SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम खण्ड शास्त्रीय-अध्ययन | ३५ उद्घोप और यह है निर्ग्रन्थ प्रवचन की विशेषता-सरलता एव निष्पक्षता । इसलिए—आचार्य समन्त भद्र की भापा मे-'सर्वापदामंतकर निरन्त सर्वोदयं तीर्थमिद तवैव" अर्थात्-हे प्रभु | आप के प्रवचन पावन तीर्थ मे आधि-व्याधियो का समूल अत हो जाता है । इसलिए सर्वोदय तीर्थ से उपमित किया गया। आप्त वाणी को दुर्लभता - आप्त कथित आगम वाणी की प्राप्ति अतिदुष्कर मानी गई हैं चू कि-मिथ्या सिद्धान्त का फैलाव-पसार जल्दी जन-जीवन मे फैल जाता है। दूसरी बात यह भी है कि-नकली एव सस्ती वस्तु को मानव सत्वर स्वीकार करने के लिए तैयार हो जाता है और स्वीकार करने के पश्चात् पुन उसे त्यागना और मुश्किल की चीज है । मिथ्यात्व एक ऐसी वीमारी है, एक ऐसा भयकर कर्दम है जिसके दल-दल मे मानव मक्ती की तरह उलझ जाता है कदाच कोई धीर-वीर समझू जिज्ञासु ही उस मिथ्या श्रुत कर्दम मे से विमुक्त हो पाता है । इसलिए कहा है माणुस्स विग्गह लद्ध, सुई धम्मस्स दुल्लहा । ज सोचा पडिवज्जति, तव खति महिंसय ।। -उत्तराध्ययन सूत्र ३ गा०८ हे जिज्ञासु । मानव जन्म पा जाने पर भी उस सम्यक् श्रुत धर्म का सुनना दुर्लभ है । जिन वाक्यो को श्रवणगत करके तप क्षमा और अहिंसा धर्म अगीकार करने की अभिरुचि पैदा होती है । अतएव जन्म-जरा मरण की शृखला को विच्छिन्न एव नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए निश्चयमेव आगम वाणी अचूक औपधि है जीवन है, अमृत है, अनन्त शान्ति-सुधा पूरित है, शुद्ध ज्योति है, जीवन को चमकाने वाला ओज है तेज है, अजेय शक्ति (Power) का श्रोत है, अनन्त वल है, ज्ञान-विज्ञान आदि सर्वस्व आनन्द की कु जी है एव सिद्ध गति का शाश्वत सोपान है। ___गुरु एव शिष्य का सुमेलसम्यकश्र त एव वादीमानमर्दक गुरुप्रवर श्री नन्दलाल जी महाराज श्री का सुयोग मिलने पर तीव्र गति से आप (प्रताप गुरु) का विकास होने लगा। साधु का वाना धारण कर लेने मात्र से ही नव दीक्षित मुनि सन्तुष्ट होकर बैठे नही रहे क्योकि भली-भाति ऐसा आपको ज्ञात था कि"यस्मात् क्रिया प्रति फलति न भाव शून्या" अर्थात्-भावात्मक साधना विना आचरित क्रिया काण्ड के केवल संसारवर्धक माने गये हैं। अतएव वेश-भूषा, रजोहरण-मु हपत्ति व पात्र आदि उपकरण तो मेरी आत्मा ने पहिले भी निमित्त पाकर अनेको वार अगीकार कर लिया है किन्तु इष्ट मनोरथ की पूर्ति हुई नही । वस्तुत अमूत्य इन क्षणो मे अब मुझे ज्ञान एव क्रिया का अभ्यास इस तरह करना है, ताकि'पुनरपि जनन पुनरपि मरण" का चिरकालीन चला आ रहा सिलसिला अवरुद्ध सा हो जावे । ऐसा प्रशस्त चिन्तन-मनन कर आप प्रमाद किये बिना ही ज्ञानाभिवृद्धि मे इस तरह जुट गये, मानो कही प्राप्त हुआ काल यो ही वीत न जाय । जैसे किसी को खजाना बटोरने को कह दिया हो। उसी प्रकार विनय-विवेक-एव भक्तिपूर्वक गुरुप्रदत्त ज्ञाननिधि वटोरने मे नव-दीक्षित मुनि जी सलग्न हुए। गुरु भगवन्त भी ऐसे-वैसे शिप्य रूपी पात्रो मे ज्ञानामृत नही उडेला करते हैं । निम्न गुणो से ओत-प्रोत पात्र को ही ज्ञानामृत का सुस्वादन-पान करवाते हैं --
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy