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________________ १३२ | मुनिश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ साहित्य सगीत कलाविहीन साक्षात्पशु पच्छविषाणहीन । तृण न खादन्नपि जीवमानस्तद्भागधेय परम पशूनाम् ।। साहित्य, सगीत एव मुकलात्मक जीवन यदि नही बना पाये तो वह जीवन सचमुच ही पशुवृत्ति का प्रतीक आका है। भले वह घाम फम नही खा रहा, भले उसके शरीर पर शृग-पुच्छ आदि पाशविक चिन्ह नही हो तो क्या हो गया ? किन्तु भावात्मक दृष्टि से वह पशु की श्रेणी में है । क्योकि पशु के मन-मस्तिष्क मे विचारो का मथन नही हुआ करता है और न पारम्परिक विचारो का आदानप्रदान ही होता है। वस्तुत हेय-ज्ञेय उपादेय क्रिया-कलापो में बहुधा पशु जीवन विवेक-विकास शून्य मा रहा है। केवल उपाधियाँ त्राणभूत नहीं:आप विचार करते होगे कि आज दुनियां अत्यधिक विवेकशील, अध्ययनशील एव सभ्यता शील बन चुकी है। राकेटो का युग है। राकेट यान मे अनन्त अन्तरिक्ष की उडान भरने मे सन्नद्ध है। समुद्र के गभीर अन्तस्तल का पता खोज निकाला है। आकाश पाताल की विस्तृत सधियां नापी जा रही है । एव परमाणु शक्ति का तीव्रतर गति मे प्रगति मे जुडे हुए हैं। नित्य नये-नये आविष्कारो का जन्म होता चला जा रहा है, अब कहां विवेक की कमी रही । भले इस आणविक युग में मानव 'वी० ए०' एम० ए, वी० कॉम, पी० ए०एल० एल० वी, एव आचार्य, शास्त्री, विशारद, प्रभाकर आदि उच्चतम डिग्रियां-उपाधियाँ उपलब्ध करके डॉक्टर-वकीलवेरिष्टर, इ जनियर एव ओवरसीयर आदि वन गये है। किन्तु व्यवहारिक-नैतिक एव धार्मिक जीवन का धरातल यदि उनका तिमिराच्छादित है। उनका अन्तर्जीवन अनुशासन हीनता से दुराचार एव अनाचार के कारण मडाने मार रहा है, और आसपास के विशद वातावरण को विपाक्त वना दिया है तो कहिए वे डिग्रियाँ, उपाधियाँ एव पद उनके लिए भूपण स्वरूप है कि-दूपण स्वरुप ? आगम में कहा है"न त तायति दुस्सोल-(उ० सू० अ० २५२८) अर्थात्-वे उपाधियाँ अधोगति मे जाते हुए उन्हे रोक नहीं सकती है । मझधार मे डूवते हुए को तार नही सकती है । आगे और ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर ने स्पष्ट बता दिया है न चित्ता तायए भासा, कुओ विज्जाणुसासण । विसण्णा पादसम्मेहिं वाला पडियमाणिणो ।। हे चेतन | थोडा वहुत पढ जाने पर अपने आपको पडित मान लेते हैं वे वास्तव मे अज्ञानी आत्माएं हैं, जो पाप कृत्यो मे फैमे रहते हैं। वे यह नहीं जानते हैं कि-प्राकृत सस्कृत आदि अनेक विविध भापाओ का रटन-ज्ञान मीख लेने पर भी परलोक मे वह भाषाज्ञान रक्षक नही होता है, तो फिर बिना अनुष्ठान के तान्त्रिक कना-कौशल की साधारण विद्या की तो पूछ ही क्या है ? अर्थात् साधारण विद्या प्राणभूत नहीं बन सकती है। हो तो, जीवन टन भभकेदार चमक-चाँदनी एवं भौतिक चटक-मटक से दूर रहे जैसा कि"Simple living and high thinking" अर्थात्-"सादा जीवन उन्च विचार, यही करता जीवन उद्धार ।" जब यह मुहावरा जीवन मे ओत-प्रोत हो जायगा वम वही जीवन जन जन के लिए सम्माननीय-आदरणीय माना है । जिसयो माविक जीवन जीना कहते हैं ।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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