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________________ १९२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ देखिए---द्रापदी की कटु वचनावली ने कैसा चमत्कार दिखाया। भोज की ज्ञान-गभित गिरा ने लोभान्ध मुज के मानम-स्थली को किस तरह बदली। बिहारी कवि की चमत्कारी कविता द्वारा विकारान्ध राजा मानसिंह अति जत्दी सभल जाते है । उसी प्रकार नाथ शब्द ने ऐश-आरामी शालिभद्र को साधना के मार्ग पर आसीन कर ही दिया । ससार बनाम नाट्यशाला नाट्यगाला के मन मोहक पर्दो पर एक्टरगण पल पल मे कमी राजा रक तो कभी सेठ-चोर कभी भिखारी-व्यापारी इस प्रकार विविध वेश-भूपा मे स्वॉग बनाकर दर्शको के मन-मयूर व नयनो को रिझाने का भरसक प्रयत्न करते है । वस्तुत खेल के अन्तर्गत कभी लाभ, कभी हानि का दृश्य भी उपस्थित हो जाता है। तो भी उन खिलाडियो को न हर्प और न शोक होता है। क्योकि उन्हे ज्ञात है कि-ये मभी स्वाँग केवल मनोरजन मात्र एक एक स्वप्न सदृश हैं। उमी प्रकार चतुर्गति ससार भी एक विस्तृत नाट्यशाला का सागोपाग रूपक है जिसमे प्रतिपल प्रत्येक प्राणी नाना आकार के रूप में जन्म ले रहा है। गेंद की तरह इत-उत धक्का खाया करता है । ये सारी क्रिया प्राणी से सम्बन्धित कर्म वर्गना पर आधारित है। इसका कारण एक-एक जीव के माथ अगणित नाते हो चुके है । जैसा कि-'जणणी जयइ जाया, जाया माग पिया य पुत्तोय' रहस्यमय समार का रहस्योद्घाटन केवल सर्वज्ञ ही कर पाते हैं । अविकसित वुद्धिजीवी की शक्ति के वाहर का विषय है। स्वार्थ और परमार्थ एक वारा वह है जो अन्य के वढते हुए जन-धन रूपी वैभव को अपनी आखो से देख नही पाते है । अन्य के अस्तित्व पर वत्ती लग जाय । अर्थात् वे आपत्ति को भोगते रहे और मैं धन-जन से तरबूज की तरह फलता-फूलता रहूँ तब मुझे अपरिमित मुखानुभूति होवे । "मैंने पीया मेरे घोडे ने पीया अव कुआ भाड मे जाय ।' यह स्वार्थ भरी उसके जीवन की दुर्गन्ध है। दूसरी धारा इससे विपरीत है । मैं वैभव मे वढ रहा हूँ, तो मेरा साथी भी क्यो पीछे रहे ? मैं मुस्करा रहा हूँ, तो अन्य भी खुशहाल रहे, मैने पेटभर खाया तो मेरा पडौमी भी भूखा न रहे। स्वय जिन्दा हूँ इसी प्रकार सभी जीव जन्तु चैन पूर्वक जिंदगी वितावे। ऐसा जीवन सृष्टि का शृगार आधार और हार अहिंसा का अवतार माना है। चूंकि तारक एव रक्षक जीवन के यशोगान गाये गये हैं। सत्ता का अजीर्ण हे क्षुद्र नदी | तेरा जोश तीन दिन के बाद उतर जायेगा। किन्तु तूने अपनी मस्ती के मद मे विनाश लीला को जो ताण्डव उपस्थित किया है वह कई वर्षों तक मानवीय मन-मस्तिष्क से हटेगा नहा । मानव जव तेरे निकट आयेंगे, तव-तब उस कहानी को दुहरायेंगे कि यह नदी अमुक वर्ष में आई थी। उसमे हमारे गाँव-घरो की सारी-सम्पत्ति व जन-जीवन की भारी हानि हुई थी। क्षुद्र नदी की भाति एक एक मानव अधिकार मद मे फूल कर कुप्पा हो जाता है। पर पीछे पागल बनकर देश समाज को अध पतन के गर्त मे धकेल देता है। तथापि अक्ल के अधे को वास्तविक स्थिति का भान नही होता है । ऐसे निष्ठुर नेता को भावी युग-निर्माता न मानकर विवेकभ्रप्ट के नाम से इतिहास पुकारता है।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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