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________________ तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया वैराग्य विशुद्धता की जननी | १७१ अनेक मानवो को भय से भी वैराग्य उत्पन्न होता है। यथा-स्वास्थ्यरक्षा-भय, राज-भय, ममाज-परिवार-भय, जन्म-मरण भय, और नरक-भय आदि । रुग्ण मानव की शारीरिक डावाँडोल स्थिति को देखकर मन मे विचार आये कि-उफ । इस मानव का यह गौर वर्ण मडित शरीर पहले कितना हृष्ट-पुष्ट और सुन्दर चमक-दमक काति वाला था? वाह ! वाह ! देखते ही बनता था, परन्तु आज इसके चारो तरफ रोग ने डेरा डाल रक्खा है, वृद्धावस्था विभीपिका ने विद्रोह करके अपने चंगुल में फंसा लिया है। पुन स्वस्थता को यह कैसे प्राप्त करेगा ? इस प्रकार अन्य को देखकर वैराग्य प्राप्त करना-सो स्वास्थ्य-भय, वैराग्य कहलाता है। करते-धरते कोई काम बिगड जाने से अथवा भारी कलक आ जाने से अब समाज मे से वहिप्कार-तिरस्कार मिल रहा है। समाज तथा परिवार में पैर रखने जितना ही स्थान नहीं रहा जिधर जाग उधर मानव अगुलियाँ दिखावे थू-थू करे। ऐसी स्थिति मे जो वैराग्य होता है उसे 'ममाज परिवार' भय से होने वाला वैराग्य कहते हैं । कही चोरी, डाका डालने पर अथवा किसी की हत्या करने पर उम अपराधी को जीवन पर्यन्त कारागार या मृत्युदट मिलता है । इस प्रकार कुकर्मों के कटु परिणामो को प्रत्यक्ष देखकर या परोक्ष स्प से सुनकर के जो ससार के प्रति उदासीनता आती है उसे राज-भय वैराग्य कहते हैं । जिस प्रकार चम्पा निवासी श्रेष्ठी श्रमणोपासक पालित के सुपुत्र समुद्रपाल के वैराग्य का नैमित्तिक कारण चोर, राज्य कर्मचारी एव आखो के सामने तैरने वाला अशुभ कर्म का विपाक था। हाथ पैरो मे वन्धित हथकडी वाले चोर को कर्मचारियो द्वारा ले जाते हुए तस्कर को प्रत्यक्ष देखकर समुद्रपाल की अन्तगन्मा जाग उठी, बोल उठी त पासिऊण सविग्गो, समुद्दपालो इणमवबवी । अहोऽसुहाण कम्माण, निज्जाण पावग इम ।। सबुद्धो सो तहिं भगव, परमसवेग मागमओ । --उत्तराध्ययन अ० २१।६-१० अहो | अशुभ कर्मों का अन्तिम फल पाप रूप ही है। यह प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है। इस प्रकार वोध पाकर समुद्रपाल परम-सवेग को प्राप्त हुए । तदनुमार कोई रोते हुए, कोई चिल्लाते हुए और कोई जय-जय नन्दा, जय जय भद्दा, "राम नाम सत्य" की धुन गाते हुए एक निष्प्राण देह को उठाकर श्मशान घाट को तरफ जा रहे हैं । ऐसे भयावने दृश्य को देखकर समार के प्रति अरुचि आती है, अरे । यह जन्म और मरण तो सर्व समारी जीवो के पीछे लगा हुआ है । एक दिन मैं भी इस नश्वर शरीर को छोड के खाली हाथो चला जाऊँगा । अत क्यो नही मैं ऐसा शुभ काम करूं ताकि इस अनादि कालीन जन्म-मरण पर ही विजय प्राप्त कर लू। ऐसे विचारो से जो वैराग्य होता है- वह जन्म मरण-भय, वैराग्य कहलाता है। ___महारभ, परिग्रह, हिंसा, मद्यमास के सेवन और काम, क्रोध, लोभ आदि वृत्तियो के वश होकर शास्त्रो के विपरीत पदार्थों का अन्याय अनुचित पूर्वक भोग-परिभोग करने से 'रत्न, शकंरा, वालुका, पक धूम, तम और तमतमाप्रभा आदि नरको की प्राप्ति होती है। वहाँ अनेक भयानक कष्ट उठाने पड़ेंगे । यहाँ का विषय सुख तो क्षणिक है परन्तु इसके परिणाम मे प्राप्त होने वाली नारकीय असह्य पीडा अनन्तगुणी भयावनी, दुखकारी, त्रास देनेवाली और पल्योपम, सागरोपम तक रहने वाली
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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