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________________ द्वितीय खण्ड अभिनन्दन शुभकामनाए वन्दनाञ्जलिया | १०५ आचार्य क्षितिमोहनसेन शास्त्री (शान्तिनिकेतन) प्रदत्त अभिनन्दन-पत्र बगाल और जनधर्म ___समार में अन्य सभी देशो मे धर्म को लेकर मार-काट सघर्प और युद्ध हुए हैं । सभी यह प्रयत्न कर रहे हैं कि अपने धर्म को स्थापित करके अन्य धर्म को लुप्त कर दिया जाय, इसलिये यूरोप मे कई शताब्दियो तक इसाईयो और मुसलमानो के बीच धर्म युद्ध (क्रुसेड) होते रहे है। वस्तुत इम रक्तपात का नाम ही क्रुसेड है। भारतवर्ष मे अनेक धर्म मत फूलते-फलते है, किन्तु एक ने दूसरे को रक्त के स्रोत मे डुबाने का प्रयत्न नहीं किया । हमने अपने और दूसरों के सम्मिलित मगल को सत्य माना है। जिसे अग्रेजी मे "लिव एण्ड लेट लिव" कहते है । धर्म को लेकर हमने विचार विनिमय किया है, तर्क-वितर्क किया है किन्तु रक्तपात नही किया है। कारण प्रेम और मंत्री ही हमारे धर्म का प्राण है । उग्र धर्मान्धता या कट्टरता इम देश के लिये विरल है। ___भारतवर्ष में बहुत प्राचीन काल से धर्म की दो धाराएं वहती आई है एक वैदिक और दूसरी अवैदिक । वैदिक धर्म की शिक्षा यज्ञ की वेदी के चारो ओर दी जाती थी। अवैदिक धर्म की शिक्षा के स्थान थे तीर्थ । इसलिये अवैदिक धर्म की धारा को तैथिक धारा कहा जाता है। ___भारतवर्ष के उत्तर पूर्व प्रदेशो अर्थात् अग, वग, कलिंग, मगध, काकट (कलिंग) आदि मे वैदिक धर्म का प्रभाव कम तथा तैर्थिक प्रभाव अधिक था। फलत श्रुति, स्मृति आदि शास्त्रो मे यह प्रदेश निन्दा के पात्र के रूप मे उल्लिखित था । इसी प्रकार इस प्रदेश मे तीर्थ यात्रा न करने से प्रायश्चित करना पडता था। श्रुति और स्मृति के शासन से बाहर पड जाने कारण इम पूर्वी अचल मे प्रेम, मैत्री और स्वाधीन चिन्तन के लिये वहृत अवकाश प्राप्त हो गया था। इसी देश मे महावीर, बुद्ध आजीवक धर्म गुरु इत्यादि अनेक महापुरुपो ने जन्म लिया और इसी प्रदेश मे जैन, बुद्ध प्रभृति अनेक महान् धर्मों का उदय तथा विकास हुआ । जैन और वौद्ध धर्म यद्यपि मगध देश मे ही उत्पन्न हुए तथापि इनका प्रचार और विलक्षण प्रसार वग देश मे ही हुआ। इस दृष्टि से वगाल और मगध एक ही स्थल पर अभिपिक्त माने जा सकते हैं। वगाल में कभी वौद्ध धर्म की वाढ आई थी, किन्तु उससे पूर्व यहाँ जैन धर्म का ही विशेप प्रमार था । हमारे प्राचीन धर्म के जो निदर्शन हमे मिलते हैं वे सभी जन है । इमके वाद आया वौद्ध युग । वैदिक धर्म के पुनरुत्थान की लहरें भी यहाँ आकर टकराई किन्तु इस मतवाद मे कट्टर कुमारिल भट्ट को स्थान नहीं मिला। इस प्रदेश में वैदिक मत के अन्तर्गत प्रभाकर को ही प्रधानता मिली और प्रभाकर थे स्वाधीन विचार धारा के पोपक तथा समर्थक । जैनो के तीर्थंकरो के पश्चात् चार श्रुतकेवली आये । इनमे चौथे श्रुत केवली थे भद्रवाहु तीर्थकरो ने धर्म का उपदेश तो दिया किन्तु उसे लिपिवद्ध नही किया । श्रुतकेवली महानुभावो ने इन सव उपदेशो का संग्रह करके उन्हे एक व्यवस्थित रूप दिया। उनमे से प्रथम तीन की कोई रचना नही मिलती। चतुर्थ श्रुतकेवली भद्रवाहु के द्वारा रचित अनेक शास्त्र मिलते है । उनके दशवकालिक सूत्र इत्यादि अनेक ग्रन्थ मिलते है जो जनो के प्राचीनतम शास्त्र के रूप में सम्मानित हैं । १४
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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