलझी हुई सर्व समस्या स्वत सुलझ जायगी । भगवान् महावीर का यह अद्वितीय सिद्धान्त रहा है।
वाणी मे स्याद्वाद: 'स्यात्' का अर्थ कयचित् है और वाद का अर्थ है--कथन । इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ कथचित् कथन होता है इसका अर्थ 'शायद' नही लेना चाहिए । क्योकि शायद् शब्द का अर्थ संशय है, जो कि-मिथ्याज्ञान का प्रतीक है । और न स्याद्वाद का अर्थ सभावना लिया जा सकता है। क्योकि सभावना में वस्तु का असली म्वरूप नही आ सकता। इसी प्रकार स्याद्वाद का अर्थ न सशयवाद है न अनिश्चयवाद और न सभावनावाद किन्तु अपेक्षा प्रयुक्त निश्चयवाद है-जैसे एक स्त्री बुढिया होने से दादी कहलाती है, किंतु उसका बूढा होना 'दादी' का ही सूचक नही है अपितु वह अपेक्षा से किसी की नानी, मामी, बुआ और किनी की भाभी भी कहलाती है। इस प्रकार ही बुढिया अनेकानेक विशेपणो से पुकारी जाती है । वस्तुत इससे न तो बुढिया को ही वावा है और न पुकारने वाले को आपत्ति है । इस सिद्वान्तानुसार एक वस्तु जिसमे अनेक धर्म है उन्हे अपेक्षा मे कहे जाते है । जमा कि
दशरथ राजा के पुत्र राम - लव कुश के पिता कहलाते हैं। पिता-पुत्र के उभय धर्म उस रामचन्द्र मे पाते हैं।
__-जैनदिवाकर जी म०दशरथ राजा की अपेक्षा राम उनके पुत्र है तो लव-कुश की अपेक्षा राम पिता भी है । अनेक अपेक्षाओ से अनेकधर्म एक वस्तु मे विद्यमान हैं । इस प्रकार सर्वत्र स्याद्वाद शैली में कार्य करना चाहिए । फलत अनेक विवाद स्वत हल हो जायेगे । क्योकि कहनेवाला अपने दृष्टिकोण से कहता है और सुननेवालो को कहने वालो का दृष्टिकोण समझना चाहिए। यदि वक्ताओ के विचारो से वह महमत नहीं हो तो सुनने वालो को अपना अभिमत वक्ताओ के समक्ष रखना चाहिए और समझना चाहिए कि मैं इस अपेक्षा से कह रहा हूँ । अतएव विवाद छोडकर अनेक धर्मात्मक वस्तु को समझना चाहिए । इसको समझने के लिए छ अन्धो की हाथी वाली कहानो पर्याप्त रहेगी।
उपर्युक्त पक्तियो मे अनेकात व स्याद्वाद पर पृथक-पृथक प्रकाश डाला है। यद्यपि अधिक । रूपेण आज का समाज दोनो शब्दो मे विशेप भेद नही मानता है किंतु दोनो मे अवश्य अन्तर है। अनेकान्त मानम शुद्धि के लिए है और स्याद्वाद वचन शुद्धि के लिए है।।
समाज में अपरिग्रहवाद : जैन मुनि के जीवन के लिए परिग्रह रखना अथवा रखवाने का विधान नहीं है। यद्यपि वस्त्र, पात्र, रजोहरण मादि मुनि जीवन मे सम्बन्धित है तथापि उपर्युक्त धार्मिक उपकरणो को भ० महावीर
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया भगवान महावीर के चार सिद्धान्त | १५७ ने परिग्रह नही कहा है जैसे-"न सो परिगहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा।" अपितु सयम के बहिरग साधन अवश्य माने है । इन पर मुनि की ममत्व बुद्धि नही रहती है। अनासक्त भावना पूर्वक उपयोग मे अवश्य लाना है । इस कारण मुनि जीवन को अपरिग्रही जोवन माना है।
यद्यपि गृहस्थजीवन के लिए परिग्रह रखने का किसी भी तीर्थंकर ने विल्कुल निपेध नही किया है किन्तु मर्यादा वाधने का स्पष्ट उल्लेख है । अर्थात् जितनी भी वैभव धन सपत्ति रखनी है उतनी रखने के बाद तो परिमाण (मर्यादा) इच्छा निरोध करना ही चाहिए । इच्छानिरोध नही करने पर रेगिस्तान की तरह उस देहधारी के मन-मस्तिष्क मे निरन्तर इच्छाओ का जाल फैलता रहता है । फलस्वरूप अपार पूजी पास होने पर भी उस स्वामी का जीवन चिन्तातुर एव व्याकुल दिखाई देता है । क्योकि—वह दुनियाँ भर का धन इकट्ठा करना चाहता है जिसके कारण वह दूसरो का विनाश करने पर उतारु भी हो जाता है। इसी दुर्भावना से प्रेरित होकर पूर्वकाल मे वडे-बडे सघर्प, द्वन्द्व हुए हैं । परिग्रहवाद ने ही मानव भावना मे, भाई-भाई मे, बाप-बेटे मे एव पडोसी-पडोसी के बीच द्वप-क्लेश की दीवारें खडी की हैं। खूनी क्राति का जनक यदि है तो परिग्रहवाद ही है । जिसमे भयकरता, विपमता, हत्या-हिंसा का वोल-वाला है । जैसा कि
आदमी की शक्ल से अब डर रहा है आदमी। आदमी को लूट कर घर भर रहा है आदमी ।। आदमी ही मारता है मर रहा है आदमी।
समझ कुछ आता नहीं क्या कर रहा है आदमी ।। अतएव अपरिग्रह सिद्धान्त मानव समाज के लिए नर्वोदय का प्रतीक है। जिसके अन्तराल मे "आत्मवत् सर्वभूतेषु" और "वसुर्घव कुटुम्बकम्" की मगल भावना छिपी हुई है । 'सत्य, शिव, सुन्दरम्' के सुमधुर स्वर गुजारव के साथ सभी प्राणियो का भाग्योन्मेष विकसित होता है । बहिरग एव अतरग जीवन सुख-सुविधा-सतोप से भर जाता है जिसके अन्दर न शोपण एव न दलन की गुजाइश है।
जो मानव अपरिग्रह सिद्धान्त का उल्लघन करता है वह सचमुच ही मानवता के सिद्धान्त का लोप करता हुआ महत्वाकाक्षी बनता है । अपरिग्रह सिद्धान्त का जब तक समाज मे अमल होता रहेगा, वहां तक मानव समाज सुख शाति का अनुभव करता रहेगा और व्यक्ति-व्यक्ति मे आत्मीयता भाव की सवृद्धि भी होती रहेगी। हाँ, तो मेग सभी से अनुरोध है कि भ० महावीर द्वारा प्रतिपादित 'जीवन मे अहिमा' "विचारो मे अनेकांत' 'वाणी मे स्याद्वाद दृष्टि' एव 'समाज मे अपरिग्रहवाद' इन चार सिद्धातो को गहराई से सोचे, समझे और जीवन मे उतारे।
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मृत्युजय कैसे बने ?
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गुरु प्रवर का ‘मृत्यु जय कैसे बने ?" नामक यह प्रवचन दुनिया को अटपटा सा प्रतीत होगा। क्योकि कलात्मक जीवन यापन करना सभी के लिये स्पृहणीय रहा है। किन्तु मृत्युंजय कला के लिए क्या प्रशिक्षण ग्रहण करना
आवश्यक है ? क्यो नहीं ! जिसको ठीक तौर-तरीके से मरना नहीं आया सचमुच ही वे नर-नारी मृत्यु जय कैसे बनेंगे ? कहा भी है "मरने पर ही पाइए पूरण परमानन्द' अर्थात पार्थिव देह का परित्याग किये बिना पूर्णानन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती है । फलस्वरूप देहधारी को मृत्यु जय कला का ज्ञान विज्ञान व तत्सम्बन्धी मार्ग-मजिल को जानकारी उतनी ही जरूरी है जितनी अनभिज्ञ राहगीर के लिए द्रव्य राह की जानकारी। माना कि-कालानुसार पामर प्राणियो को मरना ही पड़ता है । आचाराग सूत्र मे भी कहा-"नत्थि कालस्स अणागमो" मौत के लिये कोई काल नहीं है।
आज जहां-तहां अपघात दुर्घटना का दौड-दौडा है । इस दृष्टि को सामने रखकर गुरुदेव ने बालमरण एवं पडिनमरण की व्याख्या प्रस्तुत कर
दुनिया के मिथ्यान्धकार को हटाने का सफल प्रयास किया है। -सपादक प्यारे सज्जनो।
आज के इस भौतिकवादी युग मे जैसे आजादी, आवादी और वर्वादी आदि का विस्तार हुआ और हो रहा है, वैसे ही 'आत्म हत्या' नामक बीमारी का विस्तार भी क्या जैन समाज, क्या वैष्णव समाज और क्या इतर समाज आदि मे दिन दुगुना और रात चौगुना पराकाप्ठा को पार कर आगे बढ रहा है।
नित्य प्रति समाचार पत्रो मे ऐनी घटनाओ के समाचार पढते हैं। कई वार हम अपनी आँखो के ममक्ष देखते और कानो से सुनते भी हैं कि-अमुक व्यक्ति, अमुक महिला और अमुक लडके ने विप खाकर, अग्नि में जलकर, वृक्षादि से फासी खाकर, शस्त्र द्वारा घान कर, कूप-वावडी-पानी मे डूवकर और पहाड इत्यादि ने गिरकर आत्म-हत्या कर ली। ऐसे हृदय विदारक मन्देश आए दिन कर्ण-कुहरो मे गुजते ही रहते हैं।
"कारणेन विना कार्य न भवति" इस सत्य युक्ति के अनुसार अव हमे उपयुक्त कार्य के कारणो की और निहावलोकन करना है। आज राष्ट्र समाज और परिवारो मे इस आत्म-हत्या के कारण भूत कई दूपित तत्व और कई जीर्ण-शीर्ण, सडी-गली रूढियां परम्पराये वर्तमान हैं । जैसे आर्थिक कमजोर स्थिति, पारिवारिक कलह क्लेश, अप्रशस्त गग-मोह, लोमान्धता और पूर्णत धार्मिक ज्ञान का अभाव । आदिनादि कारणो से म्वत मानव घर्य से चलित और लज्जित हो कर आत्मघात कर बैठना है और कई व्यक्ति लोभान्य होकर अन्य व्यक्ति की भी हत्या कर बैठते हैं । इस प्रकार यह क्रम चल रहा है।
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया . मृत्यु जय कैसे बने ? | १५६
आज अधिकाश रूप से जो आत्महत्याएं होती हैं उनमे आर्थिक स्थिति कमजोर होना ही मुख्य करण है। धन के अभाव में निर्दोप मानव तथा महिलाओ की चन्द ही घन्टो मे आत्म-हत्याएं हो जाती है। जैसे किसी लड़की को अपने पिता ने दहेज मे धन कम दिया, जितना वायदा किया था, उतना किसी कारणवश पूरा नहीं कर सका, बस धन के लोलुपी ससुराल पक्ष वालो ने उस होनहार निर्दोष वालिका पर मिट्टी का तेल छिडक कर निर्दयता पूर्वक हत्या कर दी।
किसी व्यक्ति ने व्यापार-विनिमय किया । मयोगवशात् एकवार तो आशातीत लाभ हुआ। लोभातुर होकर दूसरी बार फिर व्यापार-सट्टा आदि किये । परन्तु विधि की विडम्बना ही विचित्र है"लाभमिच्छतो मूलक्षतिरायाता" अर्थात्-लाम की लालसा मे मूल भी जाता रहा। यहां तक किचल-अचल सारी सम्पत्ति वेच दी गई, तथापि सिर पर कर्ज का भार बना रहा -
हाट बेच हवेली वेची वेच्यो घर को गेणो ।
उभी राख सेठाणी वेची तो ई न चूक्यो देणो । अब वह कर्ज के भार से भारी वना हुआ शर्म का मारा वाहर कही जा नही सकता, फिर नही सकता। क्योकि वाहर यदि घूमता है तो लोग उससे पैसे मागते हैं, दुत्कारते हैं, अपमानित भी करते हैं, भले बुरे शब्दो की वोछार कर बैठते हैं। ऐसी विकट वेला मे सगे सम्बन्धी और इर्द-गिर्द वाले इतने परोपकारी सज्जन तो हैं नही, जो उन पतित को ऊंचा उठाने में भागीदार बन सकें। जव उसकी गोद मे कमला क्रीडा किया करती थी, तब तो सव आते जाते थे । परन्तु आज उसका मुंह देखना भी पसन्द नहीं करते हैं, तो भला वे सपूत महायता क्यो देने लगे ? गले से गले और सीने से सीना क्यो लगाने लगे ? और मधुर भापण भी क्यो करने लगे ? जैसे कि
दुना भरा ऊपर चढ़ा सम्मान भी पाने लगा।
जब माल हुआ खाली तो ठोकरें खाने लगा । उमके पास दो चार वाल-बच्चे हैं । मर्दी गर्मी और वर्षा व्यतीत करने के लिए जो बुराभला, जीर्ण-शीर्ण एक मकान था वह भी पूजीपतियो के चगुल मे जाता रहा, दैनिक खर्च के लिए भी भारी कठिनाइयाँ आ खडी हुई तो भला मासिक और वार्षिक खर्च की तो वात ही क्या ?
___ सोचनीय परिस्थिति मे वह विचारता है कि अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? जिधर जाता हू, उधर लोग अथवा भाई वन्धु देते तो कुछ है नहीं परन्तु घृणित-निन्दनीय दृष्टि से निहारते हैं । उपालम्भ का उपहार ही मिलता है। फलस्वरूप सव तरह से निराश व हताश, परेशान और धैर्य साहस छोडकर न अपने भूत-भविष्य का, न अपने नन्हे-नन्हे वाल वच्चो का विचार कर कुछ विपली वस्तु खाकर अपने इस देव-दुर्लभ जीवन दीप को जानबूझ कर वुझा ही देता है।
पारिवारिक कलह-क्लेश की पृष्ठभूमि भी जर, जोरू, जमीन पर ही आधारित है । अहर्निश आपसी सघर्प-विग्रहो से तग याकर बहुत से दुम्साहसी कायर नर-नारी आवेशान्वित होकर आत्महत्या करके अपनी जीवन लीला को समाप्त कर बैठते हैं।
अप्रशस्त राग मोह मे अधिकाश युवक युवतियो के हाथ रहते हैं। जो पहिले तो विना सोचेसमझे एक दूसरे के स्नेही बन जाते हैं । परन्तु जव पाप घट का भण्डाफोड होता है और अपने-अपने माता-पिता को इस काली करतूत के गुप्त रहस्यो का ज्ञान होता है, तव वे अपनी खानदानी और इज्जत
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१६० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ आवरू को सुरक्षित रखने के लिए अपने अगज-अगजा को भरसक प्रयत्न से रोकते तथा विरोध भी करते हैं।
तव युवक-युवती जिनका जीवन केवल भौतिक ज्ञान की अस्थाई बालु की दिवाल पर ही टिका हुआ है ऐसी खोखली कमजोर डावाडोल नीव वाले वे चोर की तरह इतस्तत पलायन होने की कोशिश करते हैं, परन्तु राजकीय भय से उस कार्य मे सफलता नही मिलती है, तव दोनो रागान्ध होकर किसी एक गुप्त स्थान मे जाकर अपने-अपने गले मे फासा डालकर मर ही जाते हैं
लोग घबराकर कहते हैं कि मर जायेंगे ।
मरकर चैन न मिली तो किधर जायेंगे ? पहिले से ही इनके मन मस्तिष्क और दिल-दिमाग मे मिथ्या मान्यता घर बना के रहती है कि हम दोनो यहाँ से भर जायेगे तो पुन अवश्यमेव आगामी जीवन मे मिल जायेंगे । वहाँ फिर किसी प्रकार के पारिवारिक व सामाजिक वन्धन नही रहेगे । स्वतन्त्रता-सुख पूर्वक जीवन यात्रा चलायेंगे। ऐसी गल्त कपोल-कत्पित कल्पना के वशवर्ती होकर अपने महान मूल्यवान् जीवन को क्षणिक अप्रशस्त सुख-सुविधा के पीछे जोड देते हैं। तदनन्तर उस नर-नारी को भव-भव मे मानवीय चोले के लिये रोना ही पडेगा, चूकि आप जानते हैं कि जिस किसी को एक वक्त सुन्दर समय मिल गया और अज्ञानी आत्मा की तरह यदि वह प्राप्त हुई वस्तु का सरासर दुरुपयोग करके 'इतोभ्रष्ट ततोभ्रष्ट' होता है, तो कहिए दुवारा वह उम वस्तु को पा सकता है ? कदापि नही । उसी प्रकार मानव भव पुन उस देहधारी के लिए अलभ्य रहेगा । आगम में भ० महावीर ने कहा है
वालाण अकाम तु मरण असइ भवे ।" -उ० सू० अ० ५ गा० ३) ऐसे भोले भाले अज्ञानियो का निष्काम जन्म-मरण वार-बार हुआ ही करता है। और भी
सत्यग्गहण विसभक्खण च जलण च जलपवेसोय । अणायार भण्डसेवी जम्मण मरणाणि वन्ति ।
-भ० महावीर हे मुमुक्षु । जो आत्म-हत्या करने के लिये तलवार, बरछी, भाला कटार आदि शस्त्रो का प्रयोग करे, अफीम, सखिया हिरकणी आदि का प्रयोग करे, अग्नि मे पडकर या कुआ, वावडी नदी तालाब में गिरकर मरे तो उसका यह मरण अज्ञानपूर्वक है। इस प्रकार मरने से अनेक जन्म और अनेक मरणो की वृद्धि के सिवाय और कुछ नही है । वह फिर तियं च, नरक, मनुष्य और देवता आदि अनन्त ससार रूपी विपिन मे भटकता ही रहता है।
ऐमे महा पापमय कार्य को वही मानव करता है, जिसके जीवन मे आध्यात्मिक-धार्मिक ज्ञान का नितान्त अभाव है। जो नास्तिक विचारधारा के पोपक और धार्मिक जीवन के आगे पीछे न कुछ मानते एव न कुछ जानते हैं।
हो तो, आत्मघाती जिम अन्तर्द्वन्द्व को जिस अभिलापा और जिस आवेश मे अन्धे होकर अपने देव दुर्लभ देह को चन्द ही घण्टो में मौत के मुंह मे शोक देता है, उमसे उसका कुछ भी प्रयोजन नीधा नहीं होता है । वल्कि पहिले की अपेक्षा शत सहस्र गुणाधिक दु खो की पार्सल उसके सम्मुख आ खडी होती है । क्योकि पापो से न तो कभी धर्म पुण्य हुआ और न कभी शान्ति । 'स्व' व 'पर' का आत्म-घात
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया मृत्यु जय कैसे बने ? | १६१ भी तो एक भारी हिंसामय पाप है। अत जहाँ पापो की व हिंसा की पैदास है, वहां निश्चित रूप से वर्तमान अथवा भावी दुखो की बुनियाद खडी करना है, ऐसा करनेवाला स्वय के लिए तथा राष्ट्रसमाज-परिवार और विद्यमान परम्परा के लिए कलक भरी कालिमा छोड जाता है । खुद तो मरता है और पीछे रहनेवालो को भी मार जाता है। अर्थात् आत्महत्या करके मरना सभी दृष्टि से समदृष्टि प्राणियो के लिए सर्वथा निन्दनीय एव जीवन की बहुत बडी पराजय मानी है । क्योकि-उभरी हुई परिस्थितियो से घबराकर वह मर रहा है, मैदान छोडकर भाग जाना वीरो का नही, कायरो का काम है। वुजदिल और डरपोक नर-नारी ही ऐसे कुत्मित अधर्म कार्य किया करते हैं। किन्तु धर्मविज्ञ कदापि उल्टे कदम उठाया नही करते है । हां, परिस्थितियो का सामना अवश्य करते है । कहा भी है
मर्द दर्द को ना गिने दर्द गिने नहीं मर्द ।
दर्द गिने सो मर्द नहीं दर्द सहे सो मर्द ।। यदि किसी को मरना ही है तो वे सही तौर तरीके से इस पार्थिव देह का उत्सर्ग करें, ताकि मृत्यु ही उनसे सदा-सदा के लिए पिंड छोडकर भाग जाय और वह देहधारी मृत्यु जय बनकर अमरता को प्राप्त करने । किन्तु पहले प्रत्येक समस्या को समझे, समस्या को समझे विना समाधान कैसा ? मृत्यु जय होना यह भी महत्वशाली समस्या है। जिसको यत्किंचित् नर-नारी ही समझ पाये होगे। और जो समझ पाये हैं वे मृत्यु जय बन भी गये । वस्तुत समस्या का समाधान करते हुए कवि ने कहा है--
मरना मरना सव कोई कहे मरना न जाने कोय ।
एक बार ऐसा भरे फिर न मरना होय ॥ आगम मे भी भ० महावीर ने कहा है - "सच्चस्स आणाए उठ्ठिए से मेहाबी मारं तरइ ।'
-आचारागसूत्र सत्य साधना के मार्ग पर आसीन मेधावी मृत्यु को जीतता है। जिसको शास्त्रीय भाषा मे पडितमरण अथवा सुखान्त मृत्यु कहा गया है। सम्यक् साधना आराधना के अन्तर्गत जो भौतिक शरीर का त्याग होता है ऐसा मरण स्वर्ग-अपवर्ग सुखो की उपलब्धि अवश्य कराता है। जैसा कि
जिस मरण से जग डरे मेरे मन आनन्द ।
मरने पर ही पाइए पूर्ण परमानन्द ॥ पामर प्राणी मृत्यु के नाम मात्र से काप उठता है । वह स्वप्न मे भी नहीं चाहता कि मैं मरूँ, मैं इस घर, परिवार को छोडकर अन्यत्र जाऊँ, यदि मर गया तो पता नही कहां जाऊँगा? हाय । अब क्या होगा राम | इस प्रकार पश्चात्ताप की भट्टी में अवश्य झुलसता है किन्तु मरने को तैयार नहीं होता । ज्ञानी के लिए यह वात नही। ज्ञानी मृत्यु को महोत्सव मानता है । वह भावी समस्याओ से निश्चिन्त रहता है। वह विल्कुल निर्भीक निडर रहता है, कारण यही कि उसने पेट के साथ-साथ ठंट को भी परिपुष्ट किया है। मृत्यु जय समस्या को समझा है और समझकर सुलझाने मे प्रयत्नशील रहता इसलिए तो उमकी अन्तरात्मा का उद्घोप है-"जिस मरने से जग डरे मेरे मन आनन्द ।"
एकदा चित्त-सभूति की आत्मा हस के भव से मुक्ति पाकर दोनो जीव वाराणसी मे भूतदत्त
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१६२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ नामक चण्डाल के यहां पुत्र रूप मे उत्पन्न हुए | उनका नाम चित्त और सभूति रखा गया। दोनो भाइयो मे प्रगाढ स्नेह था। प्रत्येक क्रिया दोनो मिलकर करते थे । दोनो यौवन वय मे आए । वे गीत-वादिन्त्र एव मधुर स्वर द्वारा मनुष्यो को मोहित करने मे अद्वितीय थे। वे वीणा और मृदग हाथ में लेकर ज्यो ही तान मिलाकर गाते कि-मारी जनता मत्रमुग्ध होकर उनकी ओर दौड पडती ।
___ हस्तिनापुर मे मदनोत्सव की धूम थी। नागरिक जन भिन्न-भिन्न टोलियां बनाकर वाहर उद्यान मे क्रीडा-रत थे । चित्त-सभूति वन्धु भी अपनी स्वरलहरी मे वातावरण को उत्तेजित करते हुए उघर से निकले तो सारी जनता उनके पीछे-पीछे जाने लगी। इस कारण मदनोत्सव के कार्य-कलाप मे फीकेपन को देखकर अनुचर ने नरेश से निवेदन किया- स्वामी | "दो चण्डाल पुत्रो ने अपने मधुर स्वर से सभी को पागल सा बना दिया है । उसी से उत्मव मे फीकापन आया हुआ है।"
। राजा ने तत्काल नगर-रक्षक को आज्ञा दी-उन दोनो लडको को नगर मे वाहर निकाल दो। और पुन उन्हे नगर मे प्रवेश न करने दो । अनुचरो ने राजाजानुसार वैमा ही किया ।
कालान्तर मे पुन उत्सव के दिन आए। वे दोनो श्वपाक-पुत्र अपने को रोक नही सके । राजा की आज्ञा का उल्लघन करके सुन्दर वस्त्र पहनकर आये । किन्तु भाग्य की विडम्बना ही समझिए कि उनके मधुर स्वरो ने ही उनकी पोल खोल दी । जनता पहिचान गई कि ये चण्डाल पुत्र है । जिनको बाहर निकाल दिया गया था। ये पुन नगर मे आ गये हैं। जनता विगड गई, मारने-पीटने लगी । वडी कठिनाई से गिरते-पडते आखिर उद्यान मे आये । अब सोचने लगे - हमारे पास सगीत का गजव जादू होने पर भी हमे जनता दुत्कारती है । अपमान करती है इसमे जाति हीनता ही कारण है। हमारा जन्म अधमकुल मे हुआ है, इस जीवन से तो मृत्यु ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार अधम विचार करके आत्मघात के लिए पार्श्ववर्ती गिरी के निकट पहुच गये । उस पहाड पर से नीचे गिरने का सकल्प किया । और दोनो ऊपर चढ गये।
गिरने के लिए कगार पर आते हैं, किन्तु हिम्मत नही होती । पीछे हटते, फिर आगे बढते, इस प्रकार चक्कर काटने लगे । शरीर की प्रतिछाया के हलन-चलन को नीचे खडे ध्यानस्थ मुनि ने देखा । उसी समय दोनो को अपने पास बुलाया और गिरी से गिरने का कारण पूछा- उन्होने अपनी सारी कहानी सुन कर मरने का सही सकल्प भी बता दिया।
मुनि -भव्यो । तुम आत्मघात करके इस दुर्लभ मनुष्यभव को क्यो व्यर्य नष्ट कर रहे हो ? मरने मे यह शरीर तो नष्ट हो जायेगा । परन्तु पाप नष्ट नही होगे । यदि तुम्हे पाप नष्ट करना है तो पडित मरन से मरो जिमकेलिए साधना का प्रशस्त मार्ग स्वीकार करो इससे तुम्हारा भविष्य सुख-सामग्री से प्लावित होगा। मुनिवर का श्रेष्ठ उपदेश दोनो को अभीष्ठ लगा । दोनो निन्थि अणगार वनकर रत्न त्रय की आराधना करने लगे। कालान्तर मे दोनो महामनस्वी मुनि हो गये । आत्महत्या की भयकर दुर्घटना से बच गये । कहा भी है
मृत्युमार्गे प्रवृत्तस्य वीतरागो ददातु मे ।
समाधिबोधपाथेय यावन मुक्तिपुरी पुर ॥ -मृत्युमहोत्सव जिमप्रकार विदेश जाते समय घर के स्नेही जन जानेवाले के साथ मार्ग मे खाने-पीने की मामग्री साथ वाधते हैं । जिसको सवल भी कहते हैं जिससे कि-मार्ग मे कष्ट न पडे। उसी प्रकार है
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया मृत्यु जय कैसे बने ? | १६३ देवाधिदेव । मैं मृत्यु मार्ग पर अग्रसर हो रहा हूँ। मुझे मुक्ति रूपी नगरी मे पहुचना है । मुक्तिपुरी तक सकुशल पहुचने के लिए मुझे समाधि का बोध प्रदान करें। जिसमे मेरी यात्रा सानन्द पूर्ण होवे । इस प्रकार मेधावी नर-नारी ऐसा चिन्तन-मनन किया करते हैं। क्योकि उनकी अन्तरात्मा मरण के प्रकार को समझ चुकी है । ऐसे पडितो का मरण वार-वार नही हुआ करता है । जमा किपडियाणं सकाम तु उक्कोसेण सई भवे ।
---उत्तराध्ययन अ० ५ गा० ३ अर्थात्-आत्मवेत्ताओ का सकाम (पडित) मरण होता है। और वह भी उत्कृष्ट एक बार ही होता है । उन्हे फिर मरना नहीं पडता है। अपितु आत्मभाव मे जो जाग चुके हैं वे स्वय मृत्यु को परास्त करने में लगे रहते हैं। इसकारण एक क्षण भी व्रत नियम मर्यादा से जीवन को रिक्त नहीं रखते हैं । सोने के पहले भी ऐसी सुविचारना की प्रतिज्ञा करके फिर निद्रा लेते हैं -
"भक्खति, डज्झति, मारति, किवि उवसग्गेण मम माउ अन्तो भयेज्ज तहा सरीरसग मोहममता अट्ठारस पावट्ठाणाणी चविहपि असण, पाण खाइम, साइम वोसिरामि, सुहसमाहिएण निद्दावइक्कती तओ आगारो।"
- जैनतत्त्व प्रकाश प्रभो । सोते समय यदि मुझे सिंह आदि खा जाय, आग लगने से शरीर जल जाय, पानी मे वह जाऊ', शत्रु आदि मार डाले या किसी अन्य उपसर्ग से मेरी आयु का अन्त हो जाय तो मैं अपने शरीर सम्वन्धित मोह-ममता का व अठारह पाप स्थानो का और चार प्रकार के आहारो का त्याग करता हूँ। अगर सुखपूर्वक जाग्रत हो गया तो सब प्रकार से खुला हूँ। उपर्युक्त विचारो के साथ-साथ
आहार शरीर उपधी पचखू पाप अठार ।
मरण पाऊँ तो वोसिरे जीऊँ तो आगार ॥ हाँ तो सज्जनो । वालमरण और पडितमरण के विपय मे मैंने काफी कह दिया है। अतएव प्रशस्त मार्ग को लेना वुद्धिमान का कर्तव्य है। पडित मरण ही मृत्यु जय वनने का अचूक मार्ग है । चित्त सभूति दोनो भ्राताओ ने अन्ततोगत्वा पडिन मरण को ही वरा । रत्न-त्रय की विशुद्ध साधना मे जीवन को नियोजित करें ताकि अमरता की प्राप्ति होवे ।
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सम-दर्शन-माहात्म्य
ऐसे तो वक्ताओ की वाणी भाषणवाजी मे चतुर हुआ करती है । परन्तु 'दर्शनशास्त्र' पर व्याख्यान करना, प्रत्येक वक्ताओ के वश की बात नहीं है। चूँकि दर्शनशास्त्र का अध्ययन अपने आप मे अत्यधिक महत्त्व रखता है। अतएव पूर्ण जानकारी के विना उन्हे पीछी खानी पडती है । तिस पर गी यदि कोई भी दर्शनशाम्न को लेकर उटपटाग उडाने भरता है तो सचमुच ही वह हमी का पात्र होता है। गुरुप्रवर का दर्शन शास्त्र पर प्रशसनीय अध्ययन है। जीवन स्पर्शी प्रवचन पढिए ।
-सपादक] सज्जनो | यह आर्यभूमि दार्शनिको की पावन क्रीडा स्थली रही है। समय-समय पर अनेकानेक धर्मप्रवर्तक अवतरित हुए। जिन्होने दर्शनशास्त्र की गभीर मीमासा प्रस्तुत की, जिनके अन्त करण से गहरी अनुभव की अनुभूतियाँ नि सृत हुई हैं । उन्हें दर्शन (सिद्धान्त) नाम से पुकारा जाता है ।
___ 'दर्शन' शब्द का अर्थ-देखना, 'दर्शन, शब्द का अर्थ "ज सामन्नगहण दसण" और दर्शन शब्द का अर्थ-श्रद्धा एव सिद्धान्त (Vision) कहा गया है । यहाँ दर्शन (सिद्वान्त) की ओर श्रोतागण को मेरा मकेत है । आर्यभूमि पर जितने भी दार्शनिक वृन्द हुए हैं उतने पाश्चात्य संस्कृति सम्यता के वीच नही हुए हैं। कारण स्पष्ट है कि इस धवल धारा का कण-कण महा मनस्वियो की पाद-धूलि से पवित्र हो चुका है। वस्तुत आचार-विचार एव आहार सहिता की सदैव उत्तमता रही है। फल स्वरूप यहाँ का अध्ययनशील तो क्या, निन्तु अनपढ नर-नारी भी आत्मा, परमात्मा, पुण्य, पाप एव पुनर्जन्म पर पूर्ण विश्वास रखता है। यह भारतीय वाङ्गमय को महत्त्वपूर्ण विशेपता है । दर्शनो के विभिन्न भेद इम प्रकार हैं -
दर्शनानि षडेवात्र मूल भेद व्यपेक्षया । देवता तत्त्व भेदेन ज्ञातव्यानि मनीषिभि ॥ बौद्ध नैयायिक सांय जैन वैशेषिक तथा । जैमनीयं च नामानि दर्शनानाममून्यहो ।
-पड्दर्शन समुच्चय वौद्ध, नैयायिक, माव्य, वैशेपिक जैमनी और जैन इस प्रकार मुख्य रूप से पड़ दर्शन अभिव्यक्त किये हैं। ये सभी आत्मा के अस्तित्व में विश्वास रखते हैं अतएव इन्हे आस्तिक दर्शन कहा गया है । सभी दार्शनिक विचार धाराओ को दो दर्णन मे विभक्त करता हूँ। क्यो कि मेघावी मानव के लिये हेय क्या और उपादेय क्या? यह भेद विज्ञान भी अत्यावश्यक है । एक मिथ्यादर्शन और दूसरा सम्यक दर्शन।
जीवन की विपरीत दृष्टि (मिथ्यात्व) आत्मा अनादिकाल से वनो मे आवद्ध है । वन्धनो से मुक्त होने के पहिले मानव को वधन का स्वल्प समझना आवश्यक है। चूंकि वधन के यथार्य स्वरूप को जाने विना मुक्त होने की कल्पना निरर्थक है । वन्धन का मुख्य कारण मिथ्यादर्शन माना है।
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया सम-दर्शन-माहात्म्य | १६५ "अनित्याशुचि दुखात्मसु नित्य-शुचि-सुखानात्मख्यातिरविद्या"
-योगशास्त्र अर्थात्-अनित्य को नित्य, अशुद्ध को शुद्ध, दु ख को सुख और आत्मा को अनात्मा मानना ही मिथ्यादर्शन कहलाता है।
मिथ्यादर्शन को सीधी-सरल भापा मे 'झूठा दर्शन' और शास्त्रीय भापा मे कहे तो "विपरीत श्रद्धान मिथ्या दर्शनम्" अर्थात् सत्कार्यों के प्रति जिनकी श्रद्धा-विश्वास विपरीत हो दान-देना, तपतपना, सदाचार का पालन करना आदि-२ कार्य पुण्य तथा मोक्ष के हेतु हैं परन्तु जिसकी दृष्टि पर मिथ्यात्वरूपी धने वादल छाये हुए हैं, उसे पुण्य-काय ढोग-ढकोसले के रूप मे ही दिखाई देते है जैसा किअदेवे-देव बुद्धिर्या गुरुधीरगुरौ च या, अधर्मे धर्म बुद्धिश्च मिथ्यात्व तन्निगधते ।।
-योग-शास्त्र अर्थात्--अदेव मे देव वुद्धि, कुगुरु मे गुरु बुद्धि एव अधर्म मे धर्म की परिकल्पना करना मिथ्या दर्शन कहलाता है । और भी
समदृष्टि को सम विषम दृष्टि को विषम लखाता है।
जैसा चश्मा हो आँखो पर वैसा ही रग दिखाता है। ___ हां तो, पीलिये रोग के ग्रस्त रोगी को पूछिये कि-तुम्हे यह सृप्टि कैसी दिखाई देती है ? उत्तर में वह यही कहेगा कि-मुझे यह विशाल सृष्टि पीले रगवत् दिखाई देती है । अत यह उचित ही है कि-यादृशी दृष्टि तादृशी सृष्टि '' यानी जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि ।
___इस प्रकार मिथ्यादर्शी जिनेन्द्र देव की आज्ञा का आराधक नहीं बन सकता है । हालाँकि-- मिथ्यादर्शी जीव को जीव मानता है गाय को गाय, घोडा को घोडा और स्वर्ण-रजत आदि को तद्वद् रूप से मानता-जानता है तो फिर शका होती कि-मिथ्यात्वी की उपाधि से उसे कलकित क्यो किया जाता है ? इसका समाधान यह है कि ऐसा कहने तथा मनुप्य को मनुष्य मानने मात्र से ही उसका मिथ्यादर्शन छूट नही जाता है और मम्यक् दर्शन आ नही जाता है । कारण कि -- जिसके दर्शन मोहनीय का क्षय, क्षयोपशम या उपशम होगया हो और जो पुण्य-पाप, स्वर्ग नरक आदि पर श्रद्धा प्रतीति लाता हो, बस, वही सम्यक्दृष्टि हो सकता है । अन्यथा भौतिक तत्त्ववेत्ताओ को भी सम्यक् दृष्टि ही मानना पडेगा। क्योकि उन्होंने विश्व को अचरजकारी शक्तियां अर्पित की है । परन्तु ऐसा मानना उचित नहीं है। कारण कि दर्शन मोह के क्षयोपशमादि न होने से वे सम्यक् दर्शन के उपासक नही कहला सकते है । और शास्त्रो मे कहा गया कि-अश मात्र भी अश्रद्वा हो तो वह सम्यक् दृष्टि नहीं होता।
"द्वादशागमपि श्रुतं विदर्शनस्य मिथ्ये ।" यदि किसी ने १२ अग भी पढ लिये परन्तु दर्शन (श्रद्धा) शुद्ध नहीं है तो वह अव्ययन नही के बरावर ही है । और देखिए"मिथ्यादृष्टि परिगृहीत सम्यक्श्रुतमपि मिथ्याश्रुत भवति"
-तर्क-भापा मिथ्यादृष्टि द्वारा ग्रहण किया हुआ मम्यक्श्रुत भी उसके लिये वह मिथ्याश्रुत ही है। भले उसके सामने भगवती के भागे, स्थानाग की चोभगियां और उत्तराध्ययन के अनमोल अभ्यायो को खोल के रख दो तथापि विपरीत रूप से परिणत करेगा।
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१६६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
मिथ्यादर्शन के अन्तर्गत आचरित दुष्कर करणी एव कथनी मोक्ष का कारण नही अपितु मसारवर्धन का कारण माना है । ससारी सुख सपदा-परिवार-पद-प्रतिष्ठा-हाट-हवेली एव राज्य श्री की उपलब्धि करवा सकती है किन्तु वीतराग दशा की प्राप्ति करवाने का सामर्थ्य मिथ्यादर्शन में कहा? माना कि -जीवात्मा अधिकाधिक कर्मों का वधन एव कर्मों का नाश प्रथम गुणस्थान पर ही करता है। तथापि आत्मा की वास्तविक विजय नही, पराजय ही मानी गई है कि मामर्थ्य-विहीन विजय निश्चयमेव पराजय मे बदल जाती है। कहा भी है
कुणमाणोऽविनिवित्त परिच्चयतोऽपि सयणधण भोए ।
दितोऽवि देहस्स दुक्ख मिच्छादिदि न सिज्मति ॥ अर्थात्-देहधारी प्राणी स्वजन-धन-भोग-परिभोग आदि का परित्याग करता हुआ एव शरीर को प्राणान्त कप्ट देता हुआ भी मोक्ष को प्राप्त नहीं करता है, कारण कि-उसके अन्त करण मे मिथ्यादर्शन का सद्भाव स्थिति है । आगम मे भी कहा है
'मासे मासे तु जो वालो फुसग्गेण तु भुजए । न सो सुयक्खायधम्मस्स कल अग्घइ सोलसि ।।
-उत्तराध्ययन "जो वाल (अज्ञानी) साधक महीने-महीने के तप करता है और पारणा मे कुश के अग्र भाग पर आए उतना ही आहार ग्रहण करता है, वह सुआख्यात धर्म (सम्यक् चारित्र रूप मुनिधर्म) की सोलहवी कला को भी पा नहीं सकता है।"
अत यह मिथ्यादर्शन ही आत्मा को अनादि ससार मे रुलाता है। जन्म-मरण की अपार खाई (खाड) का वर्षक है । और शिव-मुखो से वचित रखता है । इसलिए मिथ्यादर्शन एकात जीवात्मा के लिये हेय है।
एक व्यक्ति अपने मित्र को कार्ड लिखता है। वह कार्ड बडा ही मजबूत और मनोहर है । वेल-बूटे अ.दि चित्रो से रमणीय वना हुआ है । अनेक रग बिरगी स्याहियो से तथा परिश्रम से उम पत्र को सुन्दर अक्षरलिपि से सुसज्जित किया गया है । परन्तु उस पर प्राप्त करने वाले व्याक्त का पता लिखना लेखक महोदय भूल गये हैं, कहिये क्या वह पत्र मही स्थान पर पहुँच सकेगा? कदापि नही । रद्दी की टोकरी के सिवाय उस पत्र की कोई गति नही हो सकती है, यही स्थिति समदर्शनरूपी मोहर मे रहित जीवात्मा की है । सब कुछ रूप से मानव युक्त हो, लेकिन समदर्शन न हो तो मोक्ष-क्षेत्र मे उस जीवन का कोई मूल्य नही है।
विपक्ष को जानकर अब सम्यक् दर्शन किसे कहत हैं इसका जानपना करना भव्यात्माओ का स्वाभाविक धर्म है और मुमुक्ष ओ के लिए अनिवार्य भी है --"तत्वार्थ श्रद्धान सम्यकदर्शनम्' ।
-तत्वार्थ सूत्र नव तत्त्व आदि पर गाढी श्रद्धा-प्रतीती लाना ही सम्यकदर्शन कहलाता है-अनादिकाल से दर्शनमोनीय कर्म के कारण भव्यात्मा का यह गुण आच्छादित है। ज्यो ही दर्शन मोहनीय कर्म दूर हुआ कि—सम्यक्त्व गुण इस प्रकार प्रगट हो जाता है-जैसे मेघो के हट जाने पर भास्कर ।
सम्यक्त्व प्राप्ति का क्रम यह जीवात्मा काललब्धि पाकर तीन करण करता है। तव सम्यक्दर्शनरूपी महान् सत्य
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तृतीय खण्ड . प्रवचन पखुड़िया सम-दर्शन-माहात्म्य | १६७ को प्राप्त करता है । काललब्धि का प्राजलार्थ यह है कि-जैसे एक शिलाखड जल की तीन चचल तरगो मे टकराता हुआ, गिरता हुआ कई दिनो मे जाकर वतुलाकारवाला बन जाता है। उमी प्रकार यह जीवात्मा अव्यवहार राशि से व्यवहार राशि में प्रवेश करता है। फिर क्रमण द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय आदि पर्यायो मे परिभ्रमण करता हुआ, अनत जन्म-मरण और अकाम निर्जरा करता है।
कम्माण तु पहाणाए आणपुन्वी कयाई उ । जीवा सोही मणुपत्ता आययति मणुस्सय ।।
-भ० महावीर __ अनुक्रम से इतने समय के वाद, कर्मों की न्यूनता होने पर कभी यह जीवात्मा शुद्धता प्राप्त करता है, सभी मनुप्यत्व को प्राप्त होता है। उसे काललब्धि कहते है।
इस अवस्था में रहकर यह जीवात्मा तीन करण करता है। पहला यथाप्रवृत्तिकरण करता है-जिसमे आत्मा के परिणामो की (विचार) धारा इतनी शुद्ध हो जाती है कि-आयुप्य कर्म के अतिरिक्त शेप सप्त कर्मों की स्थिति को पल्योपम के सख्यातभाग न्यून कोडा-कोडी सागरोपम प्रमाण कर देता है । पश्चात् दूसरी सीढी को प्राप्त होता है जिसको अपूर्वकरण कहते है । इस करण मे भी भावों की धारा और अधिक शुभ्रता शुद्धता की ओर बढती है। शेप कर्मों की रही अवधि में से एक मुहर्त जितनी स्थिति को न्यून करती है। विशेपता यह है कि-अनादिकालीन मिथ्यादर्शन, अनन्तानुवन्धी चौकडी और अज्ञान आदि को हेय (त्याग ने लायक) और सम्यक् दर्शन को उपादेय समझता है। यानी सत्य, क्षमा, अहिंसा आदि को अच्छा और हिंमा क्रोध आदि को बुरा समझता है । यहाँ जीव मार्गानुसारी वनता है। आत्मा ज्योज्यो और गहराई मे अवगाहन करता है, त्यो त्यो विमल-विशद भावो की धारा रूपी शुभ्र मदाकिनी प्रवाहित होती है । तव अनिवृत्तिकरण आ खटकता है। यहाँ पर भी शेप कर्मों की स्थिति मे से एक मुहूर्त स्थिति और न्यून करता है। विशेप मजे की बात तो यह है कि अनादिकालीन मिथ्यादर्शन की समूल इति श्री करके सम्यक्त्व को प्राप्त करता है। सम्यक्दर्शन का उद्भव दो प्रकार से होता है-"तन्निसर्गादधिगमाद्वा" ।
___ अर्यात-निसर्ग-स्वभाव से और अधिगम अर्थात् सद्गुरु के उपदेश आदि वाह्य निमित्त से उत्पन्न होता है।
सम्यकदर्शी जीव की दृष्टि निर्मल बन जाती है । सच्ची श्रद्धा और हृदय भी सरल सच्चा रहता है । मिथ्यादृष्टि अथवा वायस की भाति वह फिर किसी मानव के दुर्गुण रूपी घावो की तरफ नही झांकता है। क्योकि मम्यक्दृष्टि को तो सारा विश्व गुणमय, पुण्यमय और धर्ममय दिखाई देता है।
"सम्यकदृष्टि परीगृहितं मिय्या तमपि सम्यक्श्रुतं भवति"। -तर्क भापा सम्यक्दृष्टि के हाथ मे आया हुआ मिथ्यादर्शन भी सम्यक्-श्रुत वन जाता है। आशय यह है कि-भले ही वह कैसे ही शास्त्र, ग्रन्थ या वस्तु क्यो न हो, परन्तु सम्यक्दृष्टि का अनुयायी तो उसमे से कृष्ण वासुदेववत्, या हेसवत् उपादेय को ही ग्रहण करता है और हेयवस्तु को त्याग देता है । अत गुण ग्रहण करना यह सम्यकदर्शी का प्रधान चिह्न है। जैसा कि-वीरसेन-सूरसेन दो सगे भाई थे। वीरसेन जन्म से ही अधा था किंतु गायन कला मे प्रवीण था। और सूरसेन धनुर्विद्या मे। भ्राता की जाहो-जलाली सुनकर वीरसेन ने भी सतत् प्रयत्नपूर्वक धनुर्विद्या का अध्ययन किया । सहसा अन्य शनु चढ आये और उस चक्षु विहीन राजकुमार वीरसेन को बन्दी बना लिया। मालूम होने पर कनिष्ठ
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१६८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ राजकुमार सूरमेन ने ज्येष्ठ भ्राता को शत्रुओ के घेरे से मुक्त भी कराया और शत्रुपक्ष को परास्त भी किया । इसी प्रकार सम्यक् दर्शन रूपी आँखो के अभाव में उस देहधारी के पास में भले कितना भी ज्ञान था, किन्तु वह जान तारक नहो सिद्ध हुआ। क्योकि सद्दर्शन के अभाव मे पठित ज्ञान कुज्ञान माना गया है। हाँ तो, कर्मरूपी शत्रुओ से मुक्ति पाने के लिये सम्यकदर्शन ही सफल प्रयोग माना है।
सम्यक् दर्शन ही मुक्ति महल का प्रथम सोपान है। यह एक कल्पवृक्ष के समान है, जो इच्छित (मोक्ष) कार्य की पूर्ति करवाता है । यह एक चिंतामणिरत्न के सदृश है, जो शारीरिक, मानसिक और दैविक त्रिताप के झझावातो से छुटकारा देता है, और शाश्वत सुखो को प्राप्त करवाने मे महायक बनता है । यह वह प्रकाशस्तम्भ है, जो मिथ्यात्वरूपी धने तिमिर को चीरकर, परमणाति का महामार्ग दर्शाता है । यह वह रामवाण औपधि है, जो मिथ्यात्वरूपी ज्वर की जड को उखाड फेकता है । और अक्षुप सत्य की प्राप्ति करवाता है और यह एक महान्-विशाल विराट् तु है, जो तीन यावत् पन्द्रह भव तक तो अवश्य मेव अपार समार-सागर को पार करवाता है। अत सम्यक् दर्शन की पूरी तरह से रक्षा करना भव्यात्माओ का प्रथम कर्तव्य है क्योकि सम्यकदर्शन से भ्रष्ट आत्मा कदापि कल्याण को प्राप्त नही कर सकता है । यथा
भट्टण चरित्ताओ दंतणमिह दढयरं गहेयन्त्र । सिज्मति चरणरहिया दसण रहिया न सिज्मति ॥
--पड्दर्शन समुच्चय अर्थात्-यदि कोई साधक चारित्र से पतित हो गया हो, तथापि उस साधक को चाहिए कि--वह सम्यक्-दर्शन को खूब मजबूत पकड के रखे, क्योकि चारित्र के गुणो से रहित आत्मा को फिर भी शाश्वत सिद्धि की प्राप्ति हो सकती है परन्तु दर्शन (श्रद्धा) से रहित आत्मा को सिद्धि से वचित हो रहना पडता है।
__ जैसे अक के विना विन्दुओ की लम्वीलकीर वना देने पर भी उसका न कोई अर्थ और न सख्या ही होती है । उसी प्रकार सम्यक्त्व के विना ज्ञान और चारित्र का कोई उपयोग नहीं। और वे शून्यवत् निष्फल हैं । अगर सम्यक्त्व रूपी अक हो और उसके वाद ज्ञान और चारित्र है तो जैसे प्रत्येक शून्य से दम गुनी कीमत हो जाती है, वैसे ही वह ज्ञान और वह चारित्र मोक्ष के साधक होते हैं । मुक्ति के लिए सम्यक् दर्शन की सर्वप्रथम अपेक्षा रहती है
नादसणिस्स नाण नाणेण विणा न होंति चरण गुणा । अगुणिस्स नत्यि मोक्खो नत्यि अमुक्फस्स निव्वाणं ।।
-भ० महावीर हे साधक | सम्यक्त्व के प्राप्त हुए विना मनुष्य को सम्यक ज्ञान नही मिलता है, ज्ञान के विना आत्मिक गुणो का प्रगट होना दुर्लभ है। विना आत्मिक गुण प्रगट हुए, उसके जन्म-जन्मातरो के सचित कर्मों का क्षय होना दुसाव्य है और कर्मों का नाश हुए बिना किसी को मोक्ष नहीं मिल सकता है। अत सवसे प्रथम सम्यक्त्व गुण की आवश्यकता है ।
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वैराग्य : विशुद्धता की जननी
जब आप किसी पहाड़ की ऊँची चोटी पर चढते हैं, तो नीचे के समस्त पदार्थ क्षुद्र दिखाई देते हैं। इसीप्रकार जव साधक वैराग्य की ऊंचाई पर आरोहण करता है, तब ससार के सब वैभव, मान, सम्मान, पूजा प्रतिष्ठा भोग विलास तुच्छ एवं क्षुद्र मालुम पहते हैं । संसारी वस्तुओ का महत्त्व उसकी दृष्टि मे नीचे झुके रहने तक है । ऊँचे चढ जाने के बाद नहीं रहता है। तत्सम्बन्धित गुरु प्रवर का "वैराग्य : विशुद्धता को जननी" नामक मौलिक प्रवचनाश पढ़िए ।
-सपादक प्रिय सज्जनो।
__ वैराग्य की परिभापा इस प्रकार की जाती है "विगत राग यस्मात् इति विराग" अर्थात् जिससे अथवा जिसका राग चला गया है। वह विराग कहलाता है और "विरागस्य भाव इति वैराग्यम् ।"
जव आत्मा पर (प्रेय) अर्थात् सासारिक और भौतिक (पौद्गलिक) सर्व वस्तुओ से मुंह मोडकर तथा राग-मोह-ममता आदि की ग्रन्थि को भेद करके म्व (श्रेय) अर्थात् अपने स्वरूप मे रमण करती है और अपने जन्म-मरण के मूल कारणो का अन्वेपण करती है तव आत्म-सरोवर मे ही एक प्रकार की निर्वासना युक्त 'सत्य, शिव, सुन्दरम्' भावो की शान्त स्वच्छ धारा निस्सृत होती है। जिससे निरन्तर आध्यात्मिक पथ की ओर गमन करने की पवित्र-प्रेरणा प्राप्त होती है। ऐसे भावो (विचारो) का नाम ही वैराग्य है । यह वैराग्य आत्मा का ही एक नीजि गुण है, जो कदापि आत्मा से विलग नहीं होता है।
जिम प्रकार मानव जीवन मे जप, तप और दया, दान आदि का विशिष्ट महत्त्व है उसी प्रकार वैराग्य को भी मानव जीवन मे प्रमुख अग माना है। जब तक हृदय रूपी जलाशय मे सच्चे वैराग्य भावो की लहरें उठती नही, तव तक मानव भले कठोराति कठोर-क्रिया-कलापो का आचरण करें । परन्तु निस्सार और निष्फल है क्योकि-इच्छित वस्तु की उपलब्धि नहीं हो सकती है । जैसा कि भ० महावीर ने कहा है -
अट्ठदुहट्टियचित्ता जह जीवः दुक्खसागरमुवैति । तह वैरग्गमुवगया कम्म सुमुग्ग विहार्डेति ।।
-जैनदर्शन हे गौतम | जो आत्मा वैराग्य अवस्था को प्राप्त नही हुए हैं, सासारिक भोगो मे फंसे हुये है वे आत-रौद्र ध्यान को व्याते हुये मानसिक कुभावनाओ के द्वारा अनिष्ट कर्मों को सचय करते हैं । और जन्म-जन्मान्तर के लिये दुख-सागर में गोते लगाते हैं। जिन आत्माओ की रग-रग मे वैराग्य रस भरा पडा है, वे सदाचार के द्वारा पूर्व सचित कर्मों को वात की बात मे नष्ट कर डालते हैं।
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१७० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
वैराग्य ऐसे तो कई प्रकार के वाह्यनिमित्तो को पाकर उद्भव होता है परन्तु वहाँ मुख्य रूप से तीन ही कारण बताये जाते हैं । शेप कारण उपरोक्त तीन कारणो मे समावेश हो जाते है ।
यद् दुखेन गृह जहाति विरतस्तद् दुखगर्भ मतम् ।
मोहादिष्टननेमृते मुनिरभूत् तन्मोहगर्म खलु ॥ ज्ञात्वाऽऽत्मानमल मलादुपरतस्ज्तज्ञानगर्भ पर। सच्छास्त्रऽधम मध्यमोत्तमतया वैराग्यमाहु स्त्रिया ।।
दुख से होने वाला वैराग्य धन, धरती, पुत्र, परिवार आदि की अनुकूलता ठीक न होने पर तथा प्रतिकूलता प्राप्त होने पर मानव को आराम नही मिला, दुत्कारें मिली, तिरस्कार मिला या मनमानी चीज नहीं मिली तो मन मे भाव-उमिया जाग उठी कि - छोडो इम इन्द्रजाल को और इन स्वार्थी परिवार के सदस्यो को । यह दुख-गभित वैराग्य है। इस प्रकार के वैराग्य का उतार-चढाव मानव जीवन मे अनेक वार आया करता है पर स्थाई रग नहीं रहता है। अत यथार्थ वैराग्य की कोटि मे नही है। जैसा कि-एक भाई को खिचडिया वैराग्य उत्पन्न हुआ। सदैव घरवाली के सामने गीत गाने लगा - "मैं दीक्षा स्वीकार करना चाहता हूँ। तू मुझे जल्दी इजाजत लिख दे । नारी का स्वभाव सदा भयातुर होता है । घर वाली विचारी गडवडा उठी । हाय । मेरा क्या होगा ? जीवन कैसे बीतेगा? मैं निराधार बन जाऊँगी।"
चिन्तातुर वनी हुई पडोसिन बुढिया के यहाँ पहुची । अम्मा जी | मैं तो बहुत परेशान हो गई । आप के पुत्र दीक्षा लेना चाहते हैं । और अनुमति के लिये मुझे हमेशा परेशान करते हैं।
पडोसिन मां ने सोचा-यह वैराग्य नहीं, पाखण्ड होना चाहिए । बोली- वह | वंराग्य कव से आ गया?
एक रोज तपस्वी मुनि मेरे यहाँ गोचरी आए थे । उनके पात्र मे घी से भरी खिचडी मिष्ठान्न आदि थे । वस उसी दिन से यह रट शुरु हुई है।
अच्छा मैं समझ गई । इसका इलाज भी करना जानती हूँ।
वहू । यह सामग्री अपने घर पर ले जा। वढिया खिचडी बना करके उसमे पूरा घी उडेल देना । घट जायगा तो मैं और दे दूंगी। किन्तु कजुसाई मत करना ।
उसने वैमा ही किया। भोजन करके बोला—वाह ! वाह ! याज तो मजा आ गया । ऐसी खिचडी हमेशा मिलती रहे तो भगवान् | कोन वावा बने ? वैराग्य, वैराग्य के ठिकाने लगा। इमको खिचडिया वैराग्य अथवा वैराग्याभास भी कहते हैं।
उसमे जो एक प्रकार की आकुलता-व्याकुलता है-वह वैराग्य का रूपान्तर मात्र है । उसमे तो राग ही कारण है। क्योकि दुख के कारण हटने पर अर्थात् मनोनुकूलता प्राप्त हो जाने पर तथा कुटुम्बीजन मन-मुताविक सेवा-शुश्रूषा करने पर जो ससार त्यागने के भाव थे, उन भावो मे पुन शिथिलता विकृति आ जाती है। यानि त्याग-वैराग्य का भाव रहना कठिन है । उसमे केवल जो पदार्थों को दुख का कारण समझने का भाव है, वही वंराग्य का अश है । अत उसे अधम वैराग्य कहा गया है। किन्तु उस समय यदि सुगुरु आदि का वढिया मग मिल जाय तो वही वैराग्य खूब बढकर आत्मोद्धार का कारण भी बन सकता है । इसलिये उसे वैराग्य कहा है ।
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया वैराग्य विशुद्धता की जननी | १७१ अनेक मानवो को भय से भी वैराग्य उत्पन्न होता है। यथा-स्वास्थ्यरक्षा-भय, राज-भय, ममाज-परिवार-भय, जन्म-मरण भय, और नरक-भय आदि ।
रुग्ण मानव की शारीरिक डावाँडोल स्थिति को देखकर मन मे विचार आये कि-उफ । इस मानव का यह गौर वर्ण मडित शरीर पहले कितना हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर चमक-दमक काति वाला था? वाह ! वाह ! देखते ही बनता था, परन्तु आज इसके चारो तरफ रोग ने डेरा डाल रक्खा है, वृद्धावस्था विभीपिका ने विद्रोह करके अपने चंगुल में फंसा लिया है। पुन स्वस्थता को यह कैसे प्राप्त करेगा ? इस प्रकार अन्य को देखकर वैराग्य प्राप्त करना-सो स्वास्थ्य-भय, वैराग्य कहलाता है।
करते-धरते कोई काम बिगड जाने से अथवा भारी कलक आ जाने से अब समाज मे से वहिप्कार-तिरस्कार मिल रहा है। समाज तथा परिवार में पैर रखने जितना ही स्थान नहीं रहा जिधर जाग उधर मानव अगुलियाँ दिखावे थू-थू करे। ऐसी स्थिति मे जो वैराग्य होता है उसे 'ममाज परिवार' भय से होने वाला वैराग्य कहते हैं ।
कही चोरी, डाका डालने पर अथवा किसी की हत्या करने पर उम अपराधी को जीवन पर्यन्त कारागार या मृत्युदट मिलता है । इस प्रकार कुकर्मों के कटु परिणामो को प्रत्यक्ष देखकर या परोक्ष स्प से सुनकर के जो ससार के प्रति उदासीनता आती है उसे राज-भय वैराग्य कहते हैं । जिस प्रकार चम्पा निवासी श्रेष्ठी श्रमणोपासक पालित के सुपुत्र समुद्रपाल के वैराग्य का नैमित्तिक कारण चोर, राज्य कर्मचारी एव आखो के सामने तैरने वाला अशुभ कर्म का विपाक था। हाथ पैरो मे वन्धित हथकडी वाले चोर को कर्मचारियो द्वारा ले जाते हुए तस्कर को प्रत्यक्ष देखकर समुद्रपाल की अन्तगन्मा जाग उठी, बोल उठी
त पासिऊण सविग्गो, समुद्दपालो इणमवबवी । अहोऽसुहाण कम्माण, निज्जाण पावग इम ।। सबुद्धो सो तहिं भगव, परमसवेग मागमओ ।
--उत्तराध्ययन अ० २१।६-१० अहो | अशुभ कर्मों का अन्तिम फल पाप रूप ही है। यह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। इस प्रकार वोध पाकर समुद्रपाल परम-सवेग को प्राप्त हुए । तदनुमार कोई रोते हुए, कोई चिल्लाते हुए और कोई जय-जय नन्दा, जय जय भद्दा, "राम नाम सत्य" की धुन गाते हुए एक निष्प्राण देह को उठाकर श्मशान घाट को तरफ जा रहे हैं । ऐसे भयावने दृश्य को देखकर समार के प्रति अरुचि आती है, अरे । यह जन्म और मरण तो सर्व समारी जीवो के पीछे लगा हुआ है । एक दिन मैं भी इस नश्वर शरीर को छोड के खाली हाथो चला जाऊँगा । अत क्यो नही मैं ऐसा शुभ काम करूं ताकि इस अनादि कालीन जन्म-मरण पर ही विजय प्राप्त कर लू। ऐसे विचारो से जो वैराग्य होता है- वह जन्म मरण-भय, वैराग्य कहलाता है।
___महारभ, परिग्रह, हिंसा, मद्यमास के सेवन और काम, क्रोध, लोभ आदि वृत्तियो के वश होकर शास्त्रो के विपरीत पदार्थों का अन्याय अनुचित पूर्वक भोग-परिभोग करने से 'रत्न, शकंरा, वालुका, पक धूम, तम और तमतमाप्रभा आदि नरको की प्राप्ति होती है। वहाँ अनेक भयानक कष्ट उठाने पड़ेंगे । यहाँ का विषय सुख तो क्षणिक है परन्तु इसके परिणाम मे प्राप्त होने वाली नारकीय असह्य पीडा अनन्तगुणी भयावनी, दुखकारी, त्रास देनेवाली और पल्योपम, सागरोपम तक रहने वाली
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१७२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ होगी। इस भय से होने वाले वैराग्य को-नरक-भय वैराग्य कहते है। और भी अनेक भय कारणो से वैराग्य होता है, ये भय के सर्व कारण दुख से होने वाले वैराग्य की कोटि मे आते हैं।
मोह-गमित वैराग्यकिमी मानव को अपने माता-पिता पुत्र आदि सगे-सम्बन्धियो पर घनिष्ठ प्रेम या । परन्तु "जो आया सो जायगा, राजा रक फकीर", इस युक्ति के अनुसार कुछ ही दिनों के बाद वह प्यारी अथवा वह प्यारा काल के गाल मे चला जा रहा । मोह के वश आतुर होकर अव यह पुन -पुन आर्तरौद्र ध्यान करता हुआ ऑसू वरसाता है और सिर पीटता है । परन्तु अन्ततोगत्वा काल के सामने निराश ही होना पड़ा। अव उमका सासारिक कारोवार मे दिल दिमाग नहीं लगता है । पागल सा वना हुआ रात-दिन उसकी स्मृति मे अन्दर का अन्दर ही सूखा जा रहा है, न खाने का, न पीने का पीर न वस्त्र पहनने का ध्यान है।
कुछ समय बाद किंचित मोह का नशा उतरा, तव विचार करने लगा कि-हाय | यह ससार ही ऐसा है वास्तव मे"कौन है तेरा, तू है किसका, आंख खोलकर जोय ।
तेरा अपना यहाँ नहीं कोय ॥ इस प्रकार वैराग्यमय विचारो की धारा मे वहते हुए जो भाव उमगते है, उसे मोह-गभित वैराग्य कहा जाता है । यह वैराग्य मध्यम कोटि का है । एक कवि ने कहा हैनारी मुई घर सम्पति नासी । मुड मुडाए भए सन्यासी ॥
ज्ञानभित वैराग्यमे कौन हू, आया कहां से रूप क्या मेरा सही।
किस हेतु यह सम्बन्ध है ? रखू इसे अथवा नहीं । यदि शान्ति और विवेक पूर्वक यह विचार कभी किया।
सिद्धान्त आत्मज्ञान का तो सार सारा पा लिया ।। आत्मा वास्तव मे चेतन स्वरूप, अनन्त ज्ञान विज्ञान शक्ति का स्वामी है। आत्मा शरीर नही शरीर आत्मा नही । दोनो भिन्न-भिन्न धर्मों को मानने वाले हैं। एक अविनाश, अविकार और अविध्वस स्वभाव वाला है तो दूसरा सडन-गलन विध्वस स्वभाव वाला है । मोक्ष के सर्वोत्तम सुरखो को शरीर नही, आत्माराम ही प्राप्त करने वाला है। परन्तु घने कर्मों की वजह से दस शुद्ध चैतन्य ने ससार परिभ्रमण किया है और कर रहा है। लेकिन भविप्य मे इसे गत्यनुगति मे भटकना न पडे इसका इलाज अवश्यमेव मुझे कर लेना चाहिये । कही ऐसा न हो कि-यह आत्मा किमी योनि विशेप मे जा गिरे जहाँ देव, गरु. धर्म, रत्नत्रय की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ हो जाय । जैसे भ० ऋपभोवाच---
सवुज्झह किं न बुज्झह, सबोही खलु पेच्च दुल्लहा।
णो हुवणमति राइओ, नो सुलभ पुणरविजीविय ॥ हे पुत्रो । सत् वोध रूपी धर्म को प्राप्त करो । सब तरह से सुविधा होते हुए भी धर्म को प्राप्त क्यो नही करते ? अगर मानव जन्म मे धर्म वोध प्राप्त न किया तो फिर धर्म वोध प्राप्त होना बहुत कठिन है। गया हुआ समय तुम्हारे लिये वापस लौटकर नही आने वाला है और न मानव जीवन ही सुलभता से मिलने वाला है।
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया वैराग्य विशुद्धता की जननी | १७३ अत इम समय मुझे मानव भव मे आत्मा को महान् वनाने की सर्व सामग्रियाँ उपलब्ध हैं । जो भी मुझे प्रशस्त कार्य करना है, वह विना विलम्ब से कर लू। ताकि यह आत्मा भविष्य मे अनन्त सुखो को प्राप्त कर सके।
इस प्रकार आध्यात्मिक विषय का ही चिन्तन, मनन, मन्थन करने से तथा सत्-असत्, हेयज्ञेय और उपादेय आदि वा विवेक पूर्वक विचार विमर्श करने से जो वैराग्य फव्वारे की भाँति हृदय प्रागण मे प्रस्फुरित होता है उसे ज्ञान-गर्भिन तथा सर्वोत्तम वैराग्य कहा गया है।
एक बार मानव अपने मतापो मे पीडित होकर भगवान के पाम गया और दीन याचना करने लगा-प्रभो | मुझे शक्ति दो, मैं इन सतापो से लड सकू ।
भगवान-वत्स | इन सतापो से मुक्त होने के लिये शक्ति की नही, विरक्ति की जरूरत है। शक्ति तो म्वय मताप का स्रोत है । जहाँ शक्ति है, वहाँ अह है, जहाँ अह है वही सघर्प हैं, मताप ताप की हजारो हजार लहरें परस्पर टकराती हैं । मुक्ति के लिये विरक्ति करो।
वास्तव मे समारशक्तिसम्पन्न होने की दीड कर रहा है । पर शक्ति तो स्वय अशान्ति पैदा करती है । शान्ति की प्राप्ति के लिये मानव को शक्ति से हटकर विरक्ति की ओर आना होगा । क्यो कि विरक्त भाव आत्मिकशक्ति वर्धक माना है । जमा कि
अझप्पसज्जे पसरत तेए, माणभुराए परिभासमाण । फत्तो तमो सुसर भोग पको, सिग्घ पलायति फसाय चोरा ।।
-सुभापित आध्यात्मिक सूर्य के प्रखर तेज से जिमका मन रूपी नगर आलोकित हो चुका है। वहाँ अन्धकार कहाँ ? अहकार त्पी कर्दम सूख जाता है और कपाय चोर भी शीघ्र पलायन हो जाते हैं ।
अनेकानेक वैराग्य के मार्ग वताए गये हैं। मोक्षाभिलापी यात्रियो को चाहिए कि वे येनकेन-प्रकारेण हृदय मन्दिर मे वैराग्य को पैदा करे । इसका महत्त्व पूर्ण स्वरुप इस सूत्र मे बताया है ।
_ 'जगत्कायस्वभावौ च सवेगवैराग्याथम्" । अर्थात्-मवेग और वैराग्य के लिये मसार और शरीर के स्वभाव का विचार करना चाहिए । साथ ही साथ जब हम ज्ञान का पठन करेंगे तभी इसका उद्भव होगा । विना ज्ञान के वैराग्य विना तेल के दीपक के समान है। ज्ञान प्राप्त करने के लिये क्रम पूर्वक उन शारत्रो का अध्ययन करना चाहिये, जिनमे आप्नपुरुपो के आचार-विचार विषयक उपदेश सग्रहित हो। इसके साथ तत्त्वज्ञान के भिन्न-भिन्न ग्रन्थो का अध्ययन भी बुद्धिमान पुरुपो को अवश्य करना चाहिए। क्योकि वैगग्य मे रमण करने वाले की अन्तरात्मा फिर सामारिक कार्यों से निर्भय हो जाता है। जैसा कि- नीति शतक मे कहा है
भोगे रोगभय कुले च्युतिभय वित्त नृपालाद भय । मौने दैन्यभय बले रिपुभय रुपे जराया भयम् ।। शास्त्र वादभय गुणे खलमय काये कृतान्ताद्भय ।
सर्व वस्तु भपन्वित भुवि नृणा वैराग्यमेवाऽभयम् ॥ अर्थात् भोग मे रोग का, कुल परिवार मे हानि का, धन मे 'नृप आदि का, मौन मे दीनता का, शक्ति मे शत्रु का, सौन्दर्यता मे बुढापा का, शास्त्र ज्ञान मे वाद विवाद का, गुणी जीवन मे दुरा
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१७४ , मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ त्माओ का और पार्थिव देह के पीछे मृत्यु का भय मण्डराया हुआ है। इस प्रकार वैराग्यवान आत्मा के अतिरिक्त समस्त समारी जीव भयाकुल है। इमी विषय की मम्पुष्टि निम्न-श्लोक मे सुनिए अर्जुन ने श्री कृष्ण से मन-योग सम्बन्धित समाधान पूछा -
चचल ही मन कृष्ण, प्रमाथि वलवद् दृढम् ।
तस्याह निग्रह मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ।। प्रभो । मशक्त मन रूपी अश्व इतना चत्रल है कि उसका निग्रह करना वायु की तरह अति दुष्कर है ऐना मैं मानता हू । नमावान देते हुए श्री कृष्ण वासुदेव बोले
असशय महाबाहो ! मनोनिग्रह चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय | वैराग्येण च गृह्यते ॥ हे कौन्तेय | नि मन्देह मन त्पी घोडे का निग्रह दुष्कर अति दुष्कर माना है। किन्तु साधना के माध्यम से एव वैराग्य भावना पूर्वक साधक मन का निग्रह करने मे सफल बनता है।
अतएव वैराग्यभाव आत्मिक मुम्व सम्पदा को देने वाला है। उसकी उत्पत्ति आत्मा से ही होती है। देहधारी को विदेह दशा तक पहुचाने में वै गग्यभाव बहुत बडा सहायक है । वीतराग दशा की उपलब्धि विराग भाव की अभिवृद्धि किये बिना नहीं हो सकती है। इस प्रकार वैराग्यमय साधक की माधना वलिप्ट मानी है। भले आप किमी स्थान पर किमी गुरु के ममीप एव किसी भी परिधान मे रहें। किन्तु विगगता की ओर अवश्य आगे बढ़े। इतना कहकर मै अपने वक्तव्य को विराम देता है।
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पंचनिधि माहात्म्य
यह व्याख्यान काफी वर्षों पुराना है। सम्वत् २०१७ का वर्षावास रामपुरा था। उस वक्त आप द्वारा श्री स्थानांग सून का तात्विक एव समन्वयात्मक विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा था। श्रोता गण काफी चाव से श्रवणार्थ उपस्थित हुमा करते थे। सलिल प्रवाह की तरह गुरु प्रवर के वाणी का शीतलमन्द-सुगन्ध प्रवाह श्रोताओं के हृदय को छूता हुआ निर्वन्धन के रूप मे यो ही चला जा रहा था। तत्पश्चात् कुछेक व्याख्यान अवश्य सहित किये गये थे। किन्तु असावधानी को बदौलत उनमे से पचनिधि नामक यह एक व्याख्यान ही हमे मिल पाया है। सचमुच ही व्याख्यान के भावार्थ मानव के अन्तरग जीवन को स्पर्श करता है । पढिए और मनन कीजिए ।
__ -सम्पादक] प्यारे सज्जनो।
आप के सामने काफी दिनो से स्थानाग सूत्र के प्रवचन हो रहे है । इस सूत्र का दायरा बहुत विशाल एव गहन-गभीर रहा है। वक्ता एव श्रोतागण को बोलने की एव समझने सुनने की काफी गुजाइश रही है। पचनिधि सम्बन्धित आज मै आप से कुछ कहूगा । यह विपय मानव के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन को स्पर्श करता है । 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति" सूत्र मे नवनिधि के नाम एव विस्तृत वर्णन मिलता है। जैसा कि- उवगया णवणिहीओ त जहा-नेसप्पेणिही, पडुअए णिही, पिगलए णिही, सम्बरयणे णिही, महपउमे णिही सखणिही।" यहाँ मेरा अभिप्राय नवनिधि से नही किन्तु पचनिधि से है।
निधि का अर्थ है-खजाना, कोप, भण्डार आदि-आदि । आज का मानव केवल चांदी स्वर्ण और रुपयो को ही प्रधान निधि स्वीकार करता है। ओर वह फिर इस ऐश्वर्य प्राप्ति के पीछे इधरउधर भटकता और धक्का खाता है। अधिक अतुल परिश्रम भी करता है । नही करने योग्य अमानुषिक कृत्यो को भी कर बैठता है। यहाँ तक कि इज्जत आवरु को भी मिट्टी में मिला देता है । तथापि वह अन्धा मानव पुण्य के अभाव मे इच्छित निधि (खजाना) को प्राप्त करने मे विफल ही रहता है।
म० महावीर ने धनसम्पति को ही मुख्य निधि की सज्ञा नही दी। सूत्र स्थानाग मे पाँच प्रकार की निधि का सुन्दर सरल वर्णन किया गया है। "पणिही पण्णत्ता त जहा-पुत्तणिही, मित्तणिही, सिप्पणिही धणणिही, धान्नणिही ।"
पुत्रनिधि पुत्र की गणना भी निधि में की गई है सो उचित ही है। क्यो कि आज के ये होनहार वालक (सपूत) कालान्तर मे राष्ट्र, समाज और धर्म के पालक एव रक्षक बनेगें।.राष्ट्र, समाज और धर्म रूपी विशाल रथ इन्ही सपूतो के कधो पर विकास के विराट मार्ग को पार करेगा । दीन-हीन गरीव
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१७६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
देश ममाज भी इन्ही सपूतो के बल-वुद्धि और विद्या द्वारा ही ऋद्धि-सिद्धि एव सर्व आवश्यकताओ से सम्पन्न हो उठेगे । तभी तो भारतीय कवि की भाव वीणा गूंज उठती है।
___"पूत-सपूत तो क्यो धन सचे' आज, अमेरिका, रमिया, इ गलैण्ड और जापान आदि ऐश्वर्य सम्पन्न समझे जाते है । और भौतिक उन्नति मे होडा-होड लगा रहे है। इस उन्नति मे उन्ही देशो के सपूतो के भरसक परिश्रम का ही फल है। भारत धर्म-प्रधान देश के नाम से विख्यात है। इसमे भारत माता के लाडले उन त्यागी ऋपि मुनियो की कृपा का ही सुफल कहा जायगा । हा तो प्रत्येक देश और समाज के उत्थान-पतन एव उतार-चढाव का उत्तरदायित्व भावी सतान पर ही निर्भर रहता है।
मातृभक्त चाणक्य पाठशाला से घर आया और विना कहे माता के पैर एव हाथो को दबाने लगा। क्योकि माता ने अधिक परिश्रम कर डाला था। एकाएक उदासीनाकृति को देखकर चाणक्य वोला-"आज चेहरा उदास क्यो माता? क्या किसी से लडाई हुई है?"
"नही वेटा ।" "तो क्या कारण ?"
वेटा । तू इस समय मेरी कितनी भक्ति करता है। वास्तव मे तू मातृभक्ति के सर्वथा योग्य है किन्तु
"किन्तु क्या ? साफ-साफ मुझे समझा | वर्ना लङगा" ?
वेटा । तेरे ये जो दो दाँत वाहर निकले हुए हैं। इन दोनो के प्रभाव से तू बहुत बडा आदमी बनेगा । ऐसा ज्योतिपियो का अभिमत है। फिर तू मुझे भूल जायगा। जैसी आज मेरी सेवा कर रहा है। वैसी सेवा फिर नही कर पायेगा । उदासीनता का यही कारण है वेटा ।
चुपचाप चाणक्य मकान के पिछवाडे मे पहुचा । और आव देखा न ताव उन दोनो दातो को उखाद फेंके।
रक्तधारा बह रही थी । माता के पवित्र पैरो मे नत-मस्तक हुआ। चौक कर माता वोली-यह क्या ? खून खच्चर किसने किया?
माता तेरो उदासीनता का जो कारण था उसे मेने जड-मूल से खत्म कर दिया है । मातभक्ति के वाधक तत्वो को मिटाना ही मै ठीक मानता हूँ । इसलिये यह कार्य मैने ही किया है। अब तेरी भक्ति में बाधा नहीं पडेगी । तुझे अव सतोप भी हो जायगा।
___ मातृभक्त के उद्गारो को सुनकर माता फूली नही समा रही थी। कालान्तर मे वही चाणक्य मत्री पद के योग्य बना है । जिसने "चाणक्य नीति" नामक ग्रन्थ लिखा है।
कितनेक मानव वालको के जीवन से खिलवाड और उपेक्षा कर बैठते हैं । परन्तु उन्हे यह ध्यान नहीं कि विन्दु मे मिन्यु बनता है। वट वृक्ष का एक छोटा सा वीज कालान्तर मे एक विशालकाय विटप वन जाता है। यही स्थिति पुत्र की भी समझनी चाहिए। इन्ही पुत्रो मे भगवान महावीर, वुद्ध, राम, कृष्ण गाधी और नेहरू आदि छिपे हुए हैं । अतएव सुविनीत सतति को अपनी भावी निधी समझकर उनकी देख भाल तथा उन्हे सुसस्कारित करना देश समाज के कर्णधारो का एव उनके माता पिता का प्रथम कर्तव्य है।
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया पचनिधि माहात्म्य | १७७
मित्र-निधि मित्र को भी निधि की सज्ञा दी गई है। इस बुद्धिवादी युग मे प्रत्येक देश और समाज को ___ इस निधि की परम आवश्यकता प्रतीत हो रही है। क्योकि मित्रनिधि मे समाज राष्ट्र और मानव
मात्र के लिये भविष्य का सुन्दर, समुज्ज्वल, सृजन और मगलप्रभात छुपा हुआ है। इस निधि के अभाव मे प्रत्येक का भविष्य घोर तिमिराच्छादित रहता है । यह तो स्वयमेव सिद्ध है कि आज भारत मित्रनिधि के सिद्धान्त के वल पर ही प्रतिक्षण उन्नति की ओर गमन कर रहा है । और सिर पर मण्डराने वाली युद्धो की काली पीली घटाओ को निरन्तर आगे से आगे धकेलता हुआ विकास के मार्ग को निर्भयता पूर्वक पार कर रहा है। जवकि यत्किंचित् देश इस सिद्धान्त के विपरीत होकर यानी विघटन विभीपिका की ओर मुडकर विनाश-पतन और अवनति को आमन्त्रण दे रहे है।
जहाँ सप तहां सम्पति नाना । जहाँ कुसम्प तहां विपत्ति निधाना ।
आत्म-विकास का क्रम भी मित्रनिधि पर टिका हुआ है। जव भव्य की मानसस्थली मे रत्नत्रय का सुन्दर स्तुत्य सगम स्रोत फूट पडता है तव कही जा करके उस भव्य आत्मा को कुछ आत्मिक ज्ञान-भान होता है। वरन् एक के अभाव मे अर्थात् सम्यग्दर्शन के अभाव मे वह ज्ञान कुज्ञान वह चारित्र कुचारित्र एव वह साधना करणी केवल ससारवर्धक ही मानी जाती है। अतएव अपेक्षानुसार सर्वक्षेत्रो मे मित्रनिधि की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी कि एक लूले-लगडे मानव के लिये अग-उपाग की।
आज समाज मे इस मित्रनिधि की काफी आवश्यकता है। मित्रनिधि की अभिवृद्धि मे ही सभी समाजो और सभी सम्प्रदायो का अभ्युत्थान निहित है। लेकिन आज हम प्रत्यक्ष देख रहे है कि वनी वनाई मित्रनिधि की शृखला इस खेचातानी के चक्कर मे टूट-फूट रही है । समझ मे नही आता है कि इस सकुचित सकीर्ण विपरीत विघटन की गली मे गमन कर किसने क्या प्राप्त किया और कौन क्या प्राप्त कर सकेगा?
आज पुन इस क्षत-विक्षत समाज के सिर पर मित्र निधि, सगठन और स्नेह सरिता सलिल के लेपन को नितान्त आवश्यकता है न कि विघटन विलेपन की।
शिल्प-निधि स्वावलम्वी बनने के लिये कितना महान् सिद्धान्त है, पुत्र और मित्रनिधि का अभाव होने पर भी कोई भी केवल शिल्प-निधि द्वारा अपने भविष्य का सुन्दर एव नैतिक निर्माण कर सकता है। थोडी देर के लिये समझो की कोई स्त्री चढते यौवन मे वैधव्य को प्राप्त हो गयी । अव उसके पास न पुत्र और न मित्रनिधि है। इस विपद्-बेला मे उसके लिये कौन सा साधन है ? एव उदर-पूर्ति का क्या जरिया ? क्या जीवनपर्यन्त गडे मुर्दे उखाडती रहेगी ? क्या मृतको को रोती रहेगी? आर्त-रौद्रध्यान ध्याती रहेगी ? नही यह रास्ता गलत है। परन्तु इसके बदले मे यदि वह वहिन रजोहरण (ओघा) पुजनिया और माला आदि ऐसी बनाने की अनेको प्रकार की हस्तकला को प्राप्त कर ले तो आसानी से वह अपना जीवनयापन कर सकती है और वह भी धर्मधारा से युक्त, उस को फिर न पराधीन और न दूसरो के मुह की ओर ताकने की आवश्यकता है।
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प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
पुणिया श्रावक ने भी अपनी समस्त धन राशि को जनहित में व्यय कर केवल निर्जीव शिल्प कला (मूत कातने) के वल पर ही अपना धार्मिक जीवन कितना आदर्श मय बनाया था? इसी प्रकार आर्द्र कुमार की धर्मपत्नी ने भी जीवनयापन किया था। आज इस मिटान्त का पुन आगमन हुआ है। आज सर्वत्र एक ही आवाज प्रसारित हो रही है "आराम हराम है ' अन परिश्रम कगे। परन्तु भगवान आदिनाथ और महावीर आदि तीर्थकरो ने तो कई शताब्दियो पहले ही ६८ तथा ७२ कलामो के ममीचीन पाठ मानव-समाज को पढा चुके हैं । शिल्प कला भी जिसके अन्तर्भूत है।
साहित्य सगीत कला विहीन साक्षात् पशु पुच्छ विषाण हीन । तृण न खादन्नपि जीवमान-स्तद् भागधेय परम पशुनाम् ।।
-~नीतिशतक मानव को अवश्यमेव शिल्पज्ञ होना ही चाहिए। चूंकि साहित्य और क्ला विहीन मानव शोभा का पात्र नहीं बनता है। वल्कि पशु की श्रेणी में गिना जाता है । अतएव शिल्प निधि का जीवन मे एक महत्वपूर्ण स्थान पाया जाता है । वास्तव मे कवि का कथन अक्षरश सत्य है।
"हो सेवामय जीविका, बनो परिश्रमी धाम ।। मुफ्त-खोर बनना न कभी, करते रहना काम ।।"
धन-निधि धन निधि का महत्व तो स्वयमेव सिद्ध है । भूतकाल मे भी था भविष्य में रहेगा और वर्तमान मे तो कहना ही वया । आज सर्वत्र धन ही धन का बोल वाला है। मानव चाहे कैसा ही क्यो न हो, परन्तु धन के प्रताप से उसके समरत दोप, दुर्गुण ढक जाते हैं। धन के पीछे मानव की वाह-वाह और पूजा प्रतिष्ठा होती है।
“यस्यास्ति वित्त स नर फुलीन, स पण्डित स श्रुतवान् गुणज्ञ ।
स एव वक्ता स च दर्शनीय सर्वे गुणा काचनमाश्रयन्ति ।। अर्थात् जिसके पास धन है-वही मानव सर्व गुणसम्पन्न समझा जाता है। क्योकि सुवर्ण (धन) मे ही सर्व गुणो का निवास माना गया है ।
आज धन का स्वामी गृहस्थ नही बल्कि गृहस्थ का स्वामी धन है। तभी तो अहनिस मानव धन स्पी स्वामी की खोज में भटकता है। भूख, प्यास, मर्दी, गर्मी आदि को सहन करता है । धन की प्राप्ति हो जाने पर उमकी निगरानी मे ही रत रहता है। और धर्म-ध्यान आदि आत्मसम्वन्धी सर्व क्रियाओ को भूल जाता है। न खर्च करता है न खाता है एतदर्थ जन साधारण की दृष्टि आज बडे-बड़े सेठियो पर जा पडी है। जिसका न उचित उपयोग और न सही सहयोग । हाँ, साधु के पास ज्ञाननिधि और गहम्थ के पास धन निधि अनिवार्य है। परन्तु उसका उपयोग होते ही रहना चाहिए । नदी का पानी बहता हुआ ही भला लगता है । एक मानव विचारा धन के अभाव मे भयकर से भयकर द खो का सामना करता है और एक मानव के पास अपार धनराशि एकत्रित है। आज का युग इतनी विपमता कैसे सहन करेगा?
"भूखी दुनियां अब न सहेगी, धन और धरती वट के रहेगी।"
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया पचनिधि माहात्म्य | १७६ यह नारा आज जोर शोर से कर्ण-कुहरो मे गूंज रहा है । इमीलिए भाइयो। देश, समाज और प्राणी मात्र के सरक्षण के लिए धन को बिखेर दो ! कहा भी है-शतहस्त समाहर | सहन हस्त सकिर । अर्थात् मानव । मैकडो हाथो से बटोरो और हजार हजार हाथो मे बिखेरो । जैसे माता अपने विलविनाते पुत्र पुत्रियो के लिए रोटियो का डिव्या खोल देती है। वैसे ही आप भी तिजोरियो के ताले खोल दो । आज ताले लगाने की आवश्यकता नहीं है । आज तो गुत्थियो को सुलझाने की और भामाशाह की तरह पुन आदर्श को जन्म देने की आवश्यकता है ।
___ अपने वरद कर-कमलो द्वारा धन का सदुपयोग करना श्रेयस्कर है। यही धन निधि पाने का मार है । अन्यथा यह तो सुनिश्चय समझे
दान भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवति वित्तस्य । यो न ददाति न भुक्ते, तस्य तृतीया गतिर्भवति ।।
धान्य-निधि इस पार्थिव शरीर के साथ इस पान्य-निधि का घनिष्ट वास्ता है । इस विषय में अधिक लिखने की, कहने की कोई आवश्यकता नहीं है। एक अमीर मे लेकर एक दीन-हीन प्राणी भी इम निधि के माहात्म्य को खूब अच्छी तरह जानता और समझता है ।
शास्त्रो मे नौ प्रकार के पुण्यो मे मे पहला 'अन्नपुण्य' कहा गया है । मानव मात्र का इस निधि मे उतना ही सम्वन्ध है जितना सम्बन्ध शरीर मे आत्मा का। इस निधि के अभाव मे सर्व निधिया निस्सार, शुष्क और भही प्रतीत होती हैं। क्योकि इसके बलबूते पर ही प्रत्येक प्राणी का शारीरिक और बौद्धिक विकास होता है। अत अनन्तकाल से मानव की यह मनोज्ञ कात प्रिय इष्टकारी सात्विकनिधि रही है और रहेगी। सोने, चाँदी और रपयो के वे ढेर किम काम के ? वह भव्य-भवन और वह बहुमूल्य वेग-भूपा भी किस काम को ? जवकि पेट मे चूहे दौड रहे हैं । घर मे चूहे भी एकादशी व्रत करते हैं । यानि इस निधि की विद्यमानता में मानव का मुखोद्यान फला-फूला व हरा-भरा प्रतीत होता है। और इसकी अविद्यमानता मे उजडा सा जान पडता है।
कई उटी मति के मानव, मास, अण्डो आदि को भी मानव का भोजन मानते हैं और धान्य (अन्न) की श्रेणी में रखने का खोटा प्रयास-परिश्रम करते हैं । नि सन्देह यह मान्यता कुत्सित और गलत है । जो ऐमा मानते हैं-वे निश्चय ही कर्मों के भार से गुरु बनते है और उनका नम्बर दानवो की कोटि मे गिना गया है।
__ वन्धुओ। आप लोग इम अन्ननिधि के द्वारा प्राणी मात्र को साता पहुंचा सकते है और विपुल पुण्य रूपी पूजी इकट्ठी भी कर सकते है । आपके घरो को भगवान ने 'अभगद्वार' की महान् संज्ञा दी है। जिसका अभिप्राय यह है कि द्वार पर कोई भी अतिथि, अभ्यागत आ जावे, तो भूखा कदापि न लौटे । देखिये-मुगल साम्राज्य युग मे गुजरात के एक नर रत्न 'खेमादेदरानी' ने भी दुर्भिक्ष से दलितदुखित एवं भूख पीडित जनता के लिये अपना अमूल्य अन्न भण्डार खोलकर अहमदावाद के बादशाह तक को विम्मित कर दिया था । आज फिर वही आवाज, वही पुकार | और वही ध्वनि गूंज रही है। अन्न महगा है । 'अस्तु, समय काफी आ चुका है। मैं अपने भापण को सक्षेप मे पूरा करता हूँ।
जिम प्रकार अपने स्थान पर पाचो अगुलियो का महत्त्व अपूर्व है, वैसे ही पाचो निधियो का भी समझ लीजिए । तथापि आज के इस युग मे घान्य आर मित्र निधि का महत्त्व और भी अधिक वढ
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१८० । मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
जाता है। कारण तो स्पष्ट ही है-धान्यनिधि के विना सासारिक कारोबार चल नही सकते और मित्रनिधि के अभाव मे सामाजिक, शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक आदि कोई भी विकास असम्भव है।
यदि सम्यक् प्रकार से मानव अपने मन-मस्तिष्क मे मित्रनिधि आदि को स्थान दे तो सत्वर ही मामाजिक, राजनैतिक व धार्मिक मर्व गुत्थियाँ सुलझ जायंगी, आपत्तियां छिन्न-भिन्न होते देर न लगेगी और ममाज एक हरी-भरी वाटिका के रूप में विकसित हो उठेगी। फिर उसमे स्नेह सरिता का अविरल प्रवाह फूट पडेगा । जहां, सगठन, विवेक और विनय के कमल खिलेंगे। हर्ष, खुशी सम और दम के मनोन मुखकारी, इप्टकारी फब्बारे उछल पड़ेंगे । समाज और राष्ट्र के विकास का स्रोत फिर कदापि अवरुद्ध नही होगा बल्कि प्रकाशवत उस समाज-सघ का भविष्य युग-युग तक जगमगाता रहेगा और नूतन चेतना व जागृति प्रदान करता रहेगा।
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कर्म-प्रधान विश्वकरि राखा
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"कर्मप्रधान विश्व करि राखा' गोस्वामी तुलसीदासजी को चौपाई को अभिव्यक्ति स्पष्ट बता रही है कि सारा विश्व कर्माधीन है । वास्तव मे ऐसा ही है । विश्व की अचल मे निवास करने वाले एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चउरीन्द्रय एव पचेन्द्रिय आदि सभी प्राणी कर्म शृखला से आबद्ध हैं । देहधारी स्वय भावावेग मे उलझकर शुभाशुभ फर्म जुटाता एव विखेरता रहता है । शुभाशुभ कर्म विपाक हो ससार का 'अथ' द्वार माना है। वस्तुत जो फर्म विपाक का सद्भावी है वह भले विश्व बदनीय भी क्यो न बन गया हो तथापि उसके लिए ससार शेष है, क्योंकि आवागमन का मूल कारण नष्ट नहीं हुआ है। जब कारण का सद्भाव है तो फर्मों की अवश्य निष्पत्ति हुई। वह सकर्मी, सरागी, सकषायी भी । गुरु प्रवर का “कर्म-प्रधान विश्व करि राखा" नामक प्रवचन तात्विक मीमासा से ओत-प्रोत है
सपादक प्यारे सज्जनो!
