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________________ तृतीय खण्ड प्रवचन पखुडिया कर्मप्रवान विश्व करि राखा | १८३ रहता है । तज्जनित आय-व्यय के रूप मे शुभाशुभ कर्मदलिक अभिवृद्धि पाता है । यह कर्म अम्वार आत्मा से सम्बन्धित रहता है न कि योगाश्रित । बस, यहाँ से ही राग-द्वप की जड पल्लवित-प्रसारित होती है। प्रिय वस्तु की प्राप्ति से राग और अप्रिय वस्तु की प्राप्ति से द्वेप का उद्भव होता है । और राग-द्वेप ही तो कर्म के वीज माने गये हैं-यया रागो य दोसो वि य कम्मवीय, कम्म च मोहप्पभव वति । कम्म च जाई मरणस्स मूल, दुक्ख च जाई मरण वयति ।। -उत्तरा० अ० ३२७ राग और द्वेप ये दोनो कर्म के बीज है । कर्म मोह से उत्पन्न होते हैं । कर्म ही जन्म-मरण का मूल है और जन्म-मरण ही दुख है। 'सकवायत्वाज्जीव कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्ध ॥" -तत्त्वार्थसूत्र ८।२-३ सूत्र इस प्रकार विभाव दशा के अन्तर्गत कवायी जीवात्मा कर्म के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करता है । वही बन्ध कहलाता है । तेल के चिकने घडे पर जैसे धूल चिपक कर जम जाती है वैसे ही राग-द्वेप रूप चिकनाहट से कर्म भी आत्मा के साथ ओत-प्रोत हो जाते हैं । जब कर्म पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किये जाने पर कर्म रूपी परिणाम को प्राप्त होते है। उसी समय उममे चार मशो का निर्माण होता है । वे अश ही वध के प्रकार हैं । जैसा कि-जव वकरीया गाय-भैंस द्वारा खाया हुआ घास दूध रूप मे परिणत होता है, तव उममे मधुरता का स्वभाव निमित होता है । वह स्वभाव अमुक समय तक उसी रूप मे टिक सके ऐसी काल-मर्यादा उसमे निर्मित होती है। मधुरता मे तीव्रता-मदता आदि विशेषताएँ भी होती है। और इस दूध का पौद्गलिक परिणाम भी साथ ही बनता है। इसी प्रकार जीव द्वारा ग्रहण किये पुद्गलो मे भी चार अशो का निर्माण होता है। प्रकृतिस्थिति अनुभाव और प्रदेश । कर्मपुद्गलो मे जो ज्ञान को, दर्शन को अथवा सुख-दुख देने आदि का स्त्रमाव बनता है स्वभाव बनने के साथ ही उममे अमुक समय तक च्युत न होने की मर्यादा हो काल मर्यादा है । वही स्थिति वध है । स्वभाव निर्माण के साथ ही उसमे तीव्रता-मदता आदि रूप मे फलानुभाव कराने वाली विशेषताएं बंधती है। ऐसी विशेपता ही अनुभाव वध है । ग्रहण किये जाने पर भिन्नभिन्न स्वभाव में परिणत होनेवाली कर्म पुद्गल राशि स्वभावानुसार अमुक-अमुक परिणाम बॅट जाती है। यह प्रदेश बध है । प्रकृति और प्रदेश वध योगाश्रित और स्थिति व अनुभाव कपायाश्रित माने गये हैं। यदि तीन योगो मे से किसी योग द्वारा कर्म नहीं होता हो तो फिर मुक्तात्मा कर्मों का बन्धन क्यों नहीं करती ? अतएव यही सिद्ध होता है कि वहाँ कर्म करने का जरिया अर्थात् योग आदि काय कारण भाव का अभाव है। इसलिये मुक्तात्मा अकर्मी और समारी आत्मा मकर्मी मानी गई है। मुफ्त आत्मा नवीन कर्मों का बन्धन क्यो नही करती ? क्योंकि उसके पास पूर्व कर्मों का अर्यात् तीनो योगो का सद्भाव नहीं है । वहाँ प्रेरक का ही अभाव है। और प्रेरक के विना कारखाना एव म पुर्जे बेकार-क्रिया गन्य पडे रहते हैं । अत क्रिया के विना कर्म नहीं और कर्म के विना नवीन बन्धन नही। इस प्रकार आत्मा और कर्मों का रास्ता अनादि अनन्त सिद्ध है। जहां तक कोई भी आत्मा सयगी अवस्था युक्त
SR No.010734
Book TitlePratapmuni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshmuni
PublisherKesar Kastur Swadhyaya Samiti
Publication Year1973
Total Pages284
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size11 MB
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