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________________ ३६ | मुनश्री प्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ अह अहिं ठाणेहिं, सिक्खासीले त्ति वुच्चई । अहस्सिरे सया दते, न य मम्ममुदाहरे ।। नासोले न विसीले, न सिया अइलोलुए । अकोहणे सच्चरए, सिक्खासीलेत्ति वच्चई ॥ -म० महावीर-उत्त० अ० ११ । गा० ४-५ "जो अधिक नही हमनेवाला, इन्द्रियो का सदैव दमन करने वाला, मर्म भरी वाणी का उपयोग न करने वाला, शुद्धाचारी, विशेष लोलुपता रहित, मन्द कपायी, और सत्यानुरागी-शिक्षा शील सम्पन्न हो ।" उपर्युक्त सर्व गुण हमारे चरित्र नायक के जीवन मे ज्यो के त्यो हरी खेती की तरह लहलहा रहे हैं। गुरुदेव सचमुच ही ऐसे विनयशील-विवेकी अन्तेवासी के लिए अपना विराट् विमल-विपुल हृदय निधान विना सकोच किये उघाडकर उस शिप्य के सामने रख देते हैं । गुरु प्रवर का सचित-अर्जित अखण्ड ज्ञान-विज्ञान भण्डार ऐसे ही अन्तेवासी पात्रो के लिए सर्वदा सुरक्षित रहता है--"सपत्ति विणीयस्स।" साहित्य में प्रवेश - गुरुदेव की महती कृपा से दीक्षोपरान्त आपने जैनागम तथा जैन-दर्शन साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ किया । त्वरिता गति से दशवकालिक, उत्तराध्ययन, सूत्रकृताग एव आचाराग सूत्र आदि-आदि कई शास्त्र कठस्थ कर लिए गये और समयानुसार हिन्दी साहित्य मे भी साहित्य रत्न पदवी तक की उच्चतरीय योग्यता अतिशीघ्र प्राप्त कर ली। तत्पश्चात् सस्कृत साहित्य का अध्ययन प्रारम्भ किया। जिसमे श्रीयुत् स्व० मान्यवर श्री कन्हैयालाल जी भण्डारी इन्दौर वालो का पूरा पूरा सहयोग रहा। अनुदिन भण्डारी सा० की ओर से उत्साहवर्धक पवित्र प्रेरणा मिलती रही-"आप पढते हुए आगे वढते रहे। आप की व्याख्यान शैली और विद्वत्ता अधिकाधिक निखर उठेगी।" फलस्वरूप सस्कृत व्याकरण, कोप, काव्य-न्यायदर्शन एवं अन्य सहायक साहित्य का चित्त लगाकर अवलोकन किया। देखते ही देखते आप एक अच्छे व्याख्याता मनीपी के रूप मे समाज के सम्मुख आ खडे हुए। करे सेवा पावे मेवास्व० पू० श्री मन्नालाल जी म० त्याग शिरोमणि स्व० पू० श्री खूबचन्द जी म०, स्व० दि० श्री चौथमल जी म० स्व० पू० श्री सहनमलजी म० स्व० उपाध्याय श्री प्यारचन्द जी म०, एव दीर्घ जीवी गुरु प्रवर श्री कस्तूरचन्द जी म० आदि अनेकानेक वरिष्ठ मुनिवरो के ससर्ग से आप कुछ ही वर्षों मे एक सफल वक्ता एव विश्लेपण कर्ता के रूप मे बनकर अद्यप्रभृति समाज मे एक अनूठा-अनुपम कार्य कर रहे हैं। जो प्रत्येक श्रमण साधक के लिए अनुकरणीय एव जैन समाज के लिए अति गौरव का विपय है। इस प्रकार हमारे चरित्र नायक के भाग्योदय का सर्वस्व श्रेय वादी मान-मर्दक गुरु नन्दलाल जी म० को है । जिनकी महती कृपा से प्रताप एक धर्मगुरु प्रताप बन गया। समय की मांग__ आज के इस तर्कवादी शुग मे सम्यक्-श्रुत स्वाध्याय की महती आवश्यकता है। शास्त्रीयज्ञान के अभाव मे आज-समाज, परिवार एव राष्ट्र के वीच अशान्ति की चिनगारियां फूटती है । गृह
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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