जीव और अजीव (कर्म) तत्वो की जितनी सूटम विवेचना हमे जैन-दर्शन मे दृप्टि गोचर होती है उतनी इतर दर्शन जैसा कि-बौद्ध, नैयायिक, सात्य, वैशेपिक एव मीमासक आदि मे नही मिलती । इमका कारण है अईत् दर्शन के प्रणेता वीतराग है और अन्य दर्शनो के प्रणेता छद्मस्थ सरागी। केवल ज्ञानी के समक्ष जिनकी ज्ञान-गरिमा की अनुभूतियां नगण्य मानी हैं । वस्तुत जैन दर्शन का द्रव्यानुयोग अत्यधिक गहरा-गभीर और गुरुतर है । श्लाघनीय ही नहीं अपितु, उपादेय भी सभी ने माना है। यहाँ तक कि-पाश्चात्य विद्वान् भी यह स्वीकार करते हैं कि- जैन दर्शन एक अनुपम दर्शन है । जो अर्वाचीनप्राचीन अनुभूतियो से और तात्विक विश्लेषणात्मक शैली से भरा हुआ है।
हां तो, जैन दर्शन मे जीवो का वर्गीकरण इस प्रकार किया है -
चेतन की अपेक्षा समष्टि के सभी जीव एक प्रकार के, अस-स्थावर की दृष्टि से दो प्रकार के वेद की अपेक्षा तीन प्रकार के, गति की अपेक्षा चार प्रकार के, इन्द्रिय की अपेक्षा पाच और काया की अपेक्षा छ प्रकार के, इसी प्रकार १४ और ५६३ जीवो के भेद भी होते है। तत्त्वार्थपूत्र के आधार पर जीवो के दो भेद भी होते हैं"ससारिणो मुक्ताश्च"-ससारी और मुक्त ।
भेद विज्ञान को समझे-- मुक्त आत्माओ की मुझे अव चर्चा नही करनी है। क्योकि जो मुक्त होकर कृतकृत्य हो चुके है उनकी चर्चा के पहले अपने को मसारी जीवो की चर्चा करनी है । ससारी आत्मा जन्म-मरण को पुन पुन क्यो धारण करती है ? कर्मों के साथ वधित क्यो और कैसे है ? और उसके प्रेरक कौन ? जबकि
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१८२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ कर्म जड पद्गल हैं और जीव अनतशक्ति का स्वामी। केवल ज्ञान का अखट भण्डार अपने आप में सजोये बैठा है। भगवान् बनने की क्षमता रखता है। जीवात्मा की दशा फिर भी दयनीय क्यो ? उपस्थित महानुभावो | कभी आपने चिंतन-मनन भी किया ? आपके पास एक ही उनर है-'We have no time मारे पास समय का अभाव है। ऐसा कहना क्या अपने आपको धोखा देना नही है ? ममय कही नही गया? किंतु तत्त्व ज्ञान के प्रति हमारी उपेक्षा वृत्ति रही है । एक राजस्थानी कवि कहता है--
"दुनियां रा थोकडा ये घणा ही चितारिया
आत्मा रो थोकडो चितार लेनी ।।" इमलिए जागृत आत्माओ को कम से कम निज स्वभाव का ज्ञान-विज्ञान वितन कुछ तो करना ही चाहिए। "अप्पा सो परमप्पा" आत्मा ही परमात्मा स्वरूप है तो यह भेद-दीवार कहां अटक रही है ? परमात्मा दशा की प्राप्ति क्यो नही हो रही है ? इसलिए कहा है- "पढम नाण तो दया ।' पहले जानो फिर करो । भेद-विवक्षा को समझने के लिए कहा है
आत्मा परमात्मा मे कम ही का भेद है। फर्म गर कट जाये तो फिर भेद है न खेद है ।'
कर्मो का बहुमुखी प्रभाववास्तव म देखा जाय तो वात वावन तोला पावरत्तो सही है। एकेन्द्रिय से पचेन्द्रिय पर्यन्त सर्व प्राणी कर्माधीन है । कर्मेश्वर ने सव पर अपना भारी प्रभुत्व जमा रखा है। मोक्षस्य आत्माओ के अतिरिक्त ऐसा कोई भी जीव-जन्तु नही वचा है जो कर्म कीट से विलग किंवा पृथक् रहा हो, भले कितना भी हृष्ट-पुष्ट शक्तिसम्पन्न क्यो न हो किन्तु मव के सब कर्म वीमारी मे पीडित-दुखित एव ग्रसित है। इस कारण ससारी प्रत्येक आत्माएँ नानाप्रकार की पर्यायो मे परिवर्तित होती हुई अपार ससार की गली-कुचो मे परिभ्रमण करती रहती है । भ० महावीर ने कहा है
एगया देवलोए सु णरएसुवि एगया। एगया आसुर फाय अहा कम्मेहि गच्छई ॥ एगया खत्तिओ होई तओ चण्डाल बुक्कसो । तओ कीड पय गोय तओ पुथु पिपीलिया ॥
-उत्तरा० अ० ३ गा० ३।४ भव्यात्माओ । स्वकृत-कर्मों के अनुमार यह जीव कभी स्वर्ग, कभी नरक, कभी अमुरकाय, कभी क्षत्रिय, कभी चडाल तो कभी वर्णशकर जातियो मे और कभी-कभी कीट, पतगे, कु थुए और चीटी आदि योनियो मे उत्पन्न होता है।
कर्म पुद्गल जड माने हैं और आत्मा चैतन्य स्वस्प | फिर जड और चेतन का सयोग और सम्बन्ध कैसे और क्यो?
योग भी नैमेत्तिक कारणजनदर्शन मे तीन योग माने गये हैं । "कायवाड मन कर्मयोग (तत्त्वार्थमूत्र) ये तीनो योग भी जड हैं । जिस प्रकार एक उद्योगपति की देख-रेख मे अनेकानेक नौकर-चाकर कार्य कर्म करते हैं। परन्तु लामालाभ का उत्तरदायिन्व सारा उम स्वामी के सिर पर ही मडता है। न कि-नौकर के सिर पर । उसी प्रकार आत्मानन्द इन तीन योग अनुचरो को अच्छे या बुरे कार्यों मे अहर्निश प्रेरित करता
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया कर्मप्रवान विश्व करि राखा | १८३
रहता है । तज्जनित आय-व्यय के रूप मे शुभाशुभ कर्मदलिक अभिवृद्धि पाता है । यह कर्म अम्वार आत्मा से सम्बन्धित रहता है न कि योगाश्रित । बस, यहाँ से ही राग-द्वप की जड पल्लवित-प्रसारित होती है। प्रिय वस्तु की प्राप्ति से राग और अप्रिय वस्तु की प्राप्ति से द्वेप का उद्भव होता है । और राग-द्वेप ही तो कर्म के वीज माने गये हैं-यया
रागो य दोसो वि य कम्मवीय, कम्म च मोहप्पभव वति । कम्म च जाई मरणस्स मूल, दुक्ख च जाई मरण वयति ।।
-उत्तरा० अ० ३२७ राग और द्वेप ये दोनो कर्म के बीज है । कर्म मोह से उत्पन्न होते हैं । कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही दुख है। 'सकवायत्वाज्जीव कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्ध ॥"
-तत्त्वार्थसूत्र ८।२-३ सूत्र इस प्रकार विभाव दशा के अन्तर्गत कवायी जीवात्मा कर्म के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करता है । वही बन्ध कहलाता है । तेल के चिकने घडे पर जैसे धूल चिपक कर जम जाती है वैसे ही राग-द्वेप रूप चिकनाहट से कर्म भी आत्मा के साथ ओत-प्रोत हो जाते हैं ।
जब कर्म पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किये जाने पर कर्म रूपी परिणाम को प्राप्त होते है। उसी समय उममे चार मशो का निर्माण होता है । वे अश ही वध के प्रकार हैं । जैसा कि-जव वकरीया गाय-भैंस द्वारा खाया हुआ घास दूध रूप मे परिणत होता है, तव उममे मधुरता का स्वभाव निमित होता है । वह स्वभाव अमुक समय तक उसी रूप मे टिक सके ऐसी काल-मर्यादा उसमे निर्मित होती है। मधुरता मे तीव्रता-मदता आदि विशेषताएँ भी होती है। और इस दूध का पौद्गलिक परिणाम भी साथ ही बनता है। इसी प्रकार जीव द्वारा ग्रहण किये पुद्गलो मे भी चार अशो का निर्माण होता है। प्रकृतिस्थिति अनुभाव और प्रदेश । कर्मपुद्गलो मे जो ज्ञान को, दर्शन को अथवा सुख-दुख देने आदि का स्त्रमाव बनता है स्वभाव बनने के साथ ही उममे अमुक समय तक च्युत न होने की मर्यादा हो काल मर्यादा है । वही स्थिति वध है । स्वभाव निर्माण के साथ ही उसमे तीव्रता-मदता आदि रूप मे फलानुभाव कराने वाली विशेषताएं बंधती है। ऐसी विशेपता ही अनुभाव वध है । ग्रहण किये जाने पर भिन्नभिन्न स्वभाव में परिणत होनेवाली कर्म पुद्गल राशि स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिणाम बॅट जाती है। यह प्रदेश बध है । प्रकृति और प्रदेश वध योगाश्रित और स्थिति व अनुभाव कपायाश्रित माने गये हैं।
यदि तीन योगो मे से किसी योग द्वारा कर्म नहीं होता हो तो फिर मुक्तात्मा कर्मों का बन्धन क्यों नहीं करती ? अतएव यही सिद्ध होता है कि वहाँ कर्म करने का जरिया अर्थात् योग आदि काय कारण भाव का अभाव है। इसलिये मुक्तात्मा अकर्मी और समारी आत्मा मकर्मी मानी गई है।
मुफ्त आत्मा नवीन कर्मों का बन्धन क्यो नही करती ? क्योंकि उसके पास पूर्व कर्मों का अर्यात् तीनो योगो का सद्भाव नहीं है ।
वहाँ प्रेरक का ही अभाव है। और प्रेरक के विना कारखाना एव म पुर्जे बेकार-क्रिया गन्य पडे रहते हैं । अत क्रिया के विना कर्म नहीं और कर्म के विना नवीन बन्धन नही। इस प्रकार आत्मा और कर्मों का रास्ता अनादि अनन्त सिद्ध है। जहां तक कोई भी आत्मा सयगी अवस्था युक्त
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१८४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
रहेगी, वहाँ तक ससार है और ससार है तो कर्म है और कर्म है तो ससार का सद्भाव है। क्योकिसमार और कर्मों का अन्योन्य सम्बध है ।
कम और साम्यवादयदि अमुक व्यक्ति अथवा अमुकवादी यह कहे कि मैं कर्मविपाक को नही मानता है। कर्म विपाक किस चिडिया का नाम है । मेरो डिक्सनरी मे है ही नही और न मैं मानता ही हैं । मानव यो भी कहते हैं कि --साम्यवादी शासक कर्म अर्थात् पुण्य-पाप जनित विपाक स्वीकार नहीं करते हुए भी धनी-निर्धनी को समान स्टेज पर लाने मे प्रयत्नशील है और उद्यम परिश्रम को ही प्रधान मानते हैं।
यदि ऐसी उनकी मान्यता है तो नि सदेह वे वादी मिथ्यारोग से ग्रसित बने हुए अज्ञान अटवी मे भटक रहे हैं । कर्म विपाक को नही मानते हैं तो फिर उनके शासन में एक सुखी तो एक दुखी, एक लूला तो एक लगडा क्यो ? एक महल-मोटर-कारो मे मौज कर रहा है तो दूसरा रोटीरुपयो के लिए दर-दर का दास क्यो? एक के भाग्य मे खान-पान-परिधान वढिया से वढिया उपलब्ध है तो दूसरे भाई के तकदीर मे वही लूखी-सूखी-वासी रोटी एव फटे-टटे वस्त्र। एक के रग-रूप-स्वर मे एव आचार-व्यवहार पर ससारी समूह मत्र मुग्ध वनकर सैकडो हजारो रुपये न्योछावर कर देते है तो दूसरे भाई के लिए वे मानव देना तो दूर रहा उसके वचन भी कानो से सुनना पसद नही करते हैं, वे अपनी फूटी आंखो से भी उसको देखना पसद नही करते हैं । इस प्रकार एक का नाम सुव्याति मे तो दूसरे का नाम कुख्याति मे ।
क्या उपरोक्त उतार-चढाव एव ऊंच-नीच का वैपम्य साम्यवादी, पूंजीवादी एव तटस्थवादी जनतत्रो मे नही है ? स्वीकार करना ही पडेगा । क्योकि इस प्रकार के व्यवधान को साम्यवादी तो क्या परतु इन्द्र भी मिटाने में असमर्थ माना गया है । भले कम्युनिज्म चद-चाँदी-सोने के टुकडो में जनता को एक समान कर दे। किन्तु शारीरिक-प्राकृतिक अन्तर को साम्यवादी कैसे मिटायेगे ? इस अन्तर को भ० महावीर ने शुभाशुभ कर्मविपाक सज्ञा से ससारी जीवो को सम्बोधित करते हुए कहा है
सुच्चिणा फम्मा सुच्चिणफला भवति । दुच्चिवणा कम्मा दुच्चिणफला भवति ।।
कर्म कर्ता के अनुगामीविश्व वाटिका मे जितने भी वाद, मत, पथ एव ग्रथ है वे सभी कर्म-विपाक की सत्ता से परित है। कर्म फिलोसफी को स्वीकार करना ही पडता है । हाँ, कोई किस रूप मे और कोई किस रूप में परन्तु कर्मसत्ता स्वीकार किये विना छुटकारा है कहाँ ? आगम मे कहा
"फत्तारमेव अणुजाई कम्म"
-उत्तरा० सू० अ० १३ गा० २३ जैसे छाया देहधारी के पीछे भागी आती है उसी तरह कर्म दलिक भी कर्ता के पीछे भागे आते हैं। भले ही वह आत्मा स्वर्ग-नरक अथवा और कही पर भी रहे । परन्तु परिपक्व उदयकाल आने पर कर्म उन्हें खोज निकालते हैं । क्योकि
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया कर्मप्रधान विश्वकरि राखा | १८५
स्वय कृत फर्म यदात्मना पुरा, फल तदीय लभते शुभाशुभम् । अर्थात् --कृत कर्म तो प्रत्येक को भोगने पडते है। भले करनेवाला दूसरो के लिए करे या अपने लिए परन्तु तज्जनित कर्म-कर्जा तो उस कर्ता को ही चुकाना पडता है।
किसी समय कई चोर चोरी करने जा रहे थे । उनमे एक सुथार भी शामिल हो गया था। चोर मभी एक धनाढ्य श्रीमत के यहाँ पहुँचे। वहां उन्होने सेध लगाते-लगाते दोबार मे काठ का एक पटिया दिखाई दिया । तव चोर बोले-वन्धु सुथार । अव तुम्हारी वारी है। पटिया काटना तुम्हारा काम है । सुधार पटिया कोटने लगा । अपनी कारीगरी दिखाने के लिए सैध के छेदो मे चारो ओर तीवे-तीखे कगुरे उसने बनाये और अतिलोभ वृत्ति के कारण वह खुद ही चोरी करने के लिए अन्दर घुसा । ज्यो ही उसने अन्दर पैर रखा, त्यो हो मकान मालिक ने उसके पैर पकड लिये।
मुथार चिल्लाया दौडो । दौडो । मुझे छुडाओ 1 मकान मालिक ने मेरे पैर पकड लिये है । यह सुनते ही चोर अपटे और सिर पकड कर खीचने लगे । सुथार विचारा वडे ही झमेले मे पड गया । भीतर और बाहर दोनो तरफ से जोरो की खीचातान होने लगी। वम, फिर क्या था? जैसे बीज उमने वोये वैसी फसल भी उसे ही काटनी पडी। उसके निज हाथो से बनाई हुई सैध के तीखे कगूरो ने हो उसके प्राणो का अत कर दिया। इसी लिए कहा है
"कत्तारमेव अणुजाइ कम्म" ।
विविध दर्शनों मे कर्मो की सत्ता :कर्मणा जायते जन्तु कर्मणव विपद्यते । सुख दुख भय क्षेम कर्मणैव विपद्यते ।।
-श्रीमद्भागवत स्कध १. अ० २४ __ कर्म से ही जीव, पैदा होता है और कर्म से ही मरता है। सुख-दुख-भय-क्षेम सभी कर्मजनित विपाक है । गीता में भी कहा है
न कर्तृत्व न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु ।
न कर्मफलसयोग स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ गीता अ० ५। १४ प्रभु न किसी के कर्तापने को उत्पन्न करता है, न किसी के कर्म को बनाता है और न किसी के कर्म का फल देता है।
वौद्ध दर्शन यद्यपि क्षणिकवादी है । क्षणिकवाद को मानकर चले तो नि सदेह कर्म विपाक की व्यवस्था बन नही सकती है । जैमे जिस क्षण मे जिस कर्ता ने जो शुभाशुभ कर्म किये हैं नजनित कम-विपाक भोक्ता के विषय मे भारी गडवडी पैदा होगी। चकि-करने वाला अब वह नही रहा । अव भोक्ता कौन ? किसी अन्य को मानेंगे तो निरी मूर्खता जाहिर होगी। और यह भी माना कि - कर्म विपाक दिये विना जाते भी नहीं है। वस्तुत आत्मा को एकान्त क्षणिक मानना सिद्धान्त विरुद्ध है। हो, पर्याय की दृष्टि से क्षणिक माना जाय किन्तु द्रव्य की दृष्टि से नही, फिर भी तथागत बुद्ध ने कर्मसत्ता को स्वीकार किया है। जैसे कि -
इत एकनवते कल्पे शक्त्या में पुरुषोहत । तत कर्मणो विपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षव ।।
-बौद्ध दर्शन
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१८६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
हे शिष्यो । इक्यानवे वर्ष पूर्व अर्थात् पूर्व भव मे मेरी आत्मा ने शक्तिपूर्वक एक पुरुप की घात की थी । तज्जनित कर्म-विपाक के कारण आज मेरे पैर मे काटा लगा है। भले ही यह हास्यास्पद वान हो किन्तु कर्म-विपाक मान लिया गया है।
पुगणो मे एक प्रसग चला है । एकदा 'धृतराष्ट्र काफी चितित थे। मेरे मौ पुत्र युद्ध मे मारे गये और मैं चक्षु विहीन । मैंने ऐसे कौन से निकृष्ट कर्म किये है जिससे आज मुझे अब बहाने पड़ रहे है । इतने में व्यान ऋपि ने कहा
राजन् । इसमे किसी को दोप नही है। खुद के किये हुए शुभाशुभ कर्म है । कमे ? सो सुनो।
पहले तुम्हारी आत्मा राजपद पर आसीन थी । तुम्हे सत्ता के मद मे परभव का कुछ भी डर नही था । तुम गये शिकार को । वहाँ हताश होकर एक धनी झाडी मे जाग लगा दी। उस झाडी मे एक सर्पनी ने सौ बच्चे दे रखे थे । विचारे सारे भस्म हो गये और सर्पनी मरी तो नही किन्तु अधी अवश्य हो गई।
राजन् ! उसी करनी का तुम्हे यह फल मिला है। इसमे शोक क्या करना ? इंसते हुए कर्ज चुकाना चाहिए सतोष धारण करो।
अवश्यमेव भोक्तव्य कृत कर्म शुभाशुभम् ।
नामुक्त क्षीयते कर्म कल्पकोटिशैतरपि ।। राजन् । अपने-अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल अपने को ही भोगना होता है। विना भोगे कर्मों का फल सैकडो-करोडो कल्प मे भी क्षय नही होता है।
हाँ तो जैन दर्शन मे कर्मों के अष्ट भेद माने हैं"आद्यो ज्ञानदर्शनावरण वेदनीय मोहनीयायुष्क नाम गोत्रान्तराया"
-तत्वार्थसूत्र अ० ८ सू० ५ अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्क, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म । इन कर्मों मे कितनेक शुभाशुभ और कितनेक एकान्त अशुभ माने गये हैं । शुभ कर्मों के प्रभाव से प्राणी ससारी सुखो को प्राप्त करता है और यदा, कदा, देव, गुरु, धर्म की प्राप्ति मे शुभ कर्म सहायक भी वनता है । अशुभ कर्मों की काली छाया से जीवात्मा नाना आधि-व्याधियो को भोगता है । मन मे आकुलव्याकुलता एव मस्तिष्क मे अशाति अस्थिरता का वातावरण बना रहता है। परन्तु मोक्ष के कारण न तो शुभ और न अशुभ हो है । क्योकि शुभ कर्म अर्थात् स्वर्ण वेडी और अशुभ कर्म अर्थात् लोह-वेडी सादृश्य माने हैं । अतएव "कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्ष " सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों का क्षय होने पर ही अयोगी अवस्था की उपलब्धि मानी है। और अयोगी अवस्था आते ही ऊर्वोन्मुखी यह आत्मा मोक्ष मे विराजित होती है । जहाँ जाने के वाद आत्मा को फिर ससार की गली-कु चो मे भटकना नही पडता है। क्योकि भटकाने वाले हैं - कर्म । पूर्णत उनकी यहाँ समाप्ति हो जाती है। आगम मे भी कहा है
जहा दह ढाण बीयाण ण जायति पुणकुरा । कम्म बीएसु दड् ढेसु ण जायति भवकुरा ।।
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया कर्मप्रधान विश्वकरि राखा | १८७ जैसे बीजो के जल जाने से पुन अकुर खडे नही होते हैं, उसी तरह कर्म वीज के दग्ध हो जाने मे भव (आवागमन) रूपी अकुर भी उत्पन्न नही होते हैं परन्तु सौगत दर्शन ने पुन आगमन माना है
ज्ञानिनो धर्मतीर्थस्य कर्तार परम पदम् । गत्वाऽऽगच्छति भूयोऽपि भवतीर्थनिकारत ॥
-बौद्ध दर्शन धर्म तीर्थ करने वाले ज्ञानी पुरुप परम (मोक्ष) पद को प्राप्त हो जाने पर जव तीर्थ (धर्म) की अवहेलना होती है, तव पुन वही आत्मा ससार अचल मे अवतरित होती है। इसी तरह गीता ग्रन्थ के निर्माताओ ने भी पुनरागमन माना है ।
ऐमी मान्यताएँ न्याय विरुद्ध जान पड़ती है। क्योकि समार परिभ्रमण के कारण भूत कर्मों का वहाँ अभाव है। इसलिए मुक्तात्माओ के लिए पुनरागमन का प्रश्न ही खडा नही होता है। भले ससार मे अत्याचार, अनाचार एव भ्रष्टाचार का बोलबाला रहे अथवा सुकृत का । परन्तु सिद्ध-बुद्ध आत्माओ का उनसे किंचत् मात्र भी सम्बन्ध सरोकार नही रहता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि उपरोक्त वचन छद्म पुरुषो के जान पड़ते हैं। तभी तो कलह-क्लेश-कोष स्वरूप ससार मे आने के लिये पुन भावना का दिग्दर्शन कराया है। परन्तु जैन-दर्शन सिद्धात्माओ के लिये पुनरागमन कदापि स्वीकार नहीं करता है। हां, सयोगवशात् यदा-कदा अधर्म का अत्यधिक प्रचार-प्रसार को रोकने के लिए धर्म-भास्कर को पुनः प्रदीप्त करने के लिये कोई महान् विभृति स्वर्गात् अवतरित अवश्य होती है, किन्तु मोक्ष प्रविष्ट आत्मा नहीं।
हाँ तो, प्रत्येक आत्मा को कर्म करना ही पडता है । चू कि कर्म-भूमि पर मानव का वास है, दूसरी बात यह है कि कर्म नहीं करेगा तो मानव विल्कुल प्रमादी-आलसी एव एय्यासी बन जायगा
और आलसी-एय्यामी वनना मानो पतन-अवनति को आमत्रण देना है । आज की आवाज भी है - "आराम हराम है" । और भगवान महावीर ने तो कई शताब्दियाँ पहले ही यह उद्घोपणा की थी-'समय गोयम मा पमायए" हे इन्द्रिय विजेता | एक समय का भी प्रमाद मतकर ।
परन्तु परिश्रम-प्रयत्न ऐसा हो, जिसके प्रभाव से आत्मा कर्म वन्धन से मुक्त, जन्म-मरण की चिर बीमारी का अन्त, राग-द्वेप की शृखला छिन्न-भिन्न होवे और गर्भावास मे आना रुके । ऐसे कर्म जप और तप से उद्भूत होते हैं-'तपसा निर्जरा च" शुद्ध श्रद्धा एव भावपूर्वक तप की आराधना करने से जैसे शुष्क एव नीरसपत्र सर-सर करते हुए वृक्षो से नीचे गिर पड़ते हैं, उसी प्रकार तप रूपी पतझड की अजस्र थपेडो से आत्मरूपी कल्पवृक्ष के लगे हुए सडे गले एव जीर्ण-शीर्ण कर्म पत्र नप्ट होकर मिथ्या धरातल पर आ गिरते हैं ।
अतएव प्रत्येक आत्माओ को चाहिये कि वे शुभ (पुण्य) अशुभ (पाप) एव शुद्ध (निर्जरा) इन तीनो के समीचीन स्वरूपो को समझने के लिए जैनदर्शनो का अध्ययन-अध्यापन करे । तत्पश्चात् सुखी जीवन के लिए अशुभ-कर्म, जो कि हेय है, उसे छोडे और शुभ कर्म को ज्ञेय समझकर शुद्धकर्म की ओर कदम बढावे ताकि आत्मा प्रशस्त पथ की ओर अग्रसर होती हुई मोक्ष के मन्निकट पहुँचे ।
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आचार और विचार-पक्ष
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शुभ और अशुभ प्रवृत्तिशुभाशुभ मानसिक प्रति विशेष को दागनिक जगत ने पुष्य और पाग तत्त्य कहार विस्तृत मीमामा प्रस्तुत की है । दोनो तत्त्व देहधारी को अच्छी या बुगे मनोवृत्ति पर फनते-फनते है। स्वभाव की दृष्टि से तत्त्वो में पर्याप्त अन्तर पाया जाता है। शुभ प्रवृत्ति करने समर मनुष्य को अपग्य कष्टानुभव होता है। किन्तु ऐहिक सुख-सुविधा में कर्मा का जीवनाद्यान धीरे-धीरे नि मदह मर जाता है । यदाकदा धर्म का द्वार भी हाथ लग जाता है ।
__ जवकि अविवेक एव अनानतापूर्वक आचरित प्रवृत्तियां कर्ता को जरित कर जम्जोर देती है। प्रारभिक तौर पर चद क्षणो के लिये भले वह अपनी थोबी सफलना या ढोल पीटा करें परन्तु पापमय तो परते सुनने पर सचमुच ही उसको आँसू बहाने ही पड़ते हैं । मास्टीय उद्याप यही मत कर रहा है । "पड ति नरए घोरे, जे नरा पावकारिणो।"
परिश्रम भाग्य की कु जीमम्यक् परिश्रम मानव के लिए नहीं, अपितु प्रत्येक जीव-जन्तु के लिए गफलता की मही दिशा मानी गई है। क्योकि-परिश्रम के बलबूते पर ही महा मनस्बियो ने अपने मन्तंगत-कदग मे स्थित चिर अभीष्ट माध्य को पाया है । जीवन अभ्युदर के शिखर पर पहुंचने मे मम्यक् परिश्रम की पूर्ण सहायता रही है । इसलिए कहा है -"उद्यमेन हि सिध्यन्ति ।"
मफल परिश्रमिक के तौर पर हस्तगत हुई महा मूत्यवान उम उपलब्धि की हर तरह से सुरक्षा करना, करवाना उम कर्ता का परमोपरि कर्तव्य माना है । यदि दुर्लभ-दुप्प्राप्य उन निधि-सिद्वि को वह प्रमाद वश व्यर्थ ही खो दे अथवा अज्ञान असावधानी के कारण चन्द टुकडो के बदले बेच दें यह बहुत वडी मूर्खता आकी गई है।
जैसा सग वैसा रग - जीवन का सुधार व बिगाड मानव के हाथो मे रहा है । मानव चाहे तो कुष्ट ही क्षणो मे जीवन का अध पतन एव सुन्दरतम निर्माण भी कर मकता है । सुनिर्माण के लिये मज्जन नगति, सुमाहित्य पठन एव सुशिक्षा आदि आवश्यक कारण माने हैं । फलस्वल्य जीवन सुगुण सौरभ से ओत-प्रोत हो जाता है और अन्तत देहधारी के लिए वह प्रेरणा प्रदीप के समान बन जाता है।
कुमगति कुनाहित्य शिक्षा का अभ्यास एवं अनुशासन की कमी के कारण जीवन का विगाड अवश्य माना गया है। जिसमे भी दुर्जन-विचार धारा नर-नारी पर शीघ्र प्रभाव जमा लेती है। यहाँ तक कि ---जीवन को नष्ट व भिखारी एव व्यसनी वनाकर ही दम लेती है। इसलिए कहा है- 'दुर्जनो परिहर्तव्यो, विद्ययालकृतोऽपि सन् ।"
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया आचार और विचार-पक्ष | १८६
विभाव और स्वभाव मोहानन्दी जब आत्मसाधना को हेय मानकर भोग-परिभोग मे मकडी की भांति उलझ जाता है । तव द्रव्य चेतना-जागरण उसका प्रक्रिया करता हुआ अवश्य दिखाइ देता है। तथापि महा-मनस्वियो की निर्मल दृष्टि मे वह जागरण जीवन का मगल प्रभात नहीं माना है । अपितु विभाव (सुप्त) अवस्था मानी गई है।
उन्हीं माधनो को सत-जीवन विपवत् मानना है । इसलिए कहा है-"तस्या जागति सयमी" अर्थात् विलासिता की चकाचौंध से सदैव सत-जीवन सावधान रहता है। व्यावहारिक दृष्टि में भले वह शका-शील स्थान पर बैठा है अथवा वह सो रहा या खा पी रहा है । तथापि उसकी अन्तरात्मा आत्मभाव में जागृत व हिताहित के विवेक से ओत-प्रोत बन चुकी है। ऐसी प्रबुद्ध आत्माओ का आन्त्रव (पाप) स्थान पर भी मकना हितकारी माना है।
अन्तर्जीवन का थर्मामीटर-- भावना भावना मानव व पशु-पक्षी के अन्तर्जीवन का एक प्रतिबिम्ब है या भावना एक पकार का जीवन सम्वन्धित नापदण्ट (थर्मामीटर) है जो समय-समय पर मानव-मन कन्दरा मे उभरी हुई वृद्धि हानि का स्पष्टत हमे नान कराता है। जैसा कि -"भावना भवनाशिनी" और "भावना भवद्धिनी।" अर्थात्-~-अन्तर्मुहूर्त के अन्तर्गत यह जीवात्मा कर्म विजेता बन जाता है और उतने काल मे नष्ट होकर मातवी नरक का मेहमान भी । इम दुहरी स्थिति मे शुभाशुभ भावना ही कार्य करती है ।
भावना अर्थात् एक प्रकार के उर्वरा मानस-स्थली की उद्गार, विचार व लेश्या । मज्ञी जीवो मे भावना का सम्बन्ध निकटतम रहा है । वे उद्गार शुभाशुभ और शुद्ध होते हैं । जिसमे केवल आत्म चितन हो, वह शुद्ध ठेट-पेट का गुम और केवल इन्द्रिय सम्बन्धित मलिन चितन हो वह एकान्त अशुभ चितन माना गया है । अतएव विचारे जो मन पर्याप्ति विहीन है, जैसे--कृमि-पिपीलिका व भ्रमर आदि मर्वोत्तम भावना मे हीन रहे हैं । किन्तु मानव व मनी पचेन्द्रिय प्राणी भावना के वल-बूते पर अपने भाग्य उन्मेप को तेजम्ची यशस्वी बना सकते हैं।
क्षुद्र और गम्भीर जीवन जीवन का एक प्रकार-जो क्षुद्र नदी की तरह जीता है । स्वल्प वैभव पाकर उन्मत्त व फूल जाता है । यदा-कदा मर्यादा को नोड भी डालता है व बुरी-भली कमी भी वात को पचा नहीं पाता, किंतु तिल का ताड बनाकर वातावरण को विपाक्त अवश्य बना देता है । ऐसा निकृष्ट जीवन समाज वाटिका मे आदरणीय नही, अपितु निंदनीय माना है। चूंकि वदहजमी के कारण वरसाती मेंढक-जीवन की तरह टर-टर किया करता है।
जीवन का दूसरा प्रकार-जो गभीर धीर सागरवत् जीता है । असीम वैभव के प्राप्त होने पर भी गर्वित न होकर विनम्र बना रहता है। इष्ट-अनिष्ट प्रसग मामने आने पर भी झलकता नहीं है। आपतु अन्य की कमजोरियो को सुधारने में, उनको ऊँचा उठाने मे उसके वास्तविक गुणो को विकसित करने-कराने में प्रयत्नशील रहता है ।
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि जौक नामक जन्तु देहधारी के विकृत रक्त को पीया करता है । क्योकि उस जन्तु का स्वभाव
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१६० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ सदैव गन्दी एव सडी-गली वस्तु का ग्राहक रहा है । उसी प्रकार एक समूह मानव का वह है-जो अन्याय व दुर्गुण स्पी गदगी को देखा करता व मिथ्यालोचना करके अपना सतुलन गुमा बंटना है, । उनकी दृष्टि मे सभी दुर्गुणी पाखण्ड व चार सौ बीम जान पटते है। ऐसे हीन प्रकृति ने नर-नारी तिगार के पास वनते हैं।
गाय के वण्डे का स्वभाव सदैव स्तनो मे ने दुग्ध-गान करने का है। उसी प्रकार मानव का एक समूह वह है- जो निश-दिन अन्यो के गुणो की ओर दया करते व तम्प गुद जीने का रंग नैयार कर लेते हैं । ऐसे गुण-ग्राही मानव सर्वत्र आदर के पात्र बनते हैं।
अपूर्ण मोर पूर्ण कूप-मण्डूक की तरह यदि कोई मुमुक्ष अपने विदु महण्य ज्ञान निधि पो गिन्नु नमान अनीम मान कर गर्वोन्मत्त हो जाना व अन्य दाशनिको को अपने आगे कुछ नही नमना ! नि मन्देह स्वयं को गुमराह करना व खुद को नवीन विकास प्रकाश से व चित रखना है । क्योकि अल्पनना एव बह भावावेश मे वह तुच्छ साधना को सर्वोपरि साधना मान वैठना है, ऐमा मानना अपूर्णता का प्रतीक है।
___इसलिए कहा है---"सम्पूर्णकुम्भो न फगेति गर्वम्" अर्थात् माधक को जब नरम-पन्म नाध्य की उपलब्धि हो जाती है । तब वह समस्त छद्मो से परे हो जाता है, तब वह विश्व बन्दनीय बन जाता है। उन्ही के बताये पथ के पथिक भी वास्तविक आनन्द को पाते हैं।
सम्यक् तराजू के दो पलड़े भौतिक सुख, समृद्धि की दृष्टि से देव यद्यपि मानव मे असीम गुणाधिक माने गये है ? जिन प्रकार सिंधु के मामने विदु का अस्तित्व नहीं के बनवर ही माना गया है । उसी प्रकार दैविक वैभव सिंधु सदृश्य और मानवीय-सम्पदा कुशाग्र भाग पर न्धित उस नन्ही वूद के समान आको गई है। जैसा कि
"जहा कुसग्गे उदग समुदेण सम मिणे । एव माणस्सग्गा कामा देव कामाण अतिए' ।।
इतने पर भी महामनीपियो ने दैनिक जीवन के गुण कीर्तन नहीं किये । किन्तु मृण्मय देहदानी चैतन्य को मभी दार्शनिको ने सर्वोत्तम मानकर गुण गाये हैं।'
__ कारण स्पष्ट है कि देव के पास दृष्टि है, सृष्टि नही, कर्म है धर्म नही, मत्र है तम नहीं, विलास है तो जीवन मे विकास-प्रकाश का अभाव है, और आहार विहार है तो वहां सदाचार नहीं। इन्ही कारणो से देव-जीवन केवल भौतिक सुखो का भोक्ता मात्र है । और मानव भौनिक सुखो का मोक्ता होने के वावजूद भी उसके पास मानव से महामानव बनने की सामगी मर्व मौजूद है । इस कारण समय पर मानव देव पर भी विजय पा लेता है।
दीधि पण लागी नहीं सदैव वटे-बुजुर्ग, अनुभवियो की बाते एव सलाह-शिक्षा, सामने वाले नर-नारी के भावी जीवन के लिये उसी तरह वरदान स्वरूप आदरणीय, सम्माननीय, सुखद मानी है, जिस तरह शुप्या रेगिस्तान मे वरसा हुआ पानी का एक कण-कण । चाहिए-उनके प्रति श्रद्धा-विश्वास एव उपयोग का सही तरीका । श्रद्धा के अभाव में एव गल्त तरीके के कारण दी गई अमून्य-अमूल्य शिक्षा भी निरर्थक साबित हो जाया करती है। इसलिए कहा है
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया आचार और विचार-पक्ष | १६१ मात-पिता, गुरु की शुभ वाणी, विना विचार करिये शुभजाणी ॥ किन्तु ऐसा होता कम ही है । इस कारण मानव का जीवन राह वीच मे भटक जाता है । अन्ततोगत्वा जीवन का बहुत वडा अहितकर सदा-सदा के लिए अस्त से हो जाते हैं ।
साधक और सैनिक साधक एव सुभट, दोनो मघर्पजीवी रहे है । कार्य क्षेत्र दोना का भले विभिन्नता को लिए हुए क्यो न हो, तथानि तुलनात्मक दृष्टिकोण से दोनो मे काफी समानता पाई जाती है। सुभट अपने दृष्टिकोण में प्रतिद्वन्द्वी दल को परास्त करने मे शस्त्रास्त्रो से लेश व आठो पहर सावधान चौकन्ना रहता है । वस्तुत रणक्षेत्र मे शत्रुदल के छक्के छुडाने मे सफल भी हो जाता है क्योकि शत्र -उपकरणो से लैस जो रहा ।
सत भी राग-द्वप, मोह-माया, रूप शत्रु ओ पर विजय पाने के लिये सदैव सघर्परत रहता हुआ सावधान रहता है । यद्यपि सुभट की भांति सत के पास तलवार पिस्तौल-वम आदि शस्त्र नही होते हैं । तथापि मुनि को अजेय शस्त्रधारी माना है । यथा -
जप शस्त्र तप शस्त्र शस्त्र इन्द्रियनिग्रह ।
सर्वभूत दया शस्त्र पर शस्त्र क्षमा भवेत् ॥ __ अर्थात्-जिनके वलबूते पर सत दुर्जय मोह योद्धा को परास्त कर चिरस्थायी विजय पाता है वे शास्त्र ये ही है।
जैसा वीज वैसा फल निष्ठा एव विश्वास पूर्वक कृपक एक बीज को प्रकृति की कमनीय-रमणीय घवल-धरा पर विखेर देता है । ठीक समय पर प्रकृति स्वीकृत उस दाने को अपने उदर मे जमा कर रखती नही है, अपितु उदारता पूर्वक कई गुणा ज्यादा बनाकर किसान की खाली गोद को केवल धान्य से ही नही, मोद से भी भर देती है । अपरिवर्तित प्रकृति का यह नियम सर्व जनता को विदित है।
देहधारी मानव को भी किसान की उपमा से उपमित किया जा सकता है। मानव भी मृत्युलोक की पवित्र भूमि पर विस्तृत पैमाने पर सुकृत की खेती उपार्जन करता है। फलस्वरूप भविष्य मे विविध सुत्रानुभूतियो की उपलब्धि होती है । इसलिए कहा है। "करणी का फल जानना, कबहु न निष्फल जाय" । अर्थात्-कृत-सुकर्म कदापि निष्फल नही जाते हैं । क्योकि - सुकृत का वीज न कभी सुलता, गलता एव न कभी बिगडता है । भले कर्ता किसी भी वेश-भूपा मे क्यो न हो, वह उसे ढूँढ लेता है और कर्ता को मालोमाल करके ही विश्राम लेता है । इसलिए कहा है-सुचिण्णा कम्मा, सुचिण्णा फला हवति" अर्थात् अच्छे कर्म के अच्छे फल होते हैं ।
शब्दो का चमत्कार तत्काल शब्दो मे चमत्कार परिलक्षित होता है । मधुर शब्दावली के प्रभाव मे दुश्मन एव इतर जीव जन्तु वश मे होते देर नही करते है । अतएव कहा है-"अमत्रमक्षरो नास्ति' अर्थात् वर्णमाला का एक ही अक्षर मत्र रहित नहीं है। अक्षरो मे अपरिमित शक्ति का भण्डार निहित है, और उटपटाग तरीको से अक्षरों का प्रयोग करने पर वातो की वात मे महाभारत भी छिड जाता एव विपाक्त वातावरण बन जाता है।
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१९२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
देखिए---द्रापदी की कटु वचनावली ने कैसा चमत्कार दिखाया। भोज की ज्ञान-गभित गिरा ने लोभान्ध मुज के मानम-स्थली को किस तरह बदली। बिहारी कवि की चमत्कारी कविता द्वारा विकारान्ध राजा मानसिंह अति जत्दी सभल जाते है । उसी प्रकार नाथ शब्द ने ऐश-आरामी शालिभद्र को साधना के मार्ग पर आसीन कर ही दिया ।
ससार बनाम नाट्यशाला नाट्यगाला के मन मोहक पर्दो पर एक्टरगण पल पल मे कमी राजा रक तो कभी सेठ-चोर कभी भिखारी-व्यापारी इस प्रकार विविध वेश-भूपा मे स्वॉग बनाकर दर्शको के मन-मयूर व नयनो को रिझाने का भरसक प्रयत्न करते है । वस्तुत खेल के अन्तर्गत कभी लाभ, कभी हानि का दृश्य भी उपस्थित हो जाता है। तो भी उन खिलाडियो को न हर्प और न शोक होता है। क्योकि उन्हे ज्ञात है कि-ये मभी स्वाँग केवल मनोरजन मात्र एक एक स्वप्न सदृश हैं।
उमी प्रकार चतुर्गति ससार भी एक विस्तृत नाट्यशाला का सागोपाग रूपक है जिसमे प्रतिपल प्रत्येक प्राणी नाना आकार के रूप में जन्म ले रहा है। गेंद की तरह इत-उत धक्का खाया करता है । ये सारी क्रिया प्राणी से सम्बन्धित कर्म वर्गना पर आधारित है। इसका कारण एक-एक जीव के माथ अगणित नाते हो चुके है । जैसा कि-'जणणी जयइ जाया, जाया माग पिया य पुत्तोय' रहस्यमय समार का रहस्योद्घाटन केवल सर्वज्ञ ही कर पाते हैं । अविकसित वुद्धिजीवी की शक्ति के वाहर का विषय है।
स्वार्थ और परमार्थ एक वारा वह है जो अन्य के वढते हुए जन-धन रूपी वैभव को अपनी आखो से देख नही पाते है । अन्य के अस्तित्व पर वत्ती लग जाय । अर्थात् वे आपत्ति को भोगते रहे और मैं धन-जन से तरबूज की तरह फलता-फूलता रहूँ तब मुझे अपरिमित मुखानुभूति होवे । "मैंने पीया मेरे घोडे ने पीया अव कुआ भाड मे जाय ।' यह स्वार्थ भरी उसके जीवन की दुर्गन्ध है।
दूसरी धारा इससे विपरीत है । मैं वैभव मे वढ रहा हूँ, तो मेरा साथी भी क्यो पीछे रहे ? मैं मुस्करा रहा हूँ, तो अन्य भी खुशहाल रहे, मैने पेटभर खाया तो मेरा पडौमी भी भूखा न रहे। स्वय जिन्दा हूँ इसी प्रकार सभी जीव जन्तु चैन पूर्वक जिंदगी वितावे। ऐसा जीवन सृष्टि का शृगार आधार और हार अहिंसा का अवतार माना है। चूंकि तारक एव रक्षक जीवन के यशोगान गाये गये हैं।
सत्ता का अजीर्ण हे क्षुद्र नदी | तेरा जोश तीन दिन के बाद उतर जायेगा। किन्तु तूने अपनी मस्ती के मद मे विनाश लीला को जो ताण्डव उपस्थित किया है वह कई वर्षों तक मानवीय मन-मस्तिष्क से हटेगा नहा । मानव जव तेरे निकट आयेंगे, तव-तब उस कहानी को दुहरायेंगे कि यह नदी अमुक वर्ष में आई थी। उसमे हमारे गाँव-घरो की सारी-सम्पत्ति व जन-जीवन की भारी हानि हुई थी।
क्षुद्र नदी की भाति एक एक मानव अधिकार मद मे फूल कर कुप्पा हो जाता है। पर पीछे पागल बनकर देश समाज को अध पतन के गर्त मे धकेल देता है। तथापि अक्ल के अधे को वास्तविक स्थिति का भान नही होता है । ऐसे निष्ठुर नेता को भावी युग-निर्माता न मानकर विवेकभ्रप्ट के नाम से इतिहास पुकारता है।
