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२२८ | मुनिधी प्रताप अभिनन्दन ग्रन्य
मालवा-राजस्थान व पजाव प्रान्त के कई भागो मे आप का परिभ्रमण हुआ। आप के तल-म्पर्शी-ज्ञान-गरिमा की महक सुदूर तक फैली हुई थी। कई भावुक जन यदा-कदा सेवा मे आ-आकर शका-नमाधान पाया ही करते थे । श्रमण सघीय उपाध्याय श्री हस्तीमल जी म० सा० भी आप की सेवा मे रहकर शास्त्रीय अध्ययन कर चुके है ।
इस प्रकार आप जहाँ तक आचार्य पद को सुशोभित करते रहे, वहाँ तक चतुर्विध सघ की चौमुखी उन्नति होती रही । सब मे नई जागृति आई और नई चेतना ने अगडाई ली। स० १९६० अजमेर वा बुहृद् माधु-सम्मेलन-सम्पन्न कर आचार्य प्रवर वर्षावास व्यतीत करने हेतु व्यावर नगर को धन्य बनाया। नह्मा शरीर मे रोग ने आतक खडा कर दिया । तत्काल आसपास के अनेक वरिष्ठ सत सेवा मे पधार गये । अन्ततोगत्वा स० १६६० अपाढ विदी १२ सोमवार के दिन आप स्वर्गवासी हुए।
___आप के रिक्त पाट पर चारित्र-चूडामणि-त्यागी-तपोधनी पूज्य प्रवर श्री खूबचन्द जी म० सा० को आमीन किये गये।
आचार्य प्रवर श्री खूबचन्द जी म० सा० वि० स० १६३० कार्तिक शुक्ला अष्टमी गुरुवार के दिन निम्बाहेडा (चित्तोडगढ) के निवासी श्रीमान् टेकचन्द जी की धर्म पत्नी गेन्दी वाई की कुक्षी से आप का जन्म हुआ था। शैशव काल सुखमय वोता, विद्याध्ययन हुआ और हो ही रहा था कि - पारिवारिक सदस्यो ने अति शीघ्रता कर स० १९४६ मार्ग शीपमुक्ला १५ के दिन विवाह भी कर दिया। बालक खूबचन्द शर्म की वजह से न हाँ ही कर मरे । समयानुसार वास्तविक वातो का ज्यो-२ जान हुआ, त्यो-२ खवचन्द अपने जीवन को धार्मिक क्रिया-काण्ड-अनुप्ठानो से पूरित करने लगे । और उसी प्रकार सामारिक क्रिया कलापो से भी दूर रहने लगे -जैसा कि
वर्षों तक कनक रहे जल मे, पर फायो कभी नहीं आती है।
___ यो शुद्धात्म जीव रहे विश्व मे, नहीं मलिनता छाती है ।
वम विवाह पे छ वर्ष पश्चात् अर्थात् १६५२ आपाढ शुक्ला ३ की शुभवेला मे वादीमानमर्दक गुरु प्रवर श्री नन्दलाल जी म० मा० के नेश्राय मे उदयपुर की रग स्थली मे आप दीक्षित हुए।
दीक्षा के पश्चात् गुरु भगवत श्री नन्दलाल जी म० सा० स्वय ने आप को शास्त्रीय तलस्पर्शी अध्ययन करवाया, अपना निजी अनुभव और भी अनेकानेक उपयोगी सिखावनो से आप को होनहार बनाया। फलस्वरूप आप का जीवन दिनो दिन महानता व विनय गुण से महक उठा । कई वार गुरु प्रवर श्री नन्दलाल जी म० सा० अन्य मुमुक्षुओ के समक्ष फरमाया भी करते थे कि-श्री उत्तगव्ययन भूले प्रथमाचाय के अनुरूप खूबचन्द जी मुनि का जीवन विनय गुण गौरव से योत-प्रोत है । यह कोई दोक्ति नहीं है । क्योकि-आप द्वारा रचित, भजन, लावणियो मे नापने अपना नाम नर्वथा गोपनीय रखा है । और गुरु भगवत के नाम की ही मुहर लगाई है जैसा कि-"महा मुनिनन्दलाल तणा मिप्य' यह विगेपता नापजे नत्रीमृत जीवन की ओर नकेत कर नही है।
आपत जीवन धाग-वैनन्य से लबालब परिपूर्ण सम्पूर्ण था। व्यायान वाणी मे वैराग्य ग्सप्रधान था । बर जति मर व गायन जना सागोपाग पर मार्कपक थी । अतएव उपदेशामृत पान हेतु इनर जन भी उमट मह के आया करते थे । अनर कारक वाणी प्रभावेण मई मुमुक्षु आपके नेप्राय मे अग्नि हा थे । वर्तमान पार मे म्पविर पद विभूपित ज्योतिर्धर प० रत्न श्री पन्नूरचन्द जी म०