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________________ ११० मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ नरक रूपी कूप मे डूबते हुए प्राणी को धर्म-अधर्म के प्रगट करने मे तत्पर ऐसे गुरु से भिन्न अन्य पिता-माता-भाई-स्त्री-पुत्र-मित्र-स्वामी मदोन्मत्त हाथी-योद्धा रय-घोडे और परिवार आदि कोई भी समर्थ नही है। मोह मायावी जीवात्मा को परमात्मा पद पर आसीन करने मे गुरु का ही मुख्य हाथ रहा है। कारीगर की तरह जीवन के टेढे एव वाकेपन को निकाल कर उन्हे सीधा-सरल एव सौरभदार बनाते है ? जैसा कि गुरु कारीगर सारिखा, टाची वचन विचार । पत्थर की प्रतिमा करे, पूजा लहे अपार ।। परम श्रद्धय मेवाड भूपण गुरुदेव श्री प्रतापमल जी मा० मा० मेरे जीवन के सर्वोपरि निर्देशक रहे है। जिनका सफल नेतृत्व मेरी साधना को विकसित करने मे पूरा सहयोगी रहा है । इस अनन्त उपकार से मुक्ति पाना मेरे जैसे साधारण शिप्य के लिए कठिन है। 'प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ' गुरुदेव के कमनीय कर कमलो मे जो समर्पित किया जा रहा है । यह चतुर्विध संघ के लिए गौरव का प्रतीक है। महा मनस्वी आत्माओ का बहुमान करना, अपनी सस्कृति-सभ्यता को अमर वनाना जैसा एव अपने आप को धन्य वनाना है। विनम्र पुष्पांजलि... -मुनि हस्तीमल जी म० 'साहित्यरत्न' पडितवर्य मेवाडभूपण श्री प्रतापमल जी म० का दीक्षा अर्ध शताब्दी समारोह के उपलक्ष मे 'प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ' का प्रकाशन हो रहा है। यह सर्वथा अनुकरणीय एव प्रबुद्ध जीवी के लिए गौरव का प्रतीक है । महा मनस्वियो का अभिनन्दन करना, यह समाज की अटूट परम्परा रही है । 'जहाँ-जहाँ चरण पडे सत के, वहाँ-वहाँ मगल माल' तदनुसार आप जिस किसी प्रात-नगर एव गाव मे पधारे हैं, वहाँ आप ने भ० महावीर के 'शान्तिवाद' सदेश को प्रसारित किया है । क्षीरनीर न्यायवत् आप मिलना एव मिलाना अच्छी तरह जानते हैं । अपनी इम दीर्घ दीक्षा अवधि मे आपने लाखो श्रोताओ को अपनी माधुर्य पूर्ण वाणी द्वारा अभिभूत एव अभिमिचित किया है। फलस्वरूप भावुक जन की मानसस्थली मुलायम हुई और दान शील-तप-भावो की लनाएँ पल्लवित-पुप्पित हुई है। ऐसी पवित्र विभूति के पाद पद्मो मे मक्ति भरी पुष्पाजलि समर्पित करते हुए आज मुझे अपार आनन्दानुभूति हो रही है।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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