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तृतीय खण्ड ' प्रवचन पखुडिया आचार और विचार-पक्ष ] १६३
भोगी और योगी पार्थिव देह, इन्द्रिय व प्राण साधक जीवन के लिये परम सहयोगी रहे है। अत इन तत्वो की -सुरक्षा के लिये खान-पान, सुख-सुविधा आशिक रूप में जरूरी है। किन्तु तत् सम्बन्धी विपय-वासना मे ध्येय को विसरा देना साधु स्वभाव नही, पशु स्वभाव माना गया है । ऐसे भोगी भक्तो की दशा वृक्ष के टूट जाने पर ऊपर बैठे हुए उस बन्दर जैसी होती है जो विचारा रसातल की खाड मे जा गिरता है । आसक्त नर-नारी भी दुर्गति की ओर ही वढते है । कहा भी है-भोगी भमई ससारे ।'
जो कचन-कामिनी सम्मुख आने पर भी भोग्य न मानकर त्याज्य मानता है उस मुमुक्षु को सँवर-सुधा का मधुकर व उस पक्षी की तरह प्रशस्त अभिव्यक्त किया है -जो वृक्ष के नष्ट हो जाने पर भी वह पक्षी नीचे नही गिरता, अपितु निर्ममत्व होकर अनन्त आकाश की ओर उडाने भर लेता है। ऐसे मजुल जीवन को त्यागी-वैरागी कहा है । जो भोग की कटीली अटवी मे गुमराह न होकर साधना के विशद मार्ग मे अनासक्ति रूप प्राणवायु (ऑक्सीजन) का सवल लेकर आगे बढता है कहा भी हैअभोगी नोव लिप्पई।
कृपणवृत्ति और दानवत्ति 'कृपणता' मानव का स्वभाव नही, अपितु ममत्वपूर्ण एक वृत्ति है। इसके वशवर्ती बना हुआ नर-नारी न वढिया खाता और न खिलाने मे खुश होता है। वह उस खड्डे के मानिंद है जहा दवादव सग्रहित जलराशि धीरे-धीरे सड-गल कर मलीन बन जाती है । वस्तुत सग्रहकर्ता व सग्रहित वस्तु दोनो अपने आदर्श अस्तित्व को गुमा बैठते हैं और दुनियां की दृष्टि मे दोनो सदा-सदा के लिये मर मिटते है ।
___ 'दान क्रिया' भी एक वृत्ति है। इस वृत्ति का धारक खुद भले न खाता हो, किन्तु अन्य को खिलाने मे सदैव तत्पर रहता है । 'शत हस्त समाहर, सहल हस्तसकिर ।' अर्थात् वह सैकडो हाथो से वटोरना, संग्रह करना जानता है तो हजारो हाथो से समाज, सघ, राष्ट्र को देना भी जानता है, अत दानी को वादलो की उपमा से उपमित किया गया है।
अरिहंतं शरण रसातल मे डूबते हुए पामर प्राणियो के लिये धन-धरती-धान्य व तात-मात आदि स्वजन, परिजन कोई भी सक्षम शरण दाता नही है । चूकि जड वस्तु नश्वर व क्षण भगुर धर्मवाली है । जो पल-पल मे परिवर्तनशील रही है वह देहधारी के शरण की सदैव अपेक्षा रखती है। अत उनमे वह देहधारी कहाँ जो देहधारी को निर्भय बना सके ? अव रहा सवाल तात-मात आदि का-ये कुछ काल के लिये शरण दाता है। किन्तु आक्रामक काल के समक्ष शक्तिहीन वनकर हाथ मल-मल के रह जाते हैं।
आधि-व्याधि-उपाधि त्रय तापो से मुक्त कराने मे व निर्भयता-अमरता के प्रदाता अग्हित प्रभु की शरण है । जो भवोदधि मे गोते खानेवालो के लिए महान् द्वीप के समान आश्रय-भूत है। क्रूर काल को परास्त करने मे राम-वाण औपधि व मृत्युञ्जय जडी-बूटी है। यथा-'सर्वापदामतकर निरन्त सर्वोदय तीर्थमिदम तवैव ।' अर्थात्-प्रभु आपका यह तीर्थ सर्वोदय तीर्य है जिसमे अनन्त आत्माओ के सर्वोदय का हित चिंतन रूप पवित्र पीयूष पूरित है।
मित्र के प्रकार साफ-स्वच्छ जलराशि से पूरित सरोवर के पास हस पक्तियाँ मडराया करती है । किंतु जलकण
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१९४ । मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य सूख जाने के वाद स्वार्थी म टोली प्रगाढ अनुराग को ठोकर मारकर अन्यत्र विहार कर जाती है। उसी प्रकार एक नाता (सम्वन्ध) हम जैसा होता है । जहाँ तक वैभव का अथाह मागर लहलहाता है, वहाँ तक वे नाती-गोती हम पक्षी की तरह आम-पास मंडराते हैं, गुनछरे-रसगुल्ले उडाते है और वैभव-बाटिका उजडी कि वे मम्बन्धी उसने मुंह मोड लेते हैं। ऐसे म्वार्थी सम्बन्धियो के लिये निम्न शब्द युक्तियुक्त हैं- "काम पड़ियाँ जो लेवे टाला, उसी मगा का मुटा काला।"
कमल सदृश जो सगे होते है वे वैभव के मदभाव में व अभाव मे माय छोडकर अन्यत्र भागने नहीं है। बल्कि उभरी हुई उस परिस्थिति का डटकर व कन्धे से कन्धा मिलाकर मामना करते हैं। सफलता न मिलने पर मित्र के माथ-माथ निज प्राणो की भी आहुति दे डालते हैं। ऐमे सगो (मित्रो) के लिए कहा है-"काम पडियां जो आवे आडा, उसी सगा का करिये लाडा।"
मुनि और मणि सभी पथ एक स्वर से कहते है कि पारसमणि के मग-स्पर्श से लोहा स्वर्ण की पर्याय मे परिणित हा जाता है। हो सकता है यह प्रचलित वान बिल्कुल सही भी हो, किंतु यह कोई खास विशेषता नही मानी जाती है। क्योकि-लोहा पहले भी जड और स्वर्ण वनने के बाद भी जड ही रहा । लेकिन पारसमणि उमे पारन नहीं बना सकी।
भूले-भटके को मही मार्ग दर्शक, पापी जीवन को पावन, पूजनीक व आत्मा से परमात्मा पद तक पहुंचाने का सर्व श्रेय सत (मुनि) जीवन को है । जिनकी निर्मल-विशुद्ध उपदेण धारा ने समय-समय पर उन राहगीरो को चरम परम माध्य तक पहुंचाया है । कहा भी है -
पारसमणि अरु सत मे मोटो आतरो जान । वह लोह को कचन करे वह करे आप समान ।।
श्रद्धा का सम्बल सयमी जीवन का पतन दर्शन मोहनीय कर्मोदय से माना है। जिस प्रकार धवल-विमल दूध के अस्तित्व को मटियामेट करने में खार-नमक का एक नन्हा-सा कण पर्याप्त माना गया है। तद्वत् सयनी जीवन में अग्रद्धाल्पी लवण का जव मित्रण हुआ कि-वर्षों की माधी गई साधना रूपी सुधा कुछ ही क्षणो मे नष्ट हो जाती है और वह साधक न मालूम किम गनि के गर्त मे जा गिरता है। कहा है-अश्रद्धा हलाहलविषम् ।" अतएव आत्मयोगी सावको को साधना के प्रति सर्वथा नि शकित-निकाक्षित रहना चाहिए।
श्रद्धा आध्यात्मिक जीवन की प्रशस्त भूमिका मानी गई है। जब साधक स्पी कृपक स्वस्थमाघना का वीज उस मुलायम भूमि मे उचित मान पर वपन करता है तव धर्म रूपी कल्पवृक्ष जो सम्यज्ञान, दर्शन, चारित्रल्पी शाखा-विशाखाओ से क्षमा, मार्दव, मुक्ति, तप, सयम, सत्य शौच अकिंचनत्व ब्रह्मचर्य आदि विविध फूल मकरद से और मोक्षरूपी मधुफल मे उस सावक का मनोरम जीवनोद्यान नदा-मदा के लिए धन्य हो उठता है। इसलिए कहा है ---"श्रद्धामृत सदा पेय भवक्लेश विनाशाय।"
जिसने दिया, उसने लिया अभी अर्य युग का वोलवाला है, ऐसे तो प्रत्येक युग मे अर्थ की महती आवश्यकता रही है। अन्तर इतना ही रहा कि-उन युग के नर-नारी अर्थ (धन) को केवल साधन मात्र मानकर चलते थे
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तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया आचार और विचार-पक्ष , १६५
और आज के नर-नारी अर्थ को साध्य मानकर उसके प्रति प्रगाढ आसक्ति भाव रखे हुए प्रतीत होते हैं। वस्तुत उसके लिए मानव कई तरह के हथकडे व देवी-देवताओ की मनौतियां भी करता है। तथापि अर्य प्राप्ति मे सफल नही होते क्योकि अपनाया हुआ तरीका विल्कुल गल्त एव भटकाने वाला है।
माना कि प्रत्येक वस्तु पाने के सही तौर-तरीके हुआ करते है । सही राह के बिना कोई भी कदापि अपने इष्ट को प्राप्त नही कर सकता है । धन-वृद्धि का भी एक तरीका है - मत्याचरण, धर्माराधना एव पुण्य-सुकृत आदि लक्ष्मो पाने का राजमार्ग है। सचमुच ही उपर्युक्त तरीको का उपयोग करने पर कालान्तर मे लक्ष्मी उम कर्ता की दासी वनकर रहती है। न कि पूजा-प्रतिप्टा व लक्ष्मी की माला मनौती से । जैसा कि - लक्ष्मी उवाच - "पुण्येनैव भवाम्यहस्थिरतरा युक्त हि तस्य जनम्' अर्थात् मानव ! मैं (लक्ष्मो) पुण्य से ही स्थिर रहती हैं। इसलिए मुझे प्रसन्न रखना चाहते हो तो सुकृत का उपार्जन करो।
बुद्धि का प्रखर तेज वुद्धिविहीन पार्थिव देह का मोटापन, गौरापन और रूप लावण्य की रोनक मानव के अभीष्ट सिद्धि मे महायक नही वाधक माने हैं । इसलिए कि - स्वेच्छा से इधर-उधर वह जा आ नही सकता है, देह को वढती हुई स्थूलता दिनो-दिन उम मानव को खतरे के निकट पहुंचाती और दासी-दास एव कुटुम्वी जनो के पाश मे पराधीन होकर रहना पड़ता है। जैसा कि "हस्ती स्थूल तनु स चाकुशवश. कि हस्तिमात्रोंऽफुश.।"
___ इसलिए कहा है-भले काया कुबडी, दुवली एव कुरुपा क्यो न हो, किन्तु उस देहधारी की गुद्धि विलक्षण कार्य करने मे सुक्ष्म है । उलझी, विगडी गुत्थी को सुलझाने मे, नारकीय जीवन मे स्वर्गीय मुपमा निर्मित करने मे, एव उप-क्लेप दावानल के वीच प्रेम पयोदधि बहाने मे निपुण है। ऐसे प्रबुद्ध नर एव सृष्टि के देवता माने गये हैं। कहा भी है - "तेजो यस्य विराजते स बलवान स्थूलेषु क प्रत्यय ।" अर्थात् जिसमे बुद्धि का प्रखर तेज विद्यमान है वह शक्ति सम्पन्न माना गया है ।
मन का भिखारी एक मानव वह है - जिमके पास पेट भरने को पूरा अन्न नही, तन ढकने को पूरे वस्त्र नही, सर्दी-गर्मी, दर्पा से बचने के लिए भव्य-भवन तो क्या किन्तु टूटी-टपरी भी नहीं। जो सदैव अनाथ की तरह फुटपाथ या बाग-बगीचो व धर्मशालाओ मे पडे रहते हैं। भूख लगी तो मांग खाया और प्यास लगी तो नल का पानी पी लिया। रोना आया तो अकेले ही रो लिया और हँसी आई तो अकेले ही हँस लिया । जिमका न कोई परिवार, घर, गाँव और न कोई समाज-सहायक है। ऊपर आकाश और पैरो तले जमीन ही जिसके आधार भूत है । आज का बुद्धिजीवी मानव उपर्युक्त दयनीय दशा वाले मानव को भिखारी की सजा प्रदान करता है।
वस्तुत विशाल दृष्टिकोण से मोचा जाय तो नि सदेह उपर्युक्त सामगी से विहीन मानव कदापि भिखारी नहीं । भिखारी तो वह है जिसके पास लाखो करोडो की सपत्ति जमा है, गगनचुम्बी अट्टालिकाओ मे मौज उडा रहे हैं। फिर भी शुभ कर्मों में उस लक्ष्मी का उपयोग करना तो दूर रहा, परन्तु पैसे-पैसे के लिए हाय-हाय करते, एव गली-गली मे धक्के खाते हैं। ऐसे मानव लाखो-करोडो के स्वामी होते हुए भी दरअसल दिल के दरिद्री एव मन के भिखारी माने गये है।
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A धर्म का निवास-शास्त्रो, ग्रथो और मदिर एवं उपाश्रयो
मे नही, किंतु मनुष्य की आत्मा मे है। पवित्र और सरल
आत्मा मे ही धर्म निवास करता है। - दर्शन का अर्थ-तर्क-वितर्क तथा जड-चेतन की गहरी चर्चा
करना मात्र नही, वस्तुतत्व का दर्शन करना, दर्शन का स्थूल प्रयोजन है। आत्मतत्व का दर्शन अर्थात् अन्तर दर्शन
करना है ही-सच्चा दर्शन है। A सस्कृति-बाह्य वेप-भूषा, परिधान, व्यवहार और वोल
चाल मे नही, किंतु मनुष्य के सभ्य, सुसस्कृत और परिष्कृत विचार तथा तदनुकूल निश्छल व्यवहार मे टपकती है ।
-प्रताप मुनि
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विश्वज्योति भगवान महावीर का त्रिपृष्ठभव : एक विश्लेषण
-रमेश मुनि शास्त्री
जन-दर्शन की विचार-सरणि का मूलाधार आस्तिकता है। आस्तिक के अन्तस्तल मे आत्मअस्तित्व सम्बन्धी विचारों का प्रवाह प्रवाहित होगा कि-में कीन हूँ, कहाँ से आया हूँ, इस शरीर रूपी पिजडे का परित्याग करके मेरा आत्म वित्ग कहाँ जायगा, और मेरी भव-भव की शृङ्खला कब विशृङ्खलित होगी । इस प्रकार आत्मा के नित्यत्व मे दृढ आस्था रखता है।
भट्टोजी दीक्षित ने आस्तिक और नास्तिक शब्दो की गहराई मे पंठकर उसके रहस्य का उद्घाटन करते हुये कहा जो निश्चित स्प रो परलोक व पुनर्जन्म को स्वीकार करता है वह आस्तिक है और जो उमे स्वीकारता नही है वह नास्तिक है | श्रमण सस्कृति की अमर उद्घोपणा है-आत्मा अनादि अनन्त काल से विराट् विश्व मे पर्यटन कर रहा है, नग्क तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति मे परिभ्रमण कर रहा है । अद्वितीय ज्योतिर्धर व्यक्तित्व के धनो प्रभु महावीर ने आत्म अस्तित्व के सम्बन्ध मे प्रकाश डालते हुये कहा-ऐसा कोई भी स्थल नहीं, जहां यह आत्मा न जन्मा हो। और ऐमा कोई भी जीव नही, जिसके साथ मातृ-पितृ-भ्रातृ भगिनी भार्या पुत्र-पुत्री रूप सम्बन्ध न रहा हो । गणधर इन्द्रमति गौतम की जिज्ञासा का समाधान करते हुये भगवान् महावीर ने कहा-हे गोतम ' तुम्हारा और हमारा सम्बन्ध भी आज का नही, अतीत काल से चला आ रहा है, यह सम्बन्ध चिर काल पुराना है । चिर काल से तू मेरे प्रति स्नेह-सद्भावना रखता रहा है । मेरे गुणो का उत्कीर्तन करता रहा है। मेरी सेवा भक्ति करता रहा है। मेरा अनुसरण करता रहा है । देव व मानव भव मे एक बार नही अपितु अनेक वार हम साथ रहे हैं। इस पर से यह स्पष्टनर हो जाता है कि श्रमणसम्कृति के आराध्य देव सिद्ध बुद्ध बनने के पूर्व नाना गतियो मे इधर-उधर घूमते रहे हैं। उनका आत्मपट कर्मों की कालिमा से कृष्णपट की तरह काला था। उन्होंने साधना-सलिल के माध्यम से आत्मपट को उज्ज्वल समुज्ज्वल एव परमोज्ज्वल किया । श्रमण भगवान् महावीर के जीव ने जन्म-जन्मान्तरो मे उत्कृष्ट साधना की, अन्त मे उनकी आत्मा महावीर के रूप मे आई 1 इम पर से यह प्रतीत हो जाता है कि उनका जीवन प्रारम्भ से हमारी ही तरह रागद्वेप के मैल मे कलुपित था । परन्तु उन्होने सयम साधना एव उग्रतप आराधना करके अपने जीवन को निखारा था । जिससे वे सिद्ध वुद्ध बने । विपप्टिशलाका पुरुप चरित्र, महावीर चरिय और कल्प सूत्र की
अस्ति परलोक इत्येव मतिर्यस्य म आस्तिक, नास्तीतिमतिर्यस्य स नास्तिक -सिद्धान्तकौमुदी २ जाव किं सव्वपाणा उववण्णपुवा ? हता गोयमा । असति अदुवा अणतखुत्तो।'
___-भगवती सूत्र श० २ उ०३ । ३. -भगवती शतक १२-उ०७ । ४ --भगवती शतक १४ उ०७ ।
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१६८ ! मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ विभिन्न टीकाओ मे प्रभु महावीर के सत्ताइस पूर्व भवो का वर्णन मिलता है । दिगम्बराचार्य गुणभद्र ने तेतीन भवो का निरूपण किया है। और इस सन्दर्भ मे यह भी ज्ञातव्य है कि-नाम स्थल तथा आयु आदि के सम्बन्ध मे भी दोनो परम्पराओ मे अन्तर की रेखाएं खीची हुई है। किन्तु यह तो निश्चयात्मक ही है कि उनका तीर्थकरत्व अनेक जन्मो की साधना आराधना का परिणाम था।
यहाँ यह सहज मे ही का उद्बुद्ध हो सकती है कि सत्ताईम पूर्व भवो का निरूपण क्यो किया गया ! शका-समाधान में यह स्पप्ट कर देना आवश्यक है कि भवो की जो गणना की गई है वह सम्यक्त्व उपलब्धि के पश्चात् की है। प्रभु महावीर के जीव ने सर्व प्रथम नयसार के भव मे सम्यक्त्व की प्राप्ति की। अत उमी भव में उनके पूर्व भवो की परिगणना की गई है । यहाँ एक बात और ज्ञातव्य है कि मत्ताईम भवो की जो गणना की गई है वह भी क्रमवद्ध नही है। इन भवो के अतिरिक्त अनेक बार प्रभु के जीव ने नरक देव आदि के भव किये थे । वहाँ आचार्य ने कुछ काल पर्यन्त ममार-भ्रमण करके ऐमा उल्लेख कर आगे व गये हैं।
श्रमण प्रभु महावीर का जीव मत्तरह भव मे महाशुक्र कल्प मे उत्कृष्टस्थिति वाला देव हआ। देवनोक की आयु पूर्ण कर वह पोतनपुर नगर मे प्रजापति राजा की महारानी मृगावती की कुक्षि में उत्पन्न हुआ।१० माता ने सप्न स्वप्न देवे ! जन्म होने पर पुत्र के पृष्ठ भाग मे तीन पमलिा होने के कारण उनका नाम करण "त्रिपृष्ठ' हुआ । नुकुमार सुमन की तरह उनका वचन नित्य-नृतन अगडाई ले रहा था । उनका अत्यधिक इठलाता हुआ तन सुगठित वलिष्ठ तथा भुवन भास्कर की स्वर्णिम प्रभा सा कान्निमान था, और उनका हृदय मखमल मा मृदुल था । वचपन से जब वे योवन के मधुर उद्यान मे प्रवेश किया तब एक घटना घटिन होती है।
राजा प्रजापति प्रतिवानुदेव अश्वग्रीव के माण्डलिक थे । एकदा वासुदेव ने निमितज्ञ के समक्ष अपनी जिनामा सम्प्रस्तुत करते हुये कहा-मेरी मृत्यु कैसे होगी ? निमित्तज्ञ ने बताया कि----'जो आप के चण्डमेच दून को पीटगा' । तुङ्गगिरि पर रहे हुए केमरी सिंह को मारेगा, उसके हाथ से आपकी मृत्यु
५ (क) महापुराण-द्वितीय विभाग
(ब) उत्तर पुराण, पर्व ७४ पृ० ४४४ -गुण भद्राचार्य ___ मन्प्रति यथा भगवता सम्यक्त्वमवाप्न यावतो वा भवानवाप्ननम्यक्त्व ससार पर्यटितवान् ।
-आवश्यक मल० वृत्ति १५७ । २। (क) जावश्यक भाप्य गा० २ । (ख) आवश्यक नियुक्ति गा१८८ मनारे कियन्तमपि कालमटित्वा ।
-आवश्यक नियुक्ति म० २४८ ६. (क) निपप्टि शलाका ० १०११ | १९७१ ।
(ख) आवश्यकमलय गिरि वृति २४६ |
(ग) मावश्यक चूर्णि-२३२ । १० (क) समवायाग मूत्र २५७
(ख) आवश्यक चूणि पृ० २३२ (ग) आवश्यक मन० गिरि वृत्ति० २५० | १
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चतुर्थ खण्ड धर्म-दर्शन एव सस्कृति विश्वज्योति भगवान महावीर का त्रिपृष्ठभव | १६६ होगी ।११ यह सुनते ही ग्वग्रीव का अन्तर्मानम भय से काप उठा । उसने सुना–प्रजापति राजा के पुत्र वडे ही बलिष्ठ है । परीक्षा करने चण्डमेव दून को वहाँ प्रेपित किया।
__ नराधिपति प्रजापति अपने पुत्र तथा सभासदो के साथ राजसभा मे बैठा था । सगीत की स्वर्ग लहरी व सुमधुर झकार से राजसभा झकृत हो उठी। सभी तन्मय होकर नृत्य तथा सगीत का आनन्द लूट रहे थे। मभी के मनोऽरविन्द प्रसन्नता के मारे नाच रहे थे। ठीक उसी समय एक अभिमानी दूत विना पूर्व सूचित किये ही राज-समा में प्रविष्ट हुआ । राजा ने सभ्रान्त होकर दूत का सुस्वागत किया | सगीत और नृत्य का कार्य स्थगित हुआ और उसका सन्देश सुनने में राजा तल्लीन हो गया।
त्रिपृष्ठ को दूत की उद्दण्डता अखरी | इमने रग मे भग क्यो किया । तत्पश्चात् उन्होने अपने अनुचरो को आदेश दिया कि जब यह दूत यहाँ से प्रस्थान करे तव हमे सूचित करना ।
राजा ने सस्नेह सत्कार पूर्वक दूत को विदा किया। इधर दोनो राजकुमारो को सूचना मिली । उन्होंने जगल मे दूत को पकड़ा और बुरी तरह उसे मारने-पीटने लगे । दूत के जितने भी साथी थे वे सभी भाग छूटे, दूत की खुव पिटाई सुनकर राजा प्रजापति चिन्ता-सिन्धु मे डूब गये । दूत को पुन अपने सानिध्य मे बुलाया और अत्यधिक पारितोपिक प्रदान किया और कहा कि पुत्रो की यह भल अश्वयग्रीव से न कहना । दूत ने राजा की वात स्वीकार की। पर उनके साथी-सहायक जो पहले पहुँच चुके थे, उन्होने सम्पूर्ण वृत्तान्त अश्वग्रीव को अवगत करा दिया | अश्वग्रीव कोपाभिभूत हो उठा। दोनो राजकुमारो को मौत के घाट उतारने का दृढ सकल्प किया ।
तत्पश्चात अश्वग्रीव ने तुङ्गग्रीव क्षेत्र में शालिघान्य की खेती करवायी और कुछ समय के पश्चात् राजा ने प्रजापति के पास दूत को प्रेपित किया । दूत ने आदेश सुनाया कि शालि के खेतो मे एक क्रू रसिंह ने उपद्रव मचा रखा है । वहाँ पर रखवाली करने वालों को काल के गाल मे पहुँचा देता है। सारा क्षेत्र भय से ग्रस्त है, विकट सकट के बादल मण्डरा रहे हैं अत आप वहाँ पहुँच कर सिह से शालिक्षेत्र की सुरक्षा कीजिये । प्रजापति ने अवश्ग्रीव के मनोगत भावों को समझ लिया और पुत्रो से कहा-तुमने दूत के साथ जो व्यवहार किया है उसी का यह परिणाम आया कि वारी न होने पर भी यह आदेश आया है |
प्रजापति स्वय शालिक्षेत्र की ओर प्रस्थान करने के लिए तत्पर हुए। पुत्रो ने प्रार्थना की अभ्यर्थना की—पिताजी | आप मत पधारिये आप ठहर जाइये । हम जायेंगे। इस प्रकार कहकर वे दोनो शालिक्षेत्र की ओर चल पडे । वहाँ जाकर खेत के सरक्षको से पूछा-अन्य राजन्य यहां पर किस प्रकार और किस समय रहते हैं ? उन्होंने निवेदन किया-जब तक-शालि अर्थात् धान्य १क नही जाता है तव
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(क) -त्रिपष्टि० श० पु० १० | १. १२२-१२३ । (ख) आवश्यक चूणि पृ० २३३ ! (क) आवश्यक चणि पृ० २३३ । (ख) अन्येऽरक्षन्नपा सिंह कथकार कियच्चिरम् ।
इति पृप्टास्त्रिपृष्ठेन, शशसु शालिगोपका ॥
-त्रिपप्टि० १० | १ | १३६
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२०० । मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ तक चतुरगिनी सेना का घेरा डालकर हयहाँते हैं और सिंह से रक्षा करने मे सलग्न हो जाते है१२ । त्रिपृष्ठ ने कहा-मुझे वह स्थान वताओ जहाँ वह नवहत्था केमरी सिंह रहता है। रथारूढ होकर शस्त्रयुक्त वह वहाँ पहुचा । सिंह को ललकारने लगा, सिंह भी अगडाई लेकर उठा और मेघ सदृश -गभीर गर्जना मे पर्वत की चोटियो को कमाते हुय वाहर निकल आया । त्रिपृष्ठ के अन्तस्तल मे विचार लहरें उछलने लगी — यह पैदल हैं और हम रथारूढ हैं । यह शस्त्र रहित है और हम शस्त्रो से युक्त हैं सज्जित है। ऐसी स्थिति में किसी पर भी आक्रमण करना सर्वथा उचित है । इस प्रकार विचार करके रथ से नीचे उतर गया और शस्त्र भी फेक दिये।
सिंह ने विचार किया—यह वज्रमूर्ख है । प्रथम तो एकाकी मेरी गुफा मे प्रविष्ट हुआ, दूसरे रय से भी उतर गया है, तीसरे शस्त्रो को भी डाल दिये है । अव इम को एक ही झपाटे में चीर डालू१४ । ऐसा सोचकर वह त्रिपृष्ट पर टूट पडा । त्रिपृष्ठ भी कोपाभिभूत होकर उस पर उछला और मारी शक्ति के साथ (पूर्वकृत निदानानुसार) उस के जवडो को पकड लिया और वस्त्र की तरह उसे चीर डाला५५ । प्रस्तुत दृश्य को निहार कर दर्शक आनन्द विभोर हो उठे | सिंह विशाखानन्दी का जीव था।
त्रिपृष्ठ सिंह चर्म लेकर निज नगर की और प्रस्थित हुआ। आने के पहले उमने कृपको से कहा-घोटकग्रीव से कह देना कि वह अव पूर्ण निश्चिन्त रहे । जब उसने यह बात सुनी तो वह अत्यधिक ऋद्व हुआ | अश्वग्रीव ने दोनो- राजकुमारो को बुलवाया । वे जव नही गये तव-अश्वग्रीव ने सेना सहित पोतनपुर पर चढाई करदी। त्रिपृष्ठ भी ससैन्य देश की सीमा पर पहुँचा | भयकरातिभयकर युद्ध हुआ। त्रिपृष्ठ को यह सहार अच्छा न लगा। उसने अश्वग्रीव से कहा-निरपराध सैनिको को मौत के घाट उतारने मे क्या लाभ है ? श्रेष्ठ तो यही है कि हम दोनो युद्ध करें १६ । अश्वग्रीव ने प्रस्तुत प्रस्ताव मान्य किया। दोनो मे तुमुल युद्ध होने लगा । अश्वग्रीव के समग्र शस्त्र समाप्त हो गये । उसने चक्र रत्न फेका । त्रिपृष्ठ ने उसे पकड़ लिया और उसी से अपने ही शत्र के मिर का छेदन करने लगा। उसी समय-दिव्य वाणी से गगन मण्डल गुञ्जायमान होने लगा । "त्रिपृष्ट नामक प्रथम वासुदेव प्रकट हो गया १०।
१३ (क) आवश्यक चूणि पृ० २३४
(ख) आवश्यकमलयगिरि वृत्ति० प० २५० | २ १४-नत्प्रेक्ष्य केसरी जात-जाति स्मृतिरचिन्तयत् ।
एक धाप्यमहो एको यदागान्मद्रु हामसी ॥ अन्यरथादुत्तरण तृतीय शस्त्रमोचनम् । दुर्मद तनिहन्म्येप, मदान्धमिव सिन्धुरम् ॥
-त्रिपष्टि० १०।११४६, १४७ १५-त्रिपष्टि १०।१।१४८,१४६ १६-त्रिपप्टि १०११११६४ से १६६ १७-(क) उत्तर पुराण ७४१ १६१ से १६४ पृ० ४५४
(ख) आवश्यकचूर्णि पृ० २३४ (ग) आवश्यक नियुक्ति मलय० वृ० २५०
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चतुर्थ खण्ड धर्म दर्शन एव सस्कृति विश्वज्योति भगवान महावीर का त्रिपृष्ठभव | २०१
एक बार दिवस का अवसान समीप था। सन्ध्या की सुहावनी वेला थी । भगवान भास्करअस्ताचल की गोद मे पहुँच गया था। उस समय त्रिपृष्ठ के नकट्य मे कुछ सगीतज्ञ उपस्थित हये। उन्होने सगीत कला का परिचय दिया, सगीत की अत्यधिक सुमधुर झकार से वहाँ का स्थल झकृत हो उठा | त्रिपृप्ट वासुदेव ने शय्यापालको को आदेश दिया कि जब मुझे नीद आ जाय तव गायको को रोक देना, शय्यापालको ने त्रिपृष्ठ की आज्ञा शिरोधार्य की । कुछ समय के पश्चात् सम्राट निद्रा देवी की आराधना करने मे निमग्न हो गये । शय्यापालक सगीत की स्वरलहरी सुनने मे तल्लीन हो गये। सगीतज्ञो को उमने चिरमित नहीं किया। रात भर सगीत का कार्यक्रम चलता रहा। ऊषा की स्वर्णिम रश्मियाँ मुस्कराने वाली थी कि राजा जग उठा । सम्राट ने ज्यो ही सगीत का कार्यक्रम देखा तो शय्यापालको से पूछा-इन्हे विसर्जित क्यो नही किया ? निवेदन मे उन्होंने कहा-देव । सगीत का प्रभाव हमारे पर इतना पडा कि हम मुग्ध हो गये, सुनते-सुनते अत्यधिक अनुरक्त हो गये जिससे इनको नही रोका १८ । यह सुन त्रिपृष्ठ क्रोध की अग्नि में जल उठा, क्रोध मे वह भडक आया। अपने सेवको को वुलवाया और आदेश दिया कि-आज्ञा की अवज्ञा करने वाले एव सगीत के लोभी इस शय्यापालक के कानो मे गर्म शीशा उडेल दो। राजा की कठोरता पूर्ण आज्ञा से शय्यापालक के कर्ण-कुहुरो मे गर्मागर्म शीशा उडेला गया । असह्य वेदना से छटपटाते हुए उस के प्राण पखेरू उड गये १९ | सम्राट त्रिपृष्ठ ने सत्ता के मद मे मातङ्ग की तरह उन्मत्त होकर इस ऋ रकृत्य के कारण-निकाचित कर्मों का वन्ध वाधा | महारभ और महापरिग्रह के सिन्धु मे डूवा रहा और चौरामी लाख वर्ष पर्यन्त राज्य श्री का उपभोग करने मे तल्लीन हो गया | वहाँ से आयुपूर्ण होने पर सातवे तमस्तमा नरक के अप्रतिष्ठान नारकावास मे नैरयिक के रूप मे उत्पन्न हुआ २० । १८-(क) तेषु गायत्सु चोत्तस्थी, विष्णरुचे च ताल्पिकम् । त्वया विसृष्टा किं नामी सोप्यूचे गीतलोभत ।
-त्रिषष्टिशलाका० १०११११ १७ (ख)--महावीरचरिय प्र० ३, प० ६२ । १६-महावीर चरिय ३, ५० ६२ । २०-तिवढेण वासुदेवे चउरासोडवाससयमहस्साइ-सव्वाउय पालइत्ता अप्पइट्ठाणे नराए नेरइत्ता
उववन्नो।
-समवायाङ्ग ८४ समवाय
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धर्म क्रान्ति के अग्रदूत
तीर्थंकर महावीर
---श्री यशपाल जैन
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महावीर ने समाज की इस दुरवस्था के विरुद्ध विद्रोह किया । जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण रचनात्मक था । वह बडी लकीर खीचकर पास की लकीर को छोटा सिद्ध करने के पक्षपाती थे। उन्होंने किसी भी मान्यता का खण्डन नही किया, न किसी को तर्क द्वाग परास्त करने का प्रयत्न किया। उन्होंने जीवन के सही मूल्यो की प्रस्थापना की। युग-प्रवाह के विरुद्ध तैरना सुगम नही होता। भयकर हिंसा के वीच महावीर ने घोप किया-"अहिंसा परम धर्म है।"
__ अन्ध विश्वासो को चुनौती तीर्थकर महावीर क्रातिकारी थे। क्रान्ति का अर्थ होता है-प्रचलित मान्यताओ, रूढियो, अन्धविश्वामो के विरुद्ध स्वर ऊँचा करना और नये मूल्य स्थापित करना। महावीर ने वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन में व्याप्त बुराइयो को चुनौती दी और उस मार्ग को प्रतिष्ठित किया, जिस पर चल कर मानव तथा समाज शुद्ध एव प्रवुद्ध बन सकता था। उन्होने सबसे पहला क्रान्तिकारी कदम स्वय के जीवन में उठाया । वह राजपुत्र थे। उनके चारो ओर समृद्धि और वैभव था। समाज में इन दोनो का वडा मान था । मनुष्य की ऊँचाई और निचाई इस वात से आकी जाती थी कि उसके पास कितना धन है और वह किम ओहदे पर है । महावीर ने राज्य त्यागा, धन त्यागा, क्योकि उनकी दृष्टि मे मानव का मानदण्ड ये वस्तुएं नही थी । महावीर का यह कार्य असामान्य था, क्योकि सासारिक प्रलोभनो को विरले ही छोड पाते हैं, विशेपकर युवावस्था मे ऐसा करना तो और भी कठिन होता है । महावीर उस समय लगभग तीस वर्ष के थे और यह वह वय थी, जवकि मनुष्य को भौतिक साधन रस प्रदान करते हैं । महावीर पर कोई भी वाहगे दवाव नही था । उन्होने स्वेच्छा से सुख प्रदायक माने जाने वाले प्रसाधनो को तिलाजलि दी और साधना के कठोर मार्ग पर चल पडे । उन्होने कोई भी वन्धन स्वीकार नही किया, यहां तक कि वम्यो तक का त्याग कर दिया।
असाधारण आत्मिक बल वाल्यकाल से ही उनमे वडा साहस और आत्मविश्वास था । धैर्य और कप्ट-सहिष्णुता थी। क्रान्ति के लिये ये सब गुण अनिवार्य है। दुर्बल व्यक्ति दीर्घकालीन साधना के मार्ग पर चल नही सकता और जिसमे आत्म-विश्वास न हो वह समाज को वदल नहीं सकता। महावीर ने वारह वर्ष तक साधना की । सर्दी, गर्मी, वर्षा, धूप तथा समाज के अवाछनीय तत्वो के उपसर्ग उन्हे अपने मार्ग से विचलित न कर सके । मेरी निश्चित मान्यता है कि महावीर मे असाधारण आत्मिक बल, मानसिक दृढता रही होगी तभी वह अपनी साधना को अन्त तक निभा सके ।
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चतुर्थ खण्ड . धर्म, दर्शन एवं सस्कृति . तीर्थंकर महावीर । २०३
शंखनाद क्रान्ति का इस प्रकार क्रान्ति का प्रथम शखनाद उन्होंने तव किया जव घरवार, राजपाट तथा सामारिक सुख वैभव को अपनी इच्छा से छोडा । उनका क्रान्तिकारी स्वर उससे भी पहले दो और अवसरो पर सुनाई दिया । मा त्रिशला की स्वाभाविक इच्छा थी कि उनका लडका घर-गृहस्थी का होकर रहे और इस सम्बन्ध मे जब उन्होने अपने पुत्र से चर्चा की तो जानते हैं उन्होने क्या कहा ? उन्होंने कहा, "मा, देख नहीं रही हो कि ससार कितना दुखी है और धर्म का कितना ह्रास हो रहा है । लोग माया मोह मे फंसे हैं । लोकहित के लिए इस समय सबसे अधिक आवश्यकता धर्म के प्रचार एव प्रसार की है।
___मा ने समझाते हुए कहा, "मैं जानती हूँ, तुम्हारा जन्म ससार के कल्याण के लिए हुआ है. पर अभी तुम्हारी उम्र है कि तुम घर गृहस्थी मे पडो।"
___ महावीर का क्रान्तिकारी म्वर और दृढ हो उठा-'इम देह का क्या भरोसा है ? तुम कुछ भी कहो, मुझसे ऐसा नहीं होगा, नहीं होगा।"
जीवन-धर्म जीवन-मर्म यह भापा मामान्य जन की नही है । ये स्वर है उस व्यक्ति के जो जानता है कि इस नश्वर जीवन की सार्थकता इस बात मे नही है कि वह जग की मोह-माया मे लिप्त रहकर अपनी ऊर्जा को नष्ट कर दे, बल्कि इस बात मे है कि वह जीवन के धर्म को और मर्म को समझे, उस मार्ग पर चलकर अपने को कृतार्थ करे ।
धर्म एक प्राण शक्ति महावीर की क्रान्ति का दूसरा क्षेत्र था समाज । ढाई हजार वर्ष पहले का समय था जवकि समाज भ्रष्टाचार तथा अन्धविश्वासो मे फंस गया था। सड़ी गली रूढियां समाज मे घर कर गयी थी, मनुष्य के आचरण को ऊंचा उठाने वाले नियम छिन्न-भिन्न हो गये थे, मनुष्य स्वार्थ के वशीभूत होकर बुरे से बुरा काम कर सकते थे, धर्म की जडें हिल गयी थी, मानव सत्ता का दास हो चुका था । भाई चारे की भावना तिरोहित हो गई थी, चोरो वर्णों के आधार पर समाज मे ऊंच-नीच के दर्जे बन गये थे, स्त्रिया मनुष्य की सम्पत्ति मानी जाती थी, उन्हें आगे बढाने के अवसर नहीं थे, यज्ञो मे पशु बलि दी जाती थी निर्दयता से पशुओ का हनन किया जाता था, हिंसा का सर्वत्र वोल-चाला था । वास्तव मे बात यह थी, कि लोग धर्म के वाह्य स्प को अधिक महत्त्व देने लगे थे। धर्म की आत्मा जाती रही थी। कर्म काण्ड मे फस जाने के कारण लोग धर्म के वास्तविक रूप को भूल गये थे । वे जादू, टोने, टोटके, भूत-प्रेत आदि के अघ-विश्वामो मे बुरी तरह जकड गये थे।
वडी लकोर-छोटी लकीर महावीर ने समाज की इस दुरवस्था के विरुद्ध विद्रोह किया । जीवन के प्रति उनका दृष्टिकोण रचनात्मक था । वह बडी लकीर को छोटा सिद्ध करने के पक्षपाती थे । उन्होंने किसी भी मान्यता का खण्डन नहीं किया, न किसी को तर्क द्वारा परास्त करने का प्रयत्न किया । उन्होने जीवन के सही मूल्यो की प्रस्थापना की । युग प्रवाह के विरुद्ध तैरना सुगम नही होता । भयकर हिंसा के बीच महावीर स्वामी ने घोप किया--(अहिंसा परमो धर्म ) अहिंमा परम धर्म है । वस्तुत यह बुनियादी बात थी, क्योकि जो व्यक्ति हिंसा करता है वह बहुत सी व्याधियो का शिकार बन जाता है। उसमे असत्याचरण, असयम,
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२०४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ कायरता, द्वेष और न जाने क्या-क्या दुर्गुण उत्पन्न हो जाते हैं । इमलिये उन्होंने सबसे अधिक वल अहिंसा पर दिया । उन्होने कहा-"अहिंसा से ही मनुष्य सुखी हो सकता है मसार मे शान्ति बनी रहती है।"
अहिंसा वीरों का अस्त्र लेकिन उन्होने स्पष्ट कहा कि-अहिंमा वीरो का अस्त्र है। कमजोर या कायर उमका उपयोग नही कर सकते। जिसमे मारने का मामर्थ्य है, फिर भी नही मारता, वह व्यक्ति हिमक है । जिममे शक्ति नहीं, उमका न मारने की बात कहना, अहिंसा का परिहास करना है । अत यह कहना असत्य है कि-महावीर ने शस्त्रो के वल को आत्मिक बल के समक्ष हेय बता कर राष्ट्र की वीरता को क्षीण कर दिया। समाज को निर्वीर्य बना दिया। महावीर की अहिमा अत्यन्त तेजम्बी अहिंसा थी। वह उस प्रकाश पुज के समान थी जिसके आगे हिमा का अधकार एक क्षण टिक नहीं सकता था। जिमका अन्त करण निर्मल हो, जो मत्य का पुजारी हो, निर्मीक हो, वही अहिंसा के अमोघ अस्त्र का प्रयोग कर सकता है । आज अहिंसा की शक्ति इतनी मद पड़ रही है, उसका मुग्व्य कारण यही है कि हम अहिंमा की तेजस्विता को भूल गये हैं और झूठी विनम्रता को अहिंसा मान बैठे है । अहिंसा पर चलना, तलवार की घार पर चलने के समान है।
जीओ, जीने वो __ अहिंमा के मूल मत्र के साथ महावीर ने एक सनातन आदर्श और जोडा-"जीओ और जीने दो।" जिम प्रकार तुम जीने की और सुखी रहने की अकाक्षा रखते हो, उसी प्रकार दूमरा भी जीने और सुखी रहने की आकाक्षा रखता है । इसलिए तदि तुम जीना चाहते हो तो दूसरे को भी जीने का अवसर दो । समाज की स्वार्थपराणयता पर इससे बढकर और चोट क्या हो सकती है । "आत्मन प्रतिफूलानि परेषा न समाचरेत् ।' जिस प्रकार का आचरण तुम अपने प्रति किया जाना पसन्द नहीं करोगे, वैमा आचरण दूसरो के प्रति मत करो।
महावीर की अहिंमा की परिमापा थी-अपनी कपायो को जीतना, अपनी इन्द्रियो पर नियत्रण रखना और किसी भी वस्तु मे आसक्ति न रखना । यह राजमार्ग कायरो का नही, वीरो का ही हो सकता है।
"अह" की जड़ें हिलो समाज की अहित कर रुढियो को मिटाने के साथ-साथ उन्होंने धनी-निर्धन ऊच-नीच आदि की विशेषताआ को दूर करने का तो प्रयाम किया ही, लेकिन उन्होने एक और क्रान्तिकारी सिद्धान्त दिया "अनेकान्त" का । ममाज मे और समार मे झगडे की सबसे बडी जड हमारा अह है, मताग्रह है । हम जो कहते हैं, वही मत्य है, दूसरे जो कहते है, वह झूठ है ऐमी सामान्य धारणा सर्वत्र प्रचलित दिखाई देती है । महावीर ने कहा, यह ठीक नहीं है । तुम जो कहते हो, वही एकान्तिक मत्य नहीं है। दूसरे जो कहते हैं, उसमे भी सत्य है, सत्य के अनेक पहलू होते हैं । तुम्हे जो दीख पडता है, वह सत्य का एक पहलू है। जिस प्रकार पाच अधो ने एक हाथी के विभिन्न अगो को देखकर अपने-अपने दृप्ट अग को ही हाथी मान लिया, पर वस्तुत हाथी तो सब अगो को मिलाकर बना था, यही वात हमारे साथ होनी चाहिए । यदि हम इस सिद्धान्त के अनुसार चलें तो आज के सारे विग्रह दूर हो जाय और हमारा जीवन अत्यन्त शान्तिपूर्ण वन जाय ।
उपदेश और सिद्धान्त तीर्थकर महावीर की दो और वातों को मैं बहुत ही क्रान्तिकारी मानता हूँ । पहली तो यह कि
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति तीर्थंकर महावीर | २०५ उन्होने अपने उपदेशो तथा सिद्धान्तो को किसी धर्म-विशेप की सीमा मे आवद्ध नही किया । वह जो कुछ कहते थे, मानव मात्र के लिए कहते थे । उनके कुछ उपदेश देखिए -
_ "जो मनुष्य प्राणियो की स्वय हिंसा करता है, दूसरो से हिसा करवाता है और हिंसा करने वालो का अनुमोदन करता है, वह ससार में अपने लिए वैर वढाता है।"
"जो मनुप्य भूल से भी मूलत असत्य, किन्तु ऊपर से सत्य मालूम होने वाली भापा बोलता है, वह भी जब पाप से अछूता नही रहता तब भला जो जान बूझकर अमत्य वोलता है, उसके पाप को तो कह्ना ही क्या?
