________________
२३८ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ
धर्म-साधना मे जातिवाद वाधक जाति अभिमान को निरस्त करने के लिए कहा है
सक्ख खु दीमइ तवो विसेतो, न दोसई जाइ विसेस कोई । मोवाग पुत्ते हरिएस साहू, जस्सेरित्सा इडिढ महाणुभागा ।
---उत्तरा० अ० १२ गा ३७ प्रत्यक्ष मे तप की ही विशेपता-महिमा देखी जा रही है। जाति की कोई विशेपता नही दीखती है। जिसकी ऐसी महान् चमत्कारी रहि है, वह हरिकेशी मुनि स्वपाक पुत्र है-चण्डाल का वेटा है।
मिय्या भ्रान्ति को दूर करने के लिए सर्वप्रथम महा मनस्वियो ने अपने वृहद मघ मे सभी को समान स्थान दिया है। चण्डाल कुल मे जन्मा हरिकेशी को श्रमण संघ मे वही स्थान और वही सम्मान था जो प्रत्येक भिक्षु के लिए होता है। अर्जुन जैसे घातक मालाकार के लिए वही उपदेश था, जो धन्ना-शालिभद्र के लिए था। आनद-कामदेव जैसे वणिक् श्रावक मडली मे अग्रसर ये, तो शकडाल जैसे कु भकार को भी श्रावकत्त्व का पूरा-पूरा स्वभिमान था। अर्थात् --चारो वर्ण विशेप के जन-ममूह सप्रेम सम्मिलित होकर साधिक योजनाओ को प्रगतिशील बनाते है । सभी के बलिप्ट कधो पर सघ का गुस्तर उत्तरदायित्त्व समान रूप से रहता है । जिसमे जातिवाद की दुर्गन्ध कोसो दूर रहती है । और प्रभु की वाणी भी अभेदभाव वरमा करती है ।
जहा पुण्णस्त कत्या, तहा तुच्छत्स कत्थइ । जहा तुच्छत्स कत्थइ, तहा पुप्णस्स कत्थइ ।।
-आचारागसूत्र सर्वन कथित वाणी-प्रवाह मे सौभागी एव मन्दमागी दोनो को ममान अधिकार है। मजे मे दोनो पक्ष अपने पाप-पक का प्रक्षालन करके महान् वन सकते हैं। वाणी-प्रवाह मे कितनी समानता सग्मता एव मर्वजनहिताय-सुखाय का ममावेश | यह विशेपता सर्वोदय के सदल प्ररूपक तीर्थकर के देशना की है।
जातिवाद का गर्व व्यर्थ भ० महावीर ने अपने उपदेश में कहा है-"से असइ उच्चागोए, असइ नीयागोए, नो होणे, नो अइरित्ते, न पोहए, इति सखाए के गोयावाई, के माणावाई, कसि वा एगे गिझे, तम्हा पडिए नो
कुज्झे।"
-आचारागसूत्र इम आत्मा ने बनेको वार उच्च गोत्र और नीच गोत्र को प्राप्त किया है। इसलिए मन मे उच्च गोत्र और नीच गेत्र का न हर्प और न शोक लावे अर्थात् न तो अपने को हीन समझे और न उच्चता का अभिमान ही करें। एक भारतीय कवि ने भी इमी विषय की पुष्टि की है
जात न पूछो साध की, पूछ लीजिए ज्ञान । मोल फरो तलवार का पड़ी रहन दो म्यान ।