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________________ मृत्युजय कैसे बने ? wwwwwww गुरु प्रवर का ‘मृत्यु जय कैसे बने ?" नामक यह प्रवचन दुनिया को अटपटा सा प्रतीत होगा। क्योकि कलात्मक जीवन यापन करना सभी के लिये स्पृहणीय रहा है। किन्तु मृत्युंजय कला के लिए क्या प्रशिक्षण ग्रहण करना आवश्यक है ? क्यो नहीं ! जिसको ठीक तौर-तरीके से मरना नहीं आया सचमुच ही वे नर-नारी मृत्यु जय कैसे बनेंगे ? कहा भी है "मरने पर ही पाइए पूरण परमानन्द' अर्थात पार्थिव देह का परित्याग किये बिना पूर्णानन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती है । फलस्वरूप देहधारी को मृत्यु जय कला का ज्ञान विज्ञान व तत्सम्बन्धी मार्ग-मजिल को जानकारी उतनी ही जरूरी है जितनी अनभिज्ञ राहगीर के लिए द्रव्य राह की जानकारी। माना कि-कालानुसार पामर प्राणियो को मरना ही पड़ता है । आचाराग सूत्र मे भी कहा-"नत्थि कालस्स अणागमो" मौत के लिये कोई काल नहीं है। आज जहां-तहां अपघात दुर्घटना का दौड-दौडा है । इस दृष्टि को सामने रखकर गुरुदेव ने बालमरण एवं पडिनमरण की व्याख्या प्रस्तुत कर दुनिया के मिथ्यान्धकार को हटाने का सफल प्रयास किया है। -सपादक प्यारे सज्जनो। आज के इस भौतिकवादी युग मे जैसे आजादी, आवादी और वर्वादी आदि का विस्तार हुआ और हो रहा है, वैसे ही 'आत्म हत्या' नामक बीमारी का विस्तार भी क्या जैन समाज, क्या वैष्णव समाज और क्या इतर समाज आदि मे दिन दुगुना और रात चौगुना पराकाप्ठा को पार कर आगे बढ रहा है। नित्य प्रति समाचार पत्रो मे ऐनी घटनाओ के समाचार पढते हैं। कई वार हम अपनी आँखो के ममक्ष देखते और कानो से सुनते भी हैं कि-अमुक व्यक्ति, अमुक महिला और अमुक लडके ने विप खाकर, अग्नि में जलकर, वृक्षादि से फासी खाकर, शस्त्र द्वारा घान कर, कूप-वावडी-पानी मे डूवकर और पहाड इत्यादि ने गिरकर आत्म-हत्या कर ली। ऐसे हृदय विदारक मन्देश आए दिन कर्ण-कुहरो मे गुजते ही रहते हैं। "कारणेन विना कार्य न भवति" इस सत्य युक्ति के अनुसार अव हमे उपयुक्त कार्य के कारणो की और निहावलोकन करना है। आज राष्ट्र समाज और परिवारो मे इस आत्म-हत्या के कारण भूत कई दूपित तत्व और कई जीर्ण-शीर्ण, सडी-गली रूढियां परम्पराये वर्तमान हैं । जैसे आर्थिक कमजोर स्थिति, पारिवारिक कलह क्लेश, अप्रशस्त गग-मोह, लोमान्धता और पूर्णत धार्मिक ज्ञान का अभाव । आदिनादि कारणो से म्वत मानव घर्य से चलित और लज्जित हो कर आत्मघात कर बैठना है और कई व्यक्ति लोभान्य होकर अन्य व्यक्ति की भी हत्या कर बैठते हैं । इस प्रकार यह क्रम चल रहा है।
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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