___ "जैसे ओस की वू द घास की नोक पर थोडी देर तक ही रहती है, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी वहुत छोटा है, शीघ्र ही नाश हो जाने वाला है। इसलिए क्षण भर को भी प्रमाद न करो।"
"शान्ति से क्रोध को मारो, नम्रता से अधिकार को जीतो, सरलता से माया का नाश करो और सतोप से लोम को काबू मे लाओ।"
___ "ससार मे जितने भी प्राणी हैं सब अपने किये कर्मों के कारण हो दुखी होते हैं । अच्छा या वुरा, जैसा भी कर्म हो, उसका फल भोगे बिना छुटकारा नही मिलता।"
___"अपनी आत्मा को जीतना चाहिए । एक आत्मा को जीत लेने पर सब कुछ जीत लिया जाता है।"
"जिम प्रकार कमल जल मे पैदा होकर भी जल से लिप्त नहीं होता उसी प्रकार जो ससार मे रहकर भी काम-भोगो से एकदम अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं।"
___ 'चांदी और सोने के कैलाश के समान विशाल असख्य पर्वत भी यदि पास मे हो तो भी मनुष्य की तृप्ति के लिए वह कुछ भी नही, कारण कि तृष्णा आकाश के समान अनन्त है।"
उनके उपदेश समस्त मानव जाति के लिये थे। यही कारण था कि उनके समवशरण मे सभी धर्मो के लोग, यहाँ तक कि जीव-जन्तु भी सम्मिलित होते थे । महावीर जैन थे, कारण कि उन्होने आत्म विजय प्राप्त की थी । जैन शब्द 'जिन' से बना है जिसका अर्थ है- अपने को जीतना।"
मैं प्राय विभिन्न अम्नायो के व्यक्तियो से पूछा करता ह कि महावोर किम सम्प्रदाय के थे? दिगम्बर, श्वेताम्बर, स्थानकवासी या तेरापथी ? सच है कि वह किसी भी सम्प्रदाय के नहीं थे, सव उनके थे।
भाषा की क्रान्ति दूमरी वात कि भापा के क्षेत्र मे महावीर ने क्रान्तिकारी कदम उठाया। उनके जमाने मे सस्कृत का जोर था। वह परिष्कृत भाषा थी। लेकिन जन सामान्य के बीच अर्द्धमागधी का चनन था। महावीर चू कि अपना सदेश साधारण लोगो तक पहुचाना चाहते थे, इसलिए उन्होंने अर्द्धमागधी को अपने उपदेशो का माध्यम बनाया। वह चाहते तो सस्कृत का उपयोग कर सकते थे, लेकिन उस अवस्था मे उनके विचार शिक्षित तथा उच्च वर्ग तक ही सीमित रह जाते ।
भविष्य-दर्शन इस तरह हम देखते हैं कि महावीर एक क्रान्तिकारी व्यक्ति थे। उन्होने ऐसे बहुत से काम किये, जो उनके अद्भुत साहस तथा पराक्रम के द्योतक हैं। क्रान्तिकारी दृप्टा भी होता है। महावीर की निगाह वर्तमान को देखती है, पर वही ठहर नहीं जाती। वह भविष्य को भी देखती है। महावीर के सिद्धान्त इतने क्रान्तिकारी हैं कि वे सदा प्रेरणा देंगे । आवश्यकता इस बात की है कि हम उनके अनुसार आचरण करे।
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विश्व को भगवान महावीर की देन
- बहुश्रुत श्री मधुकर मुनि जी
भारतवर्ष की यह सास्कृतिक परम्परा रही हैं कि यहाँ महापुरुप जन्म से पंदा नही होते कितु कर्म से वनते हैं । अपने उदात्त एवं लोकहितकारी आदर्श तथा आचरण के बल पर ही वे पुरुप से महापुरुप की श्रेणी मे पहुचते हैं, आत्मा से महात्मा और परमात्मा तक की मजिल को प्राप्त करते हैं। इमलिए भारतवर्ष के किमी भी महापुरुष के कर्तृत्व पर, उनकी माधना और सिद्धि पर विचार करते समय सबसे पहले उनकी जीवन दृष्टि पर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है। स्वय के जीवन के प्रति और विश्वजीवन के प्रति उनका क्या चिन्तन रहा है, किम दृष्टि को मुथ्यता दी है और जीवन जीने की किस विधि पर विशेप बल दिया है - यही महापुरुप के कर्तृत्व और विश्व के लिए उसकी देन को समझने का एक मापदण्ड है।
__भगवान महावीर की २५वी निर्वाण शताब्दी के पावन प्रसग पर आज हमारे समक्ष यह प्रश्न पुन उभर कर आया है कि २५०० वष की इस सुदीर्य काल यात्रा मे भी जिस महापुरुप की स्मृतियाँ और सस्तुतियां मानवता के लिए उपकारक और पथ दर्शक बनी हुई है, उस महापुरुष की आखिर कौनसी विशिष्ट देन है जिससे मानवता आज निराशा की अन्धकागच्छन्न निशा में भी प्रकाश प्राप्त करने की आशा लिए हुए हैं।
__भगवान महावीर स्वय ही विश्व के लिए एक देन थे—यह कहने मे कोई अन्युक्ति नहीं होगी। उनके जीवन के कण-कण मे और उनके उपदेशो के पद-पद मे मानवता के प्रति असीम प्रेम, करणा और उसके अभ्युदय की अनन्त अभिलापा छलक रही है । और इसी जीवन-धारा मे उन्होंने जो कुछ किया कहा वह सभी मानवता के लिए एक प्रकाश पुज है, एक अमूल्य देन है।
मानव सत्ता की महत्ता भगवान महावीर से पूर्व के भारतीय चिंतन मे मानव की महत्ता मानते हुए भी उसे ईश्वर या किसी अज्ञात शक्ति का दास स्वीकार कर लिया गया था। मानव ईश्वर के हाथ की कठपुतली समझी जाती थी, और उस ईश्वर के नाम पर मानव के विभिन्न रूप, विभिन्न खण्ड निर्मित हो गये थे। पहली वात-मानली गई थी कि ससार मे जो कुछ भी हो रहा है या होने वाला है वह मव ईश्वर की इच्छा का ही फ्ल है । मानव तो मात्र एक कठपुतली है, अभिनेता तो ईश्वर है, वही इसे अपनी इच्छानुमार नचाता है।
दूसरी वात्त- मानव-मानव मे ही एक गहरी भेद रेखा खीच दी गई थी, कुछ मनुप्य ईश्वर के प्रतिनिधि बन गये, कुछ उनके दलाल और वाकी सब उन ईश्वरीय एजेन्टो के उपायक । ब्राह्मण चाहे सा भी हो वह पूज्य और गुरु है, शूद्र चाहे कितना ही पवित्र हो, उसे स्वय को पविग मानने का अधि
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति विश्व को भगवान महावीर की देन | २०७
भी नही, और स्त्री चाहे कितनी भी सहिष्णु, सेवा-परायणा एव धर्ममय जीवन जीने वाली हो- उसे धर्म-साधना करने और शास्त्र ज्ञान प्राप्त करने का कोई अधिकार नही । यह मानव-सत्ता का अवमूल्यन था मानव शक्ति का अपमान था ।
भगवान महावीर ने सबसे पहले मानव सत्ता का पुनर्मूल्याकन स्थापित किया। उन्होंने कहाईश्वर नाम का ऐसा कोई व्यक्ति नही है जो मनुष्य पर शासन करता हो, मनुप्य ईश्वर का दास या सेवक नही है, किन्तु अपने आपका स्वामी है । उन्होंने कहा__"अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण य ।
---उत्तराध्ययन सूत्र अपने सुख एवं दुख का करने वाला यह आत्मा म्वय है । आत्मा का अपना स्वतन्त्र मूल्य है, वह किसी के हाथ विका हुआ नहीं है । वह चाहे तो अपने लिए नरक का कूट शाल्मली वृक्ष (भयकर काटेदार विप-वृक्ष) भी उगा सकता है, अथवा स्वर्ग का नन्दनवन और अशोकवृक्ष भी । स्वर्ग नरक आत्मा के हाथ मे है-आत्मा अपना स्वामी स्वय है । प्रत्येक आत्मा मे परमात्मा बनने की शक्ति है।
आत्म-मत्ता की स्वतत्रता का यह उद्घोप–मानवीय मूल्यो की नवस्थापना थी, मानव सत्ता की महत्ता का स्पष्ट स्वीकार था। इस आघोप ने मनुष्य को सत्कर्म के लिए, सत्पुरुषार्थ के लिए प्रेरित किया। ईश्वरीय दासता से मुक्त किया। और वन्धनो से मुक्त होने की चावी उसी के हाथ मे सौंप दी गईवधप्प मोक्खो अज्झत्येव
-आचाराग सूत्र ११२ वन्धन और मोक्ष आत्मा के अपने भीतर है।
समानता का सिद्धान्त मानवसत्ता की महत्ता स्थापित होने पर यह सिद्वान्त भी स्वय पुष्ट हो गया कि मानव चाहे पुरुप हो या स्त्री, ब्राह्मण हो या शूद्र-धर्म की दृष्टि से, मानवीय दृष्टि से उसमे कोई अन्तर नही है। जाति और जन्म से अपनी आभिजात्यता या श्रेष्ठता मानना मात्र एक दभ है । जाति से कोई भी विशिष्ट या हीन नहीन दोसई जाइ विसेस फोई
- उत्तराध्ययन सूत्र जाति की कोई विशिष्टता नही है।
उन्होने कहा-ब्राह्मण कौन ? कुल विशेप मे पैदा होने वाला ब्राह्मण नही, किन्तु बभचेरेण वमणो (-उत्तराध्ययन) ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला ब्राह्मण होता है । यह जातिवाद पर गहरी चोट थी। जाति को जन्म के स्थान पर कर्म से मान कर भगवान महावीर ने पुरानी जड मान्यताओ को तोडा।
कम्मुणा वमणो होई, कम्मुणा होई खत्तिो ।
वइसो फम्मुणा होइ सुद्दो हवई कम्मुणा ॥ कर्म-समानता के इस सिद्धान्त से आभिजात्यता का झूठा दम निरस्त हो गया और मानवमानव के बीच समानता की भावना, कर्म श्रेष्ठता का सिद्धान्त स्थापित हुआ।
धर्म साधना के क्षेत्र मे भगवान महावीर ने नारी को भी उतना ही अधिकार दिया जितना पुरुप को। यह तो धार्मिकता का, आत्मज्ञान का उपहास था कि एक साधक अपने को आत्मद्रष्टा मानते
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प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
हुए भी स्त्री-पुरुप की दैहिक धारणाओ से बधा रहे और धर्म माधना मे स्त्री-पुरुप का लैगिक मेद मन में वमाये रग्वे । भगवान महावीर ने वाहा-इत्थी ओ वा पुरिसो वा-चाहे स्त्री हो या पुरुष, प्रत्येक में एका ज्योतिर्मय अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्म तत्व है, और प्रत्येक उसका पूर्ण विकास कर नकना है, इसलिए धर्म साधना के क्षेत्र में जातीय एव लैंगिक भेद के आधार पर भेद-भाव पैदा करना निराअज्ञान और पाखण्ड है।
इम प्रकार मानव की महत्ता और धम-मावना में समानता का सिद्धान्त भगवान महावीर की एक अद्भुत देन है, जो भारतीय जीवन को ही नहीं, किन्तु विश्व जीवन को भी उपकृत कर रही है। इसी के माय अहिसा का सूक्ष्म एव मनोवैज्ञानिक दर्शन, अपरिग्रह का उच्चतम मामाजिक और आध्यामिक चिंतन तथा अनेकात का श्रेष्ठ दार्शनिक विश्लेपण-विश्व के लिए भगवान महावीर की अविस्मरणीय देन है । पावश्यकता है आज इम देन से मानव समाज अपना कल्याण करने के लिए मच्चे मन से प्रस्तुत हो।
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भगवान महावीर का अपरिग्रह-दर्शन
-उपाध्याय श्रीअमरमुनि mmmmmmmmmm~~~~~~~~~~~~~~~~rmmmmmmmm
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से मइम परिन्नाय मा य हु लाल पच्चासी -विवेकी साधक लार-थूक चाटने वाला न बने, अर्थात् परित्यक्त भोगो की पुन कामना
-आचाराग १२।५
न करे।
जे ममाइयमई जहाइ, से जहाइ ममाइय ।
से हु दिट्ठपहे मुणी, जस्स नत्थि ममाइय । जो ममत्व बुद्धि का परित्याग करता है, वही वस्तुत. ममत्व-परिग्रह का त्याग कर सकता है।
वही मुनि वास्तव मे पथ (मोक्षमार्ग) का द्रष्टा है जो किसी भी प्रकार का ममत्व भाव नही रखता है।
-आचाराग ११२६ भगवान् महावीर के चिंतन मे जितना महत्व अहिंसा को मिला, उतना ही अपरिग्रह को भी मिला । उन्होंने अपने प्रवचनो मे जहा-जहा आरम्भ-(हिंसा) का निपेध किया, वहा-वहा परिग्रह का भी निषेध किया है। चूंकि मुख्यरूपेण परिग्रह के लिए ही हिंसा की जाती है, अत अपरिग्रह अहिंसा की पूरक साधना है।
परिग्रह क्या है ? प्रश्न खडा होता है, परिग्रह क्या है ? उत्तर आया होगा-धन-धान्य, वस्त्र-भवन, पुत्रपरिवार और अपना शरीर यह सव परिग्रह है। इस पर एक प्रश्न खडा हुआ होगा कि यदि ये ही परिग्रह है तो इनका सर्वथा त्यागकर कोई कसे जी सकता है ? जव शरीर भी परिग्रह है, तो कोई अशरीर वनकर जिए, क्या यह सभव है ? फिर तो अपरिग्रह का आचरण असभव है। असभव और अशक्य धर्म का उपदेश भी निरर्थक है ।
भगवान् महावीर ने हर प्रश्न का अनेकातदृष्टि से समाधान दिया है । परिग्रह की वात भी उन्होने अनेकात दृष्टि से निश्चित की और कहा-वस्तु, परिवार, और शरीर परिग्रह है भी और नही भी । मूलत वे परिग्रह नहीं हैं, क्योकि वे तो बाहर मे केवल वस्तु रूप हैं । परिग्रह एक वृत्ति है, जो प्राणी की अन्तरग चेतना की एक अशुद्ध स्थिति है, अत जव चेतना वाह्य वस्तुओ मे आसक्ति, मूर्छा, ममत्व (मेरापन) का आरोप करती है तभी वे परिग्रह होते हैं, अन्यथा नहीं।
इसका अर्थ है-वस्तु मे परिग्रह नही, भावना मे ही परिग्रह है। ग्रह एक चीज है, परिग्रह दूसरी चीज है । ग्रह का अर्थ उचित आवश्यकता के लिए किसी वस्तु को उचित रूप में लेना एव उसका उचित रूप मे ही उपयोग करना। और परिग्रह का अर्थ है-उचित-अनुचित का विवेक किए विना
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२१० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ आसक्ति रूप मे वस्तुओं को नव जोर से पकड लेना, जमा करना, और उनका मर्यादाहीन गलत अनामाजिक रूप में उपयोग करना ।
वस्तु न नी हो, नदि उसकी आमक्तिमूलक मर्यादाहीन अभीप्सा है तो वह नी परिग्रह है । इसीलिए महावीर ने कहा था-'मुच्छा परिग्गहो'-मूळ, मन की ममत्व दशा ही वास्तव म परिग्रह है। जो सावक ममन्त्र मे मुक्त हो जाता है, वह सोने चादी के पहाडो पर बैठा हुआ मी अपरिग्रही कहा जा सकता है।
इम प्रकार भगवान महावीर ने परिगह की, एकान्त जड वादी परिमापा को तोडकर उसे भाववादो, चंनन्यवादी परिभापा दी।
___ अपरिग्रह का मौलिक अर्थ भगवान् महावीर ने बताया, अपरिग्रह का नीधा-सादा अर्थ है-निस्पृहता, निरीहता । इच्छा ही सवमे वडा वधन है, दुस है । जिसने इच्छा का निरोध कर दिया उसे मुक्ति मिल गई । इच्छा-मुक्ति ही वास्तव मे मसारमुक्ति है । इसलिए सबसे प्रथम इच्छाओ पर, आकाक्षाओ पर मयम करने का उपदेश महावीर ने दिया । वहुत से साधक, जिनकी चेतना इतनी प्रवुद्ध होती है कि वे अपनी सम्पूर्ण इच्छाओ पर विजय प्राप्त कर सकते हैं, महाव्रती-सयमी के रूप में पूर्ण अपरिग्रह के पथ पर बढते है। किन्तु इसमे अपरिग्रह केवल सन्यास क्षेत्र की ही साधना मात्र वनकर रह जाता है, अत सामाजिक क्षेत्र मे अपरिग्रह की अवतारणा के लिए उसे गृहस्थ-धर्म के रूप मे भी एक परिमापा दी गई।
महावीर ने कहा-सामाजिक प्राणी के लिए इच्छाओ का सपूर्ण निरोध, आसक्ति का समूल विलय-यदि मभव न हो, तो वह आसक्ति को क्रमश कम करने की साधना कर सकता है, इच्छाओ को सीमित करके ही वह अपरिग्रह का माधक बन सकता है।
इच्छाएं आकाश के समान अनन्त हैं, उनका जितना विस्तार करते जाओ, वे उतनी ही व्यापक, असीम वनती जाएंगी और उतनी ही चिन्ताएँ, कष्ट, अशान्ति वढती जाएंगी।
___ इच्चाए सीमित होगी, तो चिन्ता और अशान्ति भी कम होगी । इच्छाओ को नियत्रित करने के लिए महावीर ने 'इच्छापरिमाणवत' का उपदेश किया । यह अपरिग्रह का मामाजिक त्प भी था । वडेवडे धनकुवेर, श्रीमत एव सम्राट भी अपनी इच्छाओ को सीमित-नियत्रित कर मन को शात एव प्रसन्न रख सकते है । और माधनहीन माधारण लोग, जिनके पास सर्वग्राही लम्बे चौडे माधन तो नही होते, पर इच्छाएं असीम दौड लगाती रहती हैं, वे भी इच्छा-परिमाण के द्वारा समाजोपयोगी उचित आवश्यकताओ की पूर्ति करते हुए भी अपने अनियत्रित इच्छाप्रवाह के सामने अपरिग्रह का एक आन्तरिक अवरोध खडा कर उसे रोक सकते हैं।
इच्छापरिमाण-एक प्रकार से स्वामित्व-विसर्जन की प्रक्रिया थी। महावीर के समक्ष जव वंशाली का आनन्द प्ठी इच्छापरिमाण व्रत का सकल्प लेने उपस्थित हुआ, तो महावीर ने बताया"तुम अपनी आवश्यकताओ को मीमित करो । जो अपार-साधन सामग्री तुम्हारे पास है, उसका पूर्ण रूप मे नही तो, उचित सीमा मे विसर्जन करो । एक सीमा से अधिक अर्थ-धन पर अपना अधिकार मत रखो, आवश्यक क्षेत्र, वास्तु न्म भूमि से अधिक भूमि पर अपना स्वामित्व मत रखो। इसी प्रकार पशु, सदा-दासी, आदि को भी अपने सीमाहीन अधिकार से मुक्त करो।
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव संस्कृति भगवान महावीर का अपरिग्रह दर्शन | २११ स्वामित्व विसर्जन की यह सात्विक प्रेरणा थी, जो समाज मे सपत्ति के आधार पर फैली अनर्गल विपमताओ का प्रतिकार करने में सफल सिद्ध हुई। मनुष्य जव आवश्यकता से अधिक सपत्ति व वस्तु के संग्रह पर से अपना अधिकार हटा लेता है, तो वह समाज और राष्ट्र के लिए उन्मुक्त हो जाती है, इस प्रकार अपने आप ही एक सहज समाजवादी अन्तर् प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।
__भोगोपभोग एव विशा-परिमाण मानव सुखाभिलाषी प्राणी है । वह अपने सुख के लिए नाना प्रकार के भोगोपभोगो की परिकल्पना के माया जाल मे उलझा रहता है। यह भोगवुद्धि ही अनर्थ की जड है। इसके लिए ही मानव अर्थ सग्रह के पीछे पागल की तरह दौड रहा है । जव तक भोगवुद्धि पर अकुश नही लगेगा, तबतक परिग्रह-बुद्वि से मुक्ति नही मिलेगी।
यह ठीक है कि मानव जीवन भोगोपभोग से सर्वथा मुक्त नही हो सकता। शरीर है, उमकी कुछ अपेक्षाएं । उन्हें सर्वथा कैसे ठुकराया जा सकता है । अत महावीर आवश्यक भोगोपभोग से नही, अपितु अमर्यादित - भोगोपभोग से मानव की मुक्ति चाहते थे।
उन्होंने इसके लिए भोग को सर्वथा त्याग का व्रत न बताकर 'भोगोपभोगपरिमाण' का व्रत बताया है।
भोग परिग्रह का मूल है । ज्यो ही भोग यथोचित आवश्यकता की सीमा मे आवद्ध होता है, परिग्रह भी अपने आप सीमित हो जाता है । इस प्रकार महावीर द्वारा उपदिष्ट भोगोपभोगपरिमाण' व्रत मे से अपरिग्रह स्वत फलित हो जाता है।
महावीर ने अपरिग्रह के लिए दिशा परिमाण और देशावकासिक व्रत भी निश्चित किए थे। इन व्रतो का उद्देश्य भी आमपास के देशो एव प्रदेशो पर होनेवाले अनुचित व्यापारिक, राजकीय एव अन्य शोपण प्रधान आक्रमणो से मानव समाज को मुक्त करना था । दूसरे देशो की सीमाओ, अपेक्षाओ एव स्थिनियो का योग्य विवेक रखे विना भोग-वासना पूर्ति के चक्र मे इधर उधर अनियश्रित भाग-दौड करना महावीर के साधना क्षेत्र मे निपिद्ध था । आज के शोपणमुक्त समाज की स्थापना के विश्व मगल उद्घोप मे, इस प्रकार महावीर का चिन्तन-स्वर पहले से ही मुखरित होता आ रहा है।
परिग्रह का परिष्कार दान पहले के सचित परिग्रह की चिकित्सा उसका उचित वितरण है। प्राप्त साधनो का जनहित मे विनियोग दान है, जो भारत की विश्व मानव को एक बहुत बडी देन है, किन्तु स्वामित्व विसर्जन की उक्त दान-प्रक्रिया में कुछ विकृतिया आ गई थी, अत महावीर ने चालू दान प्रणाली मे भी मशोधन प्रस्तुत किया। महावीर ने देखा लोग दान तो करते हैं, किन्तु दान के साथ उनके मन मे आसक्ति एव महकार की भावनाएँ भी पनपती है । वे दान का प्रतिफल चाहते हैं, यश, कीर्ति, वडप्पन, स्वर्ग और देवताओ की प्रमन्नता।
आदमी दान तो देता था, पर वह याचक की विवशता या गरीवी के साथ प्रतिष्ठा और स्वर्ग का सौदा भी कर लेना चाहता था। इस प्रकार का दान समाज मे गरीबी को बढावा देता था दाताओ के अहकार को प्रोत्साहित करता था । महावीर ने इस गलत दान-भावना का परिष्कार किया। उन्होने कहा--किमी को कुछ देना मात्र ही दान-धर्म नहीं हैं, अपितु निष्कामवुद्धि से', जनहित मे १-मुहादाई मुहाजीवी, दोवि,गच्छति सुग्गइ । —दशवकालिक
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२१२ / मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य मविभाग करना, सहोदर वन्धु के भाव से उचित हिस्सा देना, दान-धर्म है। दाता बिना किसी प्रकार के अहकार व भौतिक प्रलोभन से ग्रस्त हुए, महज सहयोग की पवित्र बुद्धि से दान करे-वही दान वास्तव मे दान है।
___ इमीलिए भगवान महावीर दान को सविभाग कहते थे। सविभाग–अर्थात् सम्यक्-उचित विभाजन-बंटवारा और इसके लिए भगवान् का गुरु गम्भीर घोप था कि- सविमागी को ही मोक्ष है, असविभागी को नही-'असविमागी न ह तस्स मोक्खो।'
वैचारिक अपरिग्रह भगवान् महावीर ने परिग्रह के मूल मानव मन की बहुत गहराई मे देखे । उनकी दृष्टि मे मानव-मन की वैचारिक अहता एव आसक्ति की हर प्रतिवद्धता परिग्रह है। जातीय श्रेष्ठता, भापागत पवित्रता, स्त्री-पुरुपो का शरीराधित अच्छा बुरापन, परम्पराओ का दुराग्रह आदि समग्र वैचारिक आग्रहो, मान्यताओ एव प्रतिवद्धताओ को महावीर ने आन्तरिक परिग्रह वताया और उससे मुक्त होने की प्रेरणा दी । महावीर ने स्पष्ट कहा कि विश्व की मानव जाति एक है । उसमे राष्ट्र, समाज एव जातिगत उच्चता-नीचता जैमी कोई चीज नहीं । कोई भी भापा शाश्वत एव पवित्र नहीं है। स्त्री और पुरुप आत्मदृष्टि से एक है, कोई ऊँचा या नीचा नही है । इसी तरह के अन्य मव सामाजिक तथा माप्रदायिक आदि भेद विकल्पो को महावीर ने औपाधिक वताया, स्वाभाविक नही ।।
इस प्रकार भगवान् महावीर ने मानव-चेतना को वैचारिक परिग्रह से भी मुक्त कर उसे विशुद्ध अपरिग्रह भाव पर प्रतिष्ठित किया।
भगवान् महावीर के अपरिग्रहवादी चिन्तन की पाँच फलश्रुतिया आज हमारे समक्ष हैं -- १-इच्छाओ का नियमन २-समाजोपयोगी साधनो के स्वामित्व का विसर्जन । ३-शोपणमुक्त समाज की स्थापना। ४-निष्कामबुद्धि से अपने साधनो का जनहित मे सविभाग दान । ५-आध्यात्मिक-शुद्धि।
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भारतीय इतिहास का लौह-पुरुष : चण्डप्रद्योत
-देवेन्द्र मुनि शास्त्री, साहित्यरत्न
भगवान् महावीर के समय उज्जनी का राजा चण्डप्रद्योत था। उसका मूल नाम प्रद्योत था परन्तु अत्यन्त ऋ र स्वभाव होने से उसके नाम के आगे चण्ड' यह विशेपण लगा दिया था। उसके पास विराट् मेना थी अत उसका दूसरा नाम महामेन भी या' ।
कथा सरित्सागर के अनुसार महासेन ने चण्डी की उपासना की थी जिसमे उसको अजेय खड्ग और याम प्राप्त हुआ था। इस कारण वह 'महाचण्ड' के नाम से भी प्रमिह था ।'
जव उमने जन्म लिया था तव समार मे दीपक के समान प्रकाण हो गया था। इसलिए उमका नाम प्रद्योत रखा गया। बौद्ध ग्रन्थ उदेनवत्यु मे लिखा है कि वह मूर्य की किरणो के समान शक्तिशाली था।
तिब्बती वौद्ध अनुश्रुति के अनुसार जिस दिन प्रद्योत का जन्म हुआ उसी दिन बुद्ध का भी जन्म हुआ था । और जिस दिन प्रद्योत राजसिंहासन पर बैठा उसी दिन गौतम बुद्ध ने बुद्धत्व प्राप्त किया।
आवश्यक चूणि', आवश्यक हारिभद्रीयवृत्ति और त्रिपष्टिशलाका पुरुप चरित्र मे आता है कि घण्हप्रद्योत के पास (१) लोह जघ नामक लेखवाहक (१) अग्निमीरु नामक रथ (३) अनल गिरि नामक हस्ति (४) और शिवा नामक देवी, ये चार रत्न थे ।
१ (क) उज्जैनी इन एशेंट इडिया, पेज १३
(ख) भगवती सूत्र सटीक १३१६, पत्र ११३५ मे उद्रायण के साथ जो महासेन का नाम आया है वह
___ चण्डप्रद्योत के लिए हैं। (ग) उत्तराध्ययन नेमिचन्द्र वृत्ति मे भी महामेन का उल्लेख हुआ है देखें पत्र २५२-१ २ (क) राकहिल-लिखित लाइफ आव वुद्ध, पृष्ठ ३२
(ख) उज्जयिनी इन ऐंशेन्ट इडिया, पृ० १३,-विमलचरण ३ लाइफ आव वुह, पृ० १७, राकहिल ४ उज्जयिनी इन ऐशेंट इण्डिया, पृ० १३ ५ लाइफ ऑफ वुद्ध, पृ० ३२, की टिप्पणी १ ६ आव० चूर्णि भाग २, पत्र १६० ७ आवश्यकहारि०, वृत्ति ६७३-१ ८ त्रिशप्टि० १०।११।१७३
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२१४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
उदेनवत्यु मे प्रद्योत के एक द्रुतगामी रथ का वर्णन है। भद्रावती नाम की हथिनी कक्का (पाली मे काका) नामक दास, दो घोडिया-चेलक्ठी, और मजुकेशी एव नाला गिरी नामक हाथी ये पाचो मिलकर उस रथ को खीचते थे।
धम्मपद के टीकाकार ने लिखा है कि प्रद्योत किसी भी सिद्धान्त को मानने वाला नही था' उमका कर्म फल पर विश्वास नहीं था । आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि वह स्त्री-लोलुपी और प्रचण्ड था ।' पुराणकार ने उसके लिए नयवजित शब्द का प्रयोग किया है ।१२।
___ जैन कथा साहित्य मे स्पष्ट वर्णन है कि चण्डप्रद्योत ने स्वर्णगुलिका दासी के लिए सिन्धु मीवीर के राजा उदायन के साथ महारानी मृगावती के लिए वत्स नरेश शतानीक को माथ । ४ 'द्विमुख'अवभासक' मकट के लिए पाचाल नरेश राजा दुम्मह के माथ ।१५ राजा श्रेणिक के बढते हए प्रभाव को न सह सकने के कारण मगध राज श्रेणिक १६ के साथ उसने युद्ध किया । ये सारे घटना प्रसग बहुत ही आकर्पक है । विस्तार भय से हमने उनको यहां उट्ट किंत नही किया है, जिज्ञासुओ को मूल ग्रन्थ देखने चाहिए।
वत्म देश के राजा शतानीक और चण्डप्रद्योत का युद्ध हुआ वह जैन१७ और बौद्ध कथानको मे प्राय समान रूप से मिलता है । प्रस्तुत युद्ध का कथा सरित्सागर आदि मे भी उल्लेख हुआ है। स्वप्नवासवदत्ता नाटक मे महाकवि भास ने उसी कथा-प्रसग को मूल आधार बताया है।
मज्झिम निकाय के अनुसार अजातशत्रु ने चण्ड-प्रद्योत के भय से भयभीत वनकर राजगृह मे क्लिावन्दी की थी।५६ वौद्व माहित्य मे उसके दूसरे युद्धो का उल्लेख नही है।
जैन साहित्य मे चण्ड प्रद्योत के आठ रानियो का उल्लेख आया है। जो कौशाम्बी की रानी मृगावती के साथ भगवान महावीर के पास दीक्षा लेती है२० उममे एक रानी का नाम शिवा देवी है,
६ (क) धम्म पद टीका उज्जयिनी-दर्शन पृ० १२
(ख) उज्जयिनी इन ऐशेट इण्डिया पृ० १५ १० (क) उज्जैनी इन ए शेट इटिया पृ० १३ विमलचरणला
(ख) मध्य भारत का इतिहास प्र० भाग पृ० १७५-१७६ ११ निषष्टि० १०८।१५० व १६८ १२ कथासरित्सागर १३ निपष्टि १०।११-४४५-५६७
(ख) उत्तराध्ययन अ० १८ नेमिचन्द्रकृत वृत्ति
(ग) भरतेश्वर-बाहुबली वृत्ति भाग १, पत्र १७७-१ १४ विपप्टि-१०।११।१८४-२६५ १५ विपप्टि - १०।११।१७२-२६३ १६ उत्तराव्ययन सून अ० ६ नेमिचन्द्रकृत वृत्ति १७ निपप्टि-१०।११।१८४-२६५ १८ धम्मपद्ध अट्ठकथा, २११ १६ मज्जिाम निकाय ३।११८, गोपक मोग्गलान सुत्त २० आवश्यक चूणि
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3.चतुर्थ खण्ड धर्म-दर्शन एव सस्कृति ,भारतीय इतिहास का लौहपुरुप चण्डप्रद्योत | २१५ जो चेटक की पुत्री थी ।२१ एक का नाम अगारवती था जो सु समारपुर२3 के राजा धधुमार की पुत्री थी। इस अगारवती को प्राप्त करने के लिए प्रद्योत ने सुसमारपुर पर घेरा डाला था। वह अगारवती पक्की श्राविका थी। कथा मरित्सागर मे अगारवती को अगारक-नामक दैत्य की पुत्री कहा है 3' उसकी एक रानी का नाम मदन मजरी था, जो दुम्मह प्रत्येक बुद्ध की लडकी थी।
आवश्य नियुक्ति दीपिका मे प्रद्योत के गोपालक और पालक इन दो पुत्रो का उल्लेख हैं । " स्वप्नवानवदत्ता मे भी इन दो पुत्रो के साथ एक पुत्री का भी उल्लेख हुआ है उसका नाम वासुदत्ता दिया है, आवश्यक चूणि मे वासवदत्ता नाम आया है। उसे प्रद्योत की पत्नी अगारवती की पुत्री कहा है ।२६ वौद्ध साहित्य मे गोपालक की मां को वणिक पुत्री बताया है उसके भव्य रूप पर मुग्ध होकर प्रद्योत ने उसके साथ विवाह किया था। हपं चरित्र मे उसके एक पुत्र का नाम कुमारसेन दिया है।
कुछ ग्रन्यो मे खडकम्म को प्रद्योत का एक मत्री वताया है. कुछ ग्रन्थो मे मत्री का नाम भरत दिया है ।
जन साहित्य के पर्यवेक्षण से ज्ञात होता है कि चण्ड-प्रद्योत प्रारभ मे जैन धर्मावलम्बी नही या। राजा उदायन उसे बन्दी बनाकर ले जाते हैं । मार्ग में पर्युपणपर्व आ जाता है। राजा उदायन के उस दिन पौपधोपवास था, अत. उनका भोजन बनाने वाला रसोइआ चण्टप्रद्योत से पूछता है कि आप क्या भोजन करेंगे ? तव चण्डप्रद्योत को वहुत आश्चर्य हुआ । रसोइए ने पर्युपण महापर्व की वात कही और कहा इसी कारण महाराजा उदायन के पीपधोपवास है। तव चण्डप्रद्योत ने कहा कि मेरे माता-पिता भी श्रावक थे, इसलिए मेरे भी उपवास है । जब उदायन ने उसे मुक्त किया तव वह
२१ आवश्यक चूणि, उत्तरार्द्ध पत्र १६४ २२ आवश्यक चूर्णि भाग १, पत्र ६१ २३ मुनि श्री इन्द्रविजयजी का मन्त८७ है कि सु समारपुर का वर्तमान नाम 'चुनार' है, जो जिला
मिरजापुर मे है। २४ आवश्यक चूणि भाग २, पत्र १६६ २५ मध्यभारत का इतिहास प्रथम खण्ड पृ० १७५ ले० 'हरिहर निवास द्विवेदी' २६ उत्तराध्ययन ६ अ० नेमिचन्द्र वृत्ति १३५-२-१३६२ २७. आवश्यक नियुक्ति दीपिका, भाग २, पन ११०-१ गा १२८२ २८ स्वप्नवासवदत्ता महाकाव्य-भास २६ आवश्यक चूणि उत्तरार्द्ध पत्र १६१ ३० (क) अगुत्तर निकाय अठकथा १११११०
(ख) उज्जयिनी इन ऐंशेट इण्डिया पृ० १४
(ग) मध्यभारत का इतिहास भाग १-पृ १७५ द्विवेदी लिखित ३१ तीर्थकर महावीर भाग २, पृ० ५८७ ३२ लाइफ इन ऐशैट इण्डिया ३६४ ३३. उज्जयिनी-दर्शन पृ० १२ मध्यभारत सरकार ३४ (क) तन्ममयुपवामोऽद्य पितरौ श्रावको हि मे।
-उत्तरा० भावविजय की टीका म०१ श्लोक०१८२ पत्र ३८६-२
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२१६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य जैन धर्मावलम्बी वना । महावीर के समवसरण मे शतानीक राजा की पत्नी मृगावती तथा चण्ड-प्रद्योत की शिवा आदि आठ पत्नियां दीक्षित हुई, उस समय चण्ड-प्रद्योत भी वहाँ पर उपस्थित था ।३५
भगवान महावीर से उसका प्रयम साक्षात्कार वही हुआ था और वही पर उसने विधिवत् जैन धर्म स्वीकार किया था ।३६
अगुत्तर निकाय अटकथा के अनुसार चण्डप्रद्योत को धर्म का उपदेश भिक्षु महाकात्यायन के द्वारा मिला था जो साधु बनने के पूर्व चण्डप्रद्योत के राजपुरोहित थे । चण्ड-प्रद्योत के आग्रह से वे तथागत बुद्ध को बुलाने गये थे। किन्तु बुद्ध के उपदेश को सुनकर साधु बन गये। बुद्ध उज्जैनी नही आये किन्तु उन्होने महाकात्यायन भिक्षु को उज्जनी भेजा। चण्डप्रद्योत उसके उपदेश से वुद्व का अनुयायी वना।' किन्तु उमका वुद्ध के साथ कभी साक्षात्कार हुआ हो ऐसा घटना प्रसग वौद्ध साहित्य मे नही है।
यह स्पष्ट है कि मूल आगम और त्रिपिटक मे चण्ड-प्रद्योत के किसी विशेप धर्मानुयायी होने का उल्लेख नही है । वाद के क्या-माहित्य मे ही उसका सारा वर्णन मिलता है। वह भगवान महावीर या तथागत बुद्ध इन दोनो मे से किसका अनुयायी था? यह भी सभव है कि वह प्रारभ मे एक धर्म का अनुयायी रहा हो, वाद मे दूसरे धर्म का अनुयायी बना हो । यह भी सभव है कि उसका जैन और बौद्ध दोनो ही परम्पराओ के माय सम्बन्ध रहा हो, जिससे वाद के कथाकारो ने अपना-अपना अनुयायी सिद्ध करने का प्रयान क्यिा हो।
हमारी दृष्टि से उसकी आठो रानियां जैन धर्म मे दीक्षित हुई, और वे विवाह के पूर्व भी जैन थी अत चण्ड-प्रद्योत का बाद मे जैन होना अधिक तर्क सगत लगता है।
१०११११५६७
(ख) श्रावको पितरोमम"
त्रिपष्टि ३५ भरनेश्वर वाहुवली वृत्ति द्वितीय विभाग प० ३२३ ३६ ततश्चण्डप्रद्योत धर्ममगीकृत्य स्वपुरम् ययौ-भरतेश्वर बाहुवली वृत्ति २।३२३ ३७ (क) अगुत्तर निकाय अटकथा १११।१०
(ख) धेरगाथा-~-अटकथा भाग १ पृ० ४८३
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वर्तमान युग में भगवान महावीर के विचारों की सार्थकता
डॉ० नरेन्द्र भानावत एम ए पी-एच. डी.
वढे मान भगवान महावीर विराट व्यक्तित्व के धनी थे । वे क्रांति के रूप मे उत्पन्न हुए थे। उनमे शक्ति, शील व सौन्दर्य का अद्भत प्रकाश था। उनकी दृष्टि वडी पैनी थी । यद्यपि वे राजकुमार थे। राजसी समस्त ऐश्वर्य उनके चरणो मे लोटता था तथापि पीडित मानवता और दलित शोषित जन-जीवन से उन्हे सहानुभूति थी। समाज में व्याप्त अर्थ-जन्य विषमता और मन मे उद्भूत काम जन्य वासनाओ के दुर्दमनीय नाग को अहिंसा, सयम और तप के गारूडी सस्पर्श से कील कर वे समता, सद्भाव और स्नेह की धारा अजम्न रूप से प्रवाहित करना चाहते थे। इस महान् उत्तरदायित्व को, जीवन के इस लोकसग्रही लक्ष्य को उन्होने पूर्ण निष्ठा और सजगता के साथ सम्पादित किया, इसमे कोई सन्देह नहीं ।
__महावीर का जीवन-दर्शन और उनका तत्त्वचिंतन इतना अधिक वैज्ञानिक और सार्वकालिक लगता है कि वह आज की हमारी जटिल समस्याओ के समाधान के लिए भी पर्याप्त है। आज की प्रमुख समस्या है सामाजिक अर्थजन्य विपमता को दूर करने को । इसके लिए मार्क्स ने वर्ग-सघर्ष को हल के रूप मे रखा । शोपक और शोषित के पारस्परिक अनवरत संघर्ष को अनिवार्य माना और जीवन की अन्तस् भाव-चेतना को नकारकर केवल भौतिक जडता को ही सृष्टि का आधार माना । इससे जो दुष्परिणाम हुआ वह हमारे सामने है । हमे गति तो मिल गई पर दिशा नही, शक्ति तो मिल गई पर विवेक नही, सामाजिक वैषम्य तो सतहो रूप से कम होता हुआ नजर आया पर व्यक्ति-व्यक्ति के मन की दूरी वढती गई। वैज्ञानिक आविष्कारो ने राष्ट्रो की दूरी तो कम की पर मानसिक दूरी और बढी । व्यक्ति के जीवन मे धार्मिकता-रहित नैतिकता और आचरण रहित विचारशीलता पनपने लगी। वर्तमान युग का यही सबसे बडा अन्तविरोध और सास्कृतिक सकट है। भगवान महावीर की विचारधारा को ठीक तरह से हृदयगम करने पर समाजवादी लक्ष्य की प्राप्ति भी सभाव्य है और वढते हुए इस मास्कृतिक सकट से मुक्ति भी।
महावीर ने अपने राजसी जीवन मे और उसके चारो ओर जो अनन्त वैभव की रगीनी थी, उससे यह अनुभव किया कि आवश्यकता से अधिक सग्रह करना पाप है, सामाजिक अपराध है, आत्मछलना है । आनन्द का रास्ता है अपनी इच्छाओ को कम करो, आवश्यकता से अधिक स ग्रह न करो। क्योकि हमारे पास जो अनावश्यक सग्रह है, उसकी उपयोगिता कही और है । कही ऐसा प्राणी वर्ग है जो उम सामग्री से वचित है, जो उमके अभाव मे सतप्त है, आकुल है । अत हमे उस अनावश्यक सामग्नी को सग्रहीत कर रखना उचित नहीं । यह अपने प्रति ही नहीं, समाज के प्रति छलना है, इस विचार को अपरिग्रह दर्शन कहा गया। इसका मूल मन्तव्य है-किसी के प्रति ममत्व-भाव न रखना । वस्तु के प्रति भी नही, व्यक्ति के प्रति मी नही, स्वय अपने प्रति भी नही । वस्तु के प्रति ममता न होने पर हम अनावश्यक सामग्री का तो सचय करेंगे ही नहीं, आवश्यक सामग्री को भी दूमरो के लिए विसर्जित करेंगे।
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२१८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ आज के सकट काल मे जो सग्रह वृत्ति (Hoarding) और तद्जनित व्यावसायिक लाभ वृत्ति पनपी है, उममे मुक्त हम तव तक नही हो सकते जब तक कि अपरिग्रह दर्शन के इस पहल को आत्मसात् न कर लिया जाय।
__ व्यक्ति के प्रति भी ममता न हो। इसका दार्शनिक पहलू इतना ही है कि व्यक्ति अपने 'स्वजनो' तक ही न मोरे । परिवार के सदस्यो के हितो की ही रक्षा न करे वरन् उसका दृष्टिकोण समस्त मानवता के हित की ओर अग्रसर हो । आज प्रशासन और अन्य क्षेत्रो मे जो अनैतिकता व्यवहृत है उसके मूल मे 'अपनो के प्रति ममता का भाव ही विशेप रूप से प्रेरक कारण है। इसका अर्थ यह नही कि व्यक्ति पारिवारिक दायित्व ने मुक्त हो जाय । इसका ध्वनित अर्थ केवल इतना ही है कि व्यक्ति 'स्व' के दायरे से निकलकर 'पर' तक पहुचे । 'स्वार्थ के सकीर्ण क्षेत्र को लाघ कर 'परार्थ के विस्तृत क्षेत्र को अपनाये । सन्तो के जीवन की यही साधना है । महापुरुप इसी जीवनपद्धति पर आगे बढते हैं । क्या महावीर, क्या बुद्ध मभी इन व्यामोह से परे हटकर, आत्मजयी वने । जो जिस अनुपात में इस अनामक्त भाव को आत्मसात् कर सकता है वह उसी अनुपात मे लोक-सम्मान का अधिकारी होता है। आज के तथाकथित नेताओ के व्यक्तित्व का विश्लेपण इम कमौटी पर किया जा सकता है । नेताओ के सम्बन्ध में आज जो दृष्टि बदली है और उस शब्द के अर्थ का जो अपकर्ष हुआ है, सकोच हुआ है, उसके पीछे यही लोकदृष्टि रही है।
अपने प्रति भी ममता न हो यह अपरिग्रह दर्शन का चरम लक्ष्य है। श्रमण सस्कृति मे इसलिए शारीरिक कप्ट-सहन को एक ओर अधिक महत्त्व दिया है तो दूमरी ओर इस पार्थिव देह-विसर्जन के पूर्व 'सलेखणा व्रत' का विधान किया गया है । वैदिक संस्कृति मे जो समाधि अवस्था, या सतमत मे जो सहजावस्था है, वह इसी कोटि की है। इस अवस्था में व्यक्ति 'स्व' से आगे बढकर इतना अधिक सूक्ष्म हो जाता है कि वह कुछ भी नहीं रहता । यही योग साधना की चरम परिणति है।
सक्षेप में महावीर की इम विचारधारा का अर्थ यही है कि हम अपने जीवन को इतना सयमित और तपोमय बनाये कि दूसरो का लेशमात्र भी शोपण न हो, माथ ही साथ हम अपने में इतनी शक्ति, पुरुपार्थ और क्षमता अजित करलें कि दूसरा हमारा शोपण न कर सके ।
प्रश्न है ऐसे जीवन को से जीया जाय ? जीवन मे मील और शक्ति का यह सगम कैसे हो? इसके लिए महावीर ने 'जीवन-व्रत-साधना' का प्रारूप प्रस्तुत किया । साधक जीवन को दो वर्गों मे वाटते हुए उन्होंने बारह व्रत बतलाये । प्रथम वर्ग जो पूर्णतया इन व्रतो की साधना करता है, वह श्रमण है, मुनि है मन है, और दूसरा वर्ग जो अशतः इन व्रतो को अपनाता है, वह श्रावक है, गृहस्थ है, ससारी है।
इन बारह प्रतो की तीन श्रेणियां हैं । पाच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत । अणुवन मे श्रावक न्यूल हिसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का त्याग करता है। व्यक्ति तथा समाज के जीवनयापन के लिए वह आवश्यक सूक्ष्म हिसा का त्याग नहीं करता (जव कि श्रमण इसका भी त्याग करता है) पर उसे भी यथाशक्य सीमित करने का प्रयत्न करता है । इन व्रतो मे ममाजवादी समाज-रचना के सभी सावश्यक तत्व विद्यमान हैं।
प्रथम अणुरात में निरपराध प्राणी को मारना निपिद्ध है किन्तु अपरावी को दण्ड देने की छूट है। दूसरे अणुव्रत में धन, सम्पत्ति, परिवार आदि के विपय में दूसरे को धोखा देने के लिए असत्य बोलना निपिट्ट है। तीसरे व्रत मे व्यवहार-शुद्धि पर बल दिया गया है। व्यापार करते समय अच्छो वस्तु दिखाकर घटिया दे देना, दूध में पानी आदि मिला देना, झूठा नाप, तौल तथा राज-व्यवस्था के विरुद्ध आच
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सरकृति वर्तमान युग मे भगवान महावीर के विचारो की सार्थकता | २१६ रण करना निषिद्ध है। इस व्रत मे चोरी करना तो वर्जित है ही किन्तु चोर को किसी प्रकार की सहायता देना या चुराई हुई वस्तु को खरीदना भी वर्जित है। चौथा व्रत स्वदार-सन्तोप है जो एक ओर कामभावना पर नियमन है तो दूसरी ओर पारिवारिक सगठन का अनिवार्य तत्व । पाचवे अणुव्रत मे श्रावक स्वेच्छापूर्वक धन सम्पत्ति, नौकर-चाकर आदि की मर्यादा करता है।
तीन गुणवतो मे प्रवृत्ति के क्षेत्र को सीमित करने पर बल दिया गया है । शोपण की हिमान त्मक प्रवृत्तियो के क्षेत्र को मर्यादित एव उत्तरोतर सकुचित करते जाना ही इन गुणवतो का उद्देश्य है । छठा व्रत इसी का विधान करता है । सातवें व्रत मे भोग्य वस्तुओ के उपभोग को मीमित करने का आदेश है । आठवें मे अनर्थदण्ड अर्थात् निरर्थक प्रवृत्तियो को रोकने का विधान है।
चार शिक्षाव्रतो मे आत्मा के परिप्कार के लिए कुछ अनुष्ठानो का विधान है। नवाँ सामायिक व्रत समता की आराधना पर, दशवाँ सयम पर, ग्यारह्वा तपस्या पर और वारहवां सुपात्रदान पर वल देता है।
इन बारह व्रतो की माधना के अलावा श्रावक के लिए पन्द्रह कर्मादान भी वर्जित हैं अर्थात् उसे ऐसे व्यापार नही करना चाहिए जिनमे हिंमा की मात्रा अधिक हो या जो समाज-विरोधी तत्त्वो का पोपण करते हो । उदाहरणत चोरो, डाकुओं या वैश्याओ को नियुक्त कर उन्हे अपनी आय का साधन नही वनाना चाहिए।
इस व्रत-विधान को देखकर यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि महावीर ने एक नवीन और आदर्श समाज-रचना का मार्ग प्रस्तुत किया, जिसका आधार तो आध्यात्मिक जीवन जीना है पर जो मार्क्स के समाजवादी लक्ष्य से भिन्न नही है।
ईश्वर के सम्बन्ध मे जो जन विचारधारा है, वह भी आज की जनतत्रात्मक और आत्म स्वातन्त्र्य की विचारधारा के अनुकूल है । महावीर के समय का समाज बहुदेवोपासना और व्यर्थ के कर्मकाड से वन्धा हआ था । उसके जीवन और भाग्य को नियन्त्रित करतो थी कोई परोक्ष अलौकिक सत्ता । महावीर ने ईश्वर के सचालक रूप का तीव्रता के साथ खण्डन कर इस बात पर जोर दिया कि व्यक्ति स्वय अपने भाग्य का निर्माता है। उसके जीवन को नियन्त्रित करते हैं उसके द्वारा किये गये कार्य । इसे उन्होंने 'कर्म' कह कर पुकारा । वह स्वय कृत कमों के द्वारा ही अच्छे या बुरे फल भोगता है । इस विचार ने नैराश्यपूर्ण असहाय जीवन मे आशा, आस्था और पुरुषार्थ का आलोक विखेरा और व्यक्ति स्वय अपने पैरो पर खडा होकर कर्मण्य बना।
ईश्वर के सम्बन्ध मे जो दूसरी मौलिक मान्यता जैन दर्शन की है, वह भी कम महत्व की नहीं। ईश्वर एक नही, अनेक है । प्रत्येक माधक अपनी आत्मा को जीतकर, चरम साधना के द्वारा ईश्वरत्व की अवस्था को प्राप्त कर सकता है । मानव जीवन की सर्वोच्च उत्थान रेखा ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है। इस विचारधारा ने ममाज में व्याप्त पाखण्ड, अन्ध श्रद्धा और कर्मकाण्ड को दूर कर स्वस्थ जीवन-माधना या आत्म-साधना का मार्ग प्रशस्त किया। आज की शब्दावली मे कहा जा सकता है कि ईश्वर के एकाधिकार को ममाप्त कर महावीर की विचारधारा ने उसे जनतत्रीय पद्धति के अनुरूप विकेन्द्रित कर सबके लिए प्राप्य वना दिया--शत रही जीवन की सरलता, शुद्धता और मन की दृढता । जिम प्रकार राजनैतिक अधिकारो की प्राप्ति आज प्रत्येक नागरिक के लिये सुगम है, उसी प्रकार ये आध्यात्मिक अधिकार भी उसे सहज प्राप्त हो गये । शूद्रो और पतित समझी जाने वाली नारी जाति का समुद्धार करके भी महावीर ने समाज-देह को पुष्ट किया । आध्यात्मिक उत्थान की चरम सीमा को स्पर्श
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२२० ! मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ करने का मार्ग भी उन्होने सबके लिए खोल दिया-चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, चाहे वह शूद्र हो, चाहे और कोई।
महावीर ने जनतन्त्र से भी आगे बढकर प्राणतन्त्र की विचारधारा दी । जनतन्त्र में मानव न्याय को ही महत्व दिया गया है । कल्याणकारी राज्य का विस्तार मानव के लिए है, समस्त प्राणियो के लिए नहीं । मानव-हित को ध्यान मे रखकर जनतन्त्र मे अन्य प्राणियो के वध की छूट है । पर महावीर के शासन मे मानव और अन्य प्राणी मे कोई अन्तर नही । सवकी आत्मा समान है। इसीलिए महावीर की अहिंसा अधिक सूक्ष्म और विस्तृत है, महावीर की करुणा अधिक तरल और व्यापक है । वह प्राणी-मात्र के हित की सवाहिका है।
मेरा विश्वास है ज्यो-ज्यो विज्ञान प्रगति करता जाएगा, त्यो त्यो महावीर की विचारधारा अधिकाधिक युगानुकूल बनती जायगी । उसमे शाश्वत सत्य निहित है जो अचल है । यह अचल सत्य विज्ञान के साथ आगे बढकर ही सचल वन पायगा, केवल रूढियो की धूल ही छिटक कर पीछे रह जायेगी, नष्ट हो जायगी।
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श्री स्थानकवासी जैन इतिहास का स्वर्ण पृष्ठ हमारी आचार्य-परम्परा
-मुनि श्री प्रतापमल जी महाराज
वीर निर्वाण के पश्चात् क्रमश सुधर्मा प्रभृति देवद्धि-क्षमा श्रमण तक २७ ज्योतिर्धर आचार्य हुए हैं । जिनके द्वारा शासन की अपूर्व प्रभावना हुई। वीर सवत् ६८० मे सर्व प्रथम देवद्धिगणीक्षमाश्रमण ने भव्य-हितार्थ वीर-वाणी को लिपिवद्ध करके एक महत्त्वपूर्ण सेवा कार्य पूरा किया । तत्पश्चात् गच्छ-परम्पराओ का विस्तार होने लगा। विक्रम स० १५३१ मे 'लोकागच्छ' की निर्मल कीति देश के कोने-कोने मे प्रसारित हुई । तत्सम्वन्धित आठ पाटानुपाट परम्पराओ का सक्षिप्त नामोल्लेख यहाँ किया गया है।
भाणजी ऋषि भद्दा ऋपि नूना ऋषि भीमा ऋपि जगमाल ऋषि सखा ऋपि रूपजी ऋषि
जीवाजी ऋपि तत्पचात् अनेक माधक वृन्द ने क्रियोद्धार किया। जिनमे श्री जीवराजजी म० एव हरजी मुनि विशेप उल्लेखनीय है । उनके विषय मे कुछ ऐतिहासिक तथ्य प्रसिद्ध हैं, जो नीचे अकित किया गया है।
मरु प्रदेश (मारवाड) के पीपाड नगर मे वि० स० १६६६ मे यति तेजपाल जी एव कु वरपाल जी के ६ शिष्यो ने क्रियोद्धार किया। जिनके नाम-अमीपाल जी, महिपाल जी, हीरा जी. जीवराज जी, गिरधारीलाल जी एव हरजी हुए हैं । उनमे से जीवराज जी, गिरधारीलाल जी और हरजी स्वामी के शिष्य परम्परा-आगे वढी ।
वि० स० १६६६ मे श्री जीवराज जी म० आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। उनके सात शिप्य हुए जो मभी आचार्य पद से अलकृत थे। जिनके नाम इस प्रकार हैं
पूज्य श्री पूनम चद जी म० पूज्य श्री नानक राम जी म० पूज्य श्री शीतलदाम जी म० " , स्वामीदास जी म०
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२२२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
पूज्य श्री कुन्दन मल जी म० ,, नाथ राम जी म० , , दौलत राम जी म०
कोटा सम्प्रदाय का उद्गम कोटा सम्प्रदाय आगे चलकर कई शाखाओ मे विभक्त हुई । जिनमे से एक शाखा के अग्रगण्य मुनि एव आचार्यां की शुभ नामावली निम्न है।
(१) श्री हरजी ऋपि जी म० एव जीवराज जी म० (२) पूज्य श्री गुलावचन्द जी म० (गोदाजी म०)
, , फरसुराम जी म० ,, लोकपाल जी म०
,, मयाराम जी म० (महाराम जी म०) ,, दौलतराम जी म. ,, लालचद जी म० , हुक्मीचद जी म० ,, शिवलाल जी म० ,, उदयसागर जी म०
चौथमल जी म०
श्रीलाल जी म० ,, श्री मन्नालाल जी म०
,, श्री खूवचद जी म०
, , श्री महतमल जी म०
पज्य श्री दौलतराम जी म० से पूर्व के पाचो आचार्य के विषय मे प्रामाणिक तथ्य प्राप्त नही हैं । परन्तु आ० श्री दौलतराम जी म० सा० से लेकर पू० श्री सहस्रमल जी म० सा० तक के आचार्यों की जो हने ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है । उसे क्रमश दी जायगी।।
पूज्य श्री दौलतराम जी म. सा० कोटा गज्य के अन्तर्गत 'काला पीपल' गांव व वगैरवाल जाति मे आपका जन्म हुआ था। शव काल धार्मिक संस्कारो मे बीता। वि० म० १८१४ फाल्गुन शुक्ला ५ की मगल वेला मे क्रिया निष्ठ श्रद्धेय आचार्य श्री मयागम जी म० सा० के मान्निव्य मे आपकी दीक्षा सपन्न हुई। प्रखर बुद्धि के कारण नव दीक्षित मुनि ने स्वल्प समय मे ही रत्न त्रय की आशातीत अभिवृद्धि की । जान और क्रिया के सन्दर सगम से जीवन उत्तरोत्तर उन्नतिशील होता रहा । फलस्वरूप सयमी-गुणो से प्रभावित होकर चतुर्विध मघ ने आपको आचार्यपद से शुभालकृत किया।
मुख्य रूप ने कोटा एव पार्श्ववर्ती क्षेत्र आप की विहार स्थली रही है। कारण कि-इन क्षेत्रो मे धर्म-प्रचार की पूर्णत कमी थी। भारी कठिनता को सहन करके आपने उस कमी को दूर किया। पान गोटे में भी अत्यधिक परिपह सहन करने पडे। तथापि आप अपने प्रचार कार्य मे सवल रहे । उच्चतम लाचार-विचार के प्रभाव ने काफी सफलता मिली । अत सरावगी, माहेश्वरी, अग्रवाल, पोर
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव संस्कृति हमारी आचार्य परम्परा | २२३ वाल, वगैरवाल एव ओसवाल इस प्रकार लगभग तीन सौ घर वालो ने आपके मुखारविन्द से गुरु आम्नाएँ स्वीकार की। इसी प्रकार बून्दी, वारा आदि क्षेत्र भी अत्यधिक प्रभावित हुए। फलस्वरूप आचार्य देव का व्यक्तित्व और चमक उठा । वस मुख्य विहारस्थली होने के कारण कोटा सम्प्रदाय के नाम से प्रख्यात हुए।
एकदा शिप्य मण्डली सहित आचार्य प्रवर का दिल्ली में सुभागमन हुआ । उस वक्त वहाँ आगमनमर्म सुश्रावक दलपत सिंह जी ने केवल दशवकालिक सूत्र के माध्यम से पूज्य प्रवर के समक्ष २२ आगमो का निष्कर्ष प्रस्तुत किया। जिस पर पूज्य प्रवर अत्यधिक प्रभावित हुए । लाभ यह हुआ कि पूज्य श्री का आगमिक अनुभव अधिक परिपुष्ट बना।
रत्नत्रय को प्रख्याति से प्रभावित होकर कठियावाड प्रान्त मे विचरने वाले महा मनस्वी मुनि श्री अजरामल जी म० ने दर्शन एव अध्ययनार्थ आपको याद किया। तदनुसार मार्गवति क्षेत्रो मे शासन की प्रभावना करते हुये आप लिमटी (गुजरात) पधारे ।
शुभागमन की सूचना पाकर समकित सार के लेखक विद्वदवर्य मुनि श्री जेठमल जी म. सा. का भी लिमडी पदार्पण हुआ। मुनि त्रय की त्रिवेणी के पावन सगम से लीमडी तीर्थ स्थली बन चुकी थी । जनता मे हर्षोल्लाम भक्ति की गगा फूट पड़ी। पारस्परिक अनुभूतियो का मुनि मण्डल में काफी आदान-प्रदान हुआ। इस प्रकार श्लाघनीय शासन की प्रभावना करते हुये आचार्य देव सात चातुर्मास उघर विताकर पुन राजस्थान मे पधार गये।
___ जयपुर राज्य के अन्तर्गत 'रावजी का उणिहारा' ग्राम मे आप धर्मोपदेश द्वारा जनता को लाभान्वित कर रहे थे।
उन्ही दिनो दिल्ली निवासी सुश्रावक दलपतसिंह जी को रात्रि मे स्वप्न के माध्यम से ऐसी ध्वनि सुनाई दी कि-'अब शीघ्र ही सूर्य ओझल होने जा रहा है ।' निद्रा भग हुई। तत्क्षण उन्होंने ज्योतिप-ज्ञान मे देखा तो पता लगा कि-पूज्य प्रवर का आयुप केवल सात दिन का शेष है। वस्तुत. शीव्र सेवा में पहुँचकर उन्हे सचेत करना मेरा कर्तव्य है। ऐसा विचार कर अविलम्ब उस गांव पहुंचे। जहाँ आचार्यदेव विराज रहे थे।
शिष्यो ने आचार्य देव की सेवा मे निवेदन किया कि दिल्ली के श्रावक चले आ रहे हैं।
पूज्य प्रवर ने सोचा---एकाएक श्रावक जी का यहाँ आना, सचमुच ही महत्त्वपूर्ण होना चाहिए । मनोविज्ञान मे पूज्य प्रवर ने देखा तो मालूम हुआ कि-इस पार्थिव देह का आयुष केवल सात दिन का शेष है । 'शुभस्य शीघ्रम्' के अनुसार उस समय आचार्य देव सथारा म्वीकार कर लेते है ।
श्रावक दलपतसिंह जी उपस्थित हुए । “मत्यएण वदामि" के पश्चात् कुछ शब्दोच्चारण करने लगे कि-पूज्य प्रवर ने फरमा दिया - पुण्यला | आप मुझे सावधान करने के लिए यहाँ आये हो। वह कार्य अर्थात् जीवन पर्यन्त के लिए मैंने सथारा कर लिया है।
इस प्रकार काफी वर्षों तक शुद्ध सयमी जीवन के माध्यम से चतुर्विध सघ की खूब अभिवृद्धि करने के पश्चात् समाधिपूर्वक स १६३३ पौष शुक्ला ६ रविवार के दिन आप स्वर्गस्थ हुए।
पूज्य श्री लालचद जी म० आप की जन्म स्थली बून्दी राज्य में स्थित 'करवर' गांव एव जाति के आप सोनी थे। चित्र कला कोरने मे आप निष्णात थे। और चित्र कला ही आप के बैराग्य का कारण बनी।
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२२४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
एकदा अन्तरडा ग्राम के ठाकुर सा० ने रामायण सम्बन्धित भित्तियो पर चित्र बनाने के लिए आपको बुलाया । तदनुसार रग-रोगन लगाकर चित्र अधिकाधिक चमकीले बनाये गये। पूरी तौर से रोगन सूख नही पाया था और विना कपडा ढके वे घर चले गये । वापिस आ करके देखा तो बहुत सी मक्खियाँ रोगन के साथ चिपक कर प्राणो की आहुतियां दे चुकी थी।
बस, मन मे भारी ग्लानि उत्पन्न हुई । अन्तर्ह दय मे वैराग्य की गगा फूट पडी। विचारो की धारा में डूव गये हाय । मेरी थोडी असावधानी के कारण भारी अकाज हो गया । अव मुझे दया ही पालना है । खोज करते हुए आ० श्री दौलतराम जी म० की सेवा मे आये और उत्तमोत्तम भावो से जैन दीक्षा स्वीकार कर ली।
___ गुरु भगवत की पर्युपासना करते हुए आगमिक ठोस ज्ञान का सपादन किया। मबल एव सफल शासक मान करके सघ ने आप को आचार्य पद पर आसीन किया । आपकी उपस्थिति मे कोटा सप्रदाय मे मत्तावीस पडित एव कुल सावु-साध्वीयो की संख्या २७५ तक पहुंच चुकी थी इस प्रकार कोटा सप्रदाय के विस्तार मे आप का श्लाघनीय योगदान रहा।
आचार्य श्री हुकमीचन्द जी म. सा० आप का जन्म जयपुर राज्य के अन्तर्गत 'टोडा' ग्राम मे ओसवाल गोत्र में हुआ था। पूर्व धार्मिक संस्कारो के प्रभाव से व यदा-कदा मुनि महासती के वैराग्योत्पादक उपदेशो के प्रभाव से आपका जीवन आत्म-चिंतन मे लीन रहा करता था।
एकदा प० श्री लाल चद जी म० सा० का बून्दी मे शुभागमन हुआ और मुमुक्षु हुकमी चन्द जी का भी उन्ही दिनो घरेलू कार्य वशात् बून्दी मे आना हुआ था। वैराग्य वाहिनी वाणो का पान करके सवत् १८७६ मार्ग शीर्पमास के शुक्ल पक्ष मे विशाल जन समूह के समक्ष आ० श्री लालचन्द जी म० के पवित्र चरणो मे दीक्षित हुए और बलिष्ठ योद्धा की भाँति नव दीक्षित मुनि रत्न-प्रय की साधना मे जुड गये । वस्तुत उच्चतम आचार-विचार व्यवहार के प्रभाव से सयमी जीवन मवल बना। व्याख्यान शैली शब्दाडम्बर से रहित सीधी-सादी सरल एव पैराग्य से ओत-प्रोत भव्यो के मानस-स्थली को सीधी छने
। आपके हस्ताक्षर अति सुन्दर आते थे। आज भी आप द्वारा लिखित शास्त्र निम्बाहेडा के पुस्तकालय की शोभा मे अभिवृद्धि कर रहे हैं ।
'ज्ञानाय-दानाय-रक्षणाय' तदनुसार स्व-पर कल्याण की भावना को लेकर आपने मालव धरती को पावन किया। शामन प्रभावना मे आशातीन अभिवृद्धि हुई । साधिक सुप्तशक्तियो मे नई चेतना अगडाई लेने लगी, नये वातावरण का सर्जन हुआ। जहां-तहां दया धर्म का नारा गूजउठा और विखरी हुई सघ-शक्ति मे पुन एकता की प्रतिष्ठा हुई।
पूज्य प्रवर के शुभागमन मे श्री सघो मे काफी धर्मोन्नति हुई । जन-जन का अन्तर्मानस पूज्य प्रवर के प्रति सश्रद्धा नत मस्तक हो उठा । चूंकि-पूज्य श्री का तपोमय जीवन था। निरतर २१ वर्ष तक वेलेवेले की तपाराधना, ओढने के लिए एक ही चद्दर का उपयोग, प्रतिदिन दो सी 'नमोत्युण' का स्मरण करना, जीवन पर्यंत सर्व प्रकार के मिष्ठान्नो का परित्याग और स्वय के अधिकार मे शिष्य नही वनाना आदि महान् प्रतिज्ञाओ के धनी पूज्यप्रवर का जीवन अन्य नर-नारियो के लिये प्रेरणादायक रहे, उसमे आश्चर्य ही क्या है ? उसी उच्च कोटि की साधना के कारण चित्तौडगढ मे आप के स्पर्श से एक कुप्टी रोगी के रोग का अन्त होना, रामपुरा मे आप की मौजूदगी मे एक वैरागिन बहिन के हाथो में पड़ी हथकडियो का टूटना और नाथ द्वारा के व्याख्यान समवशरण मे नभमार्ग से विचित्र ढग के
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव संस्कृति हमारी आचार्य-परम्परा | २२५
रुपयो की बरसात आदि-२ चमत्कार पूज्य प्रवर के उच्चातिउच्चकोटि के सयम का सस्मरण करवा रहे है।
अपनी प्रखर प्रतिभा, उत्कृष्ट चारित्र और असरकारक वाणी के कारण जनता के इतने प्रिय हो गये कि-भविष्य मे आप के आज्ञानुगामी सत-सती समूह को जनता "पूज्य श्री हुक्मचद जी म० सा० की सम्प्रदाय के" नाम से पुकारने लगी । इस प्रकार लगभग अडतीम वर्प पाच मास तक शुद्ध सयम का परिपालन कर चारित्र चूडामणि श्रमणश्रेष्ठ पूज्य श्री हुक्मीचन्द जी म० सा० का वैशाख शुक्ला ५ सवत् १९१७ मगलवार को जावद शहर मे समाधिपूर्वक स्वर्गवास हुआ ।
तत्पश्चात् साधिक सर्व उत्तरदायित्व आप के गुरु भ्राता पूज्य श्री शिवलाल जी म० को सभालना जरूरी हुआ । जिनका परिचय इस प्रकार है।
आचार्य श्री शिवलाल जी म. सा. आप की पावन जन्मस्थली मालवा प्रान्त मे धामनिया (नीमच) ग्राम था । सवत् १८६१ मे आपने दीक्षा अगीकार की थी । स्व० पूज्य श्री हुक्मचन्द जी म० की तरह ही आप भी शास्त्रमर्मज्ञ, -स्वाध्यायी व आचार-विचार मे महान निष्ठावान-श्रद्धावान ये। न्याय एव व्याकरण विपय के अच्छे ज्ञाता के साथ-साथ स्व-मत-पर-मत मीमासा मे भी आप कुशल कोविद माने जाते थे। आप यदा-कदा भक्ति भरे व जीवनस्पर्शी, उपदेशी कवित्त भजन-लावणियाँ भी रचा करते थे। जो सम्प्रति पूर्ण साधना भाव के कारण अप्रकाशित अवस्था मे ही रह गये हैं ।
आपके प्रवचन तात्विक विचारो से ओत-प्रोत जन साधारण की भाव-भापा मे ही हुआ करते थे और सरल भापा के माध्यम से ही आप अपने विचारो को जन-जन तक पहुँचाने मे सफल भी हुए हैं। जिज्ञासुओ के शकाओ का समाधान भी आप शास्त्रीय मान्यतानुसार अनोखे ढग से किया करते थे । निरन्तर छत्तीस वर्ष तक एकान्तर तपाराधना कर कर्म कीट को धोने मे प्रयत्नशील रहे थे। वे पारणे मे कभी-कभी दूध घी आदि विगयो का परित्याग भी किया करते थे। इस प्रकार काफी सयम का परिपालन कर व चतुर्विध सघ की खूब अभिवृद्धि कर स० १९३३ पौप शुक्ला ६ रविवार के दिन आप दिवगत हुए। कुलाचार्य के रूप मे भो आप विख्यात थे ।
पूज्य प्रवर श्री उदयसागर जी मा० पूज्य श्री शिवलाल जी म० सा० के दिवगत होने के पश्चात् संप्रदाय की वागडोर आपके कमनीय कर-कमलो मे शोभित हुई।
आप का जन्म स्थान जोधपुर है । खिवेसरा गोत्रीय ओसवाल श्रेष्ठी श्री नथमलजी की धर्म पत्नी श्रीमतो जीवावाई की कुक्षी से स० १८७६ के पोप मास मे आप का जन्म हुआ। समयानुमार ज्ञानाभ्यास, कुछ अशो मे धघा-रोजगार भी सिखाया गया और साथ ही साथ लघु वय मे ही आप का सगपण भी कर दिया गया था। वस्तुत कुछ नैमित्तिक कारणो से और विकामोन्मुखी जीवन हो जाने के कारण विवाह योजना को वही ठण्डी करके सयमग्रहण करने का निश्चय कर लिया। दिनो दिन वैराग्य भाव-सरिता मे तल्लीन रहने लगे । येन-केन-प्रकारेण दीक्षा भावो की मद-मद महक उनके मात'पिता तक पहुंची। काफी विघ्न भी आये लेकिन आप अपने निश्चय पर सुदृढ रहे। काफी दिनों तक
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तक शूद्ध
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२२६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ घर पर ही माध्वोचित आचार-विचार पालते रहे । अन्तत खूब परीक्षा-जांच पडताल कर लेने के पश्चात् मात-पिता व न्याती-गोती सभी वर्ग ने दीक्षी की अनुमति प्रदान की।
महा मनोरथ-सिद्धि की उपलब्धि के पश्चात् पू० प्रवर श्री शिवलाल जी म० के आजानुगामी मुनि श्री हर्षचन्द जी म० के सान्निध्य में सवत् १८६८ चैत्र शुक्ला ११ गुरुवार की शुभ वेला में दीक्षित हुए।
दीक्षा व्रत स्वीकार करने के पश्चात् पूज्य श्री शिवलाल जी म० की सेवा में रहकर जैनमिद्धान्त का गहन अभ्यास किया । वुद्धि की तीक्ष्णता के कारण स्वल्प समय मे व्याख्यान-वाणी व पठनपाठन मे प्रलापनीय योग्यता प्राप्त कर ली गई। सदैव आप आत्म-भाव मे रमण किया करते थे । प्रमाद आलम्ब मे समय को खोना, आप को अप्रिय था । सरल एव स्पष्टवादिता के आप धनी थे अतएव सदैव आचार-विचार में सावधान रहा करते थे । व अन्य मन्त महन्तो को भी उसी प्रकार प्रेरित किया करते थे।
आप की विहार स्थली मुख्य रूपेण मालवा और राजस्थान ही थी। किन्तु भारत के सुदूर तक आप के सयमी जीवन की महक व्याप्त थी। आप के ओजस्वी भापणो से व ज्योर्तिमय जीवन के प्रभाव मे अनेक इतर जनो ने मद्य, मान व पशुवलि का जीवन पर्यन्त के लिये त्याग किया था और कई बडे-बडे राजा-महाराजा जागीरदार आप की विद्वत्ता से व चमकते-दमकते चेहरे से आकृष्ट होकर यदा-कदा दर्शनो के लिए व व्याख्यानामृत पान हेतु आया ही करते थे।
अन्य अनेक ग्राम-नगरो को प्रतिलाभ देते हुए आप शिग्य समुदाय महित रतलाम पधारे । पार्थिव देह की स्थिति दिनो-दिन दबती जा रही थी । बस द्र तगत्या मुख्य-मुख्य सत व श्रावको की सलाह लेकर पूज्य प्रवर ने अपनी पैनी मूझ-बूझ से भावी आचार्य श्री चौथमल जी म. सा० का नाम घोपित कर दिया। चतुर्विध संघ ने इस महान योजना का मुक्त कठो से स्वागत किया। आप के शासनकाल मे चतुर्विध सघ मे आशातीत जागृति आई । इस प्रकार सम्वत् १९५४ माघ शुक्ला १३ के दिन रतलाम मे पूज्य श्री उदयसागर जी म० सा० का स्वर्गवास हो गया।
पूज्य प्रवर श्री चौथमल जी म पूज्य प्रवर श्री उदयसागर जी म० के पश्चात सम्प्रदाय की सर्व व्यवस्था आप के वलिप्ट कधो पर आ खडी हुई । आप पाली मारवाड के रहने वाले एक सुसम्पन्न भोसवाल परिवार के रत्न थे। आप की दीक्षातिथि सम्बत् १६०६ चैत्र शुक्ला १२ रविवार और नाचार्य पदवी सम्वत् १९५४ मानी जाती है । पू० श्री उदयसागर जी म० की तरह आप भी ज्ञान, दर्शन, चारित्र के महान् धनी और उन विहारी तपन्वी सत थे । यद्यपि शरीर मे यदा-कदा असाता का उदय हुआ ही करता था। तथापि तप-जप-म्वाध्याय-व्याख्यान मे रत रहा करते थे। अनेकानेक गुण रत्नो से अलकृत आपका जीवन अन्य भव्यो के लिये मार्ग-दर्शक था । आप की मौजूदगी में भी शासन की समुचित सुव्यवस्था थी और पारम्परिक सगठन स्नेह भाव पूर्ववत् ही था।
इस प्रकार केवल तीन वर्प और कुछ महीनों तक ही आप समाज को मार्ग-दर्शन देते रहे और सम्वत् १६५७ कार्तिक शुक्ला ६ वी के दिन आप श्री का रतलाम मे देहावसान हुआ।
पूज्य श्रीलाल जी म० सा० टोक निवासी श्रीमान् चुन्नीलालजी को धर्मपत्नी श्रीमती चाँदवाई की कुक्षी मे स० १९२६
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति हमारी आचार्य-परम्परा | २२७ आसाढ वदी १२ के दिन आप का जन्म हुआ था । अति लनुवय मे आप का लग्न हो चुका था। तथापि नीर-नीरज न्यायवत् विरक्त भाव में रहते थे । अन्तत स० १९४५ माघवदी ७ की मगल वेला मे दीक्षा स्वीकार करके भ० महावीर के पद चिन्हो पर चलने लगे।
स्मरण शक्ति स्तुत्य थी। अतएव थोडे काल मे ही जैन आगमो का गहरा परिशीलन किया तथा पर्याप्त मात्रा मे अन्य ज्ञान का भी सपादन किया गया । चतुर्विध संघ को आगे बढाने मे आप का स्तुत्य योग रहा है । सरल व्याच्यान शैली से आकृष्ट होकर कई इतर जन समूह मद्य-मांस व पशुबलि का त्याग भी किया करते थे।
आप के शासन काल में सत मण्डनी एव श्रावकमडली के बीच काफी उतार-चढाव के वादल मडराने रहे । फलस्वरूप सप्रदाय दो विभाग में विभक्त हो गई। आचार्य प्रवर विचरते हुए जेतारण पधारे । वहाँ स० १९७७ आपाढ शुक्ला ३ के दिन इस पार्थिव देह का परित्याग कर स्वर्गवामी हुए।
आगमोदधि आचार्य श्री मन्नालाल जी म० सा० सम्वत् १९२६ मे पूज्य प्रपर का जन्म रतलाम में हुआ था । आप के पिता श्री का नाम अमरचन्द जी, मातेश्वरी का नाम नानी वाई बोहरा गोत्रीय ओसवाल थे। शैशव काल अति सुख साता मय वीता।
पूज्य प्रवर श्री उदयनागर जी म० का पीयूप वर्षीय उपदेश सुनकर श्रेष्टी श्री अमरचन्द जी और सुपुत्र श्री मन्नालाल जी दोनो जन वैराग्य में प्लावित हो उठे। सं० १९३८ अपाढ शुक्ला ६ वी मगलवार को पूज्य प्रवर के कमनीय कर-कमलो द्वारा दीक्षित हुए और लोदवाले श्री रतन चन्द जी म० के नेश्राय मे आप दोनो को घोपित किये गये । दीक्षा के पश्चात् सुष्ठुरित्या अभ्यास करने मे लग गये । पूज्य श्री मन्त्रालाल जी म० की बुद्धि अति शुद्ध-विशुद्ध निर्मल थी। कहते हैं कि एक दिन मे लगभग पचाम गाथा अथवा श्लोक कठस्थ करके मुना दिया करते थे। विनय, अनुभव-नम्रता और अनुशासन का परिपालन आदि-२ गुणो से आप का जीवन आवाल वृद्ध सन्तो के लिए प्रिय था । एतदर्थ पू० श्री उदयसागर जी म० ने दिल खोलकर पात्र को शास्त्रो का अध्ययन करवाया, गूढातिगूढ शास्त्र कु जियो मे अवगत कराया और अपना अनुभव भी सिखाया गया। इस प्रकार शनै गर्न गाभीर्यता, समता, महिष्णुता, क्षमता आदि अनेकानेक गुणो के कारण आप का जीवन, चमकता, दमकता. दीपता हुआ समाज के सम्मुख आया । आचार्य पद योग्य गुणो से समवेत समझकर चतुर्विध संघ ने सम्बत् १९७५ वैशाख शुक्ला १० के दिन जम्मू, (काश्मीर) नगर मे चारित्र-चूडामणि पूज्य श्री हुक्मीचन्द जो म० सा० के सम्प्रदाय के "आचार्य" इस पद से आप (पू० श्री मन्नालाल जी म०) श्री को विभूपित क्यिा गया।
तत्पश्चात् व्याख्यान वाचस्पति प० रत्न श्री देवीलाल जी म० प्रसिद्धवक्ता जैन-दिवाकर श्री चौथमल जी म० भावी आचार्य श्री खूबचन्द जी म० आदि अनेक सन्त शिरोमणि आप के स्वागत सेवा मे पहुंचे और पुन सर्व मुनि मण्डल का मालवा मे शुभागमन हुआ । अनेक स्थानो पर आपके यशस्वी चातुर्माम हुए । और जहाँ जहाँ आचार्य प्रवर पधारे, वहाँ-वहाँ आशातीत धर्मोन्नति व दान, शील, तप, भावाराधना हुआ ही करती थी। अनेक मुमुक्षु आपके वैराग्योत्पादक उपदेशो को श्रवणगत कर आप के चारु-चरण सरोज मे दीक्षित भी हुए हैं।
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२२८ | मुनिधी प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
मालवा-राजस्थान व पजाव प्रान्त के कई भागो मे आप का परिभ्रमण हुआ। आप के तल-म्पर्शी-ज्ञान-गरिमा की महक सुदूर तक फैली हुई थी। कई भावुक जन यदा-कदा सेवा मे आ-आकर शका-नमाधान पाया ही करते थे । श्रमण सघीय उपाध्याय श्री हस्तीमल जी म० सा० भी आप की सेवा मे रहकर शास्त्रीय अध्ययन कर चुके है ।
इस प्रकार आप जहाँ तक आचार्य पद को सुशोभित करते रहे, वहाँ तक चतुर्विध सघ की चौमुखी उन्नति होती रही । सब मे नई जागृति आई और नई चेतना ने अगडाई ली। स० १९६० अजमेर वा बुहृद् माधु-सम्मेलन-सम्पन्न कर आचार्य प्रवर वर्षावास व्यतीत करने हेतु व्यावर नगर को धन्य बनाया। नह्मा शरीर मे रोग ने आतक खडा कर दिया । तत्काल आसपास के अनेक वरिष्ठ सत सेवा मे पधार गये । अन्ततोगत्वा स० १६६० अपाढ विदी १२ सोमवार के दिन आप स्वर्गवासी हुए।
___आप के रिक्त पाट पर चारित्र-चूडामणि-त्यागी-तपोधनी पूज्य प्रवर श्री खूबचन्द जी म० सा० को आमीन किये गये।
आचार्य प्रवर श्री खूबचन्द जी म० सा० वि० स० १६३० कार्तिक शुक्ला अष्टमी गुरुवार के दिन निम्बाहेडा (चित्तोडगढ) के निवासी श्रीमान् टेकचन्द जी की धर्म पत्नी गेन्दी वाई की कुक्षी से आप का जन्म हुआ था। शैशव काल सुखमय वोता, विद्याध्ययन हुआ और हो ही रहा था कि - पारिवारिक सदस्यो ने अति शीघ्रता कर स० १९४६ मार्ग शीपमुक्ला १५ के दिन विवाह भी कर दिया। बालक खूबचन्द शर्म की वजह से न हाँ ही कर मरे । समयानुसार वास्तविक वातो का ज्यो-२ जान हुआ, त्यो-२ खवचन्द अपने जीवन को धार्मिक क्रिया-काण्ड-अनुप्ठानो से पूरित करने लगे । और उसी प्रकार सामारिक क्रिया कलापो से भी दूर रहने लगे -जैसा कि
वर्षों तक कनक रहे जल मे, पर फायो कभी नहीं आती है।
___ यो शुद्धात्म जीव रहे विश्व मे, नहीं मलिनता छाती है ।
वम विवाह पे छ वर्ष पश्चात् अर्थात् १६५२ आपाढ शुक्ला ३ की शुभवेला मे वादीमानमर्दक गुरु प्रवर श्री नन्दलाल जी म० मा० के नेश्राय मे उदयपुर की रग स्थली मे आप दीक्षित हुए।
दीक्षा के पश्चात् गुरु भगवत श्री नन्दलाल जी म० सा० स्वय ने आप को शास्त्रीय तलस्पर्शी अध्ययन करवाया, अपना निजी अनुभव और भी अनेकानेक उपयोगी सिखावनो से आप को होनहार बनाया। फलस्वरूप आप का जीवन दिनो दिन महानता व विनय गुण से महक उठा । कई वार गुरु प्रवर श्री नन्दलाल जी म० सा० अन्य मुमुक्षुओ के समक्ष फरमाया भी करते थे कि-श्री उत्तगव्ययन भूले प्रथमाचाय के अनुरूप खूबचन्द जी मुनि का जीवन विनय गुण गौरव से योत-प्रोत है । यह कोई दोक्ति नहीं है । क्योकि-आप द्वारा रचित, भजन, लावणियो मे नापने अपना नाम नर्वथा गोपनीय रखा है । और गुरु भगवत के नाम की ही मुहर लगाई है जैसा कि-"महा मुनिनन्दलाल तणा मिप्य' यह विगेपता नापजे नत्रीमृत जीवन की ओर नकेत कर नही है।
आपत जीवन धाग-वैनन्य से लबालब परिपूर्ण सम्पूर्ण था। व्यायान वाणी मे वैराग्य ग्सप्रधान था । बर जति मर व गायन जना सागोपाग पर मार्कपक थी । अतएव उपदेशामृत पान हेतु इनर जन भी उमट मह के आया करते थे । अनर कारक वाणी प्रभावेण मई मुमुक्षु आपके नेप्राय मे अग्नि हा थे । वर्तमान पार मे म्पविर पद विभूपित ज्योतिर्धर प० रत्न श्री पन्नूरचन्द जी म०
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति हमारो आचार्य-परम्परा | २२६ सा० आप के ही गिप्य रत्न हैं । और हमारे चरित्रनायक आपके गुरु भ्राता व प्रवर्तक श्री हीरा लाल जी म० मा० व तपस्वी श्री लाभचन्द जी म० सा० आप के प्रशिप्य हैं।
आप के अक्षर अति सुन्दर आते थे। इस कारण आप की लेखन कला भी स्तुत्य थी। आप अपने अमूल्य समय मे कुछ न कुछ लिखा ही करते थे । चित्रकला मे भी आप निपुण थे। आज भी हस्तलिखित आप के अनेको पन्ने सत-मण्डली के पास मौजूद है। जो समय-समय पर काम मे लिया करते हैं । - आप कवि के रूप में भी समाज के सम्मुख आये थे। आप द्वारा रचित अनेक भजन दोह व लावणियां आज भी माधक जीह्वा पर ताजे हैं । आपकी रचना सरल सुवोध व भावप्रधान मानी जाती है। शब्दो की दुस्हता से परे है । कहीं-कहीं आपकी कविताओ मे अपने आप ही अनुप्राम अलकार इतना रोचक वन पडा है कि-गायको को अति आनन्द की अनुभूति होती है और पुन पुन गाने पर भी मन अघाता नहीं है। जैसा कि
"यह प्रजन फुर्वर को प्रगट सुनो पुण्याई,
महाराज, मात रुक्मीणि फा जाया जी ।
जान भोग छोड लिया योग रोग कर्मों का मिटाया जी ॥' मर्व गुण सम्पन्न प्रवरप्रतिभा के धनी आप को समझकर चतुर्विध सघ ने स० १९६० माघ शुक्ला १३ शनिवार की शुभ घडी मन्दमौर की पावन स्थली मे पूज्य श्री हुक्मी चन्द जी महाराज के सम्प्रदाय के आप को आचार्य बनाए गये । आचार्य पद पर आसीन होने पर "यथा नाम तथा गुण" के अनुमार चतुर्विध सघ-समाज मे चौमुखी तरक्की प्रगति होती रही और आप के अनुशासन की परिपालना विना दवाव के सर्वत्र-सश्रद्धा-भक्ति-प्रेम पूर्वक हुआ करती थी । अतएव आचार्य पद पर आप के विराजने से मकल सब को स्वाभिमान का भारी गर्व था।
आप के मर्व कार्य सतुलित हुआ करते थे । शास्त्रीय मर्यादा को आत्ममात करने मे सदैव आप कटिवद्ध रहते थे । महिमा सम्पन्न विमन्न व्यक्तित्व समाज के लिए ही नहीं, अपितु जन-जन के लिए मार्गदर्शक व प्रेरणादायी था । समता-रम मे रमण करना ही आप को अभीप्ट था। यही कारण था किविरोधी तत्त्व भी आपके प्रति पूर्ण पूज्य भाव रखते थे।
मालवा-मेवाड-मारवाड, पजाब व खानदेश आदि अनेक प्रातो मे आपने पर्यटन किया था। जहाँ भी आप चरण-सरोज घरते थे, वहाँ काफी धर्मोद्योत हुआ ही करता था। चाँदनी-चौक दिल्ली के भक्तगण आपके प्रति अटूट श्रद्धा-भक्ति रखते थे।
____ इस प्रकार स० २००२ चैत्र शुक्ला ३ के दिन व्यावर नगर मे आपका देहावसान हुआ और आपके पश्चात् सम्प्रदाय के कर्णधार के रूप मे पूज्य प्रवर श्री सहस्रमल जी महाराज सा० को चुने गये ।।
आचार्य प्रवर श्री सहनमलजी महाराज सा० ___ आप का जन्म स०-१६५२ टांडगढ (मेवाड) मे हुआ था। पीतलिया गोत्रिय ओसवाल परिवार के रन थे । अति लघुवय मे वैराग्य हुआ और तेरापथ सम्प्रदाय के आचार्य कालुराम जी के पास दीक्षित भी हो गये । माधु बनने के पश्चात् सिद्धान्तो की तह तक पहुँचे, जिज्ञामु बुद्धि के आप धनी थे ही और तेरापय की मूल मान्यताएं भी सामने आई ।'-"मरते हुए को वचाने में पाप, भूखे को रोटी कपडे देने मे पाप, अन्य की सेवा-शुश्रुपा करना पाप'' अर्थात्-दयादान के विपरीत मान्यताओ को सुनकर-समझकर आप ताज्जुव मे पड गये । मरे | यह क्या ? मारी दुनियां के धर्म-मत-पथो की मान्यता दयादान के
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२३० | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
मण्डन मे है और हमारे तेरापथ सम्प्रदाय की मनगढन्त उपरोक्त मान्यता अजब-गजव को ? कई वक्त आचार्य कालु जी आदि साधको से सम्यक् समाधान भी मागा, लेकिन सागोपाग शास्त्रीय समाधान करने मे कोई सफल नही हुए । अतएव विचार किया कि इस सम्प्रदाय का परित्याग करना ही अपने लिए अच्छा रहेगा । चूँ कि-जिसकी मान्यता रूपी जडें दूपित होती है उसकी शाखा, प्रशाखा आदि सर्व दूपित ही मानी जाती हैं । वस सात वर्ष तक आप इस सम्प्रदाय के अन्तर्गत रहे, फिर सदैव के लिए इस सम्प्रदाय को वोमिरा' कर भाप सीधे दिल्ली पहुंचे।
उस समय स्थानकवासी सम्प्रदाय के महान क्रिया पात्र विद्वर्य मुनि श्री देवीलाल जी म० प० रत्न श्री केसरीमल जी महाराज आदि सत मण्डली चांदनी चौक दिल्ली में विराज रहे थे । श्री सहस्रमल जी मुमुक्षु ने दर्शन किये । व दयादान विषयक अपनी वहीं पूर्व जिज्ञासा, शका, ज्यो की त्यो तत्र विराजित मुनिप्रवर के सामने रखी और वोले-"यदि मेरा सम्यक् समाधान हो जायगा, तो मैं निश्चयमेव आपका शिष्यत्व स्वीकार कर लूंगा।" अविलम्ब मुनिद्वय ने शास्त्रीय प्रमाणोपेत सागोपाग स्पष्ट सही समाधान कर सुनाया। आपको पूर्णत आत्मसन्तोप हुआ। उचित समाधान होने पर अति हर्प सहित पुन सम्वत् १९७४ भादवा सुदी ५ की शुभ मगल वेला मे आप शुद्ध मान्यता और शुद्ध सम्प्रदाय के अनुगामी वने, दीक्षित हुए।
तत्त्वखोजी के साम-साथ ज्ञान-सग्रह की वृत्ति आप की स्तुत्य यी । पठन-पाठन में भी आप सदैव तैयार रहते थे । ज्ञान को कठस्थ करना अधिक आपको अभीप्ट था इसलिए ढेरो सवैये, लावणियांश्लोक गाथा व दोहे वगैरह आप की स्मृति मे ताजे थे। यदा-कदा भजन स्तवन भी आप रचा करते थे जो धरोहर रूप में उपलब्ध होते हैं।
व्याख्यान शैली अति मधुर, आकर्पक हृदय स्पर्शी व तात्विकता से ओत-प्रोत थी। चर्चा करने मे भी आप अति पटु व हाजिर जवावी के माथ-साथ प्रतिवादी को झुकाना भी जानते थे । जनता के अभिप्रायो को आप मिनटो मे भाप जाते थे । व्यवहार धर्म मे आप अति कुशल और अनुशासक (Controller) मी पूरे थे।
सम्बत् २००६ चैत्र शुक्ला १३ की शुभ घडी मे नाथद्वारा के भव्य रम्य-प्रागण में आपको "आचार्य' बनाए गए । कुछेक वर्षों तक आप आचार्य पद को सुशोभित करते रहे तत्पश्चात् सघंक्य योजना के अन्तर्गत आचाय पदवी का परित्याग किया और श्रमण संघ के मत्री पद पर आसीन हुए। इसके पहिले भी आप सम्प्रदाय के 'उपाध्याय" पद पर रह चुके हैं। इस प्रकार रत्न त्रय की खूब माराधना कर म० २०१५ माघ मुदी १५ के दिन रूपनगड मे आपका स्वर्गवास हुआ।
पाठक वृन्द के समक्ष पूज्यप्रवर श्री हुक्मीचन्द जी महाराज सा० की सम्प्रदाय के महान प्रतापी पूर्वाचार्यों की विविध विशेपताओ से ओत-प्रोत एक नन्ही-सी झाको प्रस्तुत की है । जिनकी तपाराधना, जान-माधना एव सयम पालना अद्वितीय थी।
अद्यावधि उपरोक्त पवित्र परम्परा के कर्णाधार स्थविरपद विभूपित मालवरत्न, दिव्य ज्योनिर्धर गुरुप्रवर श्री कस्तूरचन्द जी महाराज, हमारे चरित्र नायक गुरु श्री प्रतापमल जी महाराज, प्रवर्तक प्रवर श्री हीगलाल जी महाराज, प्र० वक्ता श्री केवल मुनि जी महाराज, प्र० वक्ता तपम्वी श्री लाभचन्द जी महाराज एव प्रवर्तक श्री उदयचन्द जी महाराज सा० आदि अनेक श्रमण श्रेष्ट जयवन्त हैं । जो पामर मयारी जीवो को मन्मार्ग की ओर प्रेरित कर रहे हैं । ऐने पवित्र मनस्वियो के चारु चरणारविदो मे सदा यन्दना जंजलियाँ समर्पित हो ।
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जैन दर्शन में कर्म-सीमांला
-'प्रियदर्शी' मुनि सुरेश 'विशारद'
कर्म विपयक विस्तृत विवेचन जितना जैन दर्शन प्रस्तुत करता है उतना तो क्या परतु अश रूप मे भी अभिव्यक्त करने मे अन्य दार्शनिक सफल नहीं हुए हैं । हा, 'कर्म' शब्द का प्रयोग अवश्य सभी दर्शनो मे हुआ है । किन्तु कर्म के तलस्पर्शी ज्ञान विज्ञान मे अन्य दर्शनकार अनभिज्ञ से रहे हैं।
___ महाभारत में कहा है-ईश्वर की प्रेरणा से ही प्राणी स्वर्ग नरक में जाता है । यह अज्ञानी जीव अपने सुख-दुख उत्पन्न करने में असमर्थ है । १ "वैशेपिक दर्शन मे ईश्वर को सृष्टि का कर्ता मानकर उसके स्वरूप का वर्णन किया है। इसी प्रकार योगदर्शन में भी जड और जग का विस्तार ईश्वर पर निर्भर करता है।
परन्तु जैन दर्शन ईश्वर को कर्म का प्रेरक नहीं मानता है । वयोकि-कर्मवाद का ऐसा ध्रुव मतव्य हे कि-जैसे जीव कर्म करने में स्वाधीन है, वैसे ही कर्म विपाक भोगने में भी । अर्थात् सुख और दुख का कर्ता जीव स्वय है न कि अन्य कोई शक्ति विशेष। उत्तमकर्मों की दृष्टि से आत्ममित्र रूप और दुखोपार्जन करने की दृष्टि से शत्र रूप मानी गई है।
‘क्रियते यत-तत् कर्म ।' अर्थात् जीवात्मा द्वारा शुभाशुभ क्रिया (कर्म) की जाती है—उसे कर्म कहते है । वुरे-मले कर्म जीवाजीव के सयोग से ही वनते हैं । अकेला जीव कर्म बन्ध नहीं करेगा और न अकेला अजीव (जड) भी । अत कहा गया है कि-जीव और अजीव दोनो कर्म के अधिकरण यानी आधार है।
कम परिणाम (भाव) की अपेक्षा से तीव-मद-ज्ञात-अज्ञात वीर्य और अधिकरण के भेदानुभेद से कर्मवन्ध मे विविध विशेषता पाई जाती है।
१ ईश्वर प्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा। अज्ञो जन्तुरनीशोयमात्मन सुख-दु खयो ।
-महाभारत अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य। अप्पा मित्त ममित्त च, दुप्पट्ठिय सुपट्ठिओ ॥
-उ अ २० गा ३७ ३ अधिकरण जीवाजीवा
-तत्त्वार्थ अ६ । सू ७ ४ तीव्रमन्द ज्ञाताज्ञान भाव वीर्याधिकरण विशेषेभ्यस्तद्विशेष
-तत्त्वार्थ म ६ । सू ७
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२३२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
मूल प्रकृत्यनुसार कर्मों की वशावली निम्न है
घातिक चतुष्फ अघातिक चतुष्क ज्ञानावरण कर्म वेदनीय कर्म दर्शनावरण कर्म आयुष्कर्म मोहनीय कर्म नाम कर्म
अन्तराय कर्म गोत्र कर्म' उत्तर प्रकृतियाँ अर्थात् अवानर भेदानुभेद निम्न प्रकार हैंपाच प्रकृतियाँ दो प्रकृतियाँ
नौ , चार , अट्ठावीस , एक सौ तीन ,,
पाच , दो ,
कुल एक सौ अठावन (१५८) उत्तर प्रकृतियो की परम्परा वताई गई है। जिसमे यह सार ससार मकडी के जाल की भाति वधा हुआ है।
_ 'उपयोगो लक्षणम्' उपयोग जीवात्मा का लक्षण है । वह उपयोग दो प्रकार का है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञान को साकार उपयोग और दर्शन को निराकार उपयोग कहा गया है। जो उपयोग वस्तु-विज्ञान के विशेप वर्म को अर्थात् जाति-गुण-पर्याय आदि का ग्राहक है वह ज्ञानोपयोग और “पदार्थों की केवल सत्ता यानी सामान्य धर्म को जो धारण करता है उसे दर्शनोपयोग कहते है।
जो कर्म आत्मा के ज्ञान गुण को आच्छादित करे, उसे ज्ञानावरण कर्म कहते है। जिस प्रकार आख पर कपड़े की पट्टी लगा देने से वन्तुओ के देखने में रुकावट आती है । उसीप्रकार ज्ञानावरण के प्रभाव से पदार्थों के जानने मे रुकावट आती है । परन्तु ऐमी रुकावट नहीं जिससे आत्मा विल्कुल ज्ञान गन्य हो जाय । चाहे जैसे घने बादलो से सूर्य घिरा हुआ हो, 'तथापिस्वल्पाश मे उसके प्रकाश की पर्याय खली रहती है । उसी प्रकार कर्मों के चाहे जैसे गाढे-घने आवरण आत्मा के चारो ओर छाये हो, फिर भी आत्मा का उपयोग लक्षण कुछ-अशो में प्रकट रहता है । अगर ऐसा न हो तो जीव तत्त्वजडवत् बनने मे देर नहीं लगेगी।
जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण को ढके, उसे दर्शनावरणीय कर्म कहा जाता है। जिस प्रकार द्वारपाल किसी मानव से नाराज हो, तो अवश्यमेव उम मानव को राजा तक जाने नही देगा। चाहे राजा उमे मिलना या देखना भी चाहे तो भी मिलना-मिलाना कठिन ही रहेगा। उसी प्रकार दर्शनावरण
१ नाणस्सावरणिज्ज, दसणावरण तहा।
वेयणिज्ज तहा मोह, आयुफम्म तहेव य ।। नाम फम्म च गोय च, अतराय तहेव य । एवमेयाइ, कम्माड अद्वैव उ समासो ॥
--उ ३३ गा २-३ २ न द्विविधोस्टचतुर्भद
-~-तत्त्वार्थ० म २-सू
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति जैनदर्शन मे कर्म-मीमासा | २३३
लोभ
मान
कर्म जीव रूपी राजा की पदार्थों की देखने की शक्ति मे रुकावट पहुंचाता है। दर्शनावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ-चक्ष -चतुप्क और निद्रापचक इस प्रकार नी भेद है।'
___जो कर्म स्व-पर विवेक मे तथा स्वभाव रमण मे वाधा पहुंचाता है अथवा जो कर्म आत्मिक सम्यक् गुण और चारित्रगुण का नाश-ह्रास करता है । जैसे शरावी-शराब का पान करने के पश्चात् विवेक से भ्रष्ट हो जाता है। वैसे ही मोह-मदिरा प्रभावेण देहधारी के अन्त हृदय मे प्रदीप्त विवेकरूपी भास्कर स्वल्प काल के लिए अस्त सा हो जाता है । इस कर्म की प्रधान प्रकृतिया दो मानी गई हैदर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय और दोनो की परम्परा विस्तृत रूप से परिव्याप्त है ।२
जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही समझना दर्शन कहलाता है। अथवा तत्त्व-श्रद्धान को दर्शन कहा जाता है। यह आत्मा का मौलिक गुण है। इसकी रुकावट करनेवाले कर्म को दर्शनमोहनीयकर्म कहते हैं । सम्यक्त्व-मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय कर्म अर्थात् यह त्रोक दर्शनावरणीय कर्म का वशज है ।
जिसके द्वारा आत्मा अपने असली स्वस्प का विकास करता हुआ उन गुणो को जीवन मे उतारता है उसे चारित्र कहते हैं । यह भी आत्मिक गुण है। इसकी घात करनेवाले कर्म को चारित्रमोहनीय कर्म कहते है। इसकी प्रधान दो प्रकृतिया हैं-कपायमोहनीय और नौ कषायमोहनीय । भेदानुभेद निम्न प्रकार है
अनतानुबधी चतुप्क-क्रोध मान माया अप्रत्याख्यान चतुष्क-क्रोध
माया लोभ प्रत्याख्यान चतुष्क-क्रोध मान माया लोभ सज्वलन चतुष्क-क्रोध मान
लोभ नौ कपाय मोहनीय के नव भेद निम्न है
(१) हास्य (५) शोक (२) रति (६) 'जुगुप्सा (३) अरति (७) स्त्री वेद (४) भय (८) पुरुप वेद
(६) नपु सक वेद १ चक्ष रचक्ष रवधिकेवलाना निद्रानिद्रा प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धिवेदनीयानि च
-तत्त्वार्थ अ सासूचा मोहणिज्ज पि दुविह, दसणे चरणे तहा।
दसणे तिविह वुत्ते, चरणे दुविह भवे ॥ -उ० अ ३३ गा ८ ३. तत्त्वार्यश्रद्धान सम्यग्दर्शनम् । -तत्त्वार्थ अ १। सू२ ४ सम्मत्त चेव मिच्छत्त, सम्मा मिच्छत्तमेव य ।
एयाओ तिन्नि पयडीओ, मोहणिज्जस्स दसणे ।। -~-उ० अ ३३ गा६॥ ५ सोलसविह भेएण, कम्म तु कसायज ।
सत्तविह नवविह वा, कम्म तु नोकसायज । -उ० अ०३३। गा ११
माया
३०
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२३४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
जिस कर्मोदय के कारण जीव-जीवित रहता है और भय हो जाने पर मरता है, वह पाचना आयुप कम कहलाता है । आयु कर्म का स्वभाव कारावास के मदृश्य है। जैसे न्यायाधीश अपराधी को उसके अपराध के अनुसार अमुनाकाल तक जेन मे रखता है। यद्यपि अपगवी की गलामा गन्दी छुटकारा पाने की इच्छुक अवश्य रहती है । तथापि अवधि पूर्ण हुए बिना नहीं निकल पाता है। वैसे ही आयु कर्म जब तक बना रहता है, तब तक आत्मा प्राप्त हुए उस शरीर को नहीं न्याग सकता है। जब आयु कर्म पूरा भोग लिया जाता है, तब शरीर स्वत छुट जाना है। आयु कम की उनर प्रकृतियाँ चार है-देवायु, मनुष्यायु, तियंचायु और नरकायु । १ ।।
आयुग्य कर्म के दो प्रकार है-अपवर्त्तनीय और अनपवर्त्तनीय आयुप । पानी-जाग जन-गनविप एव वृक्ष-झपापात आदि वाह्य नैमित्तिक कारणो से शेप आयु जो पच्चीस वपों का भो नि याग्य है उसे अन्त महत्त में भोग लेना, अपवर्तनीय आयुप कहते हैं । यह तिर्यंच गति वाले एकेन्द्रिय, द्विन्द्रियत्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय एव पचेन्द्रिय जीवो को एव मनुप्य गति वालो को होता है।
जो आयु किसी भी कारण से कम नहीं हो सके, अर्थात् जितने काल तक का आयुष्य बन्धन किया है उसे पूर्ण भोगी जाय, उस आयु को अनपवर्तनीय आयुप कहते हैं। जैसे देव-नारक-चरम शरीरी उत्तमपुरुप अर्थात् तीर्थकर चक्रवर्ती वासुदेव, बलदेव और असत्यात वर्षों की आयुष वाले इन आत्माओ का आयु वीच मे नही टूटता है ।।
छठा है नामकर्म-इसका स्वभाव चित्रकार (पेटर) के समान है। जैसे चित्रकार विविध प्रकार के आकार-प्रकार वनाता एव विगाडता है। उसी तरह नाम कर्म रूपी चित्रकार भी शुभाशुभ मय विविध रचना बनाया करता है । इस कर्म की वशावली काफी विस्तृत रही है । किमी अपेक्षा से ४२ भेद, किसी अपेक्षा से ६३ भेद और किसी अपेक्षा से १०३ और किसी अपेक्षा से ६० भेद भी माने गये हैं । विस्तृत वर्णन कर्म ग्रथ मे उल्लिखित है।
गोत्र सातवा कर्म है । इस कर्म का स्वभाव कुम्भकार के सदृश्य है। जिस प्रकार कुम्भकार नानाविधि घट निर्माण करता है । जिनमे कुछ तो ऐसे होते है-जिनको ससारी नर-नारी सिर पर रख करके अर्चना करते हैं और कुछ कुम्भ ऐसे होते हैं-जिनको मद्य किंवा वुरी वस्तु भरने के काम में लेते हैं । इमीप्रकार जिम कर्म के उदय भाव के कारण जो उत्तम कुल मे जन्म लेते हैं । यह उच्च गोत्रीय कहलाते हैं और जिनका निम्न कुल परिवार मे जन्म हुआ है उन्हे नीच गोत्रीयकर्म कहा जाता है । इस कर्म के मुख्य रूप से दो भेद हैं उच्च गोत्र और नीच गोत्र ।
जिस कर्म के प्रभाव से कार्य के मध्य-मव्यमे विघ्नबाधा आ खडी होवे उस कर्म का नाम अन्तराय कर्म है । जैसे --अन्तेतिष्ठाते इति =अन्तराय कर्म है। इसके पांच भेद हैं । दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, परिभोगान्तराय और वीर्यान्तराय कर्म हैं ।
१ नारकतर्यज्योनमानुपदेवानि ॥
-तत्त्वार्थ अ० ८ सू ११ २ औपपातिक चरमदेहोत्तम पुरुषाऽसख्येयवर्पायुपोऽनपवायुप ।
-तत्त्वा० अ२ सु० ५२ ३ उच्चर्नीचश्च
-तत्त्वार्थ सूत्र अ० ८ सू० न० १३ दानादीनाम्
-तत्त्वार्थ सूत्र अ ८ सू० न० १४
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति जनदर्शन मे कर्म-मीमासा | २३५
सक्षिप्त रूप से कर्मों की परिभापा यहाँ दर्शाई गई है। विशेष जानकारी के लिये कर्म ग्रन्थ अथवा तत्सम्बन्धित अन्य ग्रन्धो का अध्ययन करना चाहिए । कर्म पुद्गलो का जीवात्मा स्वय वैभाविक परिणति के कारण आह्वान करता है । जिस प्रकार अमल आकाश मे सूर्य चमक रहा है किन्तु देखतेदेखते घटा उसे ढक देती है और घनघोर वृष्टि भी होने लग जाती है। उस घटावली को किसने वुलाया ? वायु के वेग ने ही उसे बुलाया और तत्क्षण वायु वेग ही उसे विखेर देता है । उसी प्रकार मन का विकल्प कर्म के बादलो को लाकर आत्मा रूपी सूर्य पर आच्छादित कर देता है । और ऐसा भी अवमर आता है जब आत्मा त्वी सूर्य का तेज पुन जागृत हो जाता है। तव पुन उभरी हुई सारी घटा छिन्न-भिन्न हो जाती है।
__ उपर्युक्त कर्म वर्गणा प्रकृति-स्थिति-अनुभाग और प्रदेशबन्ध रूप में परिणमन होती है।' स्थिति और अनुभाव बघ जीव के कपाय भाव से होता है और प्रकृति तथा प्रदेश बन्ध योग से होता है। कपाय के सद्भाव मे योग निश्चित होते है । चाहे एक-दो या मन-वचन-काया ये तीनो योग हो । किंतु योग के मद्भाव मे कपाय की भजना अर्थात् होवे किंवा नही । ग्यारहवें से तेरहवे गुणस्थान तक योग होते हैं । किंतु कपाय नहीं है । विना कपाय के योग मात्र से पाप प्रकृति का वन्ध नही होता है कपाय रहित केवल योग मात्र से दो सूक्ष्म समय का वध होता है । वह एकदम रूक्ष और तत्क्षण निर्जरने वाला और वह भी सुखप्रद होता है । उसे ईर्यापथिक आस्रव कहते हैं।
कापायी भाव के अन्तर्गत जो कर्म वन्ध होता है । उसे साम्परायिक आश्रव कहा है । यह वन्ध रक्ष और स्निग्ध इस प्रकार माना गया है। भले रुक्ष किंवा स्निग्ध वन्ध हो । कृत कर्म विपाक को भोगे विना कभी छुटकारा नही होता है । आगम की यह पवित्र उद्घोपणा है-- "कडाण कम्माण न मोक्ख अत्यि ।"वध योग कर्म पुद्गल शुभ और अशुभ दोनो प्रकार के होते हैं । तदनुसार समय पर कर्ता को विपाक भी वैसा ही देते हैं ।
___ वस्तुत सपूर्ण कर्मारि पर जव विजय पताका फहराने मे जब साधक सफल हो जाता है तव वह अनत आनदानुभूति का अनुभव करने लगता है और सदा-सदा के लिए वह अमर वन जाता है।
१ पयइ सहवो वुत्तो, णिई कालावहारण । अणुभागो एसोणेयो, पएसो दल सचओ ।।
-नवतत्त्व गा० ३७ २ सकपायाकपाययो साम्परायिकेर्यापथयो ।
-तत्त्वा० सूत्र अ० ६। सू०५ सुच्चिणाकम्मा सुच्चिणफला हवति । दुच्चिणाकम्मा दुच्चिणफला हवति ॥
-भ० महावीर, औपपातिक सूत्र ५६
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जैन धर्म और जातिवाद
-मुनि अजीतकुमार जी 'निर्मल
ममाजवाद, साम्यवाद, पू जीवाद, सम्प्रदायवाद, क्रियावाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद, उ कर्पवाद अपकर्पवाद, यथार्थवाद, आदर्शवाद, एव जातिवाद इस प्रकार न मालूम कितने प्रकार के "वाद" विश्व की अचल मे शिर उठाये खडे हैं । पशु-पक्षियो की अपेक्षा वादो का विस्तार दिन प्रतिदिन मानव के मन मस्तिष्क मे अधिक वृद्धि पा रहा है । मेरी समझ मे मानव समाज भी उत्तरोत्तर वढाने में तत्पर है।
जतिवाद कहाँ तक यद्यपि सामाजिक सुव्यवस्था की दृष्टि से कतिपय अशो तक जातिवाद को महत्त्व देना उचित है । क्योकि सामाजिक प्राणी के लिए इस व्यवस्था की आवश्यकता रही है। ताकि समाज का आवाल-वृद्ध प्रत्येक प्राणी निर्भयता-निर्भीकता पूर्वक सुख-समृद्धिमय जीवन व्यतीत कर मके नियमोप नियम-मर्यादा का पालन सुगमता-सरलता-स्वाधीनता पूर्वक कर सके और आहार-व्यवहार-आचार मे भी किमी प्रकार की विघ्न-बाधा का सामना न करना पडें । वरन् व्यवरथा की गडवडी होने पर सामाजिक एव धार्मिक क्षेत्र कलुपित होना स्वाभाविक है । इस प्रकार साधारण समस्या भी उलझ कर भारी विनाश का दृश्य उपस्थित कर सकती हैं । वस्तुत तन-धन-जन हानि के अतिरिक्त कइयो को इज्जत-आवरु-जान से हाथ धोना पडता है और सुख-शाति का वायु मण्डल भी विपक्ति होकर समाज-राष्ट्र-व परिवार को ले डूबता है।
अतएव गहन चिंतन-मनन के पश्चात् महामनस्वियो ने पूर्वकाल मे वर्णव्यवस्था का जो श्लाघनीय सूत्र पात किया था। निः सदेह उस वर्ण व्यवस्था के पीछे सामाजिक हित निहित था। कतिपय स्वार्थी तत्त्वो ने आज उस व्यवस्था को एकागी रूप से जातिवाद की जजीरो मे जकड कर पगू वना दी है । फलस्वरूप विकृतियाँ पनपी, वुगइया घर जमा वैठी और सकीर्णता को भरपेट फलनेफूलने का अवसर मिला । केवल जीवन-व्यवहार की दृष्टि से तो प्रत्येक समूह के लिए जातिवन्धन अपेक्षित रहा है।
क्लेश की बुनियाद-जातिवाद लेकिन एकागी दृष्टि से जातिवाद को महत्त्व देना निरीह अज्ञता मानी जायगी। मैं और मेरी जाति ही सर्वोत्तम है। अन्य सब हल्के एव तुच्छ है। बस, गर्वोन्मत्त वना हुआ मानव इस प्रकार एक दूसरे को अवहेलना भरी दृष्टि से निहारने लगा, तिरस्कार के तीक्ष्ण तीरो से विधना प्रारम्भ किया और मानव जीवन का मूल्य गुणो से न आक कर केवल जातिवाद के थर्मामीटर से नापने लगा । यहाँ तक कि धार्मिक एवं सामाजिक सर्व अधिकारो से भद्र जनता को विहीन किया गया। फिर से गले लगाना हो ही कैसे सकता था? थोडे-शब्दो मे कहू तो अपने आप को पवित्र और धर्म के अगुए मानकर एव उच्च जाति-पाति का दम भरने वाले पाखण्डी तत्त्वो ने धर्म के नाम पर खत मत माती की। ताति
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति जैन धर्म और जातिवाद | २३७
वाह्य क्रिया काण्ड की एव रटे हुए कुछ मन्त्र-तन्त्र-यन्त्रो की ओट मे वास्तविकता पर पर्दा डाला गया। मानवता के साथ खिलवाड हुआ । अन्तत जातिवाद की खीचातान मे क्राति का बिगुल गूज उठा।।
फलस्वरूप जातिवाद के नाम पर पडोसी; पडोसी के बीच मारामारी हुई, काले-गोरे के वीच खूनी संघर्ष हुए, यहूदी ईसाई के मध्य कत्लेआम हुए और हिंदू-मुस्लिम के वीच लाशो का टेर लगा, खून की नदियाँ वही एव आए दिन सघर्प के नगाडे वजते रहे हैं। उपर्युक्त झगडे-रगडे, एव क्लेश-द्वप की पृष्ठ भूमि धन-धान्य-धरणी नही, अपितु जातिवाद के नाम पर हुए और हो रहे है ।
अरिहत की दृष्टि मे जातिवाद जातिवाद का सदैव सीमित क्षेत्र रहा है। जहाँ विशालता का अभाव और सकोर्णता का वोल-वाला रहता है । जव कि महा मनस्वियो का सर्वांगी जीवन प्रत्येक जीवात्मा को उदार और असीम वनने की बलवती प्रेरणा प्रदान करता है : धर्म-दर्शन का शुद्ध स्वरूप भी विराटता मे फूलता-फलता व सुदृढ बनता है । जिस प्रकार किमी विशाल भवन का टिकाव उसकी नीव पर आधारित है । वृक्ष की लम्बी जिंदगी उसके सुदृढ मूल पर निर्भर है । उसी प्रकार धर्म की वास्तविकता उसके सार्वभौम-सिद्धातो के आधार पर ही रही हुई है । अध्यात्म वादी कोई भी कैसा भी मत-पथ सम्प्रदाय अपना अस्तित्व अपने मालिक-सिद्धान्तो और सत्य-तथ्य मान्यता उनके आधार पर प्रभुत्व जमाने मे सफल-सवल हुआ है । यही वात जैन-दर्शन जातिवाद के विपय मे एक मौलिक चिंतन प्रस्तुत करता है
कम्मुणा बमणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। कम्मुणा वइसो होइ, सुद्दो होइ कम्मुणा ॥
उत्त० अ २५ गा ३३ कर्म से ब्राह्मण होता है कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता है। और भी कहा है -
न वि मुण्डिएण समणो, न ओकारेण बभणो। न मुणी रण्णवासेण, कुसचीरेण न तावसो ।।
--उत्त० अ २५ गा ३१ केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नही होता है, ओमकार का जप करने से ब्राह्मण नही होता है, अरण्य मे रहने से मुनि नही होता है, और कुश का बना चीवर पहनने मात्र से कोई तपस्वी नही होता है।
उपर्युक्त आर्पवाणी मे जातिवाद को न स्थान एव न महत्त्व मिला है। वल्कि जातिवाद से गवित उन कट्टरपण्डे पुजारियो के मिथ्याचरण को दूर करने के लिए अर्हत-वाणी स्पष्टत मार्गदर्शन दे रही है। केवल जाति के प्रभाव से यदि किसी को आदरणीय माना जाय, तो एक उच्च जाति कुल मे जन्म पाकर भी दुष्कर्म के दल-दल में उलझा हुआ और एक नीच जाति-परिवार में जन्म धारण करके शुभ कर्म-करणी कथनी में आस्था रखता है। तदनुसार कर्म भी करता है। दर्शकगण जाति कुल एव उसके परिवार को न देखता हुआ, जो दुष्कर्मी है, उमको अवहेलना की दृष्टि से और शुभकर्मी को अच्छी निगाह ने अवश्यमेव निहारेगा। वस्तुत. जाति की प्रधानता नहीं, कर्म की प्रधानता रही हुई है।
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२३८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
धर्म-साधना मे जातिवाद वाधक जाति अभिमान को निरस्त करने के लिए कहा है
सक्ख खु दीमइ तवो विसेतो, न दोसई जाइ विसेस कोई । मोवाग पुत्ते हरिएस साहू, जस्सेरित्सा इडिढ महाणुभागा ।
---उत्तरा० अ० १२ गा ३७ प्रत्यक्ष मे तप की ही विशेपता-महिमा देखी जा रही है। जाति की कोई विशेपता नही दीखती है। जिसकी ऐसी महान् चमत्कारी रहि है, वह हरिकेशी मुनि स्वपाक पुत्र है-चण्डाल का वेटा है।
मिय्या भ्रान्ति को दूर करने के लिए सर्वप्रथम महा मनस्वियो ने अपने वृहद मघ मे सभी को समान स्थान दिया है। चण्डाल कुल मे जन्मा हरिकेशी को श्रमण संघ मे वही स्थान और वही सम्मान था जो प्रत्येक भिक्षु के लिए होता है। अर्जुन जैसे घातक मालाकार के लिए वही उपदेश था, जो धन्ना-शालिभद्र के लिए था। आनद-कामदेव जैसे वणिक् श्रावक मडली मे अग्रसर ये, तो शकडाल जैसे कु भकार को भी श्रावकत्त्व का पूरा-पूरा स्वभिमान था। अर्थात् --चारो वर्ण विशेप के जन-ममूह सप्रेम सम्मिलित होकर साधिक योजनाओ को प्रगतिशील बनाते है । सभी के बलिप्ट कधो पर सघ का गुस्तर उत्तरदायित्त्व समान रूप से रहता है । जिसमे जातिवाद की दुर्गन्ध कोसो दूर रहती है । और प्रभु की वाणी भी अभेदभाव वरमा करती है ।
जहा पुण्णस्त कत्या, तहा तुच्छत्स कत्थइ । जहा तुच्छत्स कत्थइ, तहा पुप्णस्स कत्थइ ।।
-आचारागसूत्र सर्वन कथित वाणी-प्रवाह मे सौभागी एव मन्दमागी दोनो को ममान अधिकार है। मजे मे दोनो पक्ष अपने पाप-पक का प्रक्षालन करके महान् वन सकते हैं। वाणी-प्रवाह मे कितनी समानता सग्मता एव मर्वजनहिताय-सुखाय का ममावेश | यह विशेपता सर्वोदय के सदल प्ररूपक तीर्थकर के देशना की है।
जातिवाद का गर्व व्यर्थ भ० महावीर ने अपने उपदेश में कहा है-"से असइ उच्चागोए, असइ नीयागोए, नो होणे, नो अइरित्ते, न पोहए, इति सखाए के गोयावाई, के माणावाई, कसि वा एगे गिझे, तम्हा पडिए नो
कुज्झे।"
-आचारागसूत्र इम आत्मा ने बनेको वार उच्च गोत्र और नीच गोत्र को प्राप्त किया है। इसलिए मन मे उच्च गोत्र और नीच गेत्र का न हर्प और न शोक लावे अर्थात् न तो अपने को हीन समझे और न उच्चता का अभिमान ही करें। एक भारतीय कवि ने भी इमी विषय की पुष्टि की है
जात न पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान । मोल फरो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान ।
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति जैन धर्म और जातिवाद | २३६ सारी बातो से यही निष्कर्ष निकला कि-धर्म-साधना में जातिवाद को कुछ भी महत्त्व नही दिया । जातिवाद तो ऊपर का चोला है । महत्त्व है ज्ञान दर्शन चारित्र और आत्मा को छूने वाले वास्तविक सत्य तथ्यो का । जो जातिवाद के वन्धन से सर्वथा निवन्धन और विमुक्त हैं। फिर भले वह आत्मा जैन, बौद्ध, हिंदू, ईसाई, मुस्लिम या पारमी आदि किसी भी चोले मे क्यो न हो। भले जिनका जन्म, भरण-पोपण एव लाड, प्यार, गाव, नगर अथवा हिंद, चीन, अमेरिका, लका आदि किसी भी स्थान मे क्यो न हुआ हो।
____आज जैन समाज और इतर मामाजिक तत्त्व जातिवाद के दल-दल मे उलझे हुए है। जिससे विपमता, विद्वे पता को बढावा मिला है । अतएव जातिवाद के बन्धन को घरेलू कार्यों तक ही सीमित रखना अभीष्ट रहेगा । तिस पर भी अन्य जन समूह के साथ सहयोग-सहानुभूति का सामजस्य होना जरूरी है । धार्मिक क्षेत्र में जातिवाद को ला घसीटना, अपराध माना गया है। वस्तुत धर्म व्यक्तिवादजातिवाद को नहीं देखता, वह जीवात्मा का अन्त करण का अन्वेपण करता है ।
Pawegreedom
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राजस्थानी रो अस्ति-लाहित्य
-श्री अगरचंद नाहटा 'साहित्य वारिधि'
भारत आध्यात्म प्रधान देश है, अठे री मस्कृति रो मूल आधार धर्म है। धर्म री व्याख्या अनेक ऋपि मुनिया और विद्वाना भात-भात री करी है, अर्थात् मारत रो धर्म शब्द बहुत व्यापक अर्थ रो द्योतक है। इहलौकिक और पारलौकिक अभ्युदय और निश्रेयस री सारी प्रवृत्तियाँ धर्म मे समावेश हुय जावे कि-नीति और आध्यात्मक रे वीचली सिगली शुभ प्रवृत्तियाँ धर्म मे समाविष्ट हैं। वर्म री चिन्तन प्रधान विचारधारा ने दर्शन केवे हैं, और आचार प्रधान प्रवृत्तियाँ ने धर्म केयो जावे है । इये वास्ते आचार प्रथमोधर्म को सूत्र वाक्य भी मिले है।
भारत री आध्यात्मिक साधना प्रणालियो मे ज्ञान, कर्म और भक्ति ये तीन प्रधान है। कर्म मे योग रो भी ममावेश हुयजावे है, "योग कर्मपु कौशलम्" गीता रो आदर्श वाक्य है। ज्ञान, कर्म और भक्ति आ तीना मागा मे अपेक्पा भेद सू कोई केई ने तो दूजाने ऊचो अर आच्छो मार्ग वतावे है । वास्तव ने लोकारी रुचि और योग्यता भिन्न-भिन्न हुवे इये वास्ते धर्म रा मार्ग भी अनेक वताया गया है। आखिर साध्य तो एक है पण साधन अनेक है । जिस तरह केईने कलकत्ते जावणो हुवेतो वीरा रस्ता आपआपरी मविधानसार अलग-अलग अपनायो जा सके । पहुँचने री जगा तो एक ही है। कोई जल्दी और कोई देरी मू, कोई सीधो और कोई घूमफिर पहुच सके हैं, इसी तरह सू मस्तिष्क-प्रधान व्यक्ति ज्ञान ने मुख्यता देवे । छ दर्शना मे वेदान्त ने ज्ञानप्रधान केयो जाते हैं। क्योकि वे दर्शन री मान्यातारे अनुमार ज्ञान विना मुक्ति नहीं मिल सके। इसी तरह हृदय-प्रधान व्यक्ति रे वास्ते भक्तिमार्ग उत्तम बतायो है। भागवत् और वैष्णव धर्म मे भक्ति री प्रधानता है। वारी विचारपारा मे तो मुक्ति सू भी भक्ति ऊ ची है। भगवान सू भी भक्ति ने ज्यादा महत्त्व दियो गयो है । क्योकि भगवान भी भक्त रे वश मे हुवे। क्रियाशील व्यक्ति रे वास्ते योग या कर्ममार्ग ज्यादा उपयुक्त है। गीता रे अनुसार कर्म तो प्रत्येक प्राणी हर समय करतो ही रैवे है । वे से फल री आशक्ति नही राखणी । भगवान उपर पूरी श्रद्धा और भक्ति राखणी । समरपण भाव री प्रधानता राखते हो शुभ प्रवत्तियाँ करते रहणो आत्मोन्नति रो मार्ग है । निसकाम कर्मयोग गीता रो मुख्य सदेश है। साख्य और योग दर्शन री सार व समन्वय ही गीता है।
भक्ति व्याख्या भी कई तरह सू करी गई है । भगवान सू विशेप अनुराग रो नाम-भक्ति और जिने के प्रेम भी के मका हाँ । परलौकिक प्रेम सू वो बहुत ऊँचो है। भक्तिभाव अलग-अलग रुचि
और योग्यता वाला अलग-अलग ढग सू व्यक्त करे है। और शक्ति रा मुल्य ६ प्रकार बताया गया है। कोई आपने भगवान रो दास माने है । कोई सखा माने है। कोई पत्नी माने हैं। इस तरह रा वहुत रकम रा भाव भक्त लोगा मे पायो जावे है। असल मे आपरे अहकार रो विसर्जन कर भगवान रे सागे एकता स्थापित करणी वारे प्रति पूर्ण समर्पित हुयजाणो ही भक्ति री विशेपता है। भगवान भी अनेक नामा सूऔर अनेक अवतारा रे रूप में माना व पूजा जावे है । वास्ते भक्तिमार्ग
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति राजस्थानी रो भक्ति साहित्य | २४१ बहुत व्यापक हुय गयो । राम-कृष्ण शिव-भक्ति रा कई सम्प्रदाय चल गया कोई केनेई भजे और कोई केनेई माने पूजे, पण आपरो हृदय जिकेरे प्रति समर्पित हुवे जिके ने आप सू बडो ईष्ट मान लेवे वेरे प्रति आदर और श्रद्धा वढती ही जावे अइवास्ते गुरु री भक्ति ने भी बहुत महत्त्व दियो गयो और अठे ताई केय दियो के
गुरु गोविन्द दो खडे, किसके लागू पाय ।
बलिहारी गुरु देव की, गोविन्द दियो बताय । १।। अर्थात् भगवान ने बतावण वाला और भगवानखने पोचावण वाला या पहुँचने रा रास्ता बतावण वाला गुरुई हुवे है। जिका सू आच्छे बुरे रो ज्ञान प्राप्त कियो जावे। सावना मे सहायता मिले । इये उपगार री मुख्यता रे कारण गुरुवा रे प्रति भी वहत भक्ति भाव राख्यो जावे है। भगवान तो आपारे सामने प्रत्यक्प कोनी, पर गुरु तो प्रत्यक्ष है, इये वास्ते गुरे रे प्रती विनय, आदर और श्रद्धा राखणो भी भक्ति से प्रधान अग है।।
