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________________ - -- जैन धर्म और जातिवाद -मुनि अजीतकुमार जी 'निर्मल ममाजवाद, साम्यवाद, पू जीवाद, सम्प्रदायवाद, क्रियावाद, अज्ञानवाद, ज्ञानवाद, उ कर्पवाद अपकर्पवाद, यथार्थवाद, आदर्शवाद, एव जातिवाद इस प्रकार न मालूम कितने प्रकार के "वाद" विश्व की अचल मे शिर उठाये खडे हैं । पशु-पक्षियो की अपेक्षा वादो का विस्तार दिन प्रतिदिन मानव के मन मस्तिष्क मे अधिक वृद्धि पा रहा है । मेरी समझ मे मानव समाज भी उत्तरोत्तर वढाने में तत्पर है। जतिवाद कहाँ तक यद्यपि सामाजिक सुव्यवस्था की दृष्टि से कतिपय अशो तक जातिवाद को महत्त्व देना उचित है । क्योकि सामाजिक प्राणी के लिए इस व्यवस्था की आवश्यकता रही है। ताकि समाज का आवाल-वृद्ध प्रत्येक प्राणी निर्भयता-निर्भीकता पूर्वक सुख-समृद्धिमय जीवन व्यतीत कर मके नियमोप नियम-मर्यादा का पालन सुगमता-सरलता-स्वाधीनता पूर्वक कर सके और आहार-व्यवहार-आचार मे भी किमी प्रकार की विघ्न-बाधा का सामना न करना पडें । वरन् व्यवरथा की गडवडी होने पर सामाजिक एव धार्मिक क्षेत्र कलुपित होना स्वाभाविक है । इस प्रकार साधारण समस्या भी उलझ कर भारी विनाश का दृश्य उपस्थित कर सकती हैं । वस्तुत तन-धन-जन हानि के अतिरिक्त कइयो को इज्जत-आवरु-जान से हाथ धोना पडता है और सुख-शाति का वायु मण्डल भी विपक्ति होकर समाज-राष्ट्र-व परिवार को ले डूबता है। अतएव गहन चिंतन-मनन के पश्चात् महामनस्वियो ने पूर्वकाल मे वर्णव्यवस्था का जो श्लाघनीय सूत्र पात किया था। निः सदेह उस वर्ण व्यवस्था के पीछे सामाजिक हित निहित था। कतिपय स्वार्थी तत्त्वो ने आज उस व्यवस्था को एकागी रूप से जातिवाद की जजीरो मे जकड कर पगू वना दी है । फलस्वरूप विकृतियाँ पनपी, वुगइया घर जमा वैठी और सकीर्णता को भरपेट फलनेफूलने का अवसर मिला । केवल जीवन-व्यवहार की दृष्टि से तो प्रत्येक समूह के लिए जातिवन्धन अपेक्षित रहा है। क्लेश की बुनियाद-जातिवाद लेकिन एकागी दृष्टि से जातिवाद को महत्त्व देना निरीह अज्ञता मानी जायगी। मैं और मेरी जाति ही सर्वोत्तम है। अन्य सब हल्के एव तुच्छ है। बस, गर्वोन्मत्त वना हुआ मानव इस प्रकार एक दूसरे को अवहेलना भरी दृष्टि से निहारने लगा, तिरस्कार के तीक्ष्ण तीरो से विधना प्रारम्भ किया और मानव जीवन का मूल्य गुणो से न आक कर केवल जातिवाद के थर्मामीटर से नापने लगा । यहाँ तक कि धार्मिक एवं सामाजिक सर्व अधिकारो से भद्र जनता को विहीन किया गया। फिर से गले लगाना हो ही कैसे सकता था? थोडे-शब्दो मे कहू तो अपने आप को पवित्र और धर्म के अगुए मानकर एव उच्च जाति-पाति का दम भरने वाले पाखण्डी तत्त्वो ने धर्म के नाम पर खत मत माती की। ताति
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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