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________________ तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया जीने की कला | १३५ याद आगई। मैं सन्त मण्डली महित रामपुरा से मन्दमौर की तरफ आ रहा था। मार्ग मे एक कृपक (किसान) मिला। ___मैंने पूछा-क्यो भक्त । आज कल क्या घधा करते हो ? उसने उत्तर दिया-महाराज | मैं आपके सामने झूठ नही बोलूगा । मैं हमेशा घी के व्यापार में तीन रुपये कमाता हूँ। मैंने फिर पूछा-यह कैसे ? उसने कहा---डालडा पशु को खिलाता हू मक्खन, के साथ-साय वह भी मक्खन वन जाता है, गर्म करके असली के भाव में बेच देता है । ग्राहक असली मानकर ले लेते है । क्या व्यापारियो (ग्राहक) को पत्ता नही लगता असली नकली का ? नहीं गुरु महाराज | वे लोग सू घते हैं, सू घने मे तो असली जैसी ही गध आती है। घी डवल हो जाता है, तीन के छ रुपये हो जाते है अत: तीन का लाभ कमा लेता हू । भक्त । तुम्हे ऐसा नही करना चाहिए, यह तो उनके साथ विश्वास घात हुआ न ? हाँ गुरुजी । ऐसा करना महा पाप है किन्तु मन नही मानता । महगाई अधिक वढी हुई है, इसलिए ऐसा करना पड़ता है। कहने का मतलब यह है कि उनके जीवन में कपटाई-चापलूसी घर जमा वंठी । और ऐसे कार्य करने लगे, यह शहरी जीवन की देन है। अमृत सा मीठा जीवन जीयें -- में तो यही मानता हू कि-आज के युग में ऐसे भी मानव हैं, जिनको धर्ममय जीना आता 'है। वहुसरयक मानव तो ऐसे हैं जिनके भाग्य मे अद्यावधि सही तौर-तरीको से रहने की कला का उदय ही नहीं हुआ । कतिपय मानवो के कर्ण-कुहरो तक ये शब्द पहुचे अवश्य है । किन्तु अन्तर्ह दय तक नहीं । ससारी ममन्त आत्माओ को भी समार मे रहना है तो मीठा जीवन जीना चाहिए । मीठे जीवन का मतलब यह नहीं कि उसमे शक्कर-गुड अथवा मीठा पदार्थ अधिक मात्रा मे खा करके मीठा वना माय नहीं नहीं । जीवन में सरलता, दान, दया एव न्यून कपाय वृत्ति, मंत्री भावना, सेवा-सहानुभूति, निलभिता आदि गुणो की वद्धि होनी चाहिए। महापुरुपो का जीवन जव ससार मे रहता है तव समस्त आणिया के प्रति अमृत की धारा वहाने वाला होता है। भ० तीर्थकरो के समवशरण मे सिंह और वकरी आसपास बैठे रहते हैं । यह तीर्थंकरो के अमृतमय जीवन-अतिशय का महत् प्रभाव है । रघुवश महाकाव्य + निगाता कवि कालिदास ने रघवश के दसरे सर्ग मे लिखा है-जब मर्यादापुरुपोत्तम राम के चरण मरोज वन में पहुंचे तो वहां का टन वातावरण विना वृष्टि के ही शात हो गया । अनायास वृक्ष, लता, गुल्म, गुच्छे सभी फूलो-पत्तो से लहलहाने लग गये। सभी जीव-जन्तु वर-विरोध-द्वे प-क्लेश को भूलकर सामरिक स्नेह सरिता में डुबकियां लेने लग गये। इस प्रकार सर्वत्र जगल में मानो शाति का साम्राज्य छा गया था। शशाम वृष्टाऽपि विना दावाग्निरासोद् विशेषा फल पुष्पवृद्धि । ऊनं न सत्वेषु अधिको ववाघे, तस्मिन् वने गोप्तरि गाहमाने ।। -रघुवश महाकाव्य ऐसा क्यो? इसीलिये कि उनके जीवन मे स्वर्गीय सुपमा का साम्राज्य था। तदनुसार वाहर भी वैसी ही प्रतिछाया अवश्य पडती है। हालाकि --प्रत्येक ससारी कोई साधु नहीं बन सकते
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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