परमात्मा या भगवान कुण है और वेरो स्वरूप कई है ? इये विषय मे काफी विचार भेद है। जैन धर्म री मान्यता वैदिक और वैष्णव धर्म सू इये बात में काफी भिन्न पड जाव है। क्योकि वैदिक धर्म मे ईश्वर सम्वन्धी मान्यता इस तरह री है, के ईश्वर एक है और समय-समय पर अनेक अवतारा ने धारण करे है सृष्टि री उत्पत्ति वोही करे और सब कर्ता-धर्ता बोही हैं । ब्रह्मा रे रूप मे सृष्टि री सृजना करे, विष्णु रे रूप मे रक्षण व पोषण करे, और शिव शकर रे रूप मे सिंहार करे । जगत रा सारा जीव वे 'ईश्वर री ही सतान है अर्थात् वेरा ही वणावेडा है।' ईश्वर सर्व समर्थ है और शक्तिमान है चावे तो कोई ने तारदें कोई ने मार भी दे । इये वास्ते भक्त लोग भगवान री प्रार्थना करे, सेवा पूजा व भक्ति करे । के भगवान रे प्रसन्न हुआ सू म्हारो कल्याण हुसी ओ भव परभव सुधरसी । भगवान रे रुष्ट हुणे सू आपाने दुःख मिलसी, जो कुछ हुवे है बो सब भगवानरो करियोडो ही हुवे है। इस तरह री विचारधारा जैन दर्शन मान्य को करीनी । जैन दर्शन रे अनुसार ईश्वर परमात्मा या भगवान कोई एक व्यक्ति विशेष कोनी, गुण विशेप है । जिके व्यक्ति मे भी परमात्मा रा गुण प्रकट हुय जावे वेने ही परमात्मा केयो जावे इये वास्ते ईश्वर एक कोनी, अनेक है अनन्त है । पूर्ण परमात्मा वणने रे वाद वेने इये ससार ओर जीवा सू कइ भी लगाव सम्बन्ध कोनी । वो तो कृत्य-कृत्य और आत्मानदी वणजावे है । वो न तो केरे ऊपर राजी हुवे न विराजी । न तुष्ट हुवे न रुष्ट हुवे। जगत रा जीव आप आपरा आच्छा व बुरा कर्मा के अनुसार आपरे मते ही फल भोगे हैं। परमात्मा रे इया रो कोई हाथ कोनी । ईश्वर जगत रो कर्त्ता घरता कोनी । जगत आपरे स्वभाव या प्रकृति सु अनादिकाल सू चल्यो आरायो है
और अनन्तकाल तक चलतो रहसी। इस तरह री मौलिक विचारधारा जैन दर्शनरी हुणे रे कारण वैदिक दर्शना मू वा काफी भिन्न पड जावे है । और ऐई कारण जैन धर्म मे कर्मा ने प्रधानता दी है। कर्म रा खतम हुवणे सु ही मुक्ति मिले, कर्म ही वधन है । वे वधन सू छूटजाणा ही मुक्ति है। प्रत्येक जीव कर्म करणे मे व भोगने मे स्वतत्र हैं । ईश्वर रो अश या दास कोनी । आत्मिक गुण रे विकास सू प्रत्येक आत्मा परमात्मा बन सके। परमात्मा कोई अलग चीज कोनी, आत्मारो ही पूरो विकाश हुय जाणो परमात्मा वन जाणो है । इस तरह री दार्शनिक विचार धारा सू विया सिघो भक्ति रो कोई सबन्ध नही दिखे । पर जैन धर्म में भी भक्ति रो विकाम काफी अच्छे रूप ने हुयो, मेरो एक मुख्य कारण ओ है कि प्रत्येक आत्मा मूल स्वभाव सू परमात्मा हुणे पर भी कर्मा रे आवरण और दवाव के कारण समार मे रूल रह्यो है । सुख-दुख
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२४२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ भोग रह्यो है । ऐ वास्ते जीव ग दो भेद किया गया (१) मुक्त (२) ममागे । आत्मा रा तीन भेद किया गया, वहिरान्मा, अन्तरजात्मा और परमात्मा । जगत में राच्यो पाच्यो रहनआलो बहिरमात्मा है। समारिक पर-पदार्य सु उदामीन और अनाशक्ति भाव राखते हुवो बात्मा री तरफ शुपान गराण आले ने अन्तर आत्मा केयो जावे है, और आन्मा रे पूर्ण शुद्ध म्वरूप या स्वगाय मीर गुण ने प्रकट कर दणं वालो पन्मान्मा मानियो जावे । इये गू साधारण समारिक आत्मा और गिद्ध परमात्मा में मोटा अतर पट जावे । और परमात्मा गर मिढ हुवण वास्ते जिका व्यक्ति वे स्थिति में प्राप्त कर लिया है बार प्रति आदर्श और श्रद्धा रो भाव गवणो जरूरी है । और ये ई वान ने लेर जन धर्म में भक्ति भाव गे विधाय हुयो । तीर्थंकरा और गुरुजनारी भक्ति जरूरी मानी गई । इस तरह जन और जनेतर दोना मे भक्ति ने जरूरी और परमात्मा वनने या भगवान खने पहुंचने गे उत्तम मार्ग मान लियो गेयो। भक्त लोगा और कईजना भक्ति माहित्य रे निर्माण में बहुत बडो योग दियो । राजस्थानी भक्ति माहित्य कार ली दोनो विचारधाराआ अर्थात् जैन और जैनेतर दोनो धमों न सम्बन्धित है। इये वास्ते ही इतो पुलामी करणो जरूरी हुयो, जिके मू राजस्थानी भक्ति साहित्यरे उद्भव, विकास और भिन्न-भिन्न स्वरुपा गेमही जान हय सके है। हालताई राजस्थानी भक्ति माहित्य पर कोई योज और चिन्तन पूर्ण रान्य नहीं लिस्यो गयो है। पण वास्तव मे ओ एक वडो शोध प्रवन्ध रो विपय है। है तो इये निवन्ध मे राजस्थानी भक्ति साहित्य सम्बन्धी कुछ मुन्य बातागे ही उल्लेख करमू ।
राजस्थानी साहित्य फुटकर रूप में तो ११-ची १२-वी शताब्दी मे भी रचणी शुरु हुय गयो, पण स्वतत्र रचना रे रूप मे १३-वो शताब्दी सू साहित्य निर्माण गे काम अच्छी तरह हुवण लागयो। जनेहि इये शताब्दी री बहुत नी जैन रचनावा आज भी प्राप्त हैं। वा मे कई तो चरिय काव्य रूप मे है, पण भक्ति रचना रो आरम्भ इये शताब्दी तू ही हो जावे है । म्हारे मपादित ऐतिहासिक जैन काव्य सग्रह मे शाह रैण और कवि भताऊँ रे विणावडा दो जिनपति सूरि गीत प्रकाशित हुआ है। जिके सू वा कविया री भक्ति भावना रो काई परिचय मिले है । प्रारम्भ मे ही शाह रैण लिखे है
युगवीर जिनपतिसूरि गुणगाईसू, भक्तिभर हरसिहि मनरमल । तिहूअण तारण शिवमुख कारण वछाय पूरण कल्पतरो। विधन विनासन पाव पणासण, गुरित तिमिर भर सहसकरो। अतिम पक्ति मे कवि लि
एहू श्रीजिनपतिसूरि, गुरु जुग पवरु-शाह रयण इम सथुणईए ।
समरई जे नरनारी निरतर, ताहा घर नवनिधि सपजईए । कवि भत्तउ आपरे जिनपति सूरि गीत रे अत मे लिखे हैं -
लीणऊ मे कमलेहि भमरजिम भत्तउ, पाय कमल पणमिइ कहइ ।
समरइ जे नर नार निरन्तर तिहा घरे रिधि नावानाह लहइए ।
जिन पतिसूरि रा दोनू एक गुरु भक्तकवि सवत् १२७७ रे आस-पास ये गीत वणाया है। इस तरह रा गुरु गीता री परम्परा करीव ८०० वर्पा सू वरावर चली आ रही है। जिके रा कई उदाहरण म्हारे ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह सू उपस्चित किया जा सके हैं । पण निवध रे विस्तार रे भय सू खाली वारा प्रारम्भिक प्रवाह रे रूप मे ऊपर कई पक्तियां आ सकी है। १५ वी शताब्दी सू तीर्थंकरो
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति राजस्थानी रो भक्ति साहित्य | २४३ तीर्था और गुरुआ वगैरहरा भक्ति गीत और काव्य ज्यादा मिलणे लागे है । सवत् १४१२ मे रचोडो गोतमस्वामी रास री कुछ पक्तियां नीचे दी जा रही हैं । वा मे कवि हृदय री भक्ति भावना वडे अच्छे रूप में प्रकट हुई है । इये राम री रचना खरतरगच्छ रा उपाध्याय विनयप्रम बहुत ही सुन्दर रूप मे करी है । गौतम स्वामी समोशरण में पधार रहया है वेरो वर्णन करते हुये कवि लिखे है
आज हुवो सुविहाण, आज ए वेलिमा पुण्य भरौ ।
दीठा गौतम स्वामी, जो नियनयण अमिय सरौ ।। भगवान महावीर स्वामी रो निर्वाण हुयो जणे भक्तिरागवश वारा प्रथम गणधर गौतमस्वामी जी को विलाप कर्यो है वो बारी हृदयगत भावनायें पूर्ण रूप सू प्रकट करे है, वे कैवे है
इण समे ये समिय देखि, आप कनासु टालियो ऐ । जाणतो ऐ तिहुअण नाह लोक व्यवहार न पालियो ऐ ।। अतिभलो एक किधलोस्वामी, जाणयो केवल मागसे ए। चिन्तव्यो ऐ बालक जेम, अहवा केडे लागसे ऐ ।। हूं किम एक वीर जिणद, भगतिहि भोले भोलव्यो ऐ।
आपणो ऐ ऊचलो नेह नाहन संपय साचव्यो ऐ ।। अर्थात् भगवान महावीर आपरे अतिम निर्वाण ममय मे मने दूर भेज दियो, लोक व्यवहार में जो अतिम टेम मे आपारा टावरा ने दूर हवे तोही नजदीक बुलायो जावे है। भगवान थे लोकव्यवहार रो पालन कर्यो कोना, ये देख्यो के है केवलज्ञान माग सू या वालक रे माफक थारै लारे लाग जासू । म्हारो थासू साचो स्नेह है पण थे तो वीतराग हो ये वास्ते स्नेह राख्यो कोनी । अत मे गोतमस्वामी भगवान रे प्रति राग हो जिके ने छोड र वीतरागी वणगया । १६वी शताब्दी रे जन कवि भक्तिलाभ श्रीमधर भगवान रे स्तवन मे भक्ति री निर्मल गगा वहाई है वेरी भी थोडी पक्तियाँ आपरे सामने उपस्थित कर रह्यो हूँ
सफल ससार अवतार ऐ हूँ गिणु, सामि श्रीमंधरा तुम्ह भगते भणु , भेटवा पायकमल भाव हियडे धरूं', करिय सुपमाय जे वीनसु ते मुणो, दिवस ने राति हियडे अनेरो धरूँ, मूढमन रिझवा वलिय माया करूँ, तूहि अरिहत, जाणे जिसी आचरु, तेमकर जेम संसार सागरतरू, ऐक अरिहत त् देव बीजो नही, ऐक ऐह आधार जग जाणजो अमसही, जयो जयो जगगुरु जीव जीवनधरा, तुम समो वड नही अवर वालेसरा, अमिय समवाणि जाणु सदा साभलु, बारवर परसदा माहि आवि मिलू , चित्त जाणु सदा सामिपय ओलगु किमकरू ठाम कुडल गिरि वेगलू,, मौलिडा भगति तू चित्त हारे किसे, पुण्य सजोग प्रभु दृष्टिगोचर हुसे, जेहने नामे मन वयणतन उल्लसे, दूर थी ढोकडा जेम हियडे वसे, भल भलो ऐणि संसार सहू ऐ अछ, सामि श्रीमधरा ते सह तुम पछे, ध्यान करन्ता सुपन माही आवि मिले' देखिये नयण तो चित्त आरति टले,, . स्याम सोहावणा नाम मन गह गहे, तेह सू नेह जे बात तुम जी कहे,
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२४४ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
तुम पद भेटवा अतिगणो टल वलू, पंखजो होयतो सहिय आवि मिल्यू, मेह ने मौर जिम कमल भमरो रमे, तेम अरिहंत तू चित्त मोरे गमे,,
जैन कवियो रा सर्वाधिक भक्ति तीर्थकरो और गुल्मी रे प्रति रही है, पण श्रीमदरभगवान जिका अबार जैन मान्यता रे हिमाव सू महाविदेह वपेत्र मे तीर्थकर के रूप मे विचर रह या है बारे प्रति तो जैन कविया री भक्ति भावना उमड पडी है, कवि ऊपरली पक्ति मे कहवे है कि म्हारे मन मे तो थारे दर्शन री घणी लाग रही है, पण थे दूर घणा तो हू पहुच को सकुनी, म्हारा मन थामू मिलणे ने इतो छटपटारह यो है के प्रकृति म्हारे पाखा लगा देती तो ह उड थासू जा मिलतो, ध्यान करता वक्त या सुपने मे भी थे म्हने अ, मिलो तो थाने देखते ही म्हारी सव चिन्ता दूर हुयजावे, जिस तरह मोर ने मेह और भवरे ने कमल बहुत ही प्यारा लागे, विमी तरह सू है अरिहन्त भगवान ) थे म्हारे चिन्त मे बस रह या हो, इस तरह रा भक्ति गीत सैकडो नही हजारो है, श्रीमन्दर भगवान रे तरेइ श्वेताम्बर जैन समाज मे सब सू वडोतीर्थ श्री सिद्धाचल जी या शतु जयजी मान्याजावे है, वे तीर्थ प्रति भी जैन कविया री भक्ति भावना विशेप रूप सू प्रकट हुयी है, राजस्थान रा मोटा कवि समयसुन्दर शत्रु जय स्तवन मे केवे है
धन धन आज दिवस घडी, धन धन सुज अवतार, शत्रु जय शिखर ऊपर चढी, भेट्यौ श्री नाभि मल्हार, चद चकोर तणी परह.निरखता सूख थाय, हियडु हेजड, उल्हसइ आणद अंगि न माय,, दु.ख दावानल उफममियो, बुठऊ अभिय मइ मेह, मुझ आगणि सुरतरु फल्यू भागऊ भव भ्रमण संदेह, मुझे मन उल्लट अनिघणउ, मन मोहयू रे शत्रजय भेटतण काज' लालमन मोहयु रे, संघ करइ बघावणा मन मोहयू रे, तीर्थ नयण निहालि, आज सफल दिन म्हारउ, मन मोहयु रे, जात्राकरी सुखकार, दुरगति ना भय दुःख टत्या, पुगी मन री आस, लाल मन मौह यौ रे,,
अठे घणा उदाहरण देणा सभव कोनी, म्हारे सपादित समय सुन्दरकृति-कुसुमाजली, जिनराजसूरि और विनयचद कुसुमाजली, जिनर्प ग्रथावली, वर्नवर्द्धन ग्रथावली, ज्ञानसार ग्रथावली आदि ग्रथ भक्तलोग वाचे आई भीलावण है।
राजस्थानी माहित्य रो सवसू अधिक निर्माण जैन कविया कर्यो, दूजी नम्बर चारण कविया को है। विया प्राय सिगली जातवाला राजस्थानी भक्ति साहित्य वणायाँ है, क्योकि भक्ति मे कोई भेद भाव ऊच-नीच कोनी, आ तो हृदय री चीज है और वो सगला मानखा मे ऐक जिमा मिले है। हजार भजन राजस्थान रे मदिरा मे और जम्मा जागरण मे गाइजे है, वा मे अनेक तरह रा देवी देवता रे प्रति कविया री घणी मृद्धा और भक्ति रो दर्शन हुवे, मिनख लुगाई रो भी भक्ति मे कोई भेद कोनी, राजस्थान रा मीराबाई तो सगला भक्ता मे मिरमोड मानयो जावे है वारा भजन उतर भारत मे तो प्राय सव जागा प्रसिद्ध है, दक्षिण भारत री भापाओ मे भी वारो अनुवाद छप्यो है अर्थात् भक्ति रे स्पेत्र मे मीराबाई रो नाम समार प्रसिद्ध है, अवार विया तो वारे नाम मू हजार भजन छप चुक्या है, पण
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चतुर्य खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति राजस्थ नी रो भक्ति साहित्य | २४५ वामे वारा खुद रा वणावणा बहुत कम ही हुसी, घणकरा तो दुसरा लोगा वारा नाम सू वणाय प्रसिद्ध कर दिया।
___राजपूत कवियो मे पृथ्वीराज राठौड वहुत वडा भगत हा, भक्तमाल ने भी वारे भक्ति रो वखाण मिले, कृष्ण रुखमणिवेलि वारी सर्वश्रेष्ठ राजस्थानी रचना है। वाअसल मे भक्तिकाव्य ही है । विया पृथवीराज जी श्रीराम कृष्ण गंगा री स्तुति रा दूहा वणाया जिके में भी भक्तिरस छलक रह यो है । बांरा वणावडा कई डिंगल गीत तो बहुत ही उच्चकोटी रा है । समरपणभाव रो ऐक आच्छो उदाहरण वारो ओ डिंगल गीत है -
हरिजेम हलाडो जिम हालौज, काय धणिया सूजोर कृपाल, मौली दिवो दिवो छत माथे, देवो सौ लेउ स दयाल, गैस करो भाव रलियावत, गजभावे खरचाढ गुलाम, माहरे सदा ताहरी माहव, रजा सजा सिर ऊपर राम, मुझ उमेद वड़ी ममैहण, सिन्धुर पासैकेम सर, चौतारो खर सीस चित दे, किसू पूतलिया पाण करे, तू स्वामी पृथ्वीराज ताहरौ, वलि वीजा को करे विलाग, रूडो जिको प्रताप रावलो, भूडो जिको हमीणो भाग,,
चारण कवियो मे ईशरदास जी घणा प्रसिद्ध भक्तकवि हुया, वारे वणायेडो हरिरस तो भक्तारे वास्ते नित्यपाठ री पोथी बणगयो, और भी वारी घणी रचनाये मिले । हरिरस रो ऐक सुन्दर सस्करण श्री बद्रीप्रसाद जी साकरिया सूअर्थ सहित सपादन कराय म्है सार्दूल राजस्थानी रिसर्च इम्टीयूट मूंछपायो है । पृथ्वीदास ग्रथावली, ईश्वरदाम ग्रथावली और दुर्साआढा ग्रथावली री पूरी सामग्री नाकरियाजी खने घणा दर्पो सू पडी है, हाल वा काम पूरोकर भेज्यौ कोनी।
दूसरा चारण भक्त कवि पीरदान लालस हुया, जिका री रचनाओ रो सग्रह पीरदान ग्रथावली रे नाम सू सपादन कर म्है इस्टीट्यूट सू प्रकाशित करवा दियो । ऐ १८ वी शताब्दी मे हुया, १६ वी शताब्दी मे कवि ओपाजी आढा भी आच्छा भक्तकवि हुया है।
चारण भक्तकवि ऐक नही पचासो हुय गया है, अवार ताई घणा लोगा री आ धारणा है के चारणा रो साहित्य वाररस रो ही घणो है, पण खोज करणे सू भक्ति साहित्य भी काफी मिले हैं। राघवदास री भक्तमाल व वेरी टीका पे जिके ने म्हे सपादन करी है । घणा चारण भक्तकविया रा उल्लेख है । स्वय चारण कवि व्रमदास री वणावरी राजस्थानी मे भी एक भक्तमाल है। ऐ दौनू भक्तमाला राजस्थान 'प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर सू छप चुकी है । इये तरह री चारणा री भक्तमाल गुजरात वगैरह मे कई पाई जावे हैं, बा सगला ने मामने राखर चारण भक्त कविया री ऐक पूरी सूची वणार वारे रचनावारी खोज, सग्रह और प्रकाशन करणो जरूरी है । म्हारे सग्रह रे ऐक गुटके मे ऐक ही कवित्त में १० चारण भक्त कविया रा नाम हैं। ओ गुटको सवत् १७१२ रो जैन विद्वान रो लिखयोडो है । इये कारण ऐमे प्रसिद्ध १८ वी शताब्दी ताई रा १० भक्तकविया रा नाम है। ओ कवित्त नीचे दियो जा रहयो है।
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२८६ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
कवित्त-कवेमरा ग नामा गेचौमुह चोरा चड जगत ईश्वर गुण जाणे, करमानद अरकोल, मलू अवखर परमाणे । माधौ मुथराराम, नाम माडल निज ग्रीदादूदा नारणदान, साथ जीननद मीमा । चौरासी रूपक नरहर, चरण वरण वाणि जुजुवा चारण सरण चारण भगत,
हरिगायव रहता हुवा ॥ इये कवित्तमायला कई भक्त कविया ग उरलेव तो डा० मोहनलाल जिनानु रे "चारिणी माहिल्य रे इतिहास, में हुयो है, पण केई नाम मे इसा भी है जिका गे बे में उल्लेन कोनी जिस तरह चौमुह, कोल, नाग्वदास, चागे शायद पडोसी, जिकोमाधोदास रो पिता हो ।'
राजस्थानी रो भक्तिसाहित्य घणो विशाल और ििवध प्रकार गे है। कई तो बटा वडा काव्य है केई छोटा-छोटा सुन्दर गीत है, कई राम, केई कृष्ण कई महादेव कई द्वारा देवि देवता तथा लोक देवता सवधी है । जिके ने जिवेरी इप्ट हुयी कई परची व चमत्तार मित्यो वो वे देविदेवतारो भगत हुयगयो, वा देवी देवता रा मन्दिर वणाया गया, पूजा शुर हुई, पण भक्ति गीत गाइजण लाग गया, माधवदास रो राम रासो पृथ्वीदाम री कृष्ण म्खमणि वेलि कवि किशने री वणायोगी महादेव पार्वती बेलि, कवि कुशललाभ और लघगज रे रचौटा देवीचरित और वहुतमा देवी देवता ग घ्द भातभात रे भवित साहित्य रा आच्छा नमूना है ।
श्रीमद् भागवत् भक्ति प्रधान ऐक बडो प्रसिद्ध पुगण प्रथ है। जिकेग गजन्यानी मे गद्य और पद्य में कई अनुवाद हुआ, इसी तरह और भी बहुतसा पुगणा भक्ति प्रथारा राजस्थानी में अनुवाद किया गया है । फुटकर हरजम तो हजागरी सस्या में मिले है और गाइजे, भक्ति राजस्थानी न जीवन मे इसी घुल मिलगी कि थोडी घणी मिगला ही बेरे रग मे रगीजगया, कोई केरो ही भक्त वण गयो कोई दूसरे कोई रो, पण भक्ति प्राय मगला लोग ही केईन केई री करता ही मिले, गाव-गाद और नगर-नगर मे कोई न कोई देवी देवता गे छोटो मोटो मन्दिर जरूर मिल जावे, कई भति मप्रदाय भी राजस्थान मे ख़ब पनपया और सत कविया मे ही कई भक्त हुया, पर वारे रचनारी भापा हिन्दी प्रधान हुणे सू अठे वारो जिकर को कियो गयो नी, इये छोटे से निव-ध में इणा घणा भन्त कविया री चर्चा कर सतोप मानणो पड्यो है और उदाहरण तो बहुत ही कम दिया जा सका गया आशा है ऐमू प्रेरणालेयर राजस्थानी भक्ति माहित्य री आच्छी तरह खोज की जाती, और चुनीडा कविया री आच्छी २ रचनाओ रामग्रह आलोचना महित प्रकाशित किया जामी ।
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समाज और नारी
-राजल कुमारी जैन
स्वतन्त्रता प्राप्ति के २५ वर्षों में नारी शिक्षा के क्षेत्र में जितनी उन्नति हुई उतना ही मानव का चारित्रिक स्तर तेजी से पतन की ओर पहुच रहा है । होना तो यह चाहिए था कि शैक्षणिक उन्नति भी विकासोन्मुसी हो, लेकिन हुआ इसके विपरीत ही । आज नारी घर की चाहरदीवारी को अवश्य ही लाघ कर जीवन और राष्ट्र के हर क्षेत्र में पुस्प से कन्धे से कन्धे मिलाते हुए खडी है। हर पुरुप को चारित्रिक विकासोन्मुखी होने के लिए सहारा देती वह स्वय ही विक्षिप्त सी वनी अपने चरित्र को ही खो बैठी है। दूसरी ओर समाज का मूल रूप नही है । ज्यादा एकता, सगठन, प्रेम, मैत्री पूर्ण व्यवहार एवम् एक दूसरे के प्रति मद्भावना हो लेकिन आज हम देखते है कि समाज मे न एकता, न सगठन न प्रेम न सद्भावना एव न मंत्री पूर्ण व्यवहार है । आज समाज मे एक दूसरे के प्रति विद्रोही भावना, ढेप पूर्ण व्यवहार आदि अनेक बातें प्रचलित हैं। यहां यह प्रश्न विचारणीय है कि-इसका मूल कारण क्या है ? कमे ममाज उन्नत होकर विकासशील हो आदि अनेक प्रश्न है ?
मानव जीवन की शुरुआत सर्व प्रथम घर एव परिवार से होती है। जो कि मानव के लिए सर्वप्रथम पाठशाला का स्वरूप प्रदान होती है । मानव इसी पाठशाला से प्रारम्भिक ज्ञान या व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर बाहर समाज मे निकलते है यहाँ मर्व प्रथम शिक्षक के रूप नारी का ही योगदान है। वह होती है मां, जो कि सन्तान को जन्म ही नही देती वर्ना उसके आचार-विचार सस्कार भावनाएं आदि का सम्बन्ध सन्तान के रक्त के साथ सचार होता रहता है । यही गुण आगे जाकर सन्तानो मे विकसित हो जाते हैं । यदि मानव सन्निकटता से इन सिद्धान्तो का अध्ययन करे तो स्पष्ट पता चल जायगा कि माता पिता के गुण वालक में मौजूद होगे, जो इसके जन्मदाता मे है । अगर सन्तान को कुछ न सिखाया जाय तो वह गुण उसकी सन्तान मे पाये जाते है । जैमा वालक को व्यवहार पारिवारिक वातावरण से मिलेगा उमी अनुसार बालक अपने आपको योग्य बनाएगा । इसलिए चारित्रिक उत्थान मे नारी जितनी सहायक हो सकती है उतना पुरुप नही । माना कि पुरुप शक्तिशाली है उस शक्ति का केन्द्र स्थल नारी ही है। नारी मे वह गुण मौजूद है जिसके द्वारा वह अपनी सन्तान को विकासशील एव योग्य बना सकती है। दूमरी ओर वह उसे कुमार्ग का पथिक एवम् अयोग्य भी बना सकती है। कहीं-कही यह कहा है कि
___ "काटो से भरी शासाओ को जिस प्रकार फूल सुन्दर बना सकता है। नारी उसी प्रकार गरीव घर के आगन को सुन्दर बना सकती है।" लेकिन यह बहुत कम देखने को मिलता है कि-जहाँ यह कथन चरितार्थ होता है वहा हम महान पुरुपो की जीवनी इतिहास के पृष्ठो मे प्राचीन ग्रन्यो का अव्ययन करें तो हमे पता चलेगा कि महान पुरुपो के जीवन को उत्कृष्ट बनाने मे किसी न किसी नारी का अवश्य योगदान रहा है । जैमे शिवाजी को अपनी माँ, भीष्म पितामह को उनकी वीमाता, रथनेमि का राजुल अनेको नारियां उल्लेखनीय है । जिसके कारण महान् पुरुपो के जीवन को उत्कृष्ट वनाने में सहायक रही एवम् ऐसी अनेको नारिया उल्लेखनीय है जो राष्ट्र, समाज धर्म की उन्नति एव नारी
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२४८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ आदर्शों का रूप प्रगट करती है । झासी की रानी, सरोजनी नायडू, एनीवेसेन्ट, सीता, चन्दन वाला राजुल आदि । एक अग्रेज लेखक ने अपनी पुस्तक मे नारियो के बारे में यह लिखा है एक स्थान पर कि
"जो नारी पालना झुलाती है, वह शासन भी कर सकती है।" उक्त कथन आज भी तीन देशो पर लागू होता है । वह है भारत, इजराइल एव लका । अगर हम प्राचीन ग्रन्यो एवम् धार्मिक सिद्धान्तो, रिवाजो का अध्ययन करे तो हमे पता चलता है कि प्राचीन समय मे ही नारियो को समान अधिकार दिये गये हैं। भ० महावीर ने भी अपने चतुर्विध सघ का निर्माण के समय नारियो को पुरुपो के समान ही मानकर वरावरी के अधिकार दिये हैं। भारतीय सविधान में भी नारियो को समानता का अधिकार मिला है। इस प्रश्न पर हम विचार करें तो स्पष्ट हो जाता है कि मानवता की अमर वेल नारियो के द्वारा ही फलती-फूलती है और विकसित होती है। अत नारियो का सुशिक्षित एव सुसस्कृत होना अत्यन्त आवश्यक है तथा वच्चो मे भी अच्छे सस्कार एवम् चारित्रिक उत्थान सभव है। अगर जिस देश की नई पीढी सुरक्षित एवम् सुसस्कारमय होगी तो उस राष्ट्र, धर्म एव समाज की उन्नति अवश्य ही चरम सीमा पर होगी । मगर जिस देश व समाज की नारियाँ ही सुशिक्षित एव सुसस्कृता न होगी तो उस समाज के वालको मे अच्छे संस्कार एवम् सभ्यता कहां से होगी । और वह समाज कमे उन्नतिशील बनेगा । अत उस समाज एव राष्ट्र का भविप्य अन्धकार मय होगा अत नारियो का सुशिक्षित होना आवश्यक है ।
आज नारियो की जो स्थिति है चह विचारणीय है। आजकल भारतवर्ष में नारी वर्ग की अविकाश सदस्यो ने शिक्षा के क्षेत्र मे उन्नति अवश्य करी व कर रही है। मगर साथ ही अपनी भापा सभ्यता एव सस्कृति की सीमा को छोडकर पश्चिम सभ्यता एव सस्कृति को अपना कर अपने आप को गौरवशाली मानती है । अगर यह कहा जाय तो अनुचित होगा कि आजकल नारी समाज ने अपनी शैक्षणिक क्षेत्र मे उनति तो अवश्य को है, मगर वह दूसरी ओर चारित्रिक हत्या के क्षेत्र मे अवनति के मार्ग का भी अनुकरण कर रही है । एक समय वह था कि भारतवर्ष अपनी अपनी सभ्यता, मस्कृति एवम् दृढता के लिए प्रसिद्धि को चरमोत्कृप्ट शिसर पर थे अगर भविष्य में भी यही स्थिति रही तो एक समय वह भी आ सकता है जब भारतवर्ष मे जो उन्नत सस्कृति थी वह इतिहास के पृष्ठो तक सीमित रह जायगी और आने वाली भावी पीढियां यह भी न जानेंगी कि हमारा धर्म क्या था, हमारी सभ्यता सस्कृति क्या थी हमारे समाज के आदर्श नियम क्या थे?
नारी जगत इन सम्पूर्ण स्थिति का अवलोकन एव अहम प्रश्नो पर विचार करें उनके आदर्श नियमो को अपनाये व उसके अनुरूप अपने को ढाल सके तो वह अवश्य ही राष्ट्र, समाज धर्म एव परिवार की उन्नति मे महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकती है । इसके लिए सर्व प्रथम उसे अपने अन्दर प्रेम व एकता की भावना को जागृत करना होगा । शैक्षणिक उन्नति के साथ-साथ चारित्रिक दृढता भी कायम करना होगा । अत नारियो का कर्तव्य है कि वह अपने अन्दर एकता की ज्योति निर्माण करे एव अपनी सभ्यता, सस्कृति को अपनाकर अपने जीवन को उन्नत बनाये ताकि भावी पीढी सुशिक्षित, सुसस्कारमय, प्रेम, सहयोग, सेवा, मैत्री पूर्ण सद्भावना आदि गुणो से युक्त होगी तभी राष्ट्र और समाज, धर्म एव परिवार की उन्नति मे सहायक हो सकती है। वर्ना देश की भावी पीढी गुणो से युक्त न होगी, और समाज धर्म परिवार की व्यवस्था मे कुशल न होगी । एव जो भारतवर्ष वर्षों तक गुलाम रहने के साथ आर्थिक स्थिति
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चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एवं संस्कृति समाज और नारी | २४६
की भी उन्नति न कर सका वही स्थिति आज के स्वतत्र भारत की हो सकती है। आज हम स्वतत्रता प्राप्ति के २५ वर्ष बाद भी अपनी आर्थिक स्थिति नही सुधार सके । कारण कि वर्षों की गुलाम एव आर्थिक परिस्थितियां । श्री राष्ट्रीय कवि गुप्त ने अपनी इन पक्तियो मे नारी को असहाय दयनीय अवस्था में माना है।
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ।
आचल मे है दूध और मांखो मे पानी ॥ ___ तथा महान् व्यक्ति के द्वारा यह भी कहा जाता है कि-पुरुष-नारी का खिलौना है । लेकिन नारी स्वय उसके खेलने मात्र का उपकरण नहीं है। अत नारियो का कर्तव्य है कि अपनी परिथिति मे सुधार करें एव उसमे लज्जा, करुणा, नम्रता एव शील को अपनाएं । अपने अन्दर प्रेम एकता सगठन की भावना की ज्योति प्रज्जलित करे एव आदर्शों को अपनाए, तभी देश समाज परिवार मे अपनी प्रतिष्ठा कायम कर सकेगी। और तभी वह देश समाज एव नई पीढी मे सुधार कर सकती है । नारियो का प्रमुख यह उद्देश्य होना चाहिए कि आदर्शों एव गुणो को स्वय अपनाए और आने वाली नव-पीढियो को उन आदर्शों को सिखलाए एव उनको अपने जीवन मे अपनाने के लिए उत्साहित एव सही मार्गदर्शन दें। ताकि वह देश, समाज धर्म एव परिवार को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने में योगदान दे सके अत इसमे यही निष्कर्ष निकलता है कि-अगर नारीजगत को अपनी प्रतिष्ठा कायम करना है, व अपने राष्ट्र, समाज एव धार्मिकक्षेत्र की उन्नति करना है तो वह सर्व प्रथम अपने आप मे सुधार करें एव आदर्श आदि को अपनाए ताकि उसे समानता का अधिकार प्राप्त हो एव अपने-अपने आने वाली नव पीढी का भविष्य सुन्दर एव ज्योर्तिमय हो ।
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संघ की उज्ज्वल परम्परा के प्रतीक : मेवाड़भूषण महानयोगी श्री प्रतापमल जी महाराज
-मदनलाल जैन-(रावलपिण्डी वाले)
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मेवाड भूपण परम श्रद्धय महान् योगरािज गुरुदेव श्री प्रतापमल जी महाराज के महान् चारित्र एव समाज सेवा के उपलक्ष मे नो अभिनन्दन ग्रन्थ का प्रकाशन किया जा रहा है-यह बढी प्रसन्नता की बात है । ग्रन्थ का प्रकाशन इसलिये किया जाता है कि-भावी जनता उस महान् दिव्य ज्योति के महान् कर्मठ जीवन के सम्बन्ध में कुछ जान सके और उससे प्रेरणा पाकर जनमानस अपने आपको उज्ज्वल एव उन्नत कर सके। यह अभिनन्दन ग्रन्थ भी इसी दिशा मे एक महान् प्रयास है । हम इसकी महान् सफलता चाहते हैं।
महान् योगी! विश्व मे समय-समय पर महान विभूतिया मानवता के कल्याण के लिए जन्म लेती रहती हैं। ससार के जिन महान् पुरुपो ने अपने जीवन को ससार के भोग-विलासो मे नप्ट न करके सत्य तथा ज्ञान के समुज्ज्वल अन्वेपण मे लगाया, उन्ही महान् पुरुपो मे परम श्रद्धय महान् योगी, मेवाड भूपण पडित-रत्न, त्याग-मूर्ति स्वामी श्री प्रतापमल जी महाराज हैं, जो सच्चे सयमी, श्रमण संस्कृति के प्रतीक बनकर इन महान् विशाल देश भारत की सुन्दर भूमि पर अवतरित हुये हैं।
बाल्यकाल! परम श्रद्ध य श्री स्वामी प्रतापमल जी महाराज ने वाल्यकाल से ही त्याग, तप और वैराग्य को अपना लक्ष्य बनाये रखा, शिशु-सा सरल मन और सेवा की मौरभ से महकता मन है आप श्री जी का, शुभ जन्म देवगढ मदारिया मेवाड भूमि मे ईस्वी सन् १६०८ को हुआ था। वाल्यकाल से ही जैन सन्तो के शुभ दर्शनो का लाभ आप श्री को प्राय मिलता ही रहता था । जिससे धार्मिक जागृति की छाप आप श्री जी के रोम-रोम मे समा चुकी थी।
दीक्षा! आप अभी केवल १४ वर्ष के ही थे, इतनी छोटी सी अल्प आयु मे ही आप को वैराग्य उत्पन्न हो गया, और ईस्वी सन् १९२२ मे मन्दसौर मे जैन दीक्षा को अगीकार करके एक जैन साधु हो गये । आप श्री जी ने दीक्षा परम श्रद्धेय पूज्यवर गुरुदेव जी वादीमान-मर्दक श्री नन्दलाल जी महागज से ली । आप श्री जी के जीवन मे सरलता, सौम्यता, मृदुता और सेवाभाव मुस्य रूप से कूटकूट कर भरे हैं । आप श्री ने शरीर द्वारा सुख दुख की निरपेक्षता का अपने जीवन की प्रयोगशाला के द्वारा जो महन् प्रत्यक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया है, वह सदैव स्मरणीय है।
युग-प्रर्वतक । __ परम श्रद्धेय श्री स्वामी प्रतापमल जी महाराज एक युग-प्रर्वतक महान् पुरुप हैं। आप श्री जी ऐमे महान् सन्त हैं, जिन्होंने सदा ही ससार मे और अपने साधु-सघ मे सुख और शाति को स्थिर रखने के लिए नमता, सत्य तथा अहिंसा को ही परम आवश्यक बतलाया । सगठन, अनुशासन-समाज-सेवा और सहनशीलता आप श्री के जीवन के मूल सिद्धान्त हैं। आप श्री जी धार्मिक जागति, शिक्षा-प्रसार एव समाज उत्थान मे जो आजकल योगदान दे रहे हैं-वह भुलाया नहीजा सकता।
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चतुर्थ खण्ड . धर्म, दर्शन एव सस्कृति सघ की उज्ज्वल परम्परा के प्रतीक | २५१
महान् कर्मठ संयमी सन्त ! आप श्री जी प्रखरप्रतिभा के धनी सन्त हैं । भगवान् महावीर के अहिंसा व सत्य को अपने जीवन मे उतारनेवाले तथा इन महान् सिद्धान्तो का घर-घर मे प्रचार व प्रसार करने मे आप श्री का बहुत योगदान है-समाज-सेवा और धर्म-रक्षा के निमित्त जो आप श्री जी का महत्त्वपूर्ण सहयोग समाज को मिल रहा है। वह सराहनीय है । श्रद्धेय श्री प्रतापमल जी महाराज स्थानकवासी जैन जगत के प्रकाश-स्तम्भ हैं। जिन के शुभ जीवन का लक्ष्य केवल सत्य-प्राप्ति और आध्यात्मिक विकास ही है। महान सन्त अपने वचन से नही अपितु आचरण से ही जनता को सन्मार्ग दर्शन कराया करते हैं। श्रद्धेय श्री प्रतापमल जी महाराज का महान जीवन सचमुच अहिंसा, सत्य, त्याग वा तपश्चर्या का सजीव प्रतीक है। आप श्री जी ने अपना समस्त जीवन मानवता की रक्षा और आत्मिक विकास के तत्वो की खोज मे लगाया हुआ है। देश के कर्मठ, सयमी सन्तो के आर्दशो पर आज भी मानव समाज का स्तर टिका हुआ है।
मेवाडभूपण परम श्रद्धेय गुरुदेव श्री प्रतापमलजी महागज जिस समाज तथा देश और धर्म को प्राप्त हो, सचमुच वो कितना भाग्यशाली समाज है । जैन समाज को खासकर ऐसे महान सत को पाकर महान गौरव का ही अनुभव होता है। आप श्री जी परोपकारी, जन-हित मे अपना सर्वस्व-समर्पण कर देने वाले नररत्न सन्त है । आप जैसे सत ससार की सर्वोत्तम विभूति हैं। अज्ञान के अन्धकार मे भटकने वाले प्राणियो के लिए दिव्य प्रकाश-पु ज हैं । सन्त आत्म-साधना मे लीन रहकर भी विश्व के महान उपकर्ता होते हैं। आप श्री जी के जीवन के ६५ वर्प और मुनि जीवन के ५१ वर्ष पूर्ण होने जा रहे हैं। इस दीर्घकाल मे आप श्री जी ने धर्म और संघ के लिए जो कुछ किया है। उसका मूल्याकन करना सरल नही है। ऐसे सन्तो का स्मरण, स्तवन, अभिनन्दन गुणगान मानवजाति के लिए महान् मगल रूप है | आप श्री जी का यह मुनि जीवन स्वच्छ, निर्मल और उज्ज्वल एव पवित्र है। जो साधको यानि मुनि मण्डल के लिए एक पथ-पर्दशक रूप है। इस लम्वे मुनि जीवन मे आप श्री जी ने देश भर मे पैदल पद यात्रा करके मानव-जाति मे सत्य, अहिंसा, क्षमा, प्रेम का वो दीप प्रज्ज्वलित किया है। जिस की उज्ज्वल ज्योति चिरकाल तक भावी पीढियो को आलोकित करती रहेगी, और सब देशवासियो को मगलमय प्रेरणा प्रदान करती रहेगी।
धर्म प्रचार-धर्म प्रचार के क्षेत्र मे भी आप श्री जी का योगदान प्रशसनीय है। विभिन्न क्षेत्रो की सार-सभाल करना, यह सब आप श्री जी की ऐसी विशेषताएं हैं-जो श्रमण सघीय साधु-मुनिराजो के लिए अनुकरणीय हैं-आप श्री जी श्रमण सघ के उत्साही सगठन प्रिय और एक महान् उत्साही, कर्मठ सत हैं । तपोमय मुनि जीवन ने मानव की मानसिक कल्पनाओ को एव आत्मिक क्षधा-पिपासा को शान्त करने के लिए समय-समय पर महान उपदेशामृत की अनुपम-अनूठी धारा बहाई है-जो प्रशसनीय हैउस के विचार मात्र से हृदय प्रमोद से भर जाता है। आप श्री जी का अध्ययन हिन्दी, गुजराती, प्राकृत एव सस्कृत मे खूब हैं-वास्तव में आप श्री जी का महान् जीवन स्थानकवासी जैन समाज के लिए धन है ।
हमारी हर्दिक कामना है कि मेवाडभूषण जी महाराज दीर्घ-काल तक भगवान महावीर स्वामी के महान् सिद्धान्तो का तथा जैन धर्म का प्रचार करते रहें । श्रद्धय पूज्य गुरुवर जी श्री प्रतापमल जी महाराज के महान सद्गुणो का कहाँ तक वर्णन करूं? मेरी तुच्छ लेखनी मे इतना बल ही कहा है जो इस महान आत्मा के दिव्य गुणो का चित्रण कर सके! फिर भी श्रद्धावश इस महान ज्योति पुज-रत्न के प्रति कुछ भाव अपनी और से लिख पाया हू-आप जी
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________________ 252 | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य की स्पप्ट-वादिता के कारण जन-मानस मदा ही आप जी के प्रति आकर्पित एव श्रद्धावान् रहा है / ऐसे महान् तपोपूत मन्त का अभिनन्दन करते हुये हम सब को व समूचे जैन समाज को अपार हर्प व उन्लास का होना स्वाभाविक है / यह अभिनन्दन ग्रन्य मेवाड भूपण श्री जी की समाज सेवाओ के प्रति एक श्रद्धा का सुमन तथा समाजोपयोगी प्रकाशन हो, यही शुभ कामना है / यह एक महान् सयमी सत के प्रति हमारा सही और रचनात्मक अभिनन्दन है / अन्त में हमारी हार्दिक कामना है कि मेवाड भूपण जी चिरजीवी होकर सघ और शासन के अभ्युदय के महान्, उत्तरदायित्व को सफलता के साथ वहन कहते रहे। तुम सलामत रहो / हजार वर्ष, हर वर्ष के दिन हो पचास हजार / सत्यं शिवं सुन्दरम् के प्रतीक -महासती मदनकु वरजी म० "ससार द्वेष की आग में जलता रहा, पर सन्त अपनी मस्ती मे चलता रहा। मन्त विष को निगल करके भी सदा, ससार के लिये अमृत उगलता रहा // परोपकार, दया, स्नेह, मधुरता, शीतलता आदि सतो का मुख्य गुण है। कहा है साधु चन्दन बावना शीतल ज्यारो अग। लहर उतारे भुजग को दे दे ज्ञान को रग / / इन्ही सन्न रत्नो मे परम श्रद्धेय आदरणीय पण्डित रत्न मेवाड भूपण गुरुदेव श्री प्रताप मुनि जी महाराज भी एक है / आपका जीवन बहुत सुन्दर है / आपके हृदय मे क्षमता, सहिष्णुता, धैर्यता, मधुरता, सरलता, नम्रता, करुणा इन्यादि ममी सन्तोचित गुण विद्यमान है। आप श्री का मेरे पर अत्यधिक उपकार है / मुझे ज्ञानदान आपने ही दिया / मैं आपकी पूर्ण आभारी हूँ / तथा साथ ही यह कामना करती हूँ कि प्रभु आप को चिरायु बनाये, जिसमे कि-जाति, समाज तथा देश को आप द्वारा संप्रेरणा गिलती रहे एव हमारा देश, हमारी जाति, हमारी समाज निरन्तर आगे वढती रहे / इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ उसी जीवन का स्मरण करता है जो सूर्य जैसे प्रकाश, चन्द्र सी शीतलता, नदी प्रवाह मी सरलता, फूलो सी महक और फलो सा माधुर्य का खजाना लुटाता हो / वही जीवन वदनीय एव अर्चनीय माना है। तदनुसार आप श्री का साधनामय जीवन तद् प मुझे प्रतीत हुआ है। सेवा-समता-करुणा, परोपकार एव सहिष्णुता आदि गुण-सुमनो से महकता हुआ जीवन-पुप्प है जो मानवता के उपवन मे स्वयं महत न्हा है और अपने शात उपदेशो द्वारा श्री सघ स्पी उपवन को भी महकाया एव चमकाया है। जिनका जीवन प्रवाह निरतर अहिना सयम एव तप की त्रिवेणी में अठखेलिया करता रहा है। परम पूज्य श्रद्धेय प्रात स्मरणीय मेवाड-भूपण गुरुदेव श्री प्रतापमल जी म० के अमस्य गुणो को शब्द वन्धन मे बान्धना एक निरर्थक प्रयास है / मत्य शिव सुन्दरम् के प्रतीक मापका पुनीत चरित्र अनत काल एव युग-युगान्तरो तक जीवनोवान का अमर नदेश देता रहेगा। और आपको यश सुरभि मद्गुण एव माधना, जनता के हृदय मे श्रद्धा का विषय बनी रहेगी।