SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया भगवान महावीर के चार सिद्धान्त | १५७ ने परिग्रह नही कहा है जैसे-"न सो परिगहो वुत्तो नायपुत्तेण ताइणा।" अपितु सयम के बहिरग साधन अवश्य माने है । इन पर मुनि की ममत्व बुद्धि नही रहती है। अनासक्त भावना पूर्वक उपयोग मे अवश्य लाना है । इस कारण मुनि जीवन को अपरिग्रही जोवन माना है। यद्यपि गृहस्थजीवन के लिए परिग्रह रखने का किसी भी तीर्थंकर ने विल्कुल निपेध नही किया है किन्तु मर्यादा वाधने का स्पष्ट उल्लेख है । अर्थात् जितनी भी वैभव धन सपत्ति रखनी है उतनी रखने के बाद तो परिमाण (मर्यादा) इच्छा निरोध करना ही चाहिए । इच्छानिरोध नही करने पर रेगिस्तान की तरह उस देहधारी के मन-मस्तिष्क मे निरन्तर इच्छाओ का जाल फैलता रहता है । फलस्वरूप अपार पूजी पास होने पर भी उस स्वामी का जीवन चिन्तातुर एव व्याकुल दिखाई देता है । क्योकि—वह दुनियाँ भर का धन इकट्ठा करना चाहता है जिसके कारण वह दूसरो का विनाश करने पर उतारु भी हो जाता है। इसी दुर्भावना से प्रेरित होकर पूर्वकाल मे वडे-बडे सघर्प, द्वन्द्व हुए हैं । परिग्रहवाद ने ही मानव भावना मे, भाई-भाई मे, बाप-बेटे मे एव पडोसी-पडोसी के बीच द्वप-क्लेश की दीवारें खडी की हैं। खूनी क्राति का जनक यदि है तो परिग्रहवाद ही है । जिसमे भयकरता, विपमता, हत्या-हिंसा का वोल-वाला है । जैसा कि आदमी की शक्ल से अब डर रहा है आदमी। आदमी को लूट कर घर भर रहा है आदमी ।। आदमी ही मारता है मर रहा है आदमी। समझ कुछ आता नहीं क्या कर रहा है आदमी ।। अतएव अपरिग्रह सिद्धान्त मानव समाज के लिए नर्वोदय का प्रतीक है। जिसके अन्तराल मे "आत्मवत् सर्वभूतेषु" और "वसुर्घव कुटुम्बकम्" की मगल भावना छिपी हुई है । 'सत्य, शिव, सुन्दरम्' के सुमधुर स्वर गुजारव के साथ सभी प्राणियो का भाग्योन्मेष विकसित होता है । बहिरग एव अतरग जीवन सुख-सुविधा-सतोप से भर जाता है जिसके अन्दर न शोपण एव न दलन की गुजाइश है। जो मानव अपरिग्रह सिद्धान्त का उल्लघन करता है वह सचमुच ही मानवता के सिद्धान्त का लोप करता हुआ महत्वाकाक्षी बनता है । अपरिग्रह सिद्धान्त का जब तक समाज मे अमल होता रहेगा, वहां तक मानव समाज सुख शाति का अनुभव करता रहेगा और व्यक्ति-व्यक्ति मे आत्मीयता भाव की सवृद्धि भी होती रहेगी। हाँ, तो मेग सभी से अनुरोध है कि भ० महावीर द्वारा प्रतिपादित 'जीवन मे अहिमा' "विचारो मे अनेकांत' 'वाणी मे स्याद्वाद दृष्टि' एव 'समाज मे अपरिग्रहवाद' इन चार सिद्धातो को गहराई से सोचे, समझे और जीवन मे उतारे।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy