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________________ चतुर्थ खण्ड धर्म, दर्शन एव सस्कृति जैन धर्म और जातिवाद | २३७ वाह्य क्रिया काण्ड की एव रटे हुए कुछ मन्त्र-तन्त्र-यन्त्रो की ओट मे वास्तविकता पर पर्दा डाला गया। मानवता के साथ खिलवाड हुआ । अन्तत जातिवाद की खीचातान मे क्राति का बिगुल गूज उठा।। फलस्वरूप जातिवाद के नाम पर पडोसी; पडोसी के बीच मारामारी हुई, काले-गोरे के वीच खूनी संघर्ष हुए, यहूदी ईसाई के मध्य कत्लेआम हुए और हिंदू-मुस्लिम के वीच लाशो का टेर लगा, खून की नदियाँ वही एव आए दिन सघर्प के नगाडे वजते रहे हैं। उपर्युक्त झगडे-रगडे, एव क्लेश-द्वप की पृष्ठ भूमि धन-धान्य-धरणी नही, अपितु जातिवाद के नाम पर हुए और हो रहे है । अरिहत की दृष्टि मे जातिवाद जातिवाद का सदैव सीमित क्षेत्र रहा है। जहाँ विशालता का अभाव और सकोर्णता का वोल-वाला रहता है । जव कि महा मनस्वियो का सर्वांगी जीवन प्रत्येक जीवात्मा को उदार और असीम वनने की बलवती प्रेरणा प्रदान करता है : धर्म-दर्शन का शुद्ध स्वरूप भी विराटता मे फूलता-फलता व सुदृढ बनता है । जिस प्रकार किमी विशाल भवन का टिकाव उसकी नीव पर आधारित है । वृक्ष की लम्बी जिंदगी उसके सुदृढ मूल पर निर्भर है । उसी प्रकार धर्म की वास्तविकता उसके सार्वभौम-सिद्धातो के आधार पर ही रही हुई है । अध्यात्म वादी कोई भी कैसा भी मत-पथ सम्प्रदाय अपना अस्तित्व अपने मालिक-सिद्धान्तो और सत्य-तथ्य मान्यता उनके आधार पर प्रभुत्व जमाने मे सफल-सवल हुआ है । यही वात जैन-दर्शन जातिवाद के विपय मे एक मौलिक चिंतन प्रस्तुत करता है कम्मुणा बमणो होइ, कम्मुणा होइ खत्तिओ। कम्मुणा वइसो होइ, सुद्दो होइ कम्मुणा ॥ उत्त० अ २५ गा ३३ कर्म से ब्राह्मण होता है कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से ही शूद्र होता है। और भी कहा है - न वि मुण्डिएण समणो, न ओकारेण बभणो। न मुणी रण्णवासेण, कुसचीरेण न तावसो ।। --उत्त० अ २५ गा ३१ केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नही होता है, ओमकार का जप करने से ब्राह्मण नही होता है, अरण्य मे रहने से मुनि नही होता है, और कुश का बना चीवर पहनने मात्र से कोई तपस्वी नही होता है। उपर्युक्त आर्पवाणी मे जातिवाद को न स्थान एव न महत्त्व मिला है। वल्कि जातिवाद से गवित उन कट्टरपण्डे पुजारियो के मिथ्याचरण को दूर करने के लिए अर्हत-वाणी स्पष्टत मार्गदर्शन दे रही है। केवल जाति के प्रभाव से यदि किसी को आदरणीय माना जाय, तो एक उच्च जाति कुल मे जन्म पाकर भी दुष्कर्म के दल-दल में उलझा हुआ और एक नीच जाति-परिवार में जन्म धारण करके शुभ कर्म-करणी कथनी में आस्था रखता है। तदनुसार कर्म भी करता है। दर्शकगण जाति कुल एव उसके परिवार को न देखता हुआ, जो दुष्कर्मी है, उमको अवहेलना की दृष्टि से और शुभकर्मी को अच्छी निगाह ने अवश्यमेव निहारेगा। वस्तुत. जाति की प्रधानता नहीं, कर्म की प्रधानता रही हुई